आई बी रिपोर्ट से असहमति जरूरी क्यों

4 Aug 2014
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Arun tiwari
Arun tiwari
सामाजिक कार्य में धन की कमी रोड़ा बनकर खड़ी हो जाए, तो धन उस लक्ष्य समूह के साझे से ही जुटाया जाना चाहिए, जिसके हित के लिए वह कार्य किया जा रहा हो। किंतु विदेश से धन प्राप्त करना किसी को राष्ट्रविरोधी ठहराने का आधार नहीं हो सकता। भारत के कितने ही धर्मगुरुओं के धर्ममार्ग को प्रशस्त करने की मूल पूंजी उनके विदेशी शिष्यों से ही आती है। हमारी सरकारें स्वयं विदेशी सलाहकारों, दान व कर्जदाताओं के लिए पलक पांवड़े बिछाती रही है। कौन तय करेगा कि मां सरीखी नदियों को प्रदूषित करना देशद्रोह है अथवा प्रदूषण करने वालों की पोल खोलना? आप इस पर सवाल उठा सकते हैं कि 2006 से 2009 के बीच रिटर्न दाखिल न करने वाले 21,423 गैर सरकारी संगठनों को नोटिस जारी करने की याद सरकार को वर्ष 2014 में क्यों आई, किंतु इस बात से कतई असहमत नहीं हो सकते कि ऐसे संगठनों को नोटिस जारी किए ही जाने चाहिए।

गृह मंत्रालय द्वारा स्वैच्छिक संगठनों के पंजीकरण रद्द करने के लिए बनाए नए आधार से भी असहमत होने का कोई कारण नहीं है। आयुक्त स्तर हो अधिकारी को पंजीकरण रद्द करने का अधिकार देने के शासनादेश से भी आप असहमत हो सकते हैं, किंतु यदि कोई संगठन वह कार्य न करें, जिसके लिए उसने धन लिया हो; आय का आम जनता के हित में उपयोग न करना, प्रतिबंधित मद में खर्च करना, संपत्ति का निजी हित में उपयोग तथा ट्रस्टी के रिश्तेदारों को कर्ज दिए जाना निश्चित तौर पर परमार्थ की बजाय स्वार्थ की श्रेणी में गिना जाना चाहिए।

भेजे गए नोटिस में से 4,138 का बैरंग लौट आना संगठनों के कागजी होने और नियम कायदों की पालना न करने का संकेत है। सार्वजनिक के नाम पर निजी फायदा कमाना, सामाजिक कार्य के नाम पर बट्टा लगाना है।

ऐसे संगठनों का पंजीकरण रद्द करने से ज्यादा कठोर दण्ड है कि सरकार उनकी श्रेणी बदलकर मुनाफा कमाने वाली निजी फर्म की श्रेणी में डाल दे और तद्नुसार पिछला सारा कर व जुर्माना वसूले। उन पर मुनाफा कमाने वाले उपक्रम संबंधी सभी कायदे लागू हों।

सामाजिक कार्य के क्षेत्र में शुचिता कायम करने के लिए ऐसे कुछ कदम अब आवश्यक हो गए हैं।

नैतिकता और कार्यकर्ता निर्माण घटा


मुझे यह लिखते हुए दुख है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद सामाजिक संगठनों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ी है, कार्यकर्ता निर्माण का पुनीत कार्य उतनी तेजी से घटा है।

पिछले ढाई दशक में ऐसे संगठनों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है, जिनके लिए उनका काम सुनिश्चित बजट आधारित एक परियोजना से अधिक कुछ नहीं होता। उनका काम कार्य विशेष के लिए धन मिलने के साथ शुरू होता है और उसके खर्च का ब्यौरा देने के साथ ही खत्म हो जाता है।

ऐसी संस्थाओं में कार्यरत लोग कार्यकर्ता न होकर अधिकारी और नौकर सरीखे होते जा रहे हैं। विदेशी सहायता का अधिकतम उपयोग भवन, वाहन, यात्रा तथा कैमरा-कम्पयूटर आदि की खरीद आदि मे किए जाने का आंकड़ा है। संगठनों को जेबी बनाकर रखने और प्राप्त धन से संस्था संचालकों द्वारा अपना निजी जीवन स्तर सुधारने की प्रवृत्ति भी इस दौर की देन है। सामाजिक संगठनों की शुचिता में आई यह कमी, निस्संदेह दुर्भाग्यपूर्ण है।

