ऐसा हो हिमालय में विकास का मार्ग


गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु। ये तीनों जल प्रणालियाँ देश की 43 प्रतिशत जमीन में फैली है और इन नदियों के रूप में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत हिस्सा बहता है। इसलिये ये नदियाँ भारत की भाग्य विधाता भी कही जाती हैं। इनका उपयोग पेयजल, सिंचाई, जलविद्युत तथा औद्योगिक गतिविधियों में किया जाता है। इन तीन नदियों में गंगा का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है। यह आस्था से जितनी जुड़ी है, उससे अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है। हिमालयी क्षेत्र पूर्व से लेकर पश्चिम तक 2500 किलोमीटर लम्बाई तथा 250 से 300 किलोमीटर चौड़ाई में फैला है। हिमालय का प्राकृतिक क्षेत्रफल 5,94,427 वर्ग किलोमीटर है जो कि पूरे देश के क्षेत्रफल का 18 प्रतिशत है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 7 करोड़ 71 लाख है जो पूरे देश की आबादी का 6 प्रतिशत से अधिक है। विशाल और विविधतापूर्ण स्वरूप के कारण हिमालय क्षेत्र में अनेक समाज और उनके भी उपसमाज हजारों सालों से अस्तित्व में हैं।

हिमालय की विविधता का प्रमुख कारण उसकी विकट स्थलाकृति है। हिमालय पर्वत शृंखला जितनी विस्तृत है, उतनी ही विविधतापूर्ण भी है। इसके पाद प्रदेशों में जहाँ मैदानों का उच्च तापमान मौजूद है, वहीं सैकड़ों चोटियाँ हमेशा हिमाच्छादित रहती हैं, जिनका तापमान शून्य अथवा उसके भी कई अंश नीचे तक रहता है। इनमें लगभग 9575 हिमनद पसरे बताए जाते हैं। जलवायु की विविधता ने हिमालयी क्षेत्र में बसे विभिन्न समाजों को भिन्न-भिन्न प्रकार की जीवनचर्या अपनाने के लिये प्रेरित किया है।

हिमालय को भारतीय संस्कृति और मनीषा के केन्द्र में रखा गया है। यह हमारी संस्कृति ही नहीं, संसाधनों का भी आधार है। इसकी मिट्टी, जल तथा वनस्पतियाँ-जंगल आदि सिर्फ यहाँ के मानव जीवन तथा पर्यावरण को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप का जनजीवन तथा आर्थिकी भी इससे अभिन्न रूप से जुड़ी है। यह एशिया की जलवायु का नियामक और निर्माता भी है।

हिमालय से तीन नदी प्रणालियाँ निकलती है। ये हैं- गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु। ये तीनों जल प्रणालियाँ देश की 43 प्रतिशत जमीन में फैली है और इन नदियों के रूप में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत हिस्सा बहता है। इसलिये ये नदियाँ भारत की भाग्य विधाता भी कही जाती हैं। इनका उपयोग पेयजल, सिंचाई, जलविद्युत तथा औद्योगिक गतिविधियों में किया जाता है। इन तीन नदियों में गंगा का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है। यह आस्था से जितनी जुड़ी है, उससे अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है।

हिमालय जन्मजात नाजुक पर्वत शृंखला है। टूटना और बनना इसके स्वभाव में है। अति मानवीय हस्तक्षेप को यह बर्दाश्त नहीं करता। भूकम्प, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर-तालों का टूटना और नदियों का अवरुद्ध होना इसके स्वभाव से जुड़े हैं। इसलिये सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र आपदा प्रभावित है जिसमें जन-धन की हानि का सिलसिला साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है।

