आईला- वाटर फ़ॉर पीपुल की रपट

21 Jun 2009
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यह रिपोर्ट “वाटर फ़ॉर पीपुल” नामक संगठन द्वारा बंगाल में हाल ही में आये चक्रवाती तूफ़ान “आईला” की स्थिति, उसकी भयावहता की सबसे पहली अनुभूति तथा उसके गुज़र जाने के बाद प्रभावितों को मदद पहुँचाने में आने वाली चुनौतियों के बारे में चित्रण पेश करती है।

 

चक्रवाती तूफ़ान “आइला” क्या है?


चक्रवाती तूफ़ान “आइला” एक तीव्र गति वाला उष्णकटिबंधीय तूफ़ान है, जो दिनांक 25 मई 2009 को बंगाल की खाड़ी से उठा और बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के तटों से टकराया, तथा एक विनाशकारी प्राकृतिक नज़ारा और लाखों लोगों के जनजीवन को प्रभावित कर गया।

चक्रवाती तूफ़ान अधिकतर गर्म पानी वाले समुद्रों में उत्पन्न होते हैं। जब किसी समुद्री क्षेत्र का तापमान 25.6 डिग्री सेल्सियस से ऊपर हो जाता है और बेहद तेज़ हवायें चलने लगती हैं उस समय उस क्षेत्र में भारी वर्षा के साथ चक्रवाती तूफ़ान उठते हैं जो कि बेहद खतरनाक होते हैं। माना जाता है कि इस प्रकार के तूफ़ानों का मुख्य कारण धरती का बढ़ता तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) ही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण गत वर्षों में समुद्रों के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हुई है, और इसी प्रकार जैसे-जैसे धरती का तापमान बढ़ता रहेगा, आने वाले समय में इस प्रकार के तूफ़ानों की आशंका सदैव बनी रहेगी। जबकि तथ्य यह है कि इस प्रकार के तूफ़ान अपने मुख्य केन्द्र से काफ़ी दूर के किनारों पर टकराते हैं और तब तक कमजोर हो चुके होते हैं, यदि यह तूफ़ान अपनी पूरी ताकत से टकरायें तो विनाशलीला की कल्पना करना भी कठिन है।

चक्रवाती तूफ़ान “आइला” के बनने की गतिविधियाँ कई दिन पहले ही शुरु हो चुकी थीं लेकिन उसकी पूर्व सूचना और चेतावनी तन्त्र ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। 21 मई 2009 को “संयुक्त तूफ़ान चेतावनी केन्द्र” (Joint Typhoon Warning Centre – JTWC) ने सूचित किया था कि कोलकाता से 950 किमी दूर समुद्र में कुछ विशेष चक्रवाती गतिविधियाँ देखी गई हैं। 22 मई को इन गतिविधियों और तूफ़ान की गति में और बढ़ोतरी देखी गई। JTWC ने चेतावनी जारी करते हुए कहा कि यह समुद्र में विचलित करने वाली यह गतिविधियाँ और मजबूत हो रही हैं, लेकिन इस चेतावनी को गम्भीरता से नहीं लिया गया। जब यह चक्रवाती तूफ़ान सागर द्वीपों के समुद्र तट से 350 किमी दूर था, तब इसे “आइला” नाम दिया गया और चेतावनी जारी की गई।

 

सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र -


25 मई 2009 को चक्रवाती तूफ़ान “आइला” 90-100 किमी की रफ़्तार से पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के तटों से टकराया। भारत में उत्तर और दक्षिण 24 परगना, हुगली, पूर्वी मिदनापुर, हावड़ा, बर्दवान, और कोलकाता के कई इलाकों में इसने तबाही मचाना शुरु की। ऊंची समुद्री लहरों, बाढ़ और तेज हवाओं ने अपना तांडव दिखाना शुरु किया, सड़कें, पुल, खेत, मकान आदि तबाह हुए। कई क्षेत्र तो ऐसे रहे कि जहाँ तूफ़ान के गुजरने के पखवाड़े भर बाद भी पहुँचा नहीं जा सकता था, क्योंकि वे पानी में डूबे हुए थे।

