आग लगने पर कुँआ खोदने का खेल

15 Sep 2015
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दिल्ली में देखें हो यहाँ पीने के पानी की किल्लत का रोना नया नहीं है। वैसे तो दुनिया में तमाम देशों की राजधानियाँ या बड़े शहर पानी को लेकर ही बने बिगड़े। लेकिन दिल्ली के साथ कई और बड़ी हास्यास्पद स्थितियाँ भी हैं। यहाँ पानी की कमी से ऐसी तमाम समस्याएँ जुड़ी हैं जो बड़ी आसानी से समझी जा सकती थी और आज भी समझी जा सकती है। मसलन दिल्ली को कितना पानी पाने का कानूनी हक है इस पर कभी गम्भीरता से सोचा ही नहीं गया।

दिल्ली में पीने के पानी का रट्टा फिर खड़ा हो गया है। यानी दिल्ली की प्यास बढ़ गई है। जबकि यमुना के पानी के हिस्से बाँट का मामला पहले से ही उलझा पड़ा है। गौरतलब है कि यह पचासियों बार तय हो चुका है कि दिल्ली यमुना के पानी में अपने अधिकार से कई गुना ज्यादा पानी इस्तेमाल कर रही है।

लेकिन हर तीन-चार साल बाद दिल्ली के जरूरत इतनी बढ़ जाती है कि उसे या तो उत्तर प्रदेश और हरियाणा के अफसरों, मंत्रियों या मुख्यमंत्रियों तक को बीच में डालकर तितरफा बातचीत करवानी पड़ती है या किसी मुख्यमंत्री को पटाकर मुनीमजी टाइप अन्दाज में पानी का बही खाता ठीक करवाना पड़ता है।

इस बार बखेड़ा सीना तान कर हक के नाम पर ही खड़ा करवाया जा रहा है। जल संसाधन मंत्री ने पूरी जुगाड़ कर ली है। केन्द्रीय मंत्री होने के नाते दिल्ली के हित देखना उनकी मजबूरी है।

उधर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और कई साल बाद ऐसा समीकरण बना है कि उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी के सरकार है वह केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी से कई मामलों में टक्कर लेने को मजबूर है।

खासतौर पर तब और ज्यादा झगड़े का अन्देशा है जब उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार किसान हितैषी छवि के लिये राज्य में पानी के इन्तजाम के लिये पूरा हिसाब-किताब समझने में लगी है।

इधर दिल्ली में देखें हो यहाँ पीने के पानी की किल्लत का रोना नया नहीं है। वैसे तो दुनिया में तमाम देशों की राजधानियाँ या बड़े शहर पानी को लेकर ही बने बिगड़े। लेकिन दिल्ली के साथ कई और बड़ी हास्यास्पद स्थितियाँ भी हैं। यहाँ पानी की कमी से ऐसी तमाम समस्याएँ जुड़ी हैं जो बड़ी आसानी से समझी जा सकती थी और आज भी समझी जा सकती है।

मसलन दिल्ली को कितना पानी पाने का कानूनी हक है इस पर कभी गम्भीरता से सोचा ही नहीं गया। हमेशा मानवीयता जैसे करुणामय तर्क का सहारा लेकर राज्यों के साथ बेईमानी की जाती रही और फौरी इन्तजाम, के जरिए दिल्ली की आबादी, घनत्व या स्लम को पनपाया जाता रहा।

इस बारे में अगर एक मोटा-सा आँकड़ा देखें तो दिल्ली के पास हर हिसाब से सिर्फ 150 क्यूसेक यानी करीब 7.5 करोड़ गैलन पानी इस्तेमाल करने का हक था। इसमें यमुना के पानी में उसका हिस्सा सिर्फ 110 क्यूसेक था।

इस हिसाब से दस से बारह लाख लोगों से ज्यादा दिल्ली में आकर बस ही नहीं सकते थे। पर राजधानी के विकास के नाम पर या दूसरी बेवकूफियाँ और बेईमानियाँ करते-करते आज पानी की जरूरत डेढ़ हजार क्यूसेक तक कर ली गई। फिलहाल रो-पीटकर करीब 1200 क्यूसेक पानी का जुगाड़ कर लिया गया है मगर इस जबरदस्ती जुगाड़ करने से इतने लफड़े पैदा हो रहे हैं कि उन्हें सुलझाने में सैंकड़ों पेंच और पड़ गए हैं।

कुछ लोगों को कुतूहल हो सकता है कि योजनाकारों ने या दिल्ली या केन्द्रीय नेताओं ने क्या-क्या जादू किये और दिल्ली के 110 क्यूसेक के कानूनी-ऐतिहासिक अधिकार के बढ़ाकर आज करीब 1000 क्यूसेक पानी पर कब्जा जैसे जमा लिया?