19वीं-20वीं सदियों की आपदाएँ छोड़ भी दी जाएँ तो 21वीं सदी के आरम्भ यानी वर्ष 2000 से 2015 तक हर साल कोई-न-कोई आपदा अपना विकराल स्वरूप दिखाती आ रही है। यह क्रम निरन्तर बढ़ता जा रहा है। साल 2000 की सिंधु-सतलज एवं सियांग-ब्रह्मपुत्र की बाढ़ हो या वर्ष 2004 की पारिचू झील बनने और टूटने से सतलुज की बाढ़ हो। 2008 की कोसी की बाढ़ हो या फिर तीस्ता, मानस, गोरी, लेह-नाला (जो खरदुंगला से शुरू होता है) या असी गंगा (भागीरथी की सहायक) तथा पिछले 4-5 सालों की बाढ़, सबने हिमालय के स्वभाव पर मानवीय हस्तक्षेप के प्रभाव को उजागर किया है।

वर्ष 2013 के जून मध्य से आरम्भ हुई गंगा की सहायक धाराओं की प्रलयंकारी बाढ़ ने केदारनाथ सहित पूरे क्षेत्र में अभूतपूर्व विध्वंस किया। उत्तराखण्ड की इस त्रासदी ने हम सबको स्थिति का गम्भीर विश्लेषण करने के लिये विवश कर दिया है। इसी प्रकार सन 2014-15 की जम्मू-कश्मीर की बाढ़ से हुई भयंकर तबाही ने हमें हिमालयी क्षेत्रों के टिकाऊ विकास के बारे में सोचने के लिये भी मजबूर कर दिया है। क्योंकि इन आपदाओं ने न केवल स्थानीय लोगों की खेती-बाड़ी बल्कि आर्थिकी को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। साथ ही विद्युत तथा सिंचाई परियोजनाओं के अलावा हमारी अन्य विकास परियोजनाओं को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। हिमालय की यह दशा केवल प्राकृतिक कारणों से हुई है, ऐसा नहीं है। मानवकृत कारण इसके लिये कहीं अधिक दोषी है। इस प्रकार प्राकृतिक एवं मानवकृत कारणों से हिमालय में कई गम्भीर समस्याएँ पैदा हो रही हैं जो विभिन्न रूपों में विनाश को बढ़ाने में सहायक बन रही है। इसके कुछ प्रमुख लक्षण निम्नवत हैं:

मिट्टी की ऊपरी परत का ह्रास : हिमालय में मिट्टी की ऊपरी परत का तेजी से ह्रास हो रहा है। इसका कारण जंगलों का विनाश, वनाग्नि, ढालदार भूमि में खेती करना, विकास कार्यों में मृदा निस्तारण की पुष्ट व्यवस्था का अभाव आदि हैं।

भू-क्षरण और भूस्खलन : इसमें मिट्टी की ऊपरी परत का क्षरण तो जिम्मेदार है ही, विकास कार्यों में विस्फोटकों के धमाकों से पहाड़ियों को कमजोर बनाना एवं प्राकृतिक कारणों में ऋतु क्रिया के साथ ही नियमित रूप से आ रहे छोटे-बड़े भूकम्प भी इस क्रिया को लगातार बढ़ा रहे हैं।

हिमानियों का पीछे सरकना : तापमान में बढ़ोत्तरी एवं प्राकृतिक परिस्थितियों में बिगाड़ के कारण हिमानियाँ तेजी से पीछे सरक रही हैं। हिमानियों के पीछे सरकने से नये-नये हिम तालाब बन रहे हैं और तापमान के बढ़ने से उनके टूटने की प्रक्रिया तेज होती जा रही है। जिसके कारण इन नदियों पर निर्मित और निर्माणाधीन विद्युत, सिंचाई आदि परियोजनाओं पर गम्भीर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। 16-17 जून 2013 की उत्तराखण्ड में गंगा की सहायक धारा- मंदाकिनी, नंदाकिनी, धौली पश्चिमी, धौली पूर्वी, पिण्डर, रामगंगा पूर्वी, कोशी, सरयू गौरी, काली, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस तथा हिमाचल प्रदेश में सतलज एवं उसकी सहायक धाराओं में प्रलयंकारी बाढ़ से भारी विनाश हुआ था, जो इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

