250 साल बाद बावड़ी का पुनरुद्धार

18 Sep 2016
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आज भी जहाँ का समाज पानी के लिये उठ खड़ा होता है, वहाँ कभी किसी को पानी की किल्लत नहीं झेलनी पड़ती। पानी की चिन्ता करने वाले समाज को हमेशा ही पानीदार होने का वरदान मिलता है। ऐसा हम हजारों उदाहरण में देख-समझ चुके हैं। अब लोग भी इसे समझ रहे हैं। बीते पाँच सालों में ऐसे प्रयासों में बढ़ोत्तरी हुई है। गर्मियों के दिनों में बूँद-बूँद पानी को मोहताज समाज के सामने अब पानी की चिन्ता करने और उसके लिये सामुदायिक प्रयास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

हमारे समाज में सैकड़ों सालों से पानी बचाने और उसे सहेजने के लिये जल संरचनाएँ बनाने का चलन है। जगह-जगह उल्लेख मिलता है कि तत्कालीन राजा-रानियों और बादशाहों ने अपनी प्रजा (जनता) की भलाई के साथ पानी को सहेजने और उसके व्यवस्थित पर्यावरण हितैषी तौर-तरीकों से, जिनमें कुएँ-बावड़ियाँ खुदवाने से लेकर तालाब बनवाने, नदियों के घाट बनवाने, प्यासों के लिये प्याऊ और भूखों के लिये अन्नक्षेत्र खोलने जैसे कदमों के साथ ही कहीं-कहीं छोटे बाँध बनाकर सिंचाई या लोगों के पीने के पानी मुहैया कराने के प्रमाण भी मिलते हैं।

पर यह भी सच है कि आज भी जहाँ का समाज पानी के लिये उठ खड़ा होता है, वहाँ कभी किसी को पानी की किल्लत नहीं झेलनी पड़ती। पानी की चिन्ता करने वाले समाज को हमेशा ही पानीदार होने का वरदान मिलता है। ऐसा हम हजारों उदाहरण में देख-समझ चुके हैं। अब लोग भी इसे समझ रहे हैं।

बीते पाँच सालों में ऐसे प्रयासों में बढ़ोत्तरी हुई है। गर्मियों के दिनों में बूँद-बूँद पानी को मोहताज समाज के सामने अब पानी की चिन्ता करने और उसके लिये सामुदायिक प्रयास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

इसी बात को समझा-गुना मध्य प्रदेश में महानगर इन्दौर के समीप महू तहसील के करीब 13 हजार की आबादी वाले सिमरोल गाँव के लोगों ने और उन्होंने इस बार पानी बचाने की तमाम तकनीक को न केवल समझा, बल्कि इनमें से कई पर अमल भी किया। इससे इस बार की बारिश से गाँव एक बार फिर पानीदार बन गया है। ग्रामीण बड़े गर्व से बताते हैं कि अब उन्हें गर्मियों में भी पानी के संकट से दो-चार नहीं होना पड़ेगा। यह गाँव भौगोलिक दृष्टि से भी महत्त्व का है। यह मालवा और निमाड़ की सीमारेखा पर स्थित है।

मध्य प्रदेश के इन्दौर में पहली बार किसी महिला ने सन 1754-1795 राजकाज सम्भाला। पहली भारतीय शासिका के रूप में उस दौर में अपने पति की मौत के बाद अहिल्याबाई होलकर ने सती होने की जगह अपने पति की रियासत को बखूबी सम्भाला। तब पति की मौत के बाद महिलाओं को सती होने पर मजबूर किया जाता था, लेकिन उन्होंने रुढ़ियों को तोड़ते हुए राज काज को प्राथमिकता दी। उन्होंने इतना अच्छा राज्य काम सम्भाला कि आज भी उन्हें लोग याद करते हैं। ढाई सौ साल बाद आज भी लोग उन्हें देवी की तरह पूजते हैं। इन्दौर का हवाई अड्डा उन्हीं के नाम पर है।

अहिल्याबाई ने इन्दौर से करीब 20 किमी दूर छोटे से गाँव सिमरोल में भी पानी के लिये एक सुन्दर बावड़ी का निर्माण सन 1765 में करवाया था। तब से लगातार यह बावड़ी गाँव के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराती रही। लेकिन 30-35 साल पहले से अब तक यह उपेक्षा का शिकार रही। लोगों ने इसे भुला दिया।

समाज अपने पानी की चिन्ता खुद करने की जगह सरकारों पर आश्रित होता चला गया। गाँव में पंचायत ने घर-घर पानी पहुँचाने की व्यवस्था तो कर दी, पर पानी की कमी होने लगी। खेत-खेत गहरे-से-गहरे नलकूप होने से और तालाबों के सूखने से गर्मियों के दिनों में पानी पाताल में जा पहुँचता। लोग परेशान, करते भी तो क्या...

