ऐसे जाना दंतेवाड़ा को

3 Oct 2015
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इन्द्रावती नदी के किनारे बने 'टूरिस्ट लॉग हट' से दोनों ओर फैले जंगल का मनोहारी दृश्य देखते ही बनता है। कल-कल करती बहती नदी की सुरीली आवाज वातावरण को और भी खुश-नुमा बना देती है। यहाँ से 500 मीटर दूर स्थित प्राकृतिक जल-प्रपात चित्रकोट, वातावरण को और भी लुभावना बना देता है। इस झरने को भारत का नियाग्रा फॉल भी कहा जाता है। हालाँकि अमेरिकन नियाग्रा फॉल में विवाद है, लेकिन भारतीय नियाग्रा फॉल मे कोई विवाद नहीं है।धान ‘धान का कटोरा’ कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ का सूबा भले ही नक्सली गतिविधियों की वजह लोग बाग जानते हों। लेकिन इस सूबे में झरने और ऊँची-नीची पहाड़ियाँ और उन पर फैली हरियाली जैसे प्रकृति के मनोरम दृश्य लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसके साथ जहाँ-तहाँ बने धार्मिक स्थल बार-बार देखने को मन करता है।

पिछले दिनों रायपुर जाने का मौका मिला। जहाँ पर भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के सम्मेलन में छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री रमन सिंह राज्य में चल रही योजनाओं का बखान कर रहे थे। उसे नजदीक से जाँचने-परखने के लिए बस्तर जाने का महत्व और बढ़ गया। यह वही बस्तर है, जहाँ की नक्सलवादी घटनाएँ समाचार पत्रों का मुख्य हिस्सा बनती रहती हैं। उस दिन ‘बस’ रायपुर से करीब तीन बजे बस्तर के लिए रवाना हुई। शहर से बाहर निकलते ही धर्मतरी रोड के दोनों ओर लहराते धान के खेत बरबस गाँव की याद दिलाने लगे। खेत में लहलहाती धान की पकी और अधपकी फसलें ऐसे लगती हैं जैसे मानो धरती धानी रंग की चुनरी ओढे हुए है। शायद इसलिए छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। यह छत्तीसगढ़ का सपाट एवं समतल इलाका है। बाजारों की चहल पहल दूसरे आम बजारों जैसी ही है। छोटे-मोटे बाजारों को छोड़ते हुए आगे कांकेर घाटी यानी उत्तर बस्तर का इलाका आ गया। यहीं से पहाड़ी जंगल शुरु हो जाता है।

कहा जाता है कि यह घाटी नक्सलवाद की जद में आती है। मन में अनेकों विचार आए और साथ-साथ किसी नक्सलवादी गुट से मिलने की इच्छा भी हुई। साँझ की बेला घाटी को अपने आगोश में ले चुकी थी, जो धीरे-धीरे अंधेरे में परिवर्तित होती जा रही थी। आगे बहु-मोड़ीय पहाड़ी सड़क थी, जहाँ सफर करते वक्त भूटान यात्रा की याद आ गई, पता चलता है कि यह कांकेर घाट है जिसको केशकाल घाट भी कहा जाता है। बहरहाल कठिन मोड़ के साथ-साथ सड़क ठीक-ठाक है। घाट पार करते ही केशकाल बाजार आ गया, जहाँ स्थानीय लोगों के लिहाज से बाजार ठीक ही लगा। कहीं-कहीं घर के आगे खड़ी गाड़ियों को देख कर लगा कि नक्सलवाद से स्थानीय लोगों को उतना भय नहीं है जितना बाहरी लोग खौफ खाते हैं।