एक अनुमान के अनुसार 275 लोग काल-कवलित हुए, जबकि अधिकारियों का कहना है कि मृतकों कि यह संख्या और भी बढ़ सकती है क्योंकि तूफ़ान के जाने के बाद जो महामारियाँ फ़ैल रही हैं, वह और भयानक हैं। पश्चिम बंगाल में इस तूफ़ान से लगभग 5 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें से एक लाख लोग तो सुन्दरबन द्वीपों में ही बगैर भोजन-पानी के फ़ँसे हुए रहे तथा खुले में अथवा पेड़ों पर सोते रहे। 3500 किमी के तटबन्ध इलाके में से लगभग 400 किमी का इलाका 6 फ़ुट उँची लहरों के तले दब गया और उसके काले साये में मनुष्य, जानवर, मकान, सड़कें, तालाब, पुल जो भी आया पूरी तरह खत्म हो गया।

 

तूफ़ान पर सरकारी प्रयास –


“आइला” तूफ़ान गुज़र जाने के बाद के सरकारी प्रयास एक “झटके” के समान ही थे। तूफ़ान की भयावहता का अंदाज़ा लगाने में अधिकारी और प्रशासन एकदम नाकाम सिद्ध हुआ, सहायता व्यवस्था बेहद सुस्त रफ़्तार से चलती रही। राजधानी कोलकाता में ही विभिन्न जगहों पर टूटे-उखड़े पेड़, अस्त-व्यस्त बिजली की लाईनों ने शहर में अव्यवस्था का आलम बना दिया। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती दूरदराज के गाँवों में पहुँचने की थी। प्रारम्भिक मदद सबसे पहले इलाके में मौजूद NGO ने अपने संसाधनों और कार्यकर्ताओं की मदद से पहुँचाना शुरु किया। उन्होंने ही इस चक्रवाती तूफ़ान के भीषण थपेड़े, उसके द्वारा पहुँचाए गये नुकसान का ठीक-ठीक आकलन गाँव वालों की मदद से प्रशासन तक पहुँचाये।

27 मई को राहत व्यवस्था के लिये राज्य शासन द्वारा प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन बल का गठन किया गया। 30 मई को पश्चिम बंगाल सरकार ने सुन्दरबन क्षेत्र के तटबन्ध इलाके को जल्द ही दुरुस्त और पुनर्निर्मित करने का निर्णय लिया ताकि भविष्य में आने वाली बाढ़ से भी बचाव हो सके। देर से ही सही, लेकिन सेना और नौसेना को बचाव अभियान हेतु बुलाया गया। केन्द्र सरकार ने फ़ौरी मदद के तौर पर दस करोड़ रुपये तुरन्त राज्य सरकार को भेजे।

राज्य सरकार, विभिन्न संस्थाओं और NGO के कार्य करने के बावजूद दो सप्ताह बीतते-बीतते भी कई इलाकों में तूफ़ान का भयानक असर साफ़ देखा जा सकता था, खासकर सुन्दरबन क्षेत्र में स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं दिखाई दिया। गाँव के गाँव पानी में डूबे रहे, पीने के साफ़ पानी की अनुपलब्धता, मृत जानवरों तथा खुले में शौच और गन्दगी के कारण डायरिया फ़ैलना शुरु हो गया। तूफ़ान गुज़र जाने के अगले 24 से 36 घण्टे ग्रामीणों ने रात-दिन जागकर इस भय से गुजारे कि कहीं तूफ़ान और ऊँची लहरें फ़िर से न आ जायें।
 

परियोजना क्षेत्र में “वाटर फ़ॉर पीपुल” संस्था की स्थिति –


“वाटर फ़ॉर पीपुल” ने सुन्दरबन के पाथर प्रतिमा और सागर विकासखण्ड इलाके के 133 गाँवों में अपना राहत और बचाव अभियान शुरु किया। प्रारम्भिक अनुमान के अनुसार 133 गाँवों में से 44 गाँव तो पूरी तरह अर्थात 100% समाप्त हो चुके हैं। “100% समाप्त” का मतलब यह कि तटबन्ध के आसपास के इन 44 गाँवों में न तो कोई इंसान बचा है, सभी मकान तहस-नहस हो चुके हैं, खेत और विभिन्न भूखण्ड 6 फ़ीट पानी में डूबे हुए हैं जबकि तालाब और पानी के अन्य स्रोत पूरी तरह से खारे पानी से भर चुके हैं। टूटे हुए तटबन्धों के ऊपर से बहते हुए खारे पानी के बीच कोई राहत सामग्री नहीं है सिवाय इक्का-दुक्का NGO कार्यकर्ताओं के।