भारत में विदेशियों के पूंजीगत व नीतिगत हस्तक्षेप में बढ़ोतरी को भी शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। किंतु इससे निजात पाने रास्ता यह कतई नहीं कि सरकार, इंटेलीजेंस ब्यूरो ‘आई बी’ की रिपोर्ट की ओट में शिकार करे। हो सकता है कि संप्रग सरकार ने कारपोरेट घोटाले और भ्रष्टाचार के खिलाफ चले तत्कालीन जनाभियानों को कुंद करने के लिए यह रिपोर्ट तैयार कराई हो, किंतु मोदी सरकार द्वारा इसे आगे बढ़ाने का मतलब समझना क्या है? कोई बताए।

आई बी रिपोर्ट की ओट में शिकार निंदनीय


यूं यह पहली बार नहीं है कि जब आई बी ने गैरसरकारी संगठनों को लेकर कोई रिपोर्ट तैयार की हो। इस बार रिपोर्ट को लेकर हंगामा इसलिए है, चूंकि जून शुरू में यह रिपोर्ट लीक हो गई। मालूम नहीं, रिपोर्ट लीक हुई या खास मकसद से मीडिया को लीक कर दी गई; किंतु इतना मालूम है कि सत्ताशीनों के पक्ष में भूमिका निभाने को लेकर आरोप सिर्फ सी बी आई पर ही नहीं लगे, विश्वसनीयता पर सवाल तो आई बी को लेकर भी संभव है।

गौरतलब है कि आई बी ने ‘ग्रीनपीस’ और ‘एक्शन एड’ जैसे कुछ संगठनों पर विदेशों से धन लेकर भारत के विकास में रोड़ा अटकाने का आरोप लगाया है। इसमें अवैध खनन, तेल निकासी, जीएम बीज और नदी जोड़ जैसी गतिविधियों के विरुद्ध मोर्चा खोलने वाले संगठनों का नाम प्रमुखता से प्रचारित किया गया है। आरोप है कि ऐसे संगठनों की वजह से भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 2 से 3 प्रतिशत गिरावट आई है।

देश हित और विरुद्ध की पहचान का प्रश्न उठाना जरूरी


मैं हमेशा से मानता हूं कि यदि सामाजिक कार्य में धन की कमी रोड़ा बनकर खड़ी हो जाए, तो धन उस लक्ष्य समूह के साझे से ही जुटाया जाना चाहिए, जिसके हित के लिए वह कार्य किया जा रहा हो। किंतु विदेश से धन प्राप्त करना किसी को राष्ट्रविरोधी ठहराने का आधार नहीं हो सकता।

भारत के कितने ही धर्मगुरुओं के धर्ममार्ग को प्रशस्त करने की मूल पूंजी उनके विदेशी शिष्यों से ही आती है। हमारी सरकारें स्वयं विदेशी सलाहकारों, दान व कर्जदाताओं के लिए पलक पांवड़े बिछाती रही है। असल प्रश्न यह है कि यह कैसे तय हो कि प्राप्त धन से किया जा रहा कार्य देश हित में है अथवा विरुद्ध? कौन तय करेगा कि मां सरीखी नदियों को प्रदूषित करना देशद्रोह है अथवा प्रदूषण करने वालों की पोल खोलना?

यमुना की जमीन पर अक्षरधाम बनाना देशद्रोह है या इसके विरुद्ध दिल्ली के किसानों द्वारा सत्याग्रह करना? पनबिजली परियोजनाओं द्वारा मलबे का ठीक से निष्पादन न कर उत्तराखंड को एक तबाही की ओर धकेल देना देशद्रोह है या उसके खिलाफ आवाज उठाना? क्या आई बी यह तय करने में सक्षम है? कुदरत सक्षम है। हो सके, तो उत्तराखंड जाकर कुदरत का जवाब सुनें। चिंता यही है कि आखिरकार हम समग्र विकास और आर्थिक विकास के बीच का अंतर करना कब सीखेंगे?

