अधिक लाभ के लिए गौ केंद्रित हो जैविक कृषि

‘दूध गंगा’ के अंतर्गत यदि गोबर व गोमूत्र प्रबंधन अनिवार्य कर दिया जाए, तो हमारे प्रदेश की कृषि में अनापेक्षित विकास होगा और गांव की आर्थिक दशा सुधरेगी तथा प्रदेश ‘जैविक खेती’ में देश का आदर्श राज्य होगा…

भारतीय संस्कृति गाय को मातृरूपा तो मानती ही रही है, परंतु प्राचीन भारतीय अर्थ-व्यवस्था मे ‘गोधन’ को श्रेष्ठतम धन भी माना गया है। श्रीकृष्ण का बालरूप गोपाल हमारी नस-नस में समाया है। आजीवन ही नहीं मृत्यु उपरांत भी गोदान का महत्त्व शास्त्रों में भरा पड़ा है। गउएं जहां रहती हैं, वहीं गांव है। हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था और गो केंद्रित कृषि कलापों का संक्षिप्त ब्यौरा ही इस लेख का मूल उद्देश्य है। एक सामान्य जाति की दोगली नस्ल की गाय प्रतिदिन लगभग 30 किलोग्राम गोबर देती है। इतना गोबर गैस प्लांट में डाल दिया जाए, तो तीन-चार सदस्यों के परिवार को इससे प्राप्त गैस से रसोई ईंधन का निर्वाह हो जाता है।

अब गोबर गैस प्लांट से निकलने वाले घोल को वर्मी कम्पोस्ट यूनिट में डाल दिया जाए और गोशाला से प्राप्त तथा अन्य कृषि उत्पाद अवशेषों को मिश्रित करते रहें तो साल भर में 36 फुट गुणा आठ फुट वर्मी कंपोस्ट यूनिट पूरी खाद बन जाता है, जिसका कुल भार 100 क्विंटल होगा। बाजार में वर्मी कम्पोस्ट खाद का भाव कम से कम छह रुपए किलोग्राम है। इस गणना के अनुरूप एक गाय से हमें वर्ष भर में 60 हजार रुपए की जैविक खाद प्राप्त हुई। यदि महीने का एक सिलेंडर भी बचा तो ये बचत 4500 रुपए वार्षिक हुई। माना कि उतरांचल की तर्ज पर पूरे हिमाचल में गोमूत्र क्रय हो पाना संभव नहीं, परंतु कृषि स्वास्थ्य में गोमूत्र की भूमिका अतुलनीय है। सीधी सी बात है कि हमारी कृषि के शत्रुकीट अपनी संतति के विकास व सुरक्षा की दृष्टि से वहीं अधिक प्रजनन करते हैं, जहां स्वाद, विषहीन, गंधहीन वनस्पति उपलब्ध हो।

यदि हम अपनी कृषि से स्वाद व गंध बिगाड़ दें, हल्का जैविक विष स्प्रे कर दें, तो ये शत्रु कीट पतंगे उस स्थान से इधर-उधर पलायन कर जाएंगे। लेखक ने ऐसा सफल प्रयोग किया है। यदि दस लीटर गोमूत्र में एक किलोग्राम बसूटी,एक किलोग्राम बणा, एक किलोग्राम नीम या दरेक या कड़वों की पतियां साग की तरह काट कर डाल दी जाएं और इस मिश्रण को दो-तीन मास तक सड़ने दिया जाए, तो 15 लीटर पानी में इस सड़े मिश्रण का एक किलोग्राम मिला छिड़काव हो तो न केवल कीट पतंगें पलायन करेंगे, बल्कि पौधे को गोमूत्र से प्राकृतिक यूरिया तथा अन्य खनिज भी उपलब्ध होंगे। यदि यह छिड़काव गर्मियों में साप्ताहिक सर्दियों में मासिक तौर पर नियमित होता रहे, तो आपने साल भर में 100 लीटर गोमूत्र का प्रयोग कर दस हजार रुपए की बचत कर ली और विषाक्त छिड़काव न कर आपने समाज के अमूल्य स्वास्थ्य की रक्षा कर ली। शेष गोमूत्र को सम भाग पानी मिला कर पौधों या पेड़ों को दिया जा सकता है।

इससे उत्पाद के गुण तथा मात्रा दोनों में भारी सकारात्मक परिवर्तन दिखेगा और किसी रासायनिक खाद की आवश्यकता अनुभव न होगी। इस प्रकार के नियोजित उपयोग के उपरांत गणना करें, तो आपकी गाय ने 60000+4500+20000=84500 वार्षिक परोक्ष आय आपको दे दी। गाय से मिलने वाले दूध तथा संतति संवर्द्धन की आय का लेखाजोखा आप पर छोड़ता हूं। हिमाचल प्रदेश उद्यानिकी तथा वानिकी विश्वविद्यालय नौणी (सोलन) का एंटोमॉलोजी विभाग डा. उषा चौहान के नेतृत्व में नवजबाई टाटा मेमोरियल ट्रस्ट से मिले एक प्रोजेक्ट के अंतर्गत गोमूत्र के कृषि उपयोग पर शोध कार्य कर रहा है तथा लेखक इस विभाग का रिसोर्स पर्सन होने के नाते विश्वविद्यालय से निरंतर संपर्क में है। ‘दूध गंगा’ के अंतर्गत यदि गोबर व गोमूत्र प्रबंधन अनिवार्य कर दिया जाए, तो हमारे प्रदेश की कृषि में अनापेक्षित विकास होगा और गांव की अर्थ दशा सुधरेगी तथा प्रदेश ‘जैविक खेती’ में देश का आदर्श राज्य होगा।

(कैलाश चंद भार्गव,लेखक अर्की, जिला सोलन से पुरस्कृत प्रगतिशील कृषक हैं)
 

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