आओ, साथ बैठ थोड़ा सा रो लें

22 Jan 2016
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आजादी है फूल की खुश्बू
आजादी है भोर की लाली
धरती अम्बर आज पुकारे आज़ादी आज़ादी

असीम गिरी व चारुल -विनय

हम अपने आस-पास के वातावरण से कमोबेश अनुपस्थित होकर अपने स्व में स्थित हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही स्तब्ध और अचम्भित किया ‘लोकनाद फ़ाउंडेशन’ के चारुल व विनय द्वारा तैयार की गई संगीत रचना ‘आजादी’ ने। इस रचना में न तो अत्यधिक वाद्यवृन्द है और न ही बहुत उतार चढ़ाव। गीतों के बोल अत्यन्त साधारण लेकिन वे असाधारण प्रभाव छोड़ते हैं। अक्सर यह कहा जाता रहा है कि कोई बात यदि दिल से कही जाये तो वह भावनात्मक तौर पर बहुत गहरा असर डालती है। ऐसा कभी-कभार ही होता है कि जब आप बहुत सामान्य या चलताऊ मनःस्थिति में संगीत सुनने के लिये कोई सीडी लगाते हैं और पहली पंक्ति सुनते ही आपका पूरा ध्यान उस पर केन्द्रित हो जाता है और दूसरा गाना सुनते-सुनते आप हतप्रभ रह जाते हैं और आपकी तन्द्रा तब टूटती है जब आपको अपने गाल पर कुछ ढुलकता सा महसूस होता है जो वास्तव में आँसू होते हैं।

हम अपने आस-पास के वातावरण से कमोबेश अनुपस्थित होकर अपने स्व में स्थित हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही स्तब्ध और अचम्भित किया ‘लोकनाद फ़ाउंडेशन’ के चारुल व विनय द्वारा तैयार की गई संगीत रचना ‘आजादी’ ने। इस रचना में न तो अत्यधिक वाद्यवृन्द है और न ही बहुत उतार चढ़ाव।

गीतों के बोल अत्यन्त साधारण लेकिन वे असाधारण प्रभाव छोड़ते हैं। अक्सर यह कहा जाता रहा है कि कोई बात यदि दिल से कही जाये तो वह भावनात्मक तौर पर बहुत गहरा असर डालती है। चारुल-विनय की इस रचना को यदि संगीत व गायन के सैद्धान्तिक मापदण्डों पर तौलने का प्रयास करेंगे तो कुछ ऊँच-नीच की बात सामने आ सकती है।

परन्तु यह पूरी प्रस्तुति दिल से तैयार की गई है इसलिये यह सुनने वाले के दिल में नश्तर की तरह उतरती है और भौचक्का कर देती है। किंकर्तव्यविमूढ़ शब्द का अर्थ इसे सुनने के बाद पूरी तरह से समझ में आ जाता है।

लगभग एक घंटे की यह सीडी हमें अपने अतीत और वर्तमान को कुछ ऐसे अन्दाज में समझाती है जिसकी व्याख्या कर पाना आसान नहीं है और इसे सुनकर की समझा जा सकता है।

गौर करिए ‘चौदह नवम्बर’ की इन पंक्तियों पर,

‘बच्ची है नन्हीं सी
सुन्दर है परियों सी
जिस दिन से भूखी है
वो चौदह नवम्बर थी।
थोड़े चावल इक रोटी
बस इतना कहती
एक रंग की इक रोटी
तो तीन तिरंगे की
क्या होती आजादी, वो मुझसे कहती’


गीत में कुछ मार्मिक पंक्तियाँ और हैं। परन्तु 6 मिनट की यह रचना उस एक अनाथ और भूखी बच्ची के बहाने हमारी ‘आजादी’ के सपने को प्रश्नों के घेरे में खड़ी कर देती है। हम अपने आसपास ऐसे बेइन्तिहाँ बच्चों को देखते हैं।