सामाजिक आर्थिक विकास : हिमालय क्षेत्र की जटिल भूसंरचना और संवेदनशील पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के अनुरूप विकास कार्यों का नियोजन तथा क्रियान्वयन होना अत्यन्त आवश्यक है। वैज्ञानिक एवं विचारक मानते हैं कि हिमालय क्षेत्र देश की जलवायु के नियमन, नियंत्रण एवं संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यहाँ होने वाले किसी भी हलचल अथवा गड़बड़ी का प्रभाव स्थानीय धरती एवं निवासियों के साथ-साथ सुदूर मैदानी क्षेत्रों तक पड़ता है। इससे भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकट लगातार बढ़ रहे हैं। इसलिये यहाँ के प्रमुख संसाधन जैसे भूमि, जल और वन का व्यापक आकलन करते हुए उनकी विवरणिका (डेटाबेस) तैयार की जानी चाहिए। और विकास प्रक्रिया में इन आधारभूत संसाधनों के समुचित संरक्षण, संवर्धन एवं उपयोग को प्रमुख आधार बनाया जाना चाहिए।

हिमालयी क्षेत्र के लिये भूमि उपयोग, वन एवं जल की नीति इन प्राकृतिक संसाधनों एवं इनके विभिन्न घटकों के सतत संरक्षण एवं संवर्धन पर केन्द्रित होनी चाहिए। उनके युक्तियुक्त उपयोग का पहला और सार्वभौम अधिकार स्थानीय समुदायों का हो और तदनन्तर अन्य समाजों को इसका लाभ मिले, ऐसी नीति और व्यवस्था सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

जल हिमालयी क्षेत्रों का एक प्रमुख संसाधन है। इसके उपयोग का एक बड़ा माध्यम विद्युत उत्पादन है जिस पर राज्य और केन्द्र सरकारों का बड़ा जोर है लेकिन इनमें स्थानीय परिस्थितियों और समाज के हितों की अनदेखी की जा रही है, जिससे लोग आन्दोलित हैं। जल के उपयोग का प्रथम अधिकार स्थानीय जन को हो। इस सिद्धान्त के आधार पर बिजली परियोजनाओं में स्थानीय हितों को इस प्रकार समाहित किया जाना चाहिए कि प्रभाव क्षेत्र का जनजीवन पहले की अपेक्षा अधिक समुखमय और समृद्ध हो। इन परियोजनाओं से सम्बन्धित प्रक्रियाओं को समाजोन्मुखी और लोकोन्मुखी बनाया जाना चाहिए।

हिमालयी क्षेत्रों में कृषि आजीविका का परम्परागत और प्रमुख आधार है, लेकिन कृषि भूमि कम, जोतें छोटी व बिखरी और अधिकतर असिंचित होने से कृषि यहाँ कई क्षेत्रों में अनार्थिक व्यवसाय बन गया है और यह पलायन का एक बड़ा कारण है। अतः यहाँ ऐसी फसलों अथवा उत्पादों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो मूल्य में अधिक तथा भार में कम हों, जल्दी खराब होने वाली भी न हों। और जिनकी माँग अधिक हो और जिन्हें वन्य पशु कम क्षति पहुँचाते हों। इसमें भी कुछ अभिनव प्रयोग एवं अनुसन्धान अपेक्षित है।

मौसम में हो रहे बदलावों के प्रभावों को हिमालयी क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। ग्लेशियरों के तेजी से गलन की चिन्ताएँ लगातार सामने आ रही हैं। इसका स्थानीय उत्पादकता, जलवायु तथा जनजीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसका व्यापक अध्ययन कर आँकड़े तैयार किए जाएँ तथा उनका समय-समय पर तुलनात्मक अध्ययन कर उसमें हो रहे परिवर्तनों की जानकारी सार्वजनिक की जाये। इसके लिये भी प्रभावी तंत्र विकसित करना अत्यन्त आवश्यक है।

