अच्छे दिनों के लिए कितनी अच्छी कम बारिश

31 Aug 2014
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‘आइस बकेट चैलेंज’ की जगह ‘राइस बकेट चैलेंज’ - संयोग से भारतीयों के लिए चावल की महत्ता बताने वाली यह चुनौती मंजुलता कलानिधि ने ऐसे समय पेश की है, जब मॉनसून-कम वर्षा, तापमान- 40 डिग्री और धूप-अधिक तीखेपन की चुनौती पेश कर रही है।

किसी राज्य सरकार ने भले ही सूखा घोषित न किया हो; भले ही कुछ इलाके पहले सूखा और अब बाढ़ की चपेट में हों; कुल भारत के 55 प्रतिशत इलाके की खेती वर्षा आधारित होने के कारण कम वर्षा औसत का खरीफ उत्पादन पर असर तो पड़ेगा ही। खासकर कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व उड़ीसा में उत्पादन प्रभावित होने की संभावना अधिक है।

इन सभी प्रदेशों के काफी बड़े क्षेत्रफल की खेती, वर्षा आधारित ही है। अच्छे सिंचाई तंत्र के बावजूद चुनौती पंजाब-हरियाणा जैसे महत्वपूर्ण उत्पादक प्रदेशों में भी कम नहीं।

सिर्फ वर्षा औसत नहीं निर्धारक


यूं समग्र समझ यह है कि खरीफ फसलों की उपज की मात्रा, गुणवत्ता और उत्पादों की कीमत सिर्फ औसत वर्षा पर निर्भर नहीं करती। मॉनसून के आने-जाने के समय, वर्षा की आवृत्ति और तापमान कम महत्वपूर्ण नहीं।

आवृत्ति का मतलब है कि वर्षा के इन चार महीनों के दौरान बारिश कितनी बार आई। बीज, खाद, कीट और खेती के तौर-तरीके तथा परिस्थिति मुताबिक फसल चक्र में बदलाव भी उपज की मात्रा और गुणवत्ता तय करने में महत्वपूर्ण हैं।

वर्ष 2002, 2004 और 2009 में वर्षा सामान्य से क्रमशः 19, 13 और 23 प्रतिशत कम थी; जबकि कुल खरीफ उत्पादन में वर्षवार गिरावट क्रमशः 5.2,1.1 और 0.4 प्रतिशत रही। उर्द, मूंग, मोठ, मसूर, अरहर आदि दलहन फसलों में क्रमशः 25, 18 और 17 प्रतिशत कमी दर्ज की गई।

गन्ने में वर्ष 2002 और 2009 में क्रमशः 3 व 18 प्रतिशत की घटत और 2004 में एक प्रतिशत की बढ़़त का आंकड़ा है। 2002-03 में कम वर्षा के बावजूद एरेण्ड तेल बीज का उत्पादन 30 प्रतिशत बढ़ गया।

ये आंकड़े प्रमाण है कि यदि बोआई से लेकर फसल में दाना लगने, उसके बढ़ने और तैयार होने के दौरान थोड़ी-थोड़ी ही सही, फसल की जरूरत के मुताबिक अंतराल पर बारिश का क्रम जारी रहे, तो नुकसान कम होता है।

इसके विपरीत यदि वर्षा कम न हो, लेकिन चार महीने में होने वाली बारिश चार-छह दिनों में बरस जाए, तो तय मानिए कि इससे उपज कम होगी। फसल में फूल लगा हो और बारिश हो जाए, तो फूल झड़ जाता है और दाने कम लगते हैं।

धूप की भूमिका भी महत्वपूर्ण


एक पहलू यह है कि फसल को धूप तब चाहिए होती है, तब उसके दाने पूर्णतया विकसित हो चुके हों और पकने के लिए गर्माहट चाहिए। यदि फसल को इससे पूर्व तीखी धूप झेलनी पड़े, तो दाने कमजोर होंगे। उत्पादन गिरेगा ही। इस दृष्टि से देखें तो काली घटाओं से छाए रहने के इस भादों मास में आप देख रहे हैं कि तापमान 40 डिग्री पहुंच रहा है।

मॉनसून की आवक में 8 से 12 दिन की देरी के कारण किसान ने धान की रोपाई कई इलाकों में देर से की। अतः धान की फसल में फूल और दाने तो दूर, पौधा ही अभी विकसित नहीं हुआ है। नहर-नलकूप से चाहे जितनी सिंचाई कर दी जाए, पौध को अभी कुछ सप्ताह वायु में आर्द्रता की जरूरत है।

उत्पादन गिरेगा


इस वर्ष गर्मी के चलते प. बंगाल में जूट की फसल देर से बोई गई। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 18 जुलाई तक मात्र 50 प्रतिशत धान क्षेेत्र में रोपाई हुई। पंजाब सरकार ने अधिक पानी वाली धान फसल की जगह रुई जैसी कम पानी की फसल लगाने के लिए किसानों को 4000 रुपये प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी की योजना चलाई।

गत् वर्ष गन्ना मिलों द्वारा सालभर भुगतान न करने के कारण उत्तर प्रदेश जैसे बड़े उत्पादक राज्यों में किसानों ने इस बार कम गन्ना बोया। गत् वर्ष सोयाबीन की अच्छी कीमत मिलने के कारण इस बार सोयाबीन का रकबा बढ़ने की उम्मीद स्वाभविक है। किंतु सोयाबीन जून मध्य में बोई जाने वाली फसल है और अधिक पानी की मांग करने वाली भी।

