अकाल की आहट

drought in india
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मानसून और भारतीय कृषि का संबंध पारंपरिक है। पर हर बार होता यही है कि हमारी खेती और किसानी से जुड़ी पूरी अर्थव्यवस्था मानसून की मेहरबानी की मोहताज रहती है। जलवायु चक्र में बदलाव और देश की अर्थव्यवस्था के साथ जीवनशैली में आए पिछले कुछ दशकों के परिवर्तन ने इस मोहताजी के आगे के संकट भी सतह पर ला दिए हैं। यही कारण है कि मानसून की लेट-लतीफी से पैदा हुई समस्याओं और आशंकाओं ने प्रकृति के साथ हमारे संबंधों और सरोकारों पर एक बार फिर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। पढ़िए सोमपाल शास्त्री से देवेन्द्र शर्मा की बातचीत पर आधारित लेख में बेवाक टिप्पणी

 

 

हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों में जलाशयों का स्तर काफी घट गया है। इन क्षेत्रों में जलाशयों के जरिए काफी बड़े भूभाग में फसलों की सिंचाई होती है। सरकारी आंकड़े सच बयां नहीं करते केंद्रीय कृषि मंत्री ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि दो जुलाई तक पूरे देश में 31 फीसद कम मानसून रहा है। मौसम विभाग ने भी इसी तरह के आंकड़े जारी किए हैं। ये अर्थव्यवस्था के लिए भयानक संकेत हैं क्योंकि देश के कुछ भागों में तो मानसून की बारिश औसत से 86 फीसद तक कम हुई जबकि कुछ क्षेत्रों में यह अभाव औसत से मामूली कम है।

मानसून की चाल को देखते हुए आने वाले चंद दिनों में पर्याप्त राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। यदि जुलाई में झमाझम बारिश नहीं होती है तो समूचा देश भयावह सूखे की चपेट में आ सकता है। किसानों की आय और क्रय शक्ति कम होने से देश की अर्थव्यवस्था और कमजोर पड़ जाएगी क्योंकि औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की 45 फीसद मांग ग्रामीण क्षेत्रों से ही निकलती है अकाल की आहट इस बार मानसून में विलंब होने और औसत से कम बारिश के कारण देश में सूखे और अकाल की आशंका प्रकट होने लगी है। मानसून जिस गति से बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कम से कम अगले कुछ दिनों में पर्याप्त राहत मिलने की आशा नहीं है। ताजा आंकड़े दर्शाते हैं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में सामान्य से 20 से 80 फीसद तक वर्षा का अभाव हो चुका है। अगर जुलाई में भी पर्याप्त वर्षा नहीं हुई तो समूचा देश भयावह सूखे की चपेट में आ सकता है। प्रशासनिक परिभाषा के अनुसार अगर देश में मानसून औसत से 10 फीसद कम रहता है और 20 फीसद से अधिक क्षेत्रफल वर्षा की कमी अनुभव करता है तो उसे राष्ट्रीय सूखे की संज्ञा दे दी जाती है। अभी तक के उपलब्ध अनुमानों और आंकड़ों के अनुसार यह स्थिति बनती दिख रही है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार दो जुलाई तक देश में पिछले साल की तुलना में खरीफ की फसलों की बुवाई का रकबा काफी कम हुआ है। मक्का, ज्वार, ग्वार और बाजरा जैसे मोटे अनाजों की फसलों के हालात और भी ज्यादा खराब हैं। पिछले वर्ष की इस अवधि तक मोटे अनाजों की 22.1 लाख हेक्टेयर में बुवाई हो चुकी थी, जो इस साल अब तक सिर्फ 10.4 लाख हेक्टेयर पर ही पहुंच पाई है। दलहन का रकबा भी इस वर्ष अभी चार लाख हेक्टेयर है, जो पिछले वर्ष अब तक 6.1 लाख हेक्टेयर था। तिलहन का रकबा पिछले साल इसी समय के 13 लाख हेक्टेयर से घटकर 10.8 लाख हेक्टेयर रह गया है। हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों में जलाशयों का स्तर काफी घट गया है। इन क्षेत्रों में जलाशयों के जरिए काफी बड़े भूभाग में फसलों की सिंचाई होती है। सरकारी आंकड़े सच बयां नहीं करते केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि दो जुलाई तक पूरे देश में 31 फीसद कम मानसून रहा है।