मिसाल के तौर पर एक जादू तो बड़ा ही दिलचस्प है। वह यह कि जब 110 क्यूसेक से ज्यादा पानी की जरूरत पड़ी तो यमुना के पानी में उतर प्रदेश और हरियाणा के हिस्से का पानी दिल्ली में ही पिया जाने लगा। और जब हालात का खुलासा हुआ तो नया फार्मूला लगाया कि 110 क्यूसेक पानी दिल्ली वाले इस्तेमाल जरूर करते हैं पर उसका आधा पानी नाले-नालियों-सीवर के जरिए फिर यमुना में ही जाता है।

इसके साथ है यह तर्क जोड़ा गया कि दिल्ली से नीचे बसे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इलाकों में यमुना का पानी सिंचाई के काम आता है लिहाजा दिल्ली से पैदा गन्दा पानी किसानों के खेतों के लिये ज्यादा उर्वरक है। और फिर राजनैतिक तौर पर भी पिछले 40 साल में ऐसे समीकरण रहे कि केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें रहीं। सो मुख्यमंत्री और केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री आपस में बैठकर तय करते रहे।

राज्यों के हिस्सों में कटौती होती रही। दिल्ली का हिस्सा बढ़ता रहा। बस बीच में एक बार हरियाणा में देवीलाल को गद्दी पर बैठकर अपने राज्य के साथ नाइंसाफी समझने का मौका मिला। उन्होंने राजधानी को पानी देने में थोड़ी बहुत नानुकर की कोशिश की। मगर दिल्ली में उस समय ऐसा हाहाकार मचा कि शायद वे डर गए और बात आई गई हो गई।

देवीलाल सरकार के दौरान कुछ ज्यादा भले ही न हो पाया हो मगर इतना जरूर हुआ है कि यमुना के पानी के बँटवारे में हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ बेईमानी से सम्बन्धित आँकड़े उजागर होने लगे। बस उतनी ही बातें/आँकड़े आज मुहैया हैं। उसके बाद पानी की हिस्सेदारी के बारे में बैठकों, दस्तावेजों और आँकड़ों के बारे में बड़े अफसरों को भी इतना कम पता है कि वे इस मामले को 'क्लासीफाइड आँकड़ों की श्रेणी’ का बताकर कुछ भी बताने से इनकार कर देते हैं।

तमाम पेचीदा मामले छोड़ भी दें। पर एक बड़ी मोटी सी बात ही तय करने में 10-15 साल से माथापच्ची हो रही है कि किस राज्य की कितनी ज़मीन पर गिरा पानी यमुना में बहता है। इसी बात को लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कभी झगड़ा होता है और बिचौलिया बन कर केन्द्रीय जल आयोग रट्टा निपटाने के बहाने बीच में आ जाता है। अलबत्ता होता जाता कुछ नहीं।

मसलन आज तक तय नहीं हो पाया कि यमुना नदी ताजेवाला से लेकर ओखला यानी दिल्ली तक यमुना में जितना पानी बहता है उसमें कितने वर्ग किलोमीटर इलाके में गिरा पानी हरियाणा का है? कितना उत्तर प्रदेश का है? और कितना हिमाचल या राजस्थान का?

अब तक के आँकड़ों के मुताबिक इस दावेदारी में इतना फर्क है कि जल विज्ञानी, नहर विभागों और केन्द्रीय जल आयोग के तमाम बड़े अफसर भी चौंक सकते हैं। मसलन हरियाणा का दावा है कि ताजेवाला से ओखला तक उसका कैचमेंट एरिया करीब 25 हजार वर्ग किलोमीटर है।

जबकि केन्द्रीय जल आयोग का आँकड़ा है कि हरियाणा का हिस्सा सिर्फ 16 हजार वर्ग किलोमीटर है और उत्तर प्रदेश का हिसाब है कि हरियाणा के सिर्फ ढाई हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में गिरा पानी ही यमुना में आता है। गौरतलब है कि अब तक के मान्य मापदंडों के हिसाब से कैंचमेंट एरिया ही पानी के बँटवारे का सबसे बड़ा आधार है।

रही बात मैं बिगड़ी दिल्ली को सम्भालने की तो यह स्वयंसिद्ध है कि अगर ठंडे दिमाग से और साफ नीयत से शोध किये जाएँ तो समस्या का समाधान मुश्किल नहीं। अगर यह मान कर चलें तो कम-से-कम दिल्ली के कैचमेंट (जल ग्रहण) क्षेत्र और उसके भूगर्भीय अध्ययन पर गौर से सोचा जाना चाहिए।

इसके अलावा समुद्र तल के आधार पर दिल्ली से ऊपर के उन सारे इलाकों की छानबीन की जानी चाहिए जहाँ सिर्फ राजधानी के लिये तालाब या छोटे-छोटे जलाशय बनाए जा सकें। जल संसाधन विभागों के छोटे स्तर के कर्मचारियों/अधिकारियों/वैज्ञानिकों की परिकल्पनाएँ हैं कि दिल्ली के ऊपर देश में अभी इतना बड़ा इलाका अनछुआ है जहाँ पानी गिरता है पर उसे रोककर जमा करने में राज्य सरकारें अभी पचास साल तक कोई योजना या परियोजना बनाने की हालत में नहीं हैं।

और फौरी तौर पर ही कुछ सोचना हो तो कम-से-कम पानी की कमी के आधार पर ही यह तय कर देना चाहिए कि दिल्ली का और विकास करना उसे बर्बादी के रास्ते पर और जल्दी धकेल देना ही होगा।

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