तीखी धूप का यह क्रम यदि इसी तरह जारी रहा, तो उपज का गिरना तय है। उक्त विविध पहलू अकेले धान, सोयाबीन और गन्ने पर ही लागू नहीं होते, कम पानी की मांग वाली दलहन, तिलहन, ज्वार आदि फसलों पर भी इनका असर पड़ता है। बारिश और हरे चारे की कमी और बढ़ोतरी का दूध उत्पादन पर भी असर पड़ता है। सो, पड़ेगा।

मंहगाई पर कितना असर


जहां तक उत्पादन गिरने से खरीफ उत्पादों की कीमतें बढ़ने का सवाल है, अब इस बारे में बिना हर पहलू को तोले बगैर लगाया हर अनुमान झूठ हो सकता है। कौन अनुमान लगा सकता है कि लहसुन एक साल 200 रुपये किलो बिकेगा और उसके अगले साल दस गुना कम दाम यानी 20 रुपये किलो में।

दरअसल, बाजार के वैश्विक होने की वजह से अब कीमतें उत्पादन से ज्यादा मांग, उपलब्ध स्टॉक, स्टॉकिस्ट के एकाधिकार आयात, निर्यात और रुपये की बाजार में कीमत जैसे पहलुओं पर निर्भर करने लगी हैं।

फसल को धूप तब चाहिए होती है, तब उसके दाने पूर्णतया विकसित हो चुके हों और पकने के लिए गर्माहट चाहिए। यदि फसल को इससे पूर्व तीखी धूप झेलनी पड़े, तो दाने कमजोर होंगे। उत्पादन गिरेगा ही। इस दृष्टि से देखें तो काली घटाओं से छाए रहने के इस भादों मास में आप देख रहे हैं कि तापमान 40 डिग्री पहुंच रहा है। मॉनसून की आवक में 8 से 12 दिन की देरी के कारण किसान ने धान की रोपाई कई इलाकों में देर से की। अतः धान की फसल में फूल और दाने तो दूर, पौधा ही अभी विकसित नहीं हुआ है। यूं देखें तो आनुवांशिक रूप से उन्नत बीज के कारण भारत में रुई का उत्पादन साल-दर-साल बढ़ा है। लेकिन गुणवत्ता व अन्य कारणों के चलते मांग घटी है। जाहिर है कि कीमत बढ़ने की संभावना कम है। भारतीय एरेण्ड बीज की दुनिया में बहुत मांग है। दुनिया के कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत एरेण्ड भारत अकेला ही पैदा करता है।

अभी हमारे पास 12-13 लाख टन का स्टॉक है और घरेलु और कुल निर्यात मांग 15 लाख टन है। अतः एरेण्ड तेल के दामों में 50 से 52 रुपये प्रति किलो इजाफे की संभावना व्यक्त की गई है। इस वर्ष के अंत तक चीनी की कीमतें भी तीन से साढ़े तीन रुपए किलो बढ़ सकती हैं। सोयाबीन की जरूरत 3,42,906 टन है और स्टॉक 2,73,289 टन। मूंगफली का भाव हर साल बढ़ ही रहा है।

दुष्प्रभाव नियंत्रक कदम


कम वर्षा अगले वर्ष तक 8 प्रतिशत जीडीपी दर हासिल करने के मोदी सरकार के सपने में बाधक हो सकती है। अतः कम वर्षा का अनुमान होते ही मोदी सरकार ने सबसे पहले प्याज का निर्यात रोका। निर्यात को हतोत्साहित करने के लिए निर्यात की न्यूनतम दर दो गुना तक तय की। जून मध्य से ही 22 खाद्य वस्तुओं की कालाबाजारी रोकने के लिए निगरानी तेज कर दी।

कम वर्षा प्रभावित क्षेत्रों में डीजल पर सब्सिडी जारी की। उर्वरक व सरकारी बीज पर छूट का प्रावधान किया। कई राज्य सरकारों ने भी ऐसे क्षेत्रों में नहरों में पानी की आवक बनाए रखने की घोषणा की। भूजल आधारित सिंचाई क्षेत्रों में पर्याप्त बिजली की उपलब्धता मुहैया कराने की घोषणा भी कई हुईं।

क्रय शक्ति, निर्यात व बिजली उत्पादन-मांग होंगे प्रभावित


यूं सूखे की आहट सुनकर मोदी सरकार द्वारा उठाये उक्त कदमों को ध्यान में रखें तो खुश हो सकते हैं कि कुछ चीजों की कीमतें आगे भी बेलगाम नहीं होंगी। टमाटर को छोड़ दें, तो कम बारिश के बावजूद फल तथा सब्जियों की कीमते पिछले कुछ महीने से लगभग कमोबेश एक ही भाव पर टिकी हुई हैं।

पेट्रोल की कीमतें कई बार घटी हैं; बावजूद इसके उत्पादन में कमी का असर किसान की क्रय क्षमता पर पड़ना तय है। औद्योगिक उत्पादन का ग्रामीण बाजार प्रभावित होगा। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करीब 102 करोड़ भारतीय इससे प्रभावित होंगे। उत्पादन घटेगा।

खरीफ उत्पादों का निर्यात घटेगा। सिंचाई के लिए बिजली की मांग बढ़ी है। अभी और बढ़ेगी। निस्संदेह, कम वर्षा का कुल जमा असर तो दिखेगा ही, किंतु इतना नहीं कि कोई डरकर घर छोड़ दे या फिर कोई कालाबाजारी करे। फिर भी ‘अल नीनो’ का जल्दी-जल्दी आना, आने वाले वर्षों के लिए चेतावनी तो है ही; चेतें।

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