अकाल पर सुकाल का टांका

28 Aug 2009
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पश्चिमी राजस्थान के थार में बीते सालों के मुकाबले इस साल सूखे की छाया ज्यादा काली है। इसके बावजूद गीले रहने की परंपरागत कलाओं से तरबतर कुछ गांवों में पानी की कुल मांग में से 40 प्रतिशत तक फसल उगाने की जुगत जारी है। बायतु, बाड़मेर से सुखद समाचार लेकर लौटे शिरीष खरे की रिपोर्ट -

अगर आप पाकिस्तान की सीमा से कंधा मिलाने वाले जिला बाड़मेर का नक्शा देखें तो बायतु ब्लाक अच्छी-खासी जगह घेरता दिखता है। बायतु से लगा ज्यादातर इलाका हरे रंग से रंगा है जो थार का खाली स्थान बतलाता है। दूसरी तरफ का मामूली-सा हिस्सा पीले रंग में है वो प्रशासनिक क्षेत्र का संकेत देता है। बायतु ब्लाक की 47 में से 42 पंचायतों का पानी ऐसा खारा (फ्लोराइट-8 पीपीएम) है कि गले नहीं उतरता। मीठे पानी का इकलौता जरिया है भी तो 60 किलोमीटर दूर शिव ब्लाक के उण्डू में। उधर की पाइपलाइन से आने वाला मीठा पानी 42 किलोमीटर की यात्रा करके खानजी का बेटा गांव से दो धाराओं में फूटता है। एक का रास्ता 18 किलोमीटर दूर पनावड़ा की तरफ जाता है, दूसरा इतनी ही दूरी के बाद बायतु से होकर गिरा तक गिरता है। लेकिन अब यह पूरी पाइपलाइन बहुत पुरानी और खस्ताहाल है, कचरा जमा होने के अलावा इसके कनेक्शन भी जगह-जगह से खुले मिलते हैं। इसकी लंबाई के चलते पानी की आपूर्ति महीने में 5 रोज और उसमें भी मुश्किल से 2 घण्टे हो पाती है। यह पानी घर-घर पहुंचने की बजाय सामुदायिक होदी तक ही पहुंचता है, यही से मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन लग जाती है। नए दोस्तों के हवाले से- यह दृश्य तो कुछ भी नहीं, 9 साल पहले आया होता तो संकट के बादल और भी घनघोर देखने को मिलतें।

 

9 साल पहले


2000 को ‘लोक कल्याण संस्थान’ ने बायतु ब्लाक के 12 गांवों में पीने, बर्तन, कपड़े, पशु, निर्माण और तीज-त्यौहार में खर्च होने वाले पानी की कुल मांग का हिसाब लगाने के लिए अध्ययन किया। इससे पता लगा कि यहां तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत पानी ही पूरा हो पाता है। ऐसे में पानी की कुल मांग का 90 प्रतिशत अंतर पाटना एक बड़ा सवाल था। जबावदारी के नजरिए से सरकार टैंकरों से 10 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी निभा रही थी, इसके बाद जनता 200 से 250 फीट जमीन के नीचे से 20 प्रतिशत तक खारा पानी निकालकर उसे मीठे पानी में मिलाकर पीने को मजबूर होती। फिर भी तो पानी की कुल मांग का 70 प्रतिशत अंतर बना रहता, जिसे भरने के लिए बड़े पैमाने पर निजी टांके बनाने की पहल हुई। बरसात की बूंदों को सहेजने वाली इस पंरपरागत शैली को मुहिम का रंग-रुप देने से यहां 40 प्रतिशत तक पानी की जरूरत का इंतजाम करने की भूमिका बंधी। वैसे पानी की कुल मांग का 30 प्रतिशत अंतर अब भी कम नहीं कहलाता। इसीलिए तो यहां मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन वाले दृश्य (संकट के कम बादलों के साथ) जहां-तहां बिखरे पड़े हैं।

