ऐ आबे - रूदे - गंगा तू आबरू - ए - हिंद अस्त

13 Feb 2016
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ऐ आबे-रूदे-गंगा तू आबरू-ए-हिंद अस्त।
तू जिन्दगी-ए-मास्त तू रूहे-मुल्के हिंद अस्त।।
यानी ऐ गंगा का पानी! तू हिन्दुस्तान की इज्जत है।
तू हमारी जिन्दगी तो है ही, भारत की आत्मा भी है।


गंगा नदीफारसी भाषा में कहे गए इस शेर में भारत के लिये गंगा के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। गंगा के पवित्र होने की पारम्परिक मान्यता, गंगा की भौगोलिक विशेषता, परिवहन के साधन के रूप में गंगा के महत्त्व और गंगा के वाणिज्यिक महत्त्व ने भारत के मुस्लिम शासकों और देश की मुस्लिम आबादी को भी उसी तरह प्रभावित किया, जितना हिन्दू या दूसरे धार्मिक समुदायों को। अरबी, फारसी और उर्दू साहित्य में गंगा पर आई चर्चा को देखकर यह निष्कर्ष निकालना अतिश्योक्ति नहीं होगी। बाबरनामा, जहाँगीरनामा, आईन-ए-अकबरी आदि दरबारी इतिहासकारों की रचनाओं और इब्ने-बतूता के यात्रा वृत्तान्त में गंगा पर आई चर्चा हो, या फिरदौसी, फैज, मिर्जा गालिब, इकबाल, मसउद सेहर, मसीह पानिपी- जैसे शायरों और साहित्यकारों की रचनाएँ, गंगा को पूरे महत्त्व के साथ इनमें जगह दी गई है।

अबुल फजल के ग्रंथ अकबरनामा में कहा गया है कि गंगा को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है। बाबरनामा में चर्चा आई है कि प्रयाग के पास बाबर का घोड़ा अड़कर हाँफने लगा। आराम देने के लिये घोड़े को वहीं छोड़कर उसने तैरकर गंगा पार करने की कोशिश की। हालांकि वह सफल नहीं हो सका। बाद में उसने नाव से प्रयाग संगम पर गंगा को पार किया। अपने यात्रा वृत्तान्त में इब्ने बतूता ने सुल्तान शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के बारे में उल्लेख किया है कि स्थानीय संस्कृति के प्रभाव में अपनी बहन की शादी में हिन्दू रीति-रिवाजों को अपनाया।

दक्कन के दौरे के दौरान भी वह पीने के लिये गंगा के पानी का इस्तेमाल करता था। वहीं हरिद्वार का जिक्र करते हुए वह कहता है कि गंगा के कारण ही इसे स्वर्ग का द्वार कहा जाता है।

जहाँगीरनामा में गंगा के किनारे के बसन्त की महक की चर्चा करते हुए, इसकी तारीफ की गई है। इसमें हरिद्वार को हिन्दुओं की पूजा का महत्त्वपूर्ण स्थान बताया गया है। यह कहता है कि ब्राह्मण और साधु जीवन का अन्तिम समय यहाँ बिताना चाहते हैं और अपनी धार्मिक रीति से देवताओं की अर्चना करते हैं। आईन-ए-अकबरी में चर्चा आई है कि बादशाह अकबर गंगा को जीवन का स्रोत कहते थे। वे मानते थे कि गंगा के संरक्षण के लिये उपयुक्त ओहदेदारों की तैनाती होनी चाहिए। अकबर ने अपने कुछ विश्वासपात्र लोगों को गंगा के किनारे इसलिये तैनात किया था कि वे नियमित अन्तराल पर गंगा का पानी बन्द कनस्तरों में उसके पीने लिये भेजते रहें। जब बादशाह आगरा या फतेहपुर में रहते तो उनके पीने के लिये गंगा का पानी सोरून से आता। और जब वह पंजाब में होते तो पेयजल हरिद्वार से लाया जाता। बावर्चीखाने में खाना बनाने के लिये चेनाब या जमुना के पानी का उपयोग होता, लेकिन उसमें भी थोड़ी मात्रा में गंगा का पानी मिलाया जाता।आईन-ए-अकबरी में पुण्य स्थलों को चार भागों में बाँटा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को समर्पित स्थलों को इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण करार देते हुए, इन्हें देव कहकर सम्बोधित किया गया है। गंगा के अलावा सत्ताइस नदियों की चर्चा महत्त्व के साथ की गई है। इसमें काशी के आस-पास के पांच कोस तथा प्रयाग के आस-पास के बीस कोस के इलाके की चर्चा पुण्यभूमि के रूप में की गई है।

अरबी-फारसी साहित्य में पूरे महत्त्व के साथ गंगा की चर्चा आई है। फारसी और उर्दू के महान शायर मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब ने 1827 ईस्वी में बनारस की यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान उन्होंने चिराग-ए-दैर (मन्दिरों के चिराग) शीर्षक मसनवी की रचना की थी। इसमें 108 मसनवी मौजूद हैं। ये मसनवी गंगा और बनारस के आध्यात्मिक महत्त्व को रेखांकित करते हैं?

