आधुनिक सभ्यता का अभिशाप पर्यावरण प्रदूषण


आजकल पर्यावरण राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक चर्चित विषय है। बढ़ते हुए पर्यावरण प्रदूषण ने सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण पर आयोजित प्रथम अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में एकमत से पर्यावरण के संरक्षण को मानवता की मूल आवश्यकता स्वीकार किया गया था। गत वर्ष ब्राजील में हुए “पृथ्वी शिखर सम्मेलन” में मौसम परिवर्तन, वन-विनाश, टेक्नोलॉजी हस्तांतरण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई। आज जल, थल और वायु की बात तो दूर अंतरिक्ष को भी प्रदूषण मुक्त करने की बातें चल रही हैं। हालाँकि बातें ज्यादा हो रही हैं और काम कम लेकिन फिर भी इन चर्चाओं से आम आदमी में पर्यावरण के प्रति सजगता पैदा हो रही है।

पर्यावरण का तात्पर्य हमारे चारों ओर के उस वातावरण एवं परिवेश से है जिससे हम घिरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण वह सब कुछ है जो प्राणी को चारों ओर से घेरे हुए है और उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। पर्यावरण उन समस्त बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है जो प्राणी के जीवन और विकास पर प्रभाव डालते हैं। यदि हम मानव जीवन का ही उदाहरण लें तो हम इसे बहुत सी दशाओं और परिस्थितियों से घिरा हुआ पाते हैं। इनमें कुछ दशाएं प्राकृतिक हैं जैसे- वायु, जल, तापमान, मौसम, भूमि की बनावट, वन, खनिज पदार्थ आदि। कुछ दशाएं सामाजिक हैं, जैसे- सामाजिक ढाँचा, सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक समूह, सामाजिक मान्यताएं आदि। इसके अतिरिक्त अनेक सांस्कृतिक प्रतिमान, जैसे- धर्म, नैतिकता, भाषा, आदर्श, प्रथाएं, परम्पराएं, जन रीतियां, लोकाचार, आविष्कार आदि भी हमारे जीवन को पग-पग पर प्रभावित करते रहते हैं। इन सभी प्राकृतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक दशाओं की सम्पूर्णता ही ‘पर्यावरण’ है।

सम्पूर्ण पर्यावरण को हम मोटे रूप में दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- प्राकृतिक पर्यावरण तथा सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण प्राकृतिक पर्यावरण के असंतुलन तथा उसमें होने वाले प्रदूषण ने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया है।

प्रदूषण क्या है?


प्रकृति ने सदैव से मानव का साथ दिया है और उसके बोझ को भी वहन किया है। प्रकृति अपनी ओर से अपने सभी संघटकों का आनुपातिक संतुलन ठीक बनाए रखने का पूरा प्रयास करती है। लेकिन मानव ने प्रकृति को छोड़कर उसकी मूल संरचना और व्यवस्था में व्यवधान डाल दिया है और परिणामस्वरूप पर्यावरण की बिगड़ती दशा आज सम्पूर्ण विश्व के लिये चिन्ता का विषय बन गई है। मानव की विकासात्मक क्रियाएं प्रदूषण को जन्म दे रही हैं। वायु प्रदूषण, जल तथा स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं का अवांछनीय परिवर्तन है। प्रदूषण के फलस्वरूप प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा जो कि मानव जीवन के लिये हानिकारक सिद्ध हो रहा है। किसी भी कार्य की अति बुरी होती है। मानव द्वारा प्रकृति के सीमित संसाधनों का अतिदोहन इस पृथ्वी व इसके पर्यावरण को कुप्रभावित कर रहा है। यदि स्थिति में अधिक सुधार नहीं हुआ तो आधुनिक सभ्यता के इस अभिशाप अर्थात, प्रदूषण का जहर कब मानव जाति को मौत के मुँह में धकेल दे कुछ कहा नहीं जा सकता।