चौपालों पर लम्बी-लम्बी बात होती पर कुछ तय नहीं हो पा रहा था। फिर एक दिन सबने तय कर लिया कि अब वे गाँव में पानी को बचाकर ही रहेंगे। गाँव भर ने मेहनत शुरू की। पंचायत ने सूची बनाई कि पहले क्या काम होंगे और उसके बाद क्या।

गाँव के लोगों ने बीते साल जनभागीदारी से अहिल्याबाई होलकर के जमाने की ढाई सौ साल पुरानी अपनी विरासत बावड़ी को साफ-सुथरा बनाया। बावड़ी गाद और कचरे में डूबती जा रही थी पर लोगों ने पंचायत की मदद से इसका जीर्णोंद्धार किया और अब ये बरसात के पानी से लबालब भरी है। इस साल गर्मियों में यह गाँव को पहले की तरह पानी उपलब्ध करा सकेगी। गाँव वालों ने इसके पास ही एक टंकी भी बनाई है, जिससे गाँव के करीब 600 परिवारों को हर दिन पानी दिया जा रहा है।

इसके बाद लोगों ने शुरू किया गाँव के पास दीनदयाल सरोवर के जीर्णोंद्धार का काम। इसको गहराकर जल भराव क्षेत्र को बढ़ाया गया है। इसमें जलकुम्भी और गाद को हटाने के लिये लोगों को खासी मशक्कत करना पड़ी। लेकिन बारिश के पानी से भर जाने के बाद इसका फायदा गाँव के लोगों को तो मिल ही रहा है, इससे आसपास के जलस्रोतों का जलस्तर भी बढ़ गया है। दीनदयाल सरोवर भी बीते पाँच सालों से उपेक्षित पड़ा हुआ था। अब यहाँ के लोगों ने पानी का मोल समझ लिया है।

पानीदार होने से गाँव को और भी कई फायदे हुए हैं। पानी की बात पर एक हुए समाज में नए और अनूठे विचार आते हैं। सिमरोल के लोगों ने भी गाँव में कचरा फेंकने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। कचरा फेंकने पर जुर्माना देना पड़ता है। यहाँ ट्रैक्टर से घर-घर जाकर कचरा इकट्ठा किया जाता है और यहाँ से दो किमी दूर एक नियत स्थान पर उसका प्रबन्धन किया जाता है। हर मंगलवार गाँव के लोग इकट्ठे होकर जन-सुनवाई करते हैं। यहाँ सरपंच और जनपद प्रतिनिधि भी मौजूद रहकर समस्याओं का निदान करते हैं।

अहिल्याबाई की बावड़ीसरपंच दिनेश सिलवडिया बताते हैं कि पंचायत को इंटरनेट से जोड़कर पूरे गाँव को वाई-फाई कर दिया गया है। यहाँ गाँव वालों ने शौचालय का सस्ता मॉडल विकसित किया है। आमतौर पर दस-बारह हजार में बनने वाले शौचालय इस तकनीक से तीन-चार हजार रुपए में बन जाते हैं। इस मॉडल को देखने पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सहित छह राज्यों के अधिकारी आ चुके हैं। वहीं आईआईएम के विद्यार्थियों ने भी इसे अपने अध्ययन में शामिल किया है।

सिलवडिया बताते हैं कि यह मध्य प्रदेश की पहली ऐसी पंचायत है, जो अपना कर खुद ग्रामीणों से इकट्ठा करती है। अब तक आठ लाख से ज्यादा रुपए एकत्र किये गए हैं।

बुजुर्ग भागीरथ पटेल श्रद्धाभाव से बताते हैं कि अहिल्याबाई ने रियासत में पानी को लेकर हजारों काम किये और पूरी रियासत में उन्होंने प्रयास किया कि कोई भी गाँव प्यासा नहीं रह सके। पानी के परम्परागत जलस्रोतों के अलावा उन्होंने लोगों को पानी के सीमित उपयोग करने और जलस्रोतों के सम्मान की बात भी कही। उन्हें नदियों से बहुत लगाव था। क्षिप्रा नदी के लिये भी उन्होंने अपनी रियासत महिदपुर में विशेष प्रबन्ध किये थे और खासकर नर्मदा तो जैसे उनके प्राणों में बसती थी।

यहाँ तक कि नर्मदा के नित्य प्रति दर्शन और स्नान के कारण अपनी राजधानी इन्दौर से बदलकर नर्मदा के तट पर बसे महेश्वर बना ली थी। यहाँ आज भी नर्मदा नदी का राजसी वैभव देखते ही बनता है। ढाई सौ साल पुराने दूर-दूर तक फैले घाटों को देखना और उसी से जुड़ा अद्वितीय स्थापत्य का नमूना महेश्वर का किला और अहिल्याबाई का निवास देखने योग्य हैं, जहाँ हर साल हजारों सैलानी आते हैं। उनकी रियासत में उनके जमाने के बने कई जलस्रोतों को लोगों ने अब भी उपयोग के लायक बना रखा है।

आज का समाज भले ही पानी सहेजने के इन स्थायी संसाधनों की जगह लाखों-करोड़ों की हवाई योजनाएँ बनाता रहता है, जो कालान्तर में समाज के लिये परेशानी का ही सबब बनते हैं। ज्यादातर योजनाएँ हजारों लोगों के विस्थापन और अंचल उजड़े जाने के बाद भी यथोचित फायदा नहीं कर पाती है। लेकिन ढाई सौ साल पहले अंचल के समाज के हित की चिन्ता करते हुए तत्कालीन शासकों ने सीमित संसाधनों के बावजूद जो जल संरचनाएँ बनाई, वे आज भी मिसाल है और जीवित किवदन्ती भी।

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