अमरीका की चूक, हमारे लिये मौका

11 Jun 2017
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पेरिस जलवायु समझौते से हटने की वजह के तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत का जिस तरीके से नाम लिया, उस पर भारत ने तथ्यात्मक दावों को गलत बताते हुए नाराजगी का इजहार करने में देर नहीं की। हालाँकि औपचारिक भाषा नाराजगी की नहीं रही। पेरिस जलवायु समझौते से हटना अमरीका की भूल है या यह दुनिया के साथ किया जा रहा अमरीका का अपराध? यह प्रश्न है उन सबके लिये जिन्हें इस फैसले के परिणाम की प्रतीक्षा है। लेकिन, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों दूरदर्शी हैं और इसलिये उन्होंने इन दोनों प्रश्नों को प्रश्न के रूप में नहीं, बल्कि उत्तर के रूप में बताया है। इमैनुएल ने ट्रंप के फैसले को ‘अमरीका की भूल, दुनिया के लिये अपराध’ बताया है। जलवायु समझौते से डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमरीका के जुदा होने का एलान दरअसल राष्ट्रवाद के नाम पर अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता से पीछे हटने का एलान है। यह ब्रिटेन की उस राष्ट्रवादी बेचैनी से आगे की कड़ी है, जिसकी जद में आकर ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को छोड़ने की घोषणा की थी और ऐसा करते हुए अपने प्रधानमंत्री कैमरन का इस्तीफा कबूल किया था जबकि डोनाल्ड ट्रंप ‘अमरीका के दुश्मन’ मुसलमानों के खिलाफ विषवमन और ऐसे ही नारों से लेडी क्लिंटन पर बढ़त लेकर सबसे ताकतवर राष्ट्रपति बने।

राष्ट्रवाद अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता का दुश्मन हो, इस पर विश्वास करना आसान नहीं। आसान इसलिये भी नहीं है क्योंकि यह मान लेना कि अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का राष्ट्रवाद अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता से कमतर था, इसे भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, दोनों में कोई एक सही और एक गलत या समय के हिसाब से दोनों सही या दोनों गलत हो सकते हैं। इतना तय है कि ओबामा के फैसले को अमरीका और अमरीकीयों के विरोध में बताते हुए ही डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस जलवायु समझौते से हटने का ट्रंप कार्ड खेला है।

पेरिस की भूमिका अचानक महत्त्वपूर्ण हो गई। फ्रांस के युवा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जिस गर्मजोशी से स्वागत किया, उस पर दुनिया की नजरें टिकी हैं। दरअसल, अमरीका-इंग्लैंड से दूर होते यूरोपीय यूनियन को मजबूत नेतृत्व की तलाश है। अगर नेतृत्व शब्द को हटा भी लिया जाए क्योंकि नस्लवाद आज भी जिंदा है और गोरे देश किसी काले देश का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें-तो उभरते भारत के रूप में मजबूत साथी की यूरोपीय यूनियन को जरूरत है। यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बखूबी समझते हैं।

इसलिये उन्होंने जर्मनी की चांसलर एंजिला मर्केल से यह बात साफ करने में देरी नहीं लगाई कि जर्मनी के नेतृत्व में ही यूरोपीय यूनियन मजबूत होकर उभर सकता है। पीएम मोदी ने मजबूत यूरोपीय यूनियन को दुनिया और भारत के लिये आवश्यक बताया। फ्रांस और जर्मनी अलग-अलग देश के रूप में भी भारत के लिये कारोबारी नजरिये से महत्त्वपूर्ण हैं। दोनों देश भारत का स्वागत कर रहे हैं तो यह अनुकूल स्थिति है और यूरोपीय यूनियन के अहम देश के तौर पर भारत का स्वागत कर रहे हैं तो यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। महत्त्वपूर्ण इसलिये भी कि यूरोपीय यूनियन ने साम्यवादी चीन और भारत को ही पसन्द किया है।