विभिन्न राष्ट्र अपने को अपनी-अपनी भौगोलिक सीमाओं में निहित प्राकृतिक संसाधनों का मालिक समझते हैं और उनका उपभोग जैसे चाहा वैसे करते रहे हैं। वे यह समझने में भूल करते रहे हैं कि पर्यावरण के बहुत से आयामों जैसे- वायु, समुद्र, तापक्रम आदि को कोई भी भौगोलिक सीमाओं में नहीं बांध सकता। 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में विभिन्न देशों से आए प्रतिनिधियों ने एक मत से यह स्वीकार किया था कि इस पृथ्वी के पर्यावरण को राष्ट्रों की भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता और एक देश में होने वाले अच्छे या बुरे क्रिया-कलापों का प्रभाव सारे विश्व पर पड़ता है। इसलिये प्रत्येक राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने पर्यावरण को स्वच्छ व स्वस्थ रखे। इसके बाद से राष्ट्रों के पर्यावरण के प्रति दृष्टिकोणों में परिवर्तन अवश्य हुआ है किन्तु विकास की इस दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के प्रयासों के सामने पर्यावरण संरक्षण के प्रयास बौने पड़ गए हैं।

प्रदूषण के रूप


पर्यावरण प्रदूषण कई रूपों में पाया जाता है। ये रूप हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मिट्टी प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा नाभिकीय प्रदूषण।

वायु प्रदूषण


वायुमंडल में हानिकारक तत्वों की मात्रा बढ़ना वायु प्रदूषण कहलाता है। भारत के सभी प्रमुख नगरों में वायु प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ रही है। ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम पदार्थों आदि के जलने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बड़ी मात्रा में पहुँच जाती है। पेड़-पौधों के लिये यह गैस आवश्यक है, वे कार्बन डाइऑक्साइड खींचकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। लेकिन वन-विनाश और शहरीकरण में वृद्धि से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड पर्याप्त मात्रा में बनी रहती है। इस गैस में धूप को गुजरने देने के गुण के कारण वायुमंडल के तापक्रम के बढ़ने की प्रवृत्ति रहती है। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार वायुमंडल में इस गैस की मात्रा यदि इसी प्रकार बढ़ती रही तो अगले तीस-चालीस वर्षों में धरती के तापक्रम में 5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है जिससे अनावश्यक भौगोलिक एवं मौसमी परिवर्तन हो सकते हैं।

ताप बिजलीघरों के संयंत्रों से बड़ी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड, कालिख, राख आदि निकलते हैं। भारत में 200 मेगावाट के एक साधारण बिजलीघर से 50 टन सल्फर डाइऑक्साइड और उससे भी अधिक कालिख वातावरण में फैल जाती है। भारत में स्थित 75 से भी अधिक ताप बिजलीघरों से बड़ी मात्रा में ये सभी हानिकारक पदार्थ निकलते रहते हैं। इससे न केवल कृषि उपजों को हानि पहुँचती है वरन आँख, नाक, गले व साँस की बीमारियाँ भी पैदा होती हैं। रासायनिक खाद के बड़े-बड़े कारखानों से बहुत अधिक मात्रा में वायु प्रदूषण तत्व निकलते हैं जिनमें अमोनिया, हाइड्रोकार्बन आदि प्रमुख हैं।

भारत में यातायात के बढ़ते हुए साधन वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं। वाहनों से निकलने वाले धुएँ में कार्बन मोने ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, लेड ऑक्साइड, हाइड्रो-कार्बन, अल्डीहाइड आदि होते हैं जो वायुमंडल को प्रदूषित कर देते हैं। इनसे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। भारत में वायु प्रदूषण का एक बड़ा भाग अब भी घरों में जलने वाले ईंधनों के कारण है। यद्यपि आजकल घरों में कुकिंग गैस का प्रचलन बढ़ रहा है किन्तु आज भी हमारे देश में गाँवों तथा शहरों में बहुत से घरों में ईंधन के रूप में कोयले, लकड़ी, मिट्टी का तेल, कन्डों आदि का प्रयोग किया जाता है जिससे वायुमंडल प्रदूषित होता है तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बीड़ी और सिगरेट से निकलने वाले धुएँ का शरीर पर यातायात के साधनों के धुएँ से भी अधिक हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