उर्वरकों को कभी हरित क्रांति का वाहक मानकर देश ने अपनाया। आज इनसे निजात पाने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं। भारत में नदियों की बढ़ती दुर्दशा को लेकर आज प्रधानमंत्री जी का महाभियान है; सिंचाई के संकट को लेकर ‘नीलांचल’ है; दूसरी ओर नदियों और जल संकट के मसलों को आवाज देने वाली ‘एक्शन एड’ को आई बी देश विरुद्ध बता रही है।

खनन और प्रदूषण को लेकर जितनी परियोजनाओं का काम राष्ट्रीय हरित ट्रिब्युनल, सुप्रीम कोर्ट समेत देश की न्यायालयों द्वारा रोके गए हैं, शायद ही किसी अन्य द्वारा रोके गए हों। गंगा के मसलों पर कमोबेश सभी प्रमुख पार्टियों के सांसदों ने समय-समय पर परियोजनाओं और उद्योगों की कारगुजारियों के विरुद्ध बयान दिए हैं। गंगा में बैराजों के प्रस्ताव को लेकर जनता दल (यू) ने अभी-अभी आपत्ति जताई है। आई बी भूल गई है कि जिस गंगा-यमुना पुनरोद्धार को लेकर आज पूरी केन्द्र सरकार बहुत उत्साह में दिखाई दे रही है, पिछले डेढ़ दशक से इसके लिए आवाज उठा रहे कई संगठन विदेशी सहायता प्राप्त हैं। आई बी ने जी एम बीजों के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाली वंदना शिवा के संगठन को दोषी बताया गया है। इस दृष्टि से तो स्वदेशी जागरण मंच द्वारा जी एम बीजों के खिलाफ पर्यावरण महोदय का चेताना भी देशद्रोह ही है।

आई बी की मानें तो अदालतें भी विकास विरोधी


खनन और प्रदूषण को लेकर जितनी परियोजनाओं का काम राष्ट्रीय हरित ट्रिब्युनल, सुप्रीम कोर्ट समेत देश की न्यायालयों द्वारा रोके गए हैं, शायद ही किसी अन्य द्वारा रोके गए हों। गंगा के मसलों पर कमोबेश सभी प्रमुख पार्टियों के सांसदों ने समय-समय पर परियोजनाओं और उद्योगों की कारगुजारियों के विरुद्ध बयान दिए हैं।

गंगा में बैराजों के प्रस्ताव को लेकर जनता दल (यू) ने अभी-अभी आपत्ति जताई है। आई बी की रिपोर्ट के आधार को सही मानें तोे सकल घरेलु उत्पाद में गिरावट के लिए दोषी ठहराकर माननीय न्यायाधीशों की भी तनख्वाहें रोक देनी चाहिए; आपत्ति जताने वाले सांसदों को दोषी करार देना चाहिए और जेडीयू की मान्यता रद्द कर देनी चाहिए।

पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन व जनहित की अनदेखी करने वालों का विरोध करने को देश विरुद्ध कहना गलत।
प्रश्न यह है जो देश भौतिक व आर्थिक विकास को ही असल विकास कहते हैं, वे उस विकास के विरोध के लिए धन क्यों मुहैया कराएंगे? उस तरह के विकास से तो उनके निवेश के रास्ते खुलेंगे।

परिणामस्वरूप, भारत में पानी, पर्यावरण और खेती पर संकट गहराएगा, तो उनकी पौ बारह होगी। उनकी तकनीक और सलाह बिकेगी। दरअसल, आई बी द्वारा पर्यावरण बनाम विकास बनाकर पेश किया जा रहा यह मामला, पर्यावरण संरक्षण के लिए संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के उल्लंघन तथा लोकहित की अनदेखी का मामला है। इस अनदेखी का विरोध करने के कार्य को आई बी देश विरुद्ध बताकर पेश कर रही है। आई बी रिपोर्ट की ओट में सरकार द्वारा खेला जा रहा यह खेल, यूं भी असहमति जताने के मूल अधिकार के विरुद्ध है। यह खेल नीतिगत निर्णयों में गैर सरकारी संगठनों की बढ़ते दखल तथा आम आदमी पार्टी की शक्ल में स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति में उपस्थिति बढ़ाने की मंशा के भी खिलाफ है।

असहमति जताना: मूल अधिकार भी, असल राष्ट्रवाद भीमाननीय राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री जी शायद भूल गये हैं कि सहमति की भांति, असहमति भी लोकतंत्र की धड़कन होती है। गलत के विरुद्ध असहमति न जताना कायरता है और असहमति की अभिव्यक्ति, असल राष्ट्रवाद। यह असहमति कानून के विरुद्ध भी हो सकती है। आखिरकार कानून इंसान के लिए बनाया जाता है, न कि इंसान कानून के लिए। समय के साथ अनुपयोगी व जनविरुद्ध साबित हो रहे कानूनों को बदल डालना उचित है, न कि ऐसे कानूनों का विरोध करने वालों पर कार्रवाई करना।