भारत का राष्ट्रवाद अमरीका और इंग्लैंड के रुख से अलग अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत है। यही वजह है कि भारत ने हर हाल में पेरिस जलवायु समझौते की हिफाजत का वचन दोहराया है। धरती के तापमान को दो डिग्री से कम कर डेढ़ डिग्री तक लाना, कार्बन उत्सर्जन के स्तर को कम करना और इन सबके लिये आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की जो योजना 23 साल की मेहनत के बाद परवान चढ़ने को थी, उसे जोरदार झटका लगा है। लेकिन यह दुनिया के लिये एक अवसर लेकर भी आया है कि नेतृत्व का जो मौका अमरीका ने गँवाया है, उसे उसका अहसास कराया जाए।

शायद ट्रंप इस बात को भूल रहे हैं कि जो देश सोच में पिछड़ जाता है वास्तव में पिछड़ता वही है। ट्रंप ने अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता से पीछे हटते हुए हासिल तो कुछ भी नहीं किया है। जिस नुकसान की आशंका उन्होंने देखी है, वह अभी हुई नहीं है। पर, जो नुकसान अमरीका को हो चुका है, वह है विश्व क्षितिज पर अमरीकी नेतृत्व पर कमजोर होता विश्वास। दुनिया के इतिहास में कभी कोई ऐसा मौका नहीं आया, जब किसी अमरीकी फैसले का इतना व्यापक विरोध हुआ हो। सच यह है कि कोई एक देश भी, यहाँ तक कि इंग्लैंड भी अमरीका के फैसले का स्वागत करता नहीं दिखा।

पेरिस जलवायु समझौते से हटने की वजह के तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत का जिस तरीके से नाम लिया, उस पर भारत ने तथ्यात्मक दावों को गलत बताते हुए नाराजगी का इजहार करने में देर नहीं की। हालाँकि औपचारिक भाषा नाराजगी की नहीं रही। पर, फ्रांस की सरजमीं से नरेन्द्र मोदी ने पेरिस जलवायु समझौते से बने रहने और वैश्विक जिम्मेदारी को पूरा करने का संकल्प जताकर अमरीका से बिल्कुल अलग रुख दिखाने से परहेज नहीं किया। भारत को मिली शंघाई कॉर्पोरेशन की सदस्यता का जिक्र इस मौके पर इसलिये जरूरी है क्योंकि यह विश्व के हर कोने में भारत की स्वीकार्यता को दर्शाता है। चीन के प्रभुत्व वाली इस संस्था में भारत की सदस्यता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की बड़ी सफलता है और पिछले कुछ अरसे से भारत की जो अहमियत बढ़ी है, उसी का नतीजा है कि यूरोपीय यूनियन भी भारत का पलक पावड़े बिछाकर स्वागत करने को तैयार दिख रहा है।

भारतीय पीएम नरेन्द्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति इसी महीने मिल सकते हैं, जिसकी आधिकारिक घोषणा अभी नहीं हुई है। यह मुलाकात कोई उम्मीद तो नहीं जगाती, लेकिन इसमें कौतूहल का तत्व बहुत ज्यादा है। चमत्कार की भी उम्मीद की जा सकती है। इसलिये उम्मीद की जा रही है कि शायद मोदी-ट्रंप मुलाकात ही कोई गुल खिला दे। अमरीका को एशिया में जापान के अलावा कोई देश विश्वस्त दिखता रहा है तो वह भारत है। पाकिस्तान अमरीका से दूर छिटक रहा है और चीन के करीब जा रहा है। फिर दुनिया में उभरती ताकत है भारत, जिसकी स्वीकार्यता दुनिया में है और इसलिये अमरीका न तो भारत को नाराज करना चाहेगा और न ही रिश्ते को खराब। परस्पर कारोबारी सम्बन्ध के ख्याल से भी भारत-अमरीका के बीच रिश्ते का भविष्य उज्जवल है। फिर भी, दो राष्ट्रवादी नेता परस्पर सहयोग का कोई फॉर्मूला निकाल पाते हैं या नहीं, इस लिहाज से इस मुलाकात को सीढ़ी के तौर पर देखा जा रहा है। पेरिस जलवायु समझौते से हटकर अमरीका ने दुनिया की राजनीतिक लामबंदी को नये सिरे से एकजुट होने का अवसर दिया है। जाहिर है कि कूटनीतिक हलचल शबाब पर है।

(लेखक ‘तहलका’ के सीईओ व एडिटर इन चीफ हैं)
 

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