आंदोलन का पुनर्गठन जरूरी

13 Dec 2013
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बिहार भूदान यज्ञ समिति के अध्यक्ष कुमार शुभमूर्ति से प्रसून लतांत की बातचीत।

भूदान को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर क्या करने की जरूरत है?
भूदान आंदोलन सच्चे अर्थों में राष्ट्व्यापी और राष्ट्रीय आंदोलन था। इसलिए आज जब इस आंदोलन के सारे राष्ट्रीय नेता मृत्यु (जो किसी शहादत से कम नहीं) को प्राप्त हो गए हैं तो भूदान आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर दोबारा गठित करने की जरूरत है। हम यह न भूलें कि भूदान आंदोलन ने जमीन जैसे विस्फोटक मुद्दे को हाथ में लिया था और हिंसा की जलती आग के बीच इसका जन्म हुआ था। यह आंदोलन न केवल अपने आप में पूर्ण रूप से अहिंसक था बल्कि इसने जमीन के लिए फैल रही हिंसा की आग को भी बुझा दिया था।

भूमि सुधार में भूदान के काम को सरल और युक्तिसंगत बनाने के लिए आप क्या-क्या प्रावधान जोड़ने पर जोर दे रहे हैं?

यही कि भूदान की जमीन और भूमिहीनों के नाम की जमीन अर्जित न की जाए। अगर अनिवार्य हो तो कानूनी प्रावधानों के तहत मुआवजा (जमीन की दोगुनी या चौगुनी कीमत) तो दिया ही जाए और इसके अलावा उनके लिए मुकम्मल पुनर्वास नहीं पुर्णावास की पैकेज नीति बनाई जाए, जिसमें आवागमन, प्रकाश, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार मिलने की सुविधा को अनिवार्य माना जाए। जमीन को निजी मिल्कियत से बाहर निकालना जरूरी है। भूमि पर सामुदायिक मिल्कियत होगी तो उसका सामुदायिक हित में उपयोग करना और अर्जन करना भी आसान होगा।

विनोबा के ग्रामदान की आज उपयोगिता क्या है?
आचार्य विनोबा ने ग्रामशक्ति को सामने रख कर ग्राम संगठन की एक सरल रचना ग्रामदान के नाम से रखी थी। इसके लिए विभिन्न प्रांतों के सरकारों ने ग्रामदान एक्ट बनाया था, जो आज भी लागू है, लेकिन इसे कारगर बनाने की तरकीब नहीं सूझ पाई। आज के नए संदर्भ में जमीन की, या गांव की बात करनी हो तो ग्रामदान और ग्रामदान एक्ट को सामने रख कर जरूर गंभीर विचार किया जाना चाहिए।

भूमि सुधार के लिए तत्काल जरूरी काम क्या है?
आज बहुत बड़ा भूमि सुधार तो यही है कि दस्तावेज़ों को दुरुस्त किया जाए। सर्वे का सही काम काज कागज़ पर मशीनों और उपग्रहों की मदद से नक्शा बना लेना और उन पर संख्याओं को बिठा देना मात्र नहीं है। इसमें किस ज़मीन संख्या पर किसकी मिल्कियत है, यह भी लिखना पड़ता है। यह काम पूरी तरह से जमीनी है और इसको लेकर विभिन्न स्वार्थों की टकराहट चल रही है। कमजोर दबा दिया जाता है, धनवानों और बुद्धिमानों के आगे कानून को चुप बैठना पड़ता है। इसलिए भूमि सर्वे के इस राजनीतिक पहलू को ध्यान में रख कर कार्ययोजना बनानी होगी। सर्वे के इस काम में मिल्कियत के ग्राम-ढांचे से काफी सहूलियत हो जाएगी लेकिन अभी यह तो दूर की बात है।

महिलाओं को जमीन देने का विचार कैसे आया और इसके क्या नतीजे सामने आए हैं?
पिछले चार-पांच सालों से बिहार भूदान यज्ञ समिति ने पिछड़ी दलित जातियों में ही महिलाओं को भूदान की जमीन का मालिक बनाना शुरू किया है। अब तक पचास हजार महिलाएं भूदान की जमीन की मालिक बन चुकी हैं। महिलाओं को भूदान का प्रमाण पत्र देकर जमीन की मालिक बनाने की बात मेरी पत्नी कल्पना शास्त्री द्वारा महिलाओं के बीच किए जा रहे कार्यों से मिले अनुभव से आई।