हमारे संगठन “वाटर फ़ॉर पीपुल” के सभी कार्यकर्ताओं के पास आइला तूफ़ान के बारे में सुनाने को एक से बढ़कर एक भयानक कहानियाँ हैं। लेकिन हमारे भयानक अनुभव भी उस वक्त बौने लगने लगे, जब विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से तबाही की असली तस्वीर सामने आने लगी। गाँव-दर-गाँव की विनाशलीला देखते हुए जब कार्यकर्ता अपने इलाके में पहुँचे तो पाया कि गत चार सालों की मेहनत पर एक झटके में कुछ ही घंटों में पानी फ़िर गया है। वाटर फ़ॉर पीपुल के लिये जो नाम जाने-पहचाने थे जैसे गंगापुर, श्रीपतिनगर, सुमतिनगर, जहाँ कि वाटर फ़ॉर पीपुल ने पहली-पहली बार नलकूप लगवाये, इनमें से 90% क्षेत्र में जल-मल निकासी व्यवस्था लागू की जा चुकी थी, सारी संरचनायें ध्वस्त हो चुकी थीं, सारे कागज़-फ़ाइलें नष्ट हो गई थीं, चारों तरफ़ के नज़ारा देखकर कार्यकर्ताओं का मनोबल बुरी तरह टूट चुका था।

जल्दी-जल्दी में तात्कालिक रूप से साथियों और अन्य संसाधनों से जुटाये गये 600 डालर की मदद से हमने ब्लीचिंग पावडर, हेलोजन गोलियाँ तथा ओआरएस के पैकेट की व्यवस्था करना शुरु कर दिया। हालांकि तबाह मैदानी इलाकों में जाने में अभी एक सप्ताह का समय बाकी था, लेकिन ज्योति और दीपा नामक बहादुर लड़कियाँ चार-चार फ़ीट गहरा पानी पार कर प्रभावित इलाके तक पहुँच चुकी थीं। वैसे इन गाँवों में जाना अभी खतरे से खाली नहीं था, लेकिन उन दोनों को उधर हमारे अन्य संगीसाथी तथा स्थानीय प्रतिनिधि भी मिल गये। हमारे 3 विभिन्न साथी NGO, “सबुज संघ”, “सुन्दरबन सोशल डेवलपमेंट सेन्टर” तथा “रूरल एड” अपने लगभग 120 कार्यकर्ताओं की फ़ौज को पहले ही प्रभावित इलाके में आगे भेज चुके थे और वे प्रभावित परिवारों को मदद पहुँचाने हेतु चौबीस घण्टे काम कर रहे थे। हमारी टीम को सबसे अधिक आश्चर्यजनक यह लगा कि स्त्री-पुरुषों के जत्थे के जत्थे स्वतःस्फ़ूर्त भावना और समर्पण से मदद का काम उपलब्ध कम से कम संसाधनों से कर रहे थे।

अपने प्रवास के तीसरे दिन वाटर फ़ॉर पीपुल के कार्यकर्ता आखिरकार पहली बार किसी गाँव के भीतर जाने में सफ़ल हुए। सागर ब्लॉक में सुमतिनगर पहला पड़ाव था व इसके बाद पाथर प्रतिमा ब्लॉक में गंगापुर। इस टीम को अनुमान भी नहीं था कि तटबन्ध इलाके के गाँवों में लोग उनका हाथ हिलाते, खुशी के आंसू रोते स्वागत करेंगे, लेकिन जैसे ही इनकी बोट दिखाई दी प्रभावित-पीड़ित लोग खुशी से झूम उठे। कार्यकर्ता ज्योति के मुताबिक – “हमारा स्वागत ऐसे हुआ जैसे कि हम बिछुड़े हुए मित्र हों, या ऐसे कोई शुभचिंतक हों जिसने हर सुख-दुख में साथ रहने की कसम खाई हो, लोग हमें राजनेताओं की तरह नहीं देख रहे थे कि मानो हम मदद देंगे और वापस चले जायेंगे, बल्कि लोग यह जानने को उत्सुक थे कि इस भीषण आपदा से निपटने के क्या उपाय किये जा सकते हैं। विभिन्न ग्राम पंचायतों के सदस्य “वाटर फ़ॉर पीपुल” के सदस्यों के लिये भी प्रार्थना और आभार व्यक्त कर रहे थे जिनके प्रयासों से स्थानीय युवकों को “जलबन्धु” के तौर पर वाटर कमेटियों में शामिल कर प्रशिक्षण दिया था।