रात के करीब नौ बज रहे थे। बस स्टैंड के आस-पास की दुकानें आम बाजारों जैसी ही खुली थी। दूर-दूर तक खौफ का नामो-निशान तक नहीं था। यहाँ से जगदलपुर करीब 130 किलोमीटर है। अतः कुछ खाने-पीने की चीजें खरीद कर आगे की यात्रा पर चल दिए। रात करीब 12 बजे शहर में स्थित धर्मशाला पहुँच गए, जहाँ रात्रि भोजन की व्यवस्था थी। कुछ पत्रकार साथियों के ठहरने की व्यवस्था यहाँ थी तो औरों के लिए यहाँ से 40 किलोमीटर दूर इन्द्रावती नदी के किनारे बने 'टूरिस्ट लॉग हट' में। यह राज्य सरकार द्वारा विकसित टूरिस्ट स्पॉट है जिसकी देख-रेख पर्यटन विभाग द्वारा की जाती है। दक्षिण बस्तर का यह क्षेत्र नक्सली परिधि में आता है। सन 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने यहाँ प्रवास किया था। उस दौरान नक्सलवादियों ने पुलिस की जीप को उड़ा दिया था। यहाँ पहुँचते ही तत्कालीन घटना मन में घूमने लगी।

नदी छोर पर बने हट से दोनों ओर फैले जंगल का मनोहारी दृश्य देखते ही बनता है। कल-कल करती बहती नदी की सुरीली आवाज वातावरण को और भी खुशनुमा बना देती है। यहाँ से 500 मीटर दूर स्थित प्राकृतिक जलप्रपात चित्रकोट, वातावरण को और भी लुभावना बना देता है। इस झरने को भारत का नियाग्रा फॉल भी कहा जाता है। हालाँकि अमेरिकन नियाग्रा फॉल में विवाद है, लेकिन भारतीय नियाग्रा फॉल में कोई विवाद नहीं है। लगभग 100 फुट की ऊँचाई से गिरने वाले फॉल की चौड़ाई करीब 300 मीटर है। इन्द्रावती नदी का उद्गम स्थल उड़ीसा के जिला कालाहांडी का इन्द्र वन है, शायद इसी कारण इसका नाम इन्द्रावती नदी पड़ा है। अमेरिकन नियाग्रा फॉल की तरह इस फॉल का आकार भी घोड़े की नाल की तरह है, इसलिए इसको भारतीय नियाग्रा फॉल कहा जाता है। फॉल के बायीं ओर गुफा में शिव पार्वती की मूर्ति स्थापित है, जहाँ श्रद्धालु पूजा-याचना करते हैं। सड़क और झरने के बीच में शिव मंदिर है, जहाँ स्थापित नंदी की मूर्ति के साथ लोग फोटो खिंचवाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं। स्थानीय लोग यहाँ पिंड-दान भी करते हैं। यहाँ स्थानीय हस्त निर्मित वस्तुएँ खरीदने के लिए उपलब्ध हैं।

चित्रकोट फॉल देखने के बाद बस्तर का प्रसिद्ध मंदिर दंतेश्वरी के दर्शन करने की इच्छा हुई, जो यहाँ से लगभग 100 किलोमीटर दूर दंतेवाड़ा में है, वहाँ पहुँचने के दो मार्ग हैं। पहला रास्ता वाया जगदलपुर तो दूसरा चित्रकोट-बाडसुर-गीदम होकर। पहला रास्ता एकदम चकाचक रोड से जुड़ा है तो दूसरा उबड़-खाबड़ रोड से। पहला रास्ता साफ सुथरा जोखिम रहित है तो दूसरा जोखिम भरा है। पहला रास्ता राज्य मार्ग एवं राष्ट्रीय राजमार्ग 16 से जुड़ा है तो दूसरा पीडब्ल्यूडी निर्मित राज्य मार्ग से। पहला रास्ता बाजार-हाट होकर है तो दूसरा घने जंगल एवं छिट-पुट आबादी से होकर। जहाँ पहले रास्ते से दूरी 100 किलोमीटर से ज्यादा है वहीं दूसरे रास्ते से लगभग आधी से कुछ ज्यादा ही। अतः हमने दूसरे रास्ते से जाने का निर्णय लिया, क्योंकि हम लोग बस्तर की वास्तविकता अपनी आँखों से देखना चाहते थे। इसके लिए गाड़ी के ड्राइवर बालकृष्ण तैयार नहीं थे। अंत में जिम्मेवारी स्वयं वहन करने की बिना पर वे मान गए।