मौसम विभाग ने भी इसी तरह के आंकड़े जारी किए हैं। ये अर्थव्यवस्था के लिए भयानक संकेत हैं क्योंकि देश के कुछ भागों में तो मानसून की बारिश औसत से 86 फीसद तक कम हुई जबकि कुछ क्षेत्रों में यह अभाव औसत से मामूली कम है। ऐसे में सरकारी आंकड़े हकीकत बयान नहीं करते। मौसम विभाग के अनुसार देशभर में स्थिति गंभीर बनी हुई है। अभी तक जो कुल बारिश हुई है, उसके हिसाब से देश का 78 फीसद भौगोलिक क्षेत्र वर्षा के अभाव से ग्रस्त है। देश के 30 फीसद हिस्से में औसत से 60 फीसद से ज्यादा कम बारिश हुई है। दिल्ली सहित उत्तरी भारत में सर्वाधिक कमी महसूस की जा रही है। उत्तरी भारत में अभी तक 31 फीसद औसत से कम बारिश हुई है। सबसे कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 92 फीसद कम बारिश हुई है जबकि यह आंकड़ा पंजाब में 84 फीसद और पश्चिमी राजस्थान में 83 फीसद रहा है। पूरे उत्तर प्रदेश में 78 फीसद कम बारिश हुई है जबकि पूर्वी राजस्थान में 76 फीसद, उत्तराखंड में 62 फीसद, जम्मू कश्मीर में 42 फीसद वर्षा औसत अनुमान से कम हुई है।

हाल ही में केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा है कि धान की फसल पर कमजोर मानसून का गंभीर असर नहीं पड़ेगा। साथ ही उन्होंने यह भी आशा जाहिर की कि अगर जुलाई में धान के लिए पर्याप्त वर्षा नहीं होती है तो बहुत सारा क्षेत्रफल तिलहन और दलहन के अंतर्गत आ जाएगा। उनका यह अनुमान किस बात पर आधारित है, यह समझ से बाहर है। क्योंकि किसान धान की फसल की बुवाई के लिए पौध लगाने से लेकर रोपाई तक सभी तैयारियां पूरी कर चुका है। जाहिर तौर पर उनकी जेब से लागत खर्च तो पहले ही निकल चुका है। यदि यह मान भी लिया जाए कि धान की फसल थोड़ी बहुत कम होने से धान की उपलब्धता पर असर नहीं पड़ेगा और कुछ क्षेत्रफल दूसरी फसलों में इस्तेमाल हो जाएगा तो भी किसान का जो नुकसान हो चुका है, वह उसे बर्बाद करने के लिए काफी है। दूसरा यह कि जुलाई और अगस्त में कितनी बारिश होगी, उसका भी कोई सही अनुमान उपलब्ध नहीं है क्योंकि मानसून की सबसे बड़ी कठिनाई औसत से कम बारिश होना ही नहीं है बल्कि किस समय कितनी बारिश होती है या नहीं होती, और उसका क्षेत्रवार बंटवारा कैसा है, ये भी महत्वपूर्ण बातें हैं।

