आलू की फसल के लिये खतरा बन रहा है यूरोपीय मूल का रोगाणु

13 Apr 2018
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Potato
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वर्ष 2013-14 में पश्चिम बंगाल में लेट ब्लाइट नामक बीमारी से आलू की फसल में प्रति हेक्टेयर उत्पादन में 8000 किलोग्राम तक गिरावट हो गई थी, जिससे किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गए। लेट ब्लाइट आलू के खेत को 2-3 दिन के भीतर नष्ट कर देती है। इसका सबसे भयावह उदाहरण वर्ष 1840 के आयरलैंड में आलू के अकाल को माना जा सकता है, जिसके कारण वहाँ पर करीब 20 लाख लोग प्रभावित हुए थे।

चंडीगढ़ : आलू की फसल लाखों किसानों की आमदनी का एक मुख्य जरिया और देश की बहुसंख्य आबादी के भोजन का प्रमुख घटक है। यूरोपीय मूल के एक रोगाणु के कारण आलू की खेती पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

भारतीय वैज्ञानिकों ने आलू की फसल में लेट ब्लाइट बीमारी केलिये जिम्मेदार फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स नामक रोगाणु के 19 रूपों का पता लगाया है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस रोगाणु के प्रकोप से आलू का आकार सिकुड़ जाता है और वह भीतर से सड़ने लगता है।

वेस्ट बंगाल स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किए इस अध्ययन के मुताबिक आलू का अक्सर आयात करने वाले बांग्लादेश और नेपाल की अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं के आसपास इन रोगाणुओं की आबादी सबसे अधिक पायी गई है। पूर्वी और उत्तर भारत में इन रोगाणुओं की विविधता का अध्ययन करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुँचे हैं।

अध्ययन में शामिल वेस्ट बंगाल स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डॉ संजय गुहा रॉय ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस बात की पूरी सम्भावना है कि यह रोगाणु दक्षिण भारत से पूर्वी भारत में पहुँचा है। बांग्लादेश एवं नेपाल के रास्ते भारत की सीमा में पहुँचे रोगाणुओं की वजह से भी इनका विस्तार हुआ है, जो अब 19 मजबूत रूपों में उभरकर आए हैं। इस अध्ययन से फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स के क्षेत्रीय रूपों में विविधता का भी पता चला है। यही कारण है कि इन रोगाणुओं से लड़ने केलिये देश भर में नियंत्रण के एक जैसे उपाय नहीं अपनाए जा सकते हैं।”

वैज्ञानिकों के अनुसार फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स रोगाणु का सम्बन्ध यूरोपीय मूल के 13_ए2 जीनोटाइप से है, जो वर्ष 2013-14 में पश्चिम बंगाल में लेट ब्लाइट बीमारी के प्रकोप के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। आलू की फसल में इस बीमारी से प्रति हेक्टेयर उत्पादन में 8000 किलोग्राम तक गिरावट हो गई थी, जिससे किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गए। लेट ब्लाइट आलू के खेत को 2-3 दिन के भीतर नष्ट कर देती है। इसका सबसे भयावह उदाहरण वर्ष 1840 के आयरलैंड में आलू के अकाल को माना जा सकता है, जिसके कारण वहाँ पर करीब 20 लाख लोग प्रभावित हुए थे।

कुछ समय पूर्व वर्ष 2012 में बंगलूरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चर रिसर्च के एक अध्ययन में यूरोप और ब्रिटेन आयात की गई आलू की खेप के साथ आए 13_ए2 रोगाणु को दक्षिण भारत के कई हिस्सों में लेट ब्लाइट बीमारी केलिये जिम्मेदार पाया गया था।

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार रोगाणु के विकसित होते नये रूपों की आक्रामक क्षमता पहले से काफी अधिक हो गई है। खतरा इसलिए भी अधिक है क्योंकि इन रोगाणुओं के रूपों में समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। इस रोगाणु के कई रूपों में अब आमतौर पर उपयोग होने वाले फफूँदनाशी मेटालैक्सिल के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित हो गई है।

डॉ रॉय के अनुसार “अध्ययनकर्ताओं की टीम सात अलग-अलग फफूँदनाशियों के प्रति सूक्ष्मजीव रूपान्तरणों की जाँच में जुटी है। रोगाणु के विभिन्न रूपों, उनकी विशेषताओं और वर्तमान में उपयोग हो रहे फफूँदनाशियों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया सहित सभी प्रकार के डाटाबेस के निर्माण की योजना बनायी जा रही है। इस डाटाबेस की मदद से आलू के खेत को प्रभावित करने वाले रोगाणु के रूपों की पहचान आसानी से की जा सकेगी और समय रहते नियंत्रण के उपाय किए जा सकेंगे। हालांकि, बड़े पैमाने पर फसल के नुकसान से बचने केलिये इस डाटाबेस की समय-समय पर समीक्षा भी करनी होगी, ताकि रोगाणुओं में होने वाले रूपान्तरणों का पता लगाया जा सके।”

दक्षिण भारत में लेट ब्लाइट बीमारी का अध्ययन करने वाली टीम के सदस्य रह चुके केरल स्थित केन्द्रीय रोपण फसल अनुसन्धान संस्थान के निदेशक डॉ पी. चौडप्पा के अनुसार “यह अध्ययन यूरोपीय 13_ए2 पर किये गये पूर्व अध्ययनों पर आधारित है, जिसमें रोगाणुओं के रूपों का क्षेत्रवार अध्ययन भी किया गया है। लेट ब्लाइट के नियंत्रण के लिये इसकी नियमित निगरानी करना बेहद जरूरी है।”

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार विदेशों से आयात किये जाने वाले बीजों की पड़ताल के साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं के जरिये लेट ब्लाइट रोगाणुओं के प्रसार को रोककर लेट ब्लाइट बीमारी के प्रकोप को कम करने में मदद मिल सकती है।

डॉ रॉय के अनुसार ‘एशिया ब्लाइट’ और ‘यूरो ब्लाइट’ जैसे ज्ञान के आदान-प्रदान का अवसर प्रदान करने वाले मंचों के जरिये अन्य देशों के साथ समन्वय स्थापित करने से भी फायदा हो सकता है। इससे बीमारी के विस्तार और इसके नियंत्रण से जुड़ी जानकारियाँ जुटाई जा सकती हैं।

डॉ रॉय के अलावा रिसर्च टीम में तन्मय डे, आमंदा सैविल, केविन मेयर्स, सुसांता तिवारी, डेविड ई.एल. कुक, सुचेता त्रिपाठी, विलियम ई. फ्राई और जीन बी. रिस्तायनो शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।

Twitter: @manumoudgil
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र

 

 

 

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