जिन 44 (पाथर प्रतिमा में 38 तथा सागर ब्लॉक में 6) क्षेत्रों में तूफ़ान का सर्वाधिक असर रहा, उन प्रभावित इलाकों में वाटर फ़ॉर इंडिया ने लम्बे समय तक और काफ़ी निवेश करके काम किया हुआ है। इलाके के 172 ट्यूबवेल में से 85 अर्थात लगभग 50% ट्यूबवेल इन्हीं 44 गाँवों में हैं जो कि पूरी तरह से खारे पानी में डूबे हुए हैं, और 3 या 4 को छोड़कर, बाकी लगभग सभी चालू हालत में कर दिये गये हैं जिसके लिये ज़ाहिर है कि “जलबन्धु” धन्यवाद के पात्र हैं, जिनके सतत प्रयासों और निगरानी के कारण पंचायतों के जरिये यह काम सम्भव हुआ। ट्यूबवेल के शेड उड़ गये थे, आसपास लगी टाइल्स भी टूट-फ़ूट गई थी, लेकिन ट्यूबवेलों को कोई खास नुकसान नहीं हुआ और वे शुद्ध जल उपलब्ध करवाते रहे। आज की तारीख में यही सारे ट्यूबवेल पीड़ितों के लिये स्वच्छ जल का एकमात्र सहारा हैं, क्योंकि बाकी की हर चीज़ तो समुद्र के खारे पानी में डूबी हुई है।

 

सफ़ाई व्यवस्था –


वाटर फ़ॉर पीपुल द्वारा किये गये अनेक कार्यों में से एक है “सफ़ाई व्यवस्था”, तूफ़ान-पीड़ित अधिकतर गाँवों में सफ़ाई व्यवस्था को गत वर्ष तक लगभग 100% पूर्णता की ओर ले जाया जा चुका था, लेकिन तूफ़ान ने उसे भी तबाह कर दिया है। इन गाँवों के 60% से अधिक शौचालय सरकार के “पूर्ण स्वच्छता अभियान” की मदद से स्थापित किये गये थे। इन शौचालयों में से अधिकतर “एकल गढ्ढे” वाले माडल के मजबूत बनावट वाले शौचालय थे, तूफ़ान के कहर ने उनमें से अधिकतर को ध्वस्त कर दिया है। हालांकि फ़िर भी ग्रामीण लोग गर्व से ज्योति और दीपा को कुछ शौचालय दिखाने ले गये जो कि अभी भी टूटी झोपड़ियों तथा मृत पशुओं की गन्दगी और समुद्री रेत के बीच से अभी भी झाँक रहे हैं। वाटर फ़ॉर पीपुल संस्था ने इस इलाके में लगभग 800 शौचालय स्थापित करने में मदद की। इनमें से अधिकतर कुछ नुकसान, जैसे टूटे दरवाजे, टूटी टाइल्स अथवा रेत से आंशिक रूप से भरे हुए गढ्ढे, के बावजूद चालू हालत में हैं। जैसे ही क्षेत्र से पानी उतर जायेगा, इनकी मरम्मत का काम सबसे पहले किया जायेगा। मुख्य नुकसान कागजातों का हुआ है, जैसे बैंक के कागज़, ॠण के रजिस्टर, परिवार कार्ड आदि गुम हो चुके हैं या पानी से खराब हो चुके हैं, जैसे-जैसे प्रभावित परिवार वापस अपने घरों में लौटेंगे इन कागज़ातों को पुनः व्यवस्थित किया जायेगा।

 

