आंदोलन ने जगाई अहिंसक संघर्ष के प्रति आस्था

17 Nov 2010
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पिछले 25 साल से चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन से मुझे काफी सीखने एवं समझने का मौका मिला है. सबसे बड़ी सीख मिली है - अहिंसक संघर्ष के प्रति आस्था. अहिंसक संघर्ष बहुत लंबा और गहरा होता है. यह किसी अकेले व्यक्ति का काम नहीं होता. इसके पीछे संगठन की ताकत होती है. इसके पीछे जनता का समर्थन एवं सहयोग होता है. नर्मदा घाटी के लोगों के समर्थन से यह सब संभव हुआ है. इसके अलावा देश एवं दुनिया भर में चल रहे बिरादराना अहिंसक आंदोलनों का भी हमें भरपूर सहयोग मिल रहा है.

इस तरह के आंदोलन का अहिंसक रहना बहुत जरूरी होता है. हमने संघर्ष के साथ-साथ निर्माण पर जोर दिया है. निर्माण यानी वर्तमान विनाशकारी विकास का विकल्प. एक ऐसा वैकल्पिक विकास, जो विनाश पर नहीं टिका हो. जीव एवं प्रकृति दोनों को संरक्षित करने वाला विकास जरूरी है. अहिंसक होने का मतलब कमजोर होना नहीं होता है, इसका मतलब चुप रहना भी नहीं है बल्कि अपने अभिमान के साथ जीते हुए चुनौती देना है. लोगों को उजाड़कर, विकास हमें मंजूर नहीं. लोगों को जीवन के अधिकारों से वंचित करने वाला विकास हमें नहीं चाहिए. विकास की अवधारणा ऐसी होनी चाहिए, जिसमें सभी के साथ न्याय हो सके, उसका ज्यादा से ज्यादा लाभ वंचित समुदाय को मिल सके. हमें इस बात पर गौर करना होगा.

सरकार को ऐसे विकास से कुछ भी लेना-देना नहीं. उसे तो कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाला विकास चाहिए. सरकार विकास के बहाने कॉरपोरेट घरानों को उपकृत करने का काम करती है. अब ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं, जो किसी भी दृष्टि से जनपक्षीय नहीं है. बात चाहे भू अधिग्रहण कानून की हो या पुनर्वास कानून की. सबकुछ पूंजीपतियों के हित को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है. पर ऐसे नहीं चलेगा. जनता आखिर कब तक चुप रहेगी? वह संघर्ष के लिए हमारे साथ आगे आ रही है. हमें उन्हें विकल्प देना होगा. उनके साथ न्याय करना होगा.

हमारे सामने स्थानीयता से वैश्विकता की ओर बढ़ने की चुनौती है. हम कैसे इस चुनौती का सामना करें? पिछले 25 सालों में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, पर हर बार वह चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ता रहा है. हमने बदलाव के लिए समग्र विकास पर ध्यान देना शुरू किया है. हमें प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है. मैं इस दिशा में काम भी कर रही हूं. इस आंदोलन ने समाज को जोड़ने का काम किया है. पहाड़ी-निमाड़ी एकता की मिसाल पेश की है. जातिवादी ताकतों को चुनौती दी है. अब इसके दायरे को बड़ा बनाने की चुनौती हमारे सामने है. हमें पक्का यकीन है कि इस चुनौती का सामना भी हम बखूबी कर पाएंगे. छोटी-छोटी परेशानियां तो आती रहती हैं, लेकिन हम उन परेशानियों से भी पार पाएंगे.

मैं चाहती हूं कि इस मुद्दे के साथ पूरे समाज का गहरा जुड़ाव हो. अभी तक ऐसा नहीं हो पाया था. पर अब देश के सभी हिस्सों में लोगों को जीवन के लिए संघर्ष करना अनिवार्य हो गया, बल्कि यूं कहें कि मजबूरी हो गई, तो उनके बीच सामंजस्य भी बनने लगा है.

मौजूदा विकास की अवधारणा से सिर्फ नर्मदा घाटी के लोग ही नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों के लोग भी प्रभावित हो रहे हैं. मुंबई में लोगों को झुग्गी बस्तियों से उजाड़ा जा रहा है. उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश में किसानों से जमीनें छिनी जा रही है. उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी नदियों पर बांध बनाने की कोशिश की जा रही है और उससे प्रभावित होने वाले बड़े समुदाय के साथ अन्याय किया जा रहा है. आज बड़े बांध के पोल खुल गए हैं. इससे होने वाले नुकसान की भरपाई संभव नहीं है. इसके लाभ कम और नुकसान ज्यादा है. पर नुकसान की कोई फिक्र किसी को नहीं है. गलतियों से कोई सीख न लेते हुए वे गलतियां दुहराई जा रही हैं.

नर्मदा बचाओ आंदोलन के 25 साल पूरे होने पर हमने महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश में जनसभा का आयोजन किया, जिसमें असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, बिहार, केरल, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र सहित देश के 21 राज्यों से वहां के आंदोलनों से जुड़े लोग शामिल हुए. यह इस बात सबूत है कि अहिंसक आंदोलनों के प्रति लोग अभी भी आशान्वित हैं. हमें इसमें आम लोगों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों को भी जोड़ना होगा. बुद्धिजीवी आंदोलन को नई दिशा दे सकते हैं.

आज कानून के आधार पर विकास का ढांचा बनाया जा रहा है. जन विरोधी कानून लाए जा रहे हैं, जिससे मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है. यह संविधान द्वारा जनता को प्रदत्त मौलिक अधिकारों के खिलाफ है. संविधान एवं कानून में अंतर साफ दिख रहा है. मैं कानून एवं संविधान के भेद को लोगों के सामने लाना चाहती हूं. यह काम अकेले का नहीं है. इसमें सभी को साथ आना होगा. हम मिलकर ही इस लक्ष्य को अंजाम तक पहुंचा सकते हैं.

सभी आंदोलनों के बीच बेहतर समन्वय की जरूरत है. नर्मदा घाटी के साथ-साथ खेत एवं उद्योग के मुद्दे को भी उठाने की जरूरत है. चारों ओर अलग-अलग तरीके से अलग-अलग समूह के जीवन का हक छिना जा रहा है. सभी मुद्दों को एक साथ उठाने की जरूरत है. इससे सभी लोग एक साथ आएंगे और तभी विकास की जनविरोधी रवैये को चुनौती दी जा सकती है. हमें चुनावी राजनीति में भी हस्तक्षेप करने की जरूरत है. चुनाव से पहले हमने लोकमंच का गठन किया था. इसे ज्यादा मजबूत करने की जरूरत है, ज्यादा सक्रिय करने की जरूरत है. सभी आंदोलनों को अपनी भूमिका में विस्तार करना होगा, तभी हम सशक्त हस्तक्षेप कर पाने में सक्षम हो पाएंगे.

इसका मतलब यह नहीं है कि हम सिर्फ चुनावी राजनीति करेंगे. हम इसे साथ लेकर व्यापकता की ओर बढ़ेंगे. जनता के सामने नए-नए विकल्प मुहैया कराएंगे. हमें नए विकल्प और नई रणनीतियों के साथ काम करना होगा. हमें समाज के प्रत्येक हिस्से को साथ करने के लिए इंतजाम करना होगा. जन आंदोलन के 25वें साल में हम इस चुनौती को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और हमें भरोसा है कि जीत आखिरकार जनता की होगी. जनता को उनके संघर्ष का प्रतिफल मिलकर रहेगा.
 

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