हमारे वातावरण में कुछ ऊँचाई पर ओजोन की एक परत है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। यह परत इन घातक किरणों को अवशोषित करके हमें हानिरहित धूप प्रदान करती है। वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययनों से यह पता चला है कि बहुत से उद्योगों से निकलने वाले रसायन विशेषकर क्लोरीकार्बन तथा नाभिकीय विस्फोटों से पैदा हुए नाइट्रोजन के ऑक्साइड ओजोन पट्टी में पहुँचकर रासायनिक प्रक्रिया से उसे क्षति पहुँचाते हैं। यदि इन रसायनों के निकलने की यही दर रही तो अगले 40-50 वर्षों में पृथ्वी की ओजोन पट्टी में कम से कम 25 से 30 प्रतिशत की क्षति हो सकती है जिससे धूप की गर्मी में वृद्धि हो सकती है तथा मानव एवं पशुओं के त्वचा कैंसर से पीड़ित होने की आशंका पैदा हो सकती है।

आधुनिक भौतिक एवं औद्योगिक संस्कृति हमें विनाश की तरफ ले जा रही है। जनसंख्या के दबाव तथा औद्योगीकरण से शहरों में पेड़ पौधे तेजी से कट रहे हैं। यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो हमें साँस लेने के लिये शुद्ध वायु मिलना भी दुर्लभ हो जाएगा।

जल-प्रदूषण- जल मानव तथा अन्य समस्त जीवधारियों की एक आधारभूत आवश्यकता है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त शुद्ध जल मानव के विभिन्न असंयत क्रियाकलापों, औद्योगीकरण आदि के कारण प्रदूषित होता जा रहा है। नदियों, जलाशयों आदि के जल में मृत जीव-जन्तु, मल-मूत्र, कूड़ा-करकट, नहाने व कपड़े धोने के साबुन युक्त जल, औद्योगिक अवशिष्ट पदार्थ, रासायनिक पदार्थ, कीट नाशक पदार्थ आदि मिलते रहते हैं। जिससे जल की शुद्धता का स्तर निरंतर घट रहा है। जल प्रदूषण का प्रभाव मानव जीवन पर विभिन्न प्रकार की बीमारियों के रूप में देखा जा सकता है। हैजा, टाइफाइड, पेचिस, पीलिया आदि रोगों के फैलने में जल-प्रदूषण एक प्रमुख कारण है। घरों के आस-पास गन्दे पानी के रुकने के फलस्वरूप रुके हुए प्रदूषित जल में मच्छर आदि जन्म लेते हैं जिससे मलेरिया रोग फैल जाता है।

मिट्टी प्रदूषण- मिट्टी में विभिन्न प्रकार के खनिज तत्व, लवण, कार्बनिक पदार्थ, गैसें एवं जल एक निश्चित अनुपात में पाए जाते हैं। मिट्टी में पौधे अपनी जड़े जमाकर स्थिर रहते हैं तथा पोषक तत्वों को ग्रहण करते हैं। मिट्टी में उपर्युक्त सभी पदार्थों की मात्रा एवं अनुपात में वभिन्न कारणों द्वारा हुआ परिवर्तन “मिट्टी प्रदूषण” कहलाता है। मिट्टी प्रदूषण के कारणों में भू-क्षरण, वन-विनाश, सिंचाई, गहन खेती, रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाओं का प्रयोग आदि प्रमुख हैं। भू-क्षरण से कृषि योग्य भूमि की ऊपरी सतह की मिट्टी क्षय होती रहती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। वन बाढ़ो तथा मिट्टी के काटाव को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। वन-विनाश के कारण भूमि के नंगा होने पर भारी वर्षा, बाढ़ तथा ओला वृष्टि से मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ सतह टूटकर ढीली हो जाती है और पानी के बहाव के साथ बह जाती है। सिंचाई की नहरें जहाँ कृषि उपज के लिये वरदान सिद्ध होती हैं वहीं इन नहरों के जल से कृषि भूमि में पानी का जमाव होने से मिट्टी के खारेपन की समस्या पैदा हो जाती है। गहन खेती सीमित कृषि योग्य भूमि पर अधिक फसल उत्पन्न करने की एक वैज्ञानिक विधि है। लेकिन गहन खेती के परिणामस्वरूप पौधे मिट्टी से महत्त्वपूर्ण पोषक एवं खनिज तत्वों को खींच लेते हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति एकदम कम हो जाती है। खेती में विभिन्न प्रकार की रासायनिक खादों के प्रयोग तथा कीटनाशक दवाओं के छिड़काव के फलस्वरूप भी मिट्टी प्रदूषण पैदा होता है जिसका हानिकारक प्रभाव कृषि उपजों तथा खाद्य पदार्थों पर पड़ता है।