‘लोक कल्याण संस्थान’ के भंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘यहां के 100 सालों में से 80 तो अकाल के नाम रहे। बाकी के 10 साल सुकाल और 10 साल ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ भरा मामला रहा। इसके अलावा हमने बरसात और जमीन के जल स्तरों की थाह भी मापी। यह गुणा-भाग लगाया कि कितने टांके से कितनी पानी की मांग पूरी हो सकती है।’’ भंवर भाई और उनके दोस्तों को सबसे पहले 34 घरों वाले भीलों की बस्ती में 40 टांके बनाने की बात समझ में आई। यहां के लोगों की मदद से 40 टांके बनाये भी गए। फिर तो एक के बाद एक टांके बनाने वाले दर्जनों गांवों के नाम जुड़ते गए- पनावड़ा, कोल्हू, अकड़दरा, बायतु (भोपजी), शहर, पूनियो, कतरा, चिड़िया, केसुमला, भाटियान, कबरस, चैकल्दरा, खेतिया का तला, नगाना, छीतर के पार, जानवा.......

 

काम प्रगति पर है


अगर आकड़ों के ऊंट पर सवार हुआ जाए तो 2000 से 2008 तक इलाके भर में कुल 1200 टांके बने। 2008 को संस्थान ने टांके बनाने के काम को नरेगा याने सरकारी स्तर पर जोड़ने की जन-वकालत छेड़ी और जीती। आज की तारीख तक नरेगा के जरिए जिले भर में ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 50,000 टांके बनाए जा रहे हैं। कार्यकर्ताओं के मुताबिक नरेगा में टांके बनाने के काम सबसे पहले यही से शुरू हुए। यह कहते हैं आज बाड़मेर, जोधपुर और जेसलमेर जिलों सहित पश्चिमी राजस्थन भर में नरेगा का ज्यादातर पैसा टांके बनाने में ही खर्च हो रहा है।

यहां की जनता तो पानी इकट्ठा करने की तरकीब को ही टांका कहने लगी है। कनौड़ के मुरली चौधरी कहते हैं- ‘‘टांका धरती के भीतर बना ऐसा छोटा-सा टैंक है जो आपको ज्यादातर घरों के आंगन में दिखलाई देगा।’’ ‘‘यहां की धरती के लिहाज से गोलाकार टांके मुनासिब होते हैं’’: ऐसी बातें फतेहपुर से आए खियारामजी से पता पड़ी- ‘‘गोलाकार टांके में पानी का दबाव दीवार पर इस तरह से बन जाता है कि संतुलन बराबर रहता है। इससे दीवार ढ़हने का खतरा कम हो जाता है।’’ आमतौर से यहां 12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके दिखाई पड़ते हैं। इसमें 30 फीट का आगोर (केंचमेंट) रहता है। अकड़दरा की सीतामणी बताती हैं- ‘‘इसे (आगोर) पहले कच्चा बनाते हैं, फिर चिकनी माटी डालकर कूट-कूटकर सख्त और चिकना करते हैं। इससे बरसात का पानी जमीन के आजू-बाजू न फैलकर सीधा टांके में ही भरता है।’’ इस तरह की साइज और डिजाइन वाला टांका मानो यहां सफल माडल के तौर पर अपना लिया गया है। मनावड़ी के ठाकराराम कहते हैं- ‘‘सरकार ने जो माडल बनाए थे वो सफल नहीं रहे। एक तो स्थानीय हालातों के लिहाज से उनके साइज (20 गुणा 20 फीट) ठीक नहीं थे, दूसरा वो सार्वजनिक टांके थे सो दलितों को पानी के लेने में खासी परेशानी होती।’’