कई बार उन पर झुंझलाते भी हैं। ऐसा शायद हम अपनी हताशा और ग्लानी और असहायता के चलते भी करते हैं। कई बार हम इसलिये भी विचलित हो जाते हैं कि ऐसे किसी दुर्भाग्यशाली बच्चे की आँख में हमें अपने बच्चे की तस्वीर दिख जाती है और डरकर उससे भागना चाहते हैं।

अगली रचना ‘कित्थे गंइयाँ’ में बच्चा पूछ रहा है-

‘कित्थे गंइयाँ
मेरे हिस्से दीयाँ छुट्टियाँ
माये मेरा दिल करे उच्चियाँ पहाडां उत्ते
बरफा दे गोले नाल खेलां
पर मैंने मिलियाँ ने इटटा दे कठिठयाँ ते
बलदीया सड़दीया जेलां, कित्थें गंइयाँ’


अपनी तमाम यातनाओं को बयान करने के बाद वह बच्चा अन्त में पूछता है,

‘माये कदों मिलणगीयाँ छुट्टियाँ
मेरे हिस्से दीयाँ छुट्टियाँ, कित्थे गंइयाँ’


रसूखवालों के बच्चों ने भी शायद नहीं सोचा होगा कि कामगार बच्चों की छुट्टियाँ भी उनके खाते में जुड़ गई हैं। अपने आस-पास के परिवेश से जिस तरह वंचित बच्चे दुखी हो रहे हैं उसकी परिणिति सामान्यतया नशाखोरी या अपराध भी दुनिया में आमद से हो जाती है। हम अपने बच्चों के प्रति लगातार निष्ठुर होते जा रहे हैं।

‘हाथों को काम’ की शुरुआती पंक्तियाँ हैं,

‘इंन्सा पैरों पर खड़े हुए दो हाथ तभी आज़ाद हुए
इन दो हाथों की मेहनत से धीरे-धीरे आबाद हुए।’


इसके बाद यह गीत आदिम युग से वर्तमान सूचना क्रान्ति युग तक हाथों के योगदान को गिनाते हुए सवाल पूछता है,

‘शाहजहाँ के ताज को, मैंने ही बनाया रे
मन्दिरों को, मस्जिदों को, मैंने ही सजाया रे
बाँसुरी, सितार, को, मादल को बजाया रे
मेरा संगीत कहाँ रे, कि मेरे लिये काम नहीं।’


आज हमारे विकास की अवधारणा से मनुष्य और उसका रोज़गार ग़ायब है, इस अवधारणा के केन्द्र में सिर्फ धन और पूँजी है। मानव महज एक संसाधन है जिसे जितना सस्ता प्राप्त किया जा सके, ऐसा प्रयास सारी दुनिया में चल रहा है।

इस संग्रह का एक अविस्मरणीय गीत ‘झीरो बी. एच के बंगलों’ कच्छ के रण में सदियों से नमक बनाते अगरिया, नमक कामदारों के मकानों के वर्णन का है। गौर से सुनिए वह क्या कह रहे हैं,

‘झीरो बी एच के बंगलो, मारो नव बाय नव को बंगलो
ऋण तारा, पाँच तारा, ना सात तारानो बंगलो
अड़घी रातें उपर जुओ उपर जुओ तो लाख तारो बंगलो
छत विनानो आ बंगलो, आकाश जोतो आ बंगलो’


इसके बाद अपने बंगले की असाधारणता को बखानते हुए दशरथ अलीनो कहता है,

‘बे (दो) डिगरी, पचास डिग्री, ताप सहेतो आ बंगलो
दीवाल जेनी ताड़पत्री, रणमां उभो मारो बंगलो
हलती दिवालानो बंगलो, उड़ती दिवालानो बंगलो।’


इसके बाद अपने रसोईघर की तारीफ में वह कहते हैं,

‘त्रण (तीन) ईंटों किचन मारुं’

गौर करिए यह उस समाज की गाथा है जिसके बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल के अकालों में लाखों लोग सिर