ब सामाने दो आलम गुलिश्तान रंग
जे ताबे-रुखे-चरागाँ लबे-गंग।


दोनों जहान की वस्तुओं के सहारे यह (काशी) विभिन्न प्रकार के रंगों से सजा है। उसके चेहरे की चमक से गंगा का चेहरा दमकता है।

जेबस अर्जे तमन्ना मी कुनद गंग
जे मौजे आगोशहा वामी कुनद गंग।


गंगा अपनी लहरों को अपने दोनों बाजुओं की तरह फैला रही है, मानों वह अपनी आरजू और तमन्ना का इजहार कर रही है।

सुखन रा नाजिशे-मीनू क्फुमाशी
जे गुलबांगे-समाइश हाय काशी
बनारस राकसे-गुफ्रता चुनीनस्त
हुनूज अज गंगे-चीनश बरजबीं अस्त।


काशी की तारीफ का फल है कि मेरी शेरो शायरी को आसमान की तरह (ऊँचा और हसीन) लिबास मिल रहा है।

बनारस रा मगर दीदस्त दर ख्वाब
के मी गर्दद जे नरहश दर हदन आब।


बनारस के बारे में किसी ने पूछा कि यह कैसा है? जबाब मिला कि अभी उसके चेहरे पर गंगा की लहरें मौजूद हैं, जो उसे सुन्दरता प्रदान कर रही हैं।

मगर गोई बनारस शाहदी हस्त
जे गंगश सुब्हो-शाम आईना-दर-दस्त।


शायद तुम कहोगे कि बनारस कोई मासूक है और गंगा उसके सामने आईना लिये खड़ी है, जिससे वह सज-सँवर सके।

बंगगशा अक्श ता परतौ फकनसुद
बनारस खुद नजीरे-खेश तन सुद।


जब गंगा के पानी में बनारस की तस्वीर (छाया) बनी तो, वह अपनी मिसाल खुद बन गया।

सुए काशी बअन्दाजे-इशरत
तबस्सुम कर्द गुफ्रतार्इं इमारत
बलंद उफतादा तक्मीले-बनारस
बवद बर औजेऊ अंदेशा नारस।


काशी की तरफ देख कर मुस्कुराया और कहा कि यह बुलन्द इमारत बनारस का मिला है। यह बनारस के अधूरेपन को पूरा करता है। फिर तो उसे वह बुलन्दी प्राप्त हो जाती है कि किसी की कल्पना भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती।

फरो मुंदन बकाशी नारसाईस्त
खुदारा र्इं चे काफिर माजरा इस्त।


काशी से दूर रहना, अजीब तरह की महरूमी है। या अल्लाह! यह कैसे काफीर की अदा है कि काशी का उपासक होकर भी मैं काशी नहीं पहुँच पा रहा!

बकाशी लख्ति अज काशाना यादार
दर र्इं जन्नत अजां वीराना यादार।


काशी में आये हो तो एक बार अपने घर को भी याद करो। वहाँ किस तरह की वीरानगी है और काशी कैसा जत्र-जैसा है। इन दोनों की तुलना करके तो देखो।

मिर्जा गालिब की तरह ही उर्दू-फारसी के विख्यात शायर अल्लमा इकबाल के इन दो शेरों में गंगा के महत्त्व को दर्शाया गया है। एक मौके पर वह कहते हैं कि- ऐ, गंगा के पानी क्या तुझे वह दिन याद है? जब तेरे किनारे पर हमारा कारवां उतरा था। इसी तरह, अपने दूसरे शेर में उन्होंने गंगा के महत्त्व को निम्न शब्दों में दर्शाया है। उन्होंने शेर में कहा है कि ऐ, नदी में मौजूद बेचैन जल! पहले तो तुम सिर्फ मोती थे, मगर अब नायाब मोती हो गए हो?

हम बगल दरिया से है ऐ कतरा-ए-बेताब तू
पहले था गौहर बना अब गौहरे-नायाब तू।


यह शेर पंजाब के विख्यात रहस्यवादी कवि स्वामी रामतीर्थ को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इकबाल ने कहा था, जिनकी मौत गंगा में डूबने के कारण हो गई थी।

फारसी-उर्दू शायरी की इस परम्परा को देखते हुए इस निष्कर्ष तक आसानी से पहुँचा जा सकता है कि विभिन्नता में एकता की समझ को विकसित करने में इसने अहम भूमिका निभाई होगी।

भारत की गंगा यमुनी तहजीब के मूल में इसी की मौजूदगी रही होगी। ऐसा विश्वास करने का पर्याप्त आधार है कि भारत की एकता को बनाए रखने वाली संस्कृति की नींव का पत्थर शायरी की यही परम्परा बनी होगी।

लेखक उर्दू-फारसी के शायर हैं।

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