तूफ़ान के सबक –


इस भीषण चक्रवाती तूफ़ान “आइला” का सबसे बड़ा और मुख्य सबक यह है कि उन संस्थाओं को बढ़ावा दिया जाये जो ग्रामीण इलाकों में समुदाय बनाकर विभिन्न प्रकार की समाजसेवा और पक्की संरचनायें जैसे ट्यूबवेल और शौचालय आदि का निर्माण कर रही हैं, जिनके कार्यकर्ता स्थानीय हैं और विपरीत परिस्थितियों में भी काम कर लेते हैं। देखा गया कि प्रशासनिक एवं अन्य संस्थायें तूफ़ान प्रभावित इलाके में गतिशीलता से काम करने हेतु संघर्ष करती रहीं और डायरिया जैसी बीमारी से भी पीड़ित हुईं, जबकि वाटर कमेटी के “जलबन्धु” सबसे पहले अपने-अपने इलाके के पेयजल स्रोत को ठीक करने में लगे और सफ़ल हुए। जलबन्धुओं ने तूफ़ान या अन्य आपदा के समय “स्वच्छ जल” का महत्व समझ लिया है। इससे प्रेरणा लेकर स्थानीय प्रशासन ने आसपास के अन्य गाँवों में भी “जलबन्धु” बनाना शुरु किया है। जब भी इन जलबन्धुओं को किसी बात की आवश्यकता होती है, पंचायत उसकी व्यवस्था करती है। सरकार को इस बात को समझना होगा कि ग्रामीण इलाकों में उसे “घरू-मैकेनिक” का निर्माण करना ही होगा, इन जलबन्धुओं की उपयोगिता इतनी अधिक है कि इनके फ़ोन की घंटी बजती ही रहती है।

जब पूछा गया कि आखिर इन गाँवों के जलस्रोत बाकी जगहों से बेहतर क्यों हैं? ग्रामीण गर्व से बताते हैं कि “हमारी जल-समितियाँ ही हमारी असली ताकत हैं, हम अपने जलस्रोतों को बचाये रखने के लिये मिलजुलकर काम करते हैं, हमारे पास प्रशिक्षित युवक हैं जो जानते हैं कि कब-क्या करना है और हमारे पास विभिन्न उपकरण और “स्पेयर पार्ट्स” भी सतत उपलब्ध होते हैं। हम अपने ट्यूबवेलों की जगह खुद चुनते हैं, उन्हें ऊँचाई पर बनाते हैं, उसके आसपास एक प्लेटफ़ॉर्म और ऊपर शेड का निर्माण भी करते हैं। हम इन ट्यूबवेलों के लिये उत्तम निर्माण सामग्री उपयोग करते हैं और हमारे मेकेनिक इनका सतत रखरखाव भी करते जाते हैं, ताकि इनमें कोई खराबी न हो”।

हालांकि इस बात की चिंता अवश्य है कि ये ट्यूबवेल जनता के अधिक उपयोग का दबाव सहन कर पायेंगे या नहीं। पूर्व में ग्रामीण जनता अपने पालतू पशुओं को नहलाने और धोने के लिये तालाब पर जाती थी, लेकिन अब चूंकि सारे ही तालाब खारे पानी से भर गये हैं, वे जानवर भी इन्हीं ट्यूबवेलों पर आश्रित हो गये हैं। ज्योति ने ग्रामीणों को सुझाव दिया है कि मजबूत तारपोलीन की एक बड़ी शीट को चार खम्भों पर बाँधकर उसमें बीचोंबीच एक छेद करके मानसून का पानी बड़े-बड़े प्लास्टिक के ड्रमों में एकत्रित किया जा सकता है। अब जबकि वर्षा आने ही वाली है, सरकार ने भी तालाबों को खाली करने की योजना बनाई है, ताकि उसमें से खारे पानी को निकालकर मानसून का पानी सहेजा जा सके। कम से कम पीने के पानी के स्रोतों के अलावा सामान्य उपयोग करने लायक पानी की उपलब्धता तो हो जायेगी।