चित्रकोट बाजार से थोड़ा आगे चलकर यह रास्ता चित्रकोट-जगदलपुर सड़क से कट जाती है। यह अनाम सड़क तीर्थगढ़ झरने के बगल से निकलकर घने जंगल से होती हुई सीधे बाड़सुर गाँव पहुँचती है, जहाँ यह राज्य मार्ग 5 में मिल जाती है। लगभग 50 किलोमीटर की यह बियाबान सड़क उबड़-खाबड़ है, लेकिन है रोमांचक। ऊँची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी सड़क के दोनों ओर फैले हरे-भरे घने जंगल मन को तो लुभाते हैं, लेकिन इतने घने जंगल में किसी जानवर या पशु-पक्षी के निशान तक नहीं मिलते, बियाबान में इनको न देखना, आश्चर्य होता है। कहीं-कहीं सड़क के किनारे धान के खेत दिखते हैं, जो आबादी का एहसास कराते हैं। इस रोमांचक यात्रा के बाद अब हम बारसूर यानी स्टेट हाईवे 5 पर हैं यही बढ़िया सपाट सड़क गीदम होकर दन्तेवाड़ा जाती है।

बाडसुर एक ऐतिहासिक स्थल है। यह जिला दन्तेवाड़ा की तहसील गीदम का एक गाँव है। कहा जाता है कि नौवीं शताब्दी में यहाँ गंगा वंशी राजा का शासन था, उन्होंने यहाँ 147 मंदिर बनवाए तथा इतने ही तालाब खुदवाए थे। जिनके कुछ अवशेष अब भी यहाँ विद्यमान हैं, जिसमें 32 पीलर अर्थात 32 पीलरों वाला बत्तीसा मंदिर, गणेश एवं मामा-भाँजे का मंदिर तत्कालीन नगर की भव्यता की कहानी स्वयं बयाँ करते हैं। हालाँकि इन धरोहरों के चारों ओर आज खेत फैले हुए हैं और तालाब का नामोनिशान तक नहीं है। आज यह मंदिर पुरातत्व विभाग की धरोहर है। यहाँ से करीब 24 किलोमीटर आगे गीदम है, जिसको देखकर लगता है कि यहाँ नक्सलवाद जैसी कोई समस्या नहीं होगी।

दूर-दूर तक फैले आधुनिक शिक्षण संस्थान मुख्यमन्त्री रमन सिंह की बात को सही सिद्ध कर रहे थे। यहीं से कुछ दूर आगे दन्तेवाड़ा जिले का मुख्यालय है और माता दन्तेश्वरी का मंदिर है। हिन्दू धर्म के 52 शक्तिपीठों में शुमार दक्षिण भारतीय मन्दिर वास्तुकला पर आधारित माता दन्तेश्वरी मन्दिर शंखिनी और डांकिनी नदी के संगम पर स्थित है। आयताकार में बने मंदिर के चार भाग हैं, गर्भ ग्रह, महा मंडप, मुख्य मंडप और सभा मंडप। मंदिर के सामने गरुड़ स्तम्भ है जिसके बारे में विभिन्न किवदंतियाँ हैं। इसे श्रद्धालु उलटी बाहों में भरने की कोशिश करते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर को चालूक्य राजवंश ने चौदहवीं शताब्दी में बनवाया था। मंदिर दर्शन से पहले नदी में स्नान करने की इच्छा होती है। यही सोचकर मंदिर के पास बनी सीढ़ियों से उतरकर घाट पर पहुँचते हैं। नदी का पानी नहाने के लायक ना देखकर स्थानीय निवासियों से इसकी वास्तविकता जानने की कोशिश की। पता चला कि यहाँ से कोई 40-50 किलोमीटर दूर बैलडील पहाड़ी है, जो इन नदियों का उद्गम स्थल है। इसी पहाड़ी पर राष्ट्रीय खनिज विकास निगम की फैक्ट्री है, जिसमें निकलने वाले लौह खनिज के अवशेष पानी में मिलते रहते हैं तथा कुछ बरसात का भी प्रभाव है। खैर हमने नहाने का विचार त्याग कर आचमन भरकर लेते हैं। बस्तर के इस प्रसिद्ध मन्दिर में मूलभूत सुविधाओं का ना होना काफी अखरा।

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