हिमालयी क्षेत्र में आर्थिक विकास के केन्द्र में पारिस्थितिकी विकास को रखा जाना चाहिए जिससे प्राकृतिक सन्तुलन बना रहे। इसके लिये राज्य सरकारों को विकास से जुड़े समस्त विभागों एवं अनुसन्धानकर्ताओं एवं तकनीकीविदों को साथ लेकर जल-जंगल-जमीन के संरक्षण के साथ सातत्य चलने वाली उत्पादकता को प्रोत्साहित करने वाली प्रणाली विकसित करनी होगी।

संस्थागत ढाँचा


हिमालयी क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय विकास के समन्वय के लिये अभी तक राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा उच्चस्तरीय ढाँचा नहीं है, जो इस क्षेत्र की समस्याओं को समन्वित तरीके से समझे तथा इस हेतु नीतियाँ और कार्ययोजनाएँ बनाए, उनके क्रियान्वयन हेतु दिशा-निर्देश तय करे और उसका कठोरता से अनुश्रवण भी करे।

वर्ष 1982 में भारत सरकार ने हिमालयी क्षेत्रों के ईको डेवलपमेंट के अध्ययन के लिये प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक कार्यबल बनाया था। कार्यबल ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हिमालयी क्षेत्र के लिये ‘ईको डेवलपमेंट कमीशन’ की स्थापना की सिफारिश की थी। यह सिफारिश लागू नहीं हो पाई।

इस सन्दर्भ में जलवायु परिवर्तन, बढ़ते तापमान आदि परिस्थितियों को देखते हुए हिमालय क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक विकास एवं पारिस्थितिकीय सन्तुलन के लिये उच्चस्तरीय हिमालयन पारिस्थितिकीय विकास आयोग की स्थापना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री या नीति आयोग के उपाध्यक्ष हों। इस आयोग में वित्त, पर्यावरण, कृषि, ऊर्जा, परिवहन मंत्रियों के अलावा हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्री तथा नीति आयोग के पर्वतीय क्षेत्र के प्रभारी सदस्य हों। आयोग हिमालय के सन्दर्भ में सर्वोच्च नियामक संस्था बने। साल में कम-से-कम एक बार बैठे तथा नीति आयोग के समक्ष हिमालय की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

इसके साथ ही एक कार्यकारी समिति भी गठित हो, जो कि पारिस्थितिकीय विकास इकाई की तरह कार्य करे। यह समिति नीति आयोग के सदस्य की अध्यक्षता में गठित की जा सकती है जिसमें वित्त, पर्यावरण, कृषि, ऊर्जा, परिवहन आदि सचिवों के अलावा राज्यों के विकास आयुक्त, सचिव नियोजन आदि सदस्य रहें। यह समिति हिमालयी क्षेत्र के विकास हेतु लघु व दीर्घकालीन रणनीति के सुझाव व निर्देश दे सकेगी। साथ ही कार्यक्रमों के स्थानीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी तथा प्रगति के बारे में जानकारी भी रखेगी।

कार्यकारी समिति हिमालयी पारिस्थितिकीय विकास आयोग की सहायता करेगी। यह समिति कार्ययोजना तैयार करे और हर तिमाही कार्यों की समीक्षा करेगी। समिति के सदस्यों के अतिरिक्त विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को आवश्यकतानुसार सलाह हेतु समिति बुला सकती है। इस प्रकार का संस्थागत ढाँचा गाँव से राज्य स्तर पर स्थापित किया जा सकता है। इस संस्थागत ढाँचे से हिमालयी क्षेत्रों के मूल जीवनतंत्र को बिना क्षति पहुँचाए वांछित आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने की आशा की जा सकती है।

लेखक प्रसिद्ध गाँधीवादी पर्यावरणविद और चिपको आन्दोलन के प्रणेता हैं।

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