ध्वनि प्रदूषण- ध्वनि प्रदूषण से आशय पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले उस असहनीय एवं अप्रिय शोरगुल से है जिसका स्वास्थ्य तथा जीवन-यापन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। आज ध्वनि प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख रूप बन गया है। यह तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण एवं औद्योगीकरण का परिणाम है। जनसंख्या वृद्धि तथा शहरीकरण के फलस्वरूप नगरों में दिनों-दिन बढ़ते सड़क यातायात के साधन जहाँ एक ओर वायुमंडल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं वहीं ये ध्वनि संयंत्रों का शोर आम व्यक्ति को प्रभावित करता है। हमारे देश में सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्सवों एवं कार्यक्रमों में लाउडस्पिकरों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। इन ध्वनि विस्तारक यंत्रों से निकलने वाली ध्वनि तरंगें ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न करती हैं। त्योहारों एवं विवाह के अवसर पर आतिशबाजी या पटाखों का प्रयोग भी ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न करता है। भारत में ध्वनि प्रदूषण विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा अधिक ही पाया जाता है।

नाभिकीय प्रदूषण- नाभिकीय प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण का सबसे अधिक हानिकारक रूप है। इसका भयानक दुष्प्रभाव न केवल स्थलीय व वायुमंडलीय पर्यावरण पर अपितु जलमंडलीय पर्यावरण पर भी पड़ता है। इसे रेडियोधर्मी प्रदूषण भी कहा जाता है। यह रेडियोधर्मी पदार्थों की क्रियाशीलता से उत्पन्न हुआ प्रदूषण है। रेडियोधर्मी पदार्थों के परमाणु नाभिकों से अल्फा, बीटा तथा गामा किरणें निकलती हैं। ये किरणें जीवधारियों में गुण सूत्र तथा जीव संबंधी परिवर्तन कर देती हैं। इससे उनके वास्तविक लक्षणों एवं संरचना में परिवर्तन हो जाता है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण प्रमुख रूप से वायुमंडल में परमाणु बमों के विस्फोट व परीक्षण, परमाणु बिजलीघरों के अवशिष्ट पदार्थों तथा परमाणु संयंत्रों में नाभिकीय रिसाव से उत्पन्न होता है। इस प्रकार के प्रदूषण का दुष्प्रभाव सर्वप्रथम जापान में अनुभव किया गया था जब द्वितीय विश्व युद्ध के समय सन 1945 में अमरीका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए। इसके कारण इन स्थानों पर न केवल हजारों लोगों की मृत्यु हुई वरन इन परमाणु बमों के रेडियोधर्मी प्रभाव के कारण लाखों व्यक्ति प्रभावित हुए। वर्तमान में परमाणु परीक्षण तथा परमाणु बिजलीघर रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रमुख स्रोत बने हुए हैं। अभी हाल में 6 अप्रैल, 1993 को रूस के साइबेरियाई नगर तोमस्क से 20 किलोमीटर दूर स्थित परमाणु संयंत्र में हुआ विस्फोट इससे पूर्व 26 अप्रैल 1986 को रूस के ही चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में हुई दुर्घटना के बाद की सबसे बड़ी दुर्घटना है जिसका रेडियोधर्मी प्रभाव 90 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैल गया।