यदि कुछ क्षेत्र वर्षा के अभाव से ग्रस्त होते हैं तो उस क्षेत्र के पीड़ित किसानों की भरपाई ज्यादा बारिश वाले दूसरे क्षेत्र के किसान नहीं कर सकते। तीसरे, यदि बारिश अच्छी नहीं होती है तो भूजल स्रोतों से मिलने वाले जल का भी अभाव हो सकता है। इससे सिंचाई पूरी तरह प्रभावित हो सकती है। बड़े-बड़े बांधों और जलाशयों में अगर पानी का पुनर्भरण पर्याप्त नहीं होता है तो नहरों-तालाबों से होने वाली सिंचाई पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा और उसका प्रभाव कुल पैदावार पर भी देखने को मिलेगा। खेती और किसानी का अर्थशास्त्र भारत में कृषि का महत्व केवल खाद्यान्न उत्पादन करने के लिए ही नहीं है बल्कि इसका सीधा संबंध कृषक या ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भी है। किसानों की आय और क्रय शक्ति कम होने का असर व्यापारी और औद्योगिक क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। शासन और अर्थशास्त्री एक स्वर से मानते हैं कि लगभग 45 फीसद औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की मांग ग्रामीण क्षेत्रों से ही आती है। यदि किसानों की आमदनी कम होती है तो औद्योगिक उत्पादों की मांग भी घट जाती है।

देश में मानसून की देरी से सूखे का संकटदेश में मानसून की देरी से सूखे का संकटदेश वैश्विक मंदी से प्रभावित होने के कारण अंतरराष्ट्रीय मांग की भारी कमी अनुभव कर रहा है। परिणामस्वरूप मई में देश का निर्यात चार फीसद घट गया। यदि देश की आंतरिक मांग में भी कमी होती है तो आर्थिक मंदी और भयावह रूप धारण कर सकती है। प्रधानमंत्री ने हाल में निवेशकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बेहतर माहौल बनाने का वादा किया है। यदि सूखे से कृषि और किसान प्रभावित होते हैं तो उनके इस प्रयास को आघात लग सकता है। अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि क्या मानसूनी बारिश के अभाव से पूरी तरह निपटा जा सकता है, जहां तक अल्पावधि यानी एक या दो साल का सवाल है तो जल प्रबंधन के समुचित प्रयास से काफी हद तक इस समस्या से निपटा जा सकता है। यदि मानसून लगातार दो या तीन साल तक असफल रहता है तो स्थिति जरूर भयावह हो सकती है।

सिंचाई सुविधा के लिए धन नहीं देती सरकार दुखद है कि देश की आजादी के इतने साल बाद भी कृषि का सिंचित क्षेत्र 40 फीसद के स्तर पर ही बना हुआ है। हमारी 60 फीसद खेती आज भी केवल बारिश पर ही निर्भर है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कुल गरीबों की 80 फीसद से अधिक संख्या इन वर्षा आधारित क्षेत्रों में ही रहती है। सरकार को बार-बार ध्यान दिलाए जाने के बावजूद एक राष्ट्रव्यापी दीर्घकालीन समेकित जल विकास और प्रबंध योजना बनाने पर गौर नहीं किया जा रहा है। पिछले दो दशकों से संचार साधनों के विकास पर 20 से 25 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष योजनामद में खर्च किए जाते हैं परंतु सिंचाई में केंद्रीय बजट में औसतन 300 से 400 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया जाता है। मेरा अनुमान है कि पूरे देश में सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने के लिए पांच लाख करोड़ रुपए की जरूरत है। इस बारे में मैं सरकार को कई बार लिखित में दे चुका हूं कि इसके लिए एक विशेष परियोजना तैयार की जाए।

दस साल में इस परियोजना को सिरे तक पहुंचाया जा सकता है। इस हिसाब से हर साल 50 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। इसमें 25 हजार करोड़ रुपए हर साल केंद्र सरकार और इतनी ही राशि सारे राज्यों को मिलकर लगानी चाहिए। इससे दस साल में पूरी कृषि भूमि को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराए जा सकते हैं। इस परियोजना के जरिए देश में इतना खाद्यान्न पैदा किया जा सकता है कि हमें दहलन, तिलहन के लिए विदेशों की ओर टकटकी नहीं लगानी पड़ेगी। इस क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हो जाएंगे और निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर सकेंगे। हैरानी की बात यह है कि इस महत्वाकांक्षी योजना पर सरकार ने आज तक गौर नहीं किया है। यदि इस योजना पर 50 फीसद भी काम हो चुका होता तो सरकार को आज जैसी भयावह स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।

सोमपाल शास्त्री से देवेन्द्र शर्मा ने की बातचीत
 

 

 

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