12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके बनाने के कुल खर्च को अकड़दरा के हनुमानजी पहले ही जोड़कर बैठे हैं- ‘‘यही कोई 30,000 से 40,000 रूपए। इसमें मटेरियल याने सीमेंट, क्रांकीट, पत्थर में 25,000 रूपए और बाकी का खर्चा मजदूरी में जोड़ लो।’’ यहां जमीन से पानी की फसल लेने का चलन है। क्योंकि पक्के छत वाले मकान कम ही हैं इसलिए छत से पानी उतारने के जतन न के बराबर दिखाई पड़ते हैं। रेतीली जमीन पर पानी नहीं ठहरने से यहां तालाब नहीं दिखते, कोई बड़ी नदी भी नहीं है, नहर आने की संभावना तो दूर-दूर तक नहीं है, इंदिरा सागर नहर की दूरी यहां से 250 किलोमीटर है। पनावड़ा के करणरामजी की सुने तो- ‘‘जिसमें बरसात का पानी आए वो नदी कहलाती है, जिसमें बारह महीने पानी रहे वो नहर।’’ उनके साथ बैठे कुंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘दुर्ग या किले में कुएं या बाबड़ियों को देखकर बाबड़ियां बनाने की योजनाएं भी बनी थीं। लेकिन यहां की गरीबी को देखकर संस्थान ने ऐसी योजनाओं को बहुत महंगा बताया। सार यह है कि यहां इसी तरीके के टांके बरसाती पानी को भरने के एकमात्र उपाय हैं।’’

 

बिन पानी सब....


‘बिन या कम पानी’ के बावजूद यहां ‘सब सूना’ नहीं है। यहां की आवो-हवाओं में ही पानी उगाने से लेकर उसे बचाने की फितरतें जो घुलीमिली हैं। कई मामूली बातें हैं, जैसे यहां के घरों में देखने को मिला कि गिलास को जुबान में लगाने की बजाय ऊपर से पानी पिया जाता है, इससे धोने में खर्च होने वाला पानी बचता है। इसी तरह यहां के लोग नहाते समय लोहे के बड़े कुण्ड में बैठते हैं। यह खारे पानी से नहाकर बचे हुए पानी से कुण्ड में ही कपड़ा धोते हैं। यहां डिचरजेण्ट की बजाय चिकनी माटी इस्तेमाल में लाते हैं। इससे मैल और माटी की परत जब कुण्ड के नीचे जमती है तो ऊपर का पानी ऊंट के पीने के काम आता है। यहां दिन या महीने की बजाय कुछ घण्टे ही बादल बरसने को बरसात मानते है। तब घण्टेभर में ही सालभर के लिए मीठे पानी बचाने की कोशिश रहती है। यहां के लोगों की माने तो बादल से पानी नहीं राहत बरसती है। ‘लोक कल्याण संस्थान’ के दफ्तर से जाते वक्त भंवर भाई, हनुमानजी, करणरामजी, भंवरी, ठाकरारामजी, रामलालजी, मुरलीजी जैसे दोस्तों ने कहा कि आबादी और पानी की बढ़ती जरूरत को देखते हुए टांके बनाने की प्रक्रिया लगातार चलती रहनी चाहिए।

जब रिपोर्ट लिखी जा रही थी तब धरती पूरी तरह से भीगी न थी, टांकों में सिर्फ 6 फीट पानी ही भरा था। यहां टांके में 6 फीट खाली होने का मतलब है साल के 6 महीनों का खाली होना। फिलहाल जितनी बरसात हो जाना चाहिए थी, उसकी आधी बूंदे भी नहीं बरसीं। इसलिए मानसून के बचे हिस्से से आखिरी आस अटकी है। अगर ऐसा न हुआ तो टांकों से पानी की फसल चौपट हो जाएगी, तब मांग पूरा करने का प्रतिशत 40 से गिरकर 20 तक पर लुढ़क जाएगा। अगर यह लुढ़का तो यहां की कई जिंदगियों को खारे पानी का इस्तेमाल 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा।

 

बीच सफर में


देश के 604 जिलों में से 177 जिलों में सूखे के हालात बन गए हैं, इससे देश में अर्थव्यवस्था की कमर टूट सकती है। मंदी की जो रफ़्तार ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वजह से थोड़ी सुस्त है उसमें तेजी आ सकती है। सूखे के चलते 1 जून से अबतक रोजमर्रा की चीजो की खुदरा कीमतें 32 प्रतिशत तक ऊपर गई हैं। जो हालात बन रहे हैं उससे विकास दर 2 प्रतिशत कम होने के आसार हैं।

 

 

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