पर्यावरण प्रदूषण रोकने हेतु प्रयास


पर्यावरण संरक्षण हेतु चहुँमुखी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। भारत सरकार द्वारा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय स्थापित किया गया है जिसका दायित्व पर्यावरण को स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में प्रयासों और कार्यक्रमों को शुरू करना है। सरकार ने पर्यावरणीय संरक्षण के लिये कुछ कार्य क्षेत्रों को अपनाया है जिनमें प्रमुख हैं-भूमि का समन्वित उपयोग, वन-विनाश को रोकना तथा भूमि को हरा भरा बनाना, नदियों में जल प्रदूषण का नियंत्रण, औद्योगिक क्षेत्रों में वायु व जल प्रदूषण का नियंत्रण, पर्यावरणीय शिक्षा व जागरूकता आदि। लेकिन पर्यावरण संरक्षण केवल इस मंत्रालय की ही जिम्मेदारी नहीं है वरन इसमें राष्ट्र के सभी जागरूक नागरिकों को यथाशक्ति योगदान करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह केवल अपने घर को ही स्वच्छ न रखे बल्कि उसे अपने आस-पास की सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए। इसी प्रकार सार्वजनिक जल प्राप्ति के स्थानों पर नहाकर, कपड़े धोकर या गन्दगी फैलाकर उन्हें खराब नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक स्थानों पर थूकने, कूड़ा-करकट फेंकने आदि से भी बचना चाहिए। हरे-भरे वृक्षों की कटाई को रोकना चाहिए तथा नए पौधे लगाने चाहिए। ध्वनि विस्तारक यंत्रों के अनावश्यक प्रयोग को बन्द करना चाहिए।

यातायात के साधनों से होने वाले प्रदूषण से बचने के लिये मोटर वाहन संबंधी नियमों व कानून को सख्ती से लागू किया जाए। अत्यधिक धुआँ छोड़ने वाले तथा तीव्र ध्वनि के हार्न वाले वाहनों पर प्रतिबंध लगाया जाए। वाहनों की समय-समय पर जाँच पड़ताल व सर्विसिंग कराई जाए। उद्योगों से होने वाले प्रदूषण पर रोकथाम के लिये औद्योगिक प्रदूषण के विरुद्ध कानून को सख्ती से लागू किया जाए। उद्योगों को आबादी से दूर स्थापित किया जाना चाहिए तथा उनकी चिमनियों को अधिक ऊँचा करके उनसे निकलने वाले धुएँ को साफ करने के लिये विशेष फिल्टर का प्रयोग करना चाहिए। उद्योगों से निकलने वाला प्रदूषित जल, जोकि नदियों व कृषि भूमि में पहुँचता है, पर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। सभी उद्योगों में जल उपचार संयंत्र स्थापित किए जाने चाहिए जिससे कि प्रदूषित जल को शुद्ध किया जा सके।

महानगरों नगरों तथा छोटे कस्बों में सुलभ शौचालयों तथा मल उपचार संयंत्रों की स्थापना की जाए। विद्युत शव दाह गृहों की स्थापना की जाए ताकि अधजले शव व कार्बनिक पदार्थ नदियों में प्रवाहित न हों। पर्यावरण संरक्षण के लिये न केवल औद्योगिक प्रदूषण बल्कि आणविक प्रदूषण को भी रोकना होगा।