भूदान समिति के काम किस तरह से चल रहे हैं? सरकार किस तरह से सहयोग करती है?
भूदान की जमीन के वितरण के दौर में सरकार की भूमिका बहुत सीमित थी। वितरण के लिए भूदान समिति को जो आर्थिक सहयोग चाहिए, उसे उपलब्ध करा देना सरकार का काम था पर सरकार यह काम संतोषजनक स्तर तक नहीं कर पाई। भूदान समिति अपने कार्यकर्ताओं का वेतन और अन्य जरूरी कार्यों के लिए न्यूनतम बजट बनाकर भेजती पर उसका चौथाई हिस्सा ही सरकार मुहैया कराती थी। सरकार का राजनीतिक नेतृत्व जहां भूदान के काम के प्रति संवेदनशील है वहीं सरकार का प्रशासनिक पक्ष एक और तो असंवेदनशील है। दूसरी तरफ अधिकारी यह अहसास कराते रहते हैं कि भूदान समिति एक एनजीओ है, सरकार का इसके प्रति कई उत्तरदायित्व नहीं है। सरकार को समिति को राजनीतिक कारणों से अनुदान देती है और अनुदान देने के मामले में आनाकानी की जाती है। पिछले बजट सत्र में समिति की ओर से साल भर के लिए 2.6 करोड़ रुपए की मांग की गई पर मिले केवल 1.4 करोड़ रुपए। गौतम बंधोपाध्याय समिति ने भी भूदान समिति को पर्याप्त बजट देने की सिफारिश की है लेकिन अधिकारियों का नजरिया नहीं बदलता। बकाए वेतन के लिए कार्यकर्ताओं को हाईकोर्ट में जाना पड़ा। हाईकोर्ट ने कार्यकर्ताओं के पक्ष में फैसला दिया लेकिन सरकार के अधिकारी इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाना चाहते थे। तब राजनीतिक हस्तक्षेप हुआ तो कार्यकर्ताओं को वेतन मिले। अभी भी सरकारी रवैए में कोई सुधार नहीं है। हर बार नौबत कोर्ट में जाने की हो जाती है।

भूदान समिति की मौजूदा चुनौतियाँ क्या हैं?
बिहार भूदान यज्ञ समिति का कार्य भूवितरण को समाप्त कर भूदान किसानों की बेदखली दूर करने और उनके विकास के दौर में पहुंच गया है। भावी कार्य योजना बनी है और उसका कार्यान्वयन भी प्रारंभ हो गया है। कानून के कागजी कामों को समयबद्धता के साथ निपटाना होगा। इसमें प्रमाण पत्र के आधार पर भूदान किसानों के नाम भूमि का नामांतरण कर देना अत्यंत संवेदनशील है। ऐसा न होने से और हजारों भूदान किसानों के बेदखल होने का खतरा बढ़ जाएगा। बेदखल किसानों को दखल दिलाने के लिए भू सर्वेक्षकों और जरूरत के मुताबिक पुलिस बल का सक्षम उपयोग करना एकदम जरूरी हो गया है। यह भी जरूरी है कि भू राजस्व से जुड़े प्रशासी दंडाधिकारी कानून का हर संभव उपयोग साधनहीन के पक्ष में करे। उन्हें यह समझना होगा कि लोकतांत्रिक राज्य में कानून का मकसद ही है कमजोर की रक्षा करना। भूदान की जमीन अब तक जिन तीन लाख पचास हजार भूमिहीन परिवारों को दी गई है उनमें से लगभग एक लाख पचास हजार परिवारों को मिली जमीन से ताकतवर लोगों ने बेदखल कर दिया है। हर जगह बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाने की फिराक में है। जमीन की बढ़ती कीमतें और दखल हासिल करने की जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया बेदखली की समस्या को और बढ़ा रही है। भूदान की जमीन विपन्न भूमिहीनों को ही दी जाती है और उसकी विपन्नता के कारण पैसे के लिए या रोजगार की खोज में जमीन से बेदखल हो जाते हैं। कर्ज देने वाले, भूदाता परिवार की दूसरी पीढ़ी के लोग, गांव का कोई दबंग या कोई बदमाश भूदान किसानों को डरा-धमका कर, बेवकूफ बनाकर, मुकदमें में उलझा कर उन्हें जमीन से बेदखल कर देते हैं। इस सब के प्रति पुलिस चुश्त और ईमानदार होती, अदालत की प्रक्रिया लंबी और खर्चीली न रहती और सरकारी प्रशासक न्याय के पक्षधर होते तो बहुत कुछ किया जा सकता था लेकिन हर मोर्चे पर नकारात्मकता का सामना करना पड़ता है। व्याप्त भ्रष्टाचार, काहिली और कार्य प्रणाली की जटिलता में सब कुछ उलझ गया है।

सर्वोदयी नेताओं और कार्यकर्ताओं से भूदान के काम में कितनी मदद मिलती है?
सर्वोदय आंदोलन का कमजोर हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। पहले सर्वोदय कार्यकर्ता ग्रामीण क्षेत्रों में घूमते रहते थे, जिससे भूदान के काम को बड़ी मदद मिलती थी। काम जल्द हो जाता था और बेदखली या भ्रष्ट प्रशासकों पर अंकुश भी लगा रहता था। आज तो सर्वोदय कार्यकर्ताओं की संख्या कम हो गई है और जो हैं वे नेतृत्व के अभाव में बिखरे-बिखरे से हैं। फिर भी भूदान कार्य के अगले चरण में उन्हें फिर से संगठित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके साथ ही जयप्रकाश आंदोलन से जो कार्यकर्ता निकले हैं, उन्हें भूदान कार्य से कैसे जोड़ा जाए, इस पर भी विमर्श किया जा रहा है। हम विभिन्न जिलों में जमीन के मुद्दे पर काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों से भी संपर्क कर रहे हैं ताकि उनके साथ मिलकर काम करने की एक कारगर नीति बनाई जा सके।

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