आई बी रिपोर्ट की ओट में यदि मोदी सरकार यह संदेश देना चाहती है कि कारपोरेट हित के खिलाफ कुछ भी बोलना-सुनना उसे पसंद नहीं; तो जनता को जल्दी ही तय करना होगा कि कारपोरेट हित ही राष्ट्रहित है अथवा जनता की निगाह में राष्ट्रहित व राष्ट्रवाद की परिभाषा कुछ और है? सामाजिक संगठनों को भी चाहिए कि वे सामाजिक कार्य के क्षेत्र में फैल चुकी वित्तीय तथा नैतिक गंदगी के खिलाफ झाड़ू उठाए। यही अवसर है।

आर्थिक उदारवाद का प्रभाव, संगठन बढे, विदेशी सहायता बढ़ी


गौर करने की बात है कि 1990 तक भारत में पंजीकृत गैरसरकारी संगठनों की संख्या मात्र पौने सात लाख थी। 1990 में दुनिया के लिए भारतीय अर्थतंत्र के दरवाजे खोलने के बाद यह संख्या बढ़ी। विदेशी सहायता में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई। आज भारत में करीब 33 लाख संगठन पंजीकृत है। इनमें एक करोड़, 44 लाख लोग काम करते हैं, जिनमें से 11 लाख वेतनभोगी हैं। 58.7 प्रतिशत संगठन गांवों में काम करते हैं।

दिलचस्प है कि ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया’ बी सी सी आई’ और कन्फेडरेशन ऑफ इंडस्ट्रीज इन इंडिया ‘सीआईआई’ भी गैरसरकारी संगठन पंजीकरण कानूनों के तहत ही पंजीकृत हैं। बिना पंजीकरण कार्य करने वालों की संख्या भी कम नहीं। किंतु हमारी सरकारों के आर्थिक एवम् सांख्यिकी विभागों को इनमें से 25 प्रतिशत के बारे में भी पूर्ण जानकारी नहीं हैं।

जानकारी यह है कि 31 मार्च, 2012 तक 43,527 संगठनों को ‘एफसीआरए’ के तहत विदेशी सहायता पाने योग्य पाया गया। 2002 से 2012 के मध्य कुल 97,383.53 करोड़ की विदेशी सहायता भारतीय गैर सरकारी संगठनों को मिली। वर्ष 2002 से 2009 के मध्य विदेशी सहायता पाने वाले सबसे ज्यादा संगठन क्रमशः दिल्ली, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश से हैं। इन्हें प्राप्त विदेशी सहायता का आंकड़ा क्रमशः 2,265.75 करोड़, 1,704.76 करोड़ तथा 1,258.52 करोड़ है।

इस दृष्टि से सबसे आगे प्रथम तीन जिले क्रमशः चेन्नई, मुंबई तथा बंगलुरु हैं। तीन सर्वाधिक बड़े दानदाता देश क्रमशः अमेरिका, यूनाइटेड किंग्डम और जर्मनी हैं। सर्वाधिक दान देने वाले संगठनों के नाम हैं: कम्पैशन इंटरनेशनल - अमेरिका, चर्च ऑफ जीसस लैटर डे सैट्स - अमेरिका और काइंडर नॉट हिल्फ - जर्मनी। सबसे ज्यादा विदेशी सहायता पाने वाली भारतीय संस्थाएं क्रमशः हैं: वर्ल्ड विजन - चेन्नई, बिलीवर्स चर्च इंडिया - केरल और रूरल डेव्लपमेंट - आंध्र प्रदेश। संस्थाओं ने प्राप्त सहायता राशि का सर्वाधिक उपयोग भवन, वाहन, कम्पयूटर, कैमरा आदि की खरीद और यात्रा खर्च में किया गया है।

यदि भारतीय प्रबंधन संस्थान, बंगलुरु के प्रोफेसर आर. वैद्यनाथन द्वारा पेश उक्त अध्ययन पर गौर करें, तो स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद विदेशियों की भारत में रुचि बढ़ी है। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एशिया विकास बैंक और विश्व इकोनॉमी फोरम आदि से मिल रहे संकेत भी यही हैं।

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