पर्यावरणीय शिक्षा


पर्यावरण चेतना उत्पन्न करने के लिये पर्यावरणीय शिक्षा एक सशक्त माध्यम है। पर्यावरण शिक्षा के कार्यक्रम में बच्चों से लेकर वृद्धों तक सभी को सम्मिलित किया जाना चाहिए। यह संतोष का विषय है कि भारत में विद्यालयों के पाठ्यक्रम में पर्यावरणीय अध्ययन को सम्मिलित किया गया है। अहमदाबाद स्थित पर्यावरण शिक्षा केन्द्र ने स्कूली बच्चों को पर्यावरण संबंधी जानकारी प्रदान करने के लिये अध्यापकों के लिये अनेक अध्ययन सामग्रियाँ तैयार की हैं। अनेक विश्वविद्यालयों ने पर्यावरण विज्ञान के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रारंभ किए हैं। सरकार विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों, संगोष्ठियों, प्रदर्शिनियों, पारिस्थितिक़ीय विकास शिविरों आदि के माध्यम से समाज के सभी स्तरों पर पर्यावरण संबंधी शिक्षा व जागरूकता को प्रोत्साहित कर रही है। इसी क्रम में हर वर्ष एक राष्ट्रव्यापी “राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना अभियान” चलाया जा रहा है। इस अभियान में दो सौ से अधिक स्वयंसेवी संस्थाएं योगदान दे रही हैं। नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय पर्यावरण जागरूकता हेतु विशेष प्रयास कर रहा है।

पर्यावरणीय शिक्षा के कार्यक्रम को रोचक तथा प्रभावी बनाने के लिये निम्नलिखित सुझावों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए -

1. पर्यावरणीय शिक्षा को औपचारिक तथा गैर-औपचारिक दोनों प्रकार से दिया जाना चाहिए। औपचारिक पर्यावरण शिक्षा को विद्यालय के पाठ्यक्रम में पर्यावरण संबंधी ज्ञान के अंतर्गत सम्मिलित करते हुए दिया जाए। गैर-औपचारिक शिक्षा हेतु गैर सरकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों तथा जन माध्यमों का सहयोग लिया जाए।

2. पर्यावरण संबंधी पाठ्यक्रम कक्षा के स्तर के अनुरूप होना चाहिए।

3. छात्रों को पर्यावरण तथा उसके प्रदूषण का ज्ञान प्रदान करने के लिये दृश्य-श्रव्य साधनों का उपयोग किया जाना चाहिए।

4. विद्यालयों में पर्यावरण एवं प्रदूषण के संबंध में प्रदर्शिनियों एवं परिचर्चाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।

5. विद्यार्थियों को समय-समय पर प्रकृति भ्रमण पर ले जाया जाना चाहिए तथा उन्हें पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट तैयार करने का ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।

6. विद्यालयों में समय-समय पर “पर्यावरण सप्ताह” आयोजित किए जाने चाहिए जिनमें पौधे लगाना; फूलों का निरीक्षण; पशु पक्षियों, नदियों, झीलों, झरनों, पहाड़ो आदि के चित्रों का निर्माण; पर्यावरण संबंधी फिल्मों का प्रदर्शन एवं प्रदर्शिनियों का आयोजन आदि क्रियाओं एवं कार्यक्रमों का समावेश करके विद्यार्थियों में अपने पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत की जानी चाहिए।

7. पर्यावरणीय शिक्षा कार्यक्रम के समुचित विकास हेतु अध्यापकों, सामाजिक वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, नियोजकों, प्रशासकों तथा नीति निर्धारकों के लिये ओरिएन्टेशन पाठ्यक्रम चलाए जाने चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण हेतु किए जा रहे प्रयासों को व्यापक रूप दिया जाना चाहिए। यह अच्छा होगा कि हम समय रहते ही समझ जाएं कि मानवीय अस्तित्व एवं स्थायी विकास के लिये प्राकृतिक संपदा का विवेकपूर्ण एवं अपव्यय रहित उपयोग किए जाने की आवश्यकता है। हमें एक नयी सभ्यता का विकास करना होगा जिसमें भौतिक एवं सामाजिक उन्नति के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण की नैतिक चेतना भी विकसित हो। एक ऐसी नीति व्यवहार में लानी होगी जिसमें विकास तो हो विनाश न हो।

शिक्षक-प्रशिक्षण विभाग, श्री वार्ष्णेय महाविद्यालय, 13, बांकेलाल नगर, जी.टी रोड. अलीगढ़ (उ.प्र.)

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