स्थाई और अर्ध-स्थायी शौचालयों की संरचना तो इस तूफ़ान में टिकी रही, लेकिन सस्ते मॉडल वाले शौचालय इस आपदा में पूरी तरह बह गये। गरीब ग्रामीणों को बड़ी संख्या में जो शौचालय प्लेटें दी गई थीं वे भी पूरी तरह से खत्म हो गईं। इससे यह भी सबक मिला कि इन तूफ़ान प्रभावित ग्रामीण इलाकों में उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री और मजबूत संरचनायें ही टिकेंगी। सुन्दरबन इलाके में अब नये सिरे से ‘पूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम” के अन्तर्गत कम कीमत वाले लेकिन मजबूत संरचना की डिजाइन वाले निर्माण कार्यों को ही प्राथमिकता दी जाये, ताकि इस प्रकार की भयानक आपदा (जो कि लगभग प्रतिवर्ष ही हो रही है) के बाद भी स्थाई रह सकें।

हालांकि इलाके के अधिकतर शौचालय बच गये हैं लेकिन जब तक ग्रामीण अपने-अपने घरों को लौट नहीं आते, तब तक ये बेकार ही हैं। तटबन्ध वाले इलाके, जहाँ से पानी उतर गया है, खुले में रह रहे इन लोगों को स्वच्छता कार्यक्रम की अधिक आवश्यकता है, विशेषकर स्त्रियों को, जिन्हें निवृत्त होने हेतु आसपास अधिक झाड़ियाँ और पेड़ भी उपलब्ध नहीं हैं। ज्योति ने पंचायतों को सुझाव दिया है कि फ़िलहाल इन क्षेत्रों में अस्थायी शौचालयों का निर्माण किया जाये। कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं ने चार स्थानों पर 10-15 शौचालयों के एक संकुल का निर्माण भी शुरु कर दिया है, जिससे काफ़ी मदद मिलेगी।

 

नुकसान का आकलन –


चक्रवाती तूफ़ान “आइला” ने अचानक हमला किया था, जिससे सभी को बहुत आश्चर्यमिश्रित धक्का लगा था। इस प्रकार के तूफ़ान से निपटने के लिये कोई तैयारी नहीं थी, इसलिये कई परिवारों ने तो अपना लगभग सब कुछ खो दिया। अब इन परिवारों को पुनः स्थापित और पूरी तरह खड़े होने में काफ़ी समय लगेगा, जबकि उनके दिलो-दिमाग पर इसकी “काली छाया” लम्बे समय तक रहेगी। भूमिगत जलस्रोतों को भले ही जल्दी ठीक कर लिया जाये लेकिन जल परिवहन की पूर्ववत स्थाई व्यवस्था का निर्माण जल्दी ही करना होगा, वरना यह तात्कालिक व्यवस्था भी ध्वस्त हो सकती है। करीब 250 शौचालयों और सस्ते खुले गढ्ढे वाले शौचालयों का निर्माण पहली प्राथमिकता होनी चाहिये। कुछ पक्के और अर्ध-स्थाई शौचालयों को भी पुनः निर्माण करना होगा व उन गढ्ढों से समुद्री पानी को जल्दी निकालकर उन्हें शुरु करना होगा। हजारों लोग बेघर हो चुके हैं, विभिन्न NGO लगातार प्रभावितों के सम्पर्क में हैं और जानकारियाँ एकत्रित कर रहे हैं ताकि मदद और पुनर्निर्माण की सामग्री, जो सरकार द्वारा घोषित हुई है और पहुँचाई जा रही है, सही हाथों में पहुँच सके। इसी प्रकार सभी सरकारी, बैंक, ॠण, किसान और परिवारों के कागज़ातों को बनाने का काम भी शुरु किया गया है।

सभी साथी NGO इस बात के लिये पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं कि इन इलाकों में जो समय, ऊर्जा और पैसा इन्होंने निवेश किया है, उसके पुनः उत्थान और पुनर्निर्माण के लिये जुटना है। सभी ने इस क्षेत्र को पूरी तरह से पहले की अवस्था में लाने हेतु स्वयं के लिये 3 से 4 माह की समय सीमा तय कर ली है। लगभग 4000 डालर की अतिरिक्त सहायता की तत्काल आवश्यकता होगी, एवं जब नुकसान का विस्तार से सर्वे कर लिया जायेगा, और स्थिति का पूर्ण आकलन होगा तब एक राहत हेतु एक विस्तृत योजना बनाई जायेगी, जिसमें विभिन्न पंचायतों, NGOs तथा स्थानीय कार्यकर्ता भी शामिल होंगे।

Tags- Aila in hindi, Water for People, Water, Sanitation

 

 

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