आबादी के स्वरूप में बदलाव और चुनौतियाँ


विश्व जनसंख्या दिवस - 11 जुलाई 2016 पर विशेष


आज देश में हर साल खेती की जमीन औसतन 30 हजार हेक्टेयर की दर से घटती चली जा रही है। यह स्थिति चिन्तनीय है। खेती योग्य जमीन जो 2011 में 18.201 करोड़ हेक्टेयर थी, वह 2013 में घटकर 18.195 करोड़ हेक्टेयर रह गई है। 2016 में उसमें और कमी आई होगी। फिर जो कृषि योग्य बची जमीन है, उसकी सिंचाई की समस्या बहुत बड़ी है। आज कुल 45 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है। जाहिर है पानी की कमी है। विश्व बैंक चेता ही चुका है कि जल संकट के चलते देश की आर्थिक वृद्धि प्रभावित हो सकती है।

जनगणना के आधार पर यदि सरकार की मानें तो भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में आई स्थिरता को शुभ संकेत कहा जाएगा लेकिन यदि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की मानें तो आने वाले तीस सालों में देश की शहरी आबादी दोगुनी हो सकती है। उनके अनुसार विकसित देशों में आमतौर पर शहरीकरण का स्तर 60 प्रतिशत से अधिक है।

भारत को उस स्तर तक पहुँचने में वक्त लगेगा। दो से तीन दशक में देश के शहरीकरण का प्रतिशत 60 होना चाहिए, लेकिन इसके लिये 7 से 9 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि की जरूरत होगी। देश में शहरीकरण की प्रक्रिया में बढ़ोत्तरी होगी, क्योंकि मौजूदा दौर में 30-35 प्रतिशत आबादी शहरी हो चुकी है। यह एक बड़ा परिवर्तन है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में शहरीकरण की वृद्धि दर 31.16 प्रतिशत थी। इससे यह साफ हो जाता है कि देश में शहरीकरण की गति धीमी रही है। आजादी के बाद 1951 में हमारी शहरी आबादी सिर्फ 17 प्रतिशत थी। इस तरह अब तक देश में शहरीकरण दो प्रतिशत प्रति दशक की दर से बढ़ा है। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि तीस साल बाद देश में शहरी आबादी में 60 फीसदी से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हो सकती है।

महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी शहरीकरण को आज की सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं। आजादी के साढ़े छह दशक बाद शहरों की बुनियादी सुविधाओं के अभाव पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि यह गम्भीर समस्या है। भारत में स्वशासन की व्यवस्था बहुत पुरानी है।

इस चुनौती का सामना करने के लिये शहरों में बुनियादी सुविधाओं को और मजबूत बनाना होगा, सीवेज सिस्टम और ट्रीटमेंट सिस्टम को मजबूत करना होगा और स्थानीय निकाय के चुने हुए प्रतिनिधियों के साथ जनता को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी जाकर शहरीकरण की व्यवस्था बेहतर बनाई जा सकती है।

जाहिर सी बात है भले शहरीकरण की वृद्धि दर धीमी रही हो लेकिन शहरीकरण में वृद्धि तो हुई और इसके पीछे आबादी में वृद्धि और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों में बुनियादी सुविधाओं तथा रोजगार का अभाव वह अहम कारण रहा जिसके चलते गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा।

यही अहम वजह है जिसके कारण दुनिया के अच्छे देशों की सूची में फिसड्डी हैं हम। ‘दि गुड कंट्री इंडेक्स-2015’ नामक सूची में शामिल दुनिया के 163 देशों में भारत को 70वें स्थान पर और स्वीडन को दुनिया का सबसे अच्छा देश करार दिया गया है। यह सर्वे किसी मुल्क में मिलने वाली मूलभूत सुविधाएँ, लोगों का जीवन स्तर, विज्ञान, तकनीक, संस्कृति, इंटरनेशनल पीस एंड सिक्योरिटी, वर्ल्ड आर्डर, प्लेनेट एंड क्लाइमेट, ऐश्वर्य, समानता, स्वास्थ्य आदि जैसे विषयों को ध्यान में रख किया गया था। इसके अलावा 163 देशों के विभिन्न क्षेत्रों में वैश्विक योगदान को भी परखा गया।

विडम्बना है कि इसमें कुल 35 मानकों के आधार पर दुनिया के सबसे अच्छे देशों की तैयार की गई टॉप टेन देशों की इस सूची में कोई भी एशियाई देश अपनी जगह नहीं बना पाया। जबकि एशियाई देशों में शीर्ष स्थान वाला जापान 19वें नम्बर पर, अमेरिका 21वें व चीन 27वें नम्बर पर है। स्वास्थ्य पर खर्च में भारत नेपाल से भी पिछड़ा है। स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी खर्च बेहद कम होने के कारण देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खस्ताहाल है।

स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी निवेश के मामले में भारत की स्थिति बदतर है। हमारे पड़ोसी देश भूटान, श्रीलंका और नेपाल में स्वास्थ्य सेवाओं में प्रति व्यक्ति खर्च हमसे ज्यादा है। उनका स्वास्थ्य सेवा पर खर्च क्रमशः 66 डालर, 45 और 17 डालर है जबकि भारत में केवल 16 डालर ही है।

सिर्फ म्यांमार और बांग्लादेश ही दक्षिण-पूर्व एशिया में ऐसे देश हैं जिनका स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति खर्च भारत से कम यानी प्रति व्यक्ति 11 और 4 डालर है। स्वास्थ्य मंत्रालय की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट-2015 की रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि यहाँ 11.5 हजार लोगों की सेहत का जिम्मा एक सरकारी डॉक्टर के जिम्मे है। जबकि देश में कुल मिलाकर 9.38 लाख डॉक्टर हैं। ये कहाँ हैं यह मंत्रालय को भी पता नहीं है। देश में 80-85 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर लोग खर्च खुद उठाते हैं। कई बार उन्हें इसके लिये अपने जेवर, घर और जमीन भी बेचनी पड़ती है। इस वजह से लोग गरीबी रेखा से नीचे जीने को मजबूर हैं।

यह आबादी में वृद्धि का ही नतीजा है कि आज देश में हर साल खेती की जमीन औसतन 30 हजार हेक्टेयर की दर से घटती चली जा रही है। यह स्थिति चिन्तनीय है। खेती योग्य जमीन जो 2011 में 18.201 करोड़ हेक्टेयर थी, वह 2013 में घटकर 18.195 करोड़ हेक्टेयर रह गई है। 2016 में उसमें और कमी आई होगी। फिर जो कृषि योग्य बची जमीन है, उसकी सिंचाई की समस्या बहुत बड़ी है। आज कुल 45 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है।

जाहिर है पानी की कमी है। विश्व बैंक चेता ही चुका है कि जल संकट के चलते देश की आर्थिक वृद्धि प्रभावित हो सकती है। लोगों का विस्थापन बढ़ सकता है। यह भारत समेत विश्व में संघर्ष की समस्याएँ खड़ी कर सकता है।

अन्तरराष्ट्रीय वित्त निकाय के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से जल संकट में बढ़ोत्तरी हो रही है। विश्व बैंक ने बीते दिनों ‘हाई एंड ड्राई क्लाइमेट चेंज, वॉटर एंड दि इकॉनामी’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट में कहा है कि बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती आय और शहरों के दिनोंदिन हो रहे विस्तार से पानी की माँग में भारी बढ़ोत्तरी होगी, जबकि आपूर्ति अनियमित और अनिश्चित होगी। भारत में पानी का उपयोग अधिक कुशलता और किफायत से किये जाने पर बल देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे भारत में औसत से कम बारिश होने से पानी की किल्लत तो बढ़ेगी ही, इसके साथ ही पानी की माँग में भी बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी। फिर खाद, बीज आदि की भी समस्या कम नहीं है। कुल 2.6 करोड़ हेक्टेयर जमीन ऐसी है जिसे खेती योग्य बनाया जा सकता है। 1.1 करोड़ जमीन ऐसी है जिस पर बीते 5 सालों से खेती ही नहीं हुई है।

वर्तमान में देश में प्रजनन दर 2.3 है। यदि हमें आबादी में बढ़ोत्तरी पर काबू पाना है तो इसे 2.1 पर लाना होगा। हाल-फिलहाल भारत में 54 फीसदी परिवारों में एक या दो बच्चे हैं। इन हालात में 2020 तक आबादी स्थिर होने की उम्मीद की जा रही है। जनगणना के आँकड़े सबूत हैं कि देश के आधे से अधिक राज्यों में प्रजनन दर 2.1 से भी कम है। हाँ उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, असम में प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर है। देश की अधिकांश आबादी वाले बिहार और उत्तर प्रदेश में यह तीन को भी पार कर गई है।

जाहिर है आबादी की बढ़ोत्तरी में इनका योगदान ज्यादा है। कुछ धार्मिक समूहों की बात दीगर है जो आबादी की बढ़ोत्तरी में बहुत आगे हैं। इसके पीछे उन समूहों की राजनीतिक रूप से ज्यादा ताकतवर होने की अदम्य लालसा है। इसके सिवाय कुछ नहीं। इस समय देश की आधी आबादी की उम्र 18 से 25 के करीब है। अनुमानतः 2020 में यह औसतन 23-29 के करीब होगी। इनके लिये रोजगार और शिक्षा की व्यवस्था उस समय सरकार के लिये टेड़ी खीर साबित होगा।

यदि ऐसा कर पाने में कामयाबी मिलती है तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। उस दशा में भारत समृद्ध देशों की पाँत में खड़ा होगा। 2050 में यही पीढ़ी वृद्धावस्था के दौर में पहुँचेगी। तब एक ओर बच्चे कम पैदा होंगे, नतीजन उत्पादक हाथों की तादाद कम होगी और बूढ़ों की तादाद ज्यादा होगी जिनकी देखभाल बेहद जरूरी होगी।

जाहिर है इसके लिये संसाधनों की आवश्यकता भी अधिक होगी जिनकी पूर्ति कर पाना नौजवान पीढ़ी के लिये आसान नहीं होगा। बहरहाल आबादी की स्थिरता के बावजूद चुनौतियाँ कम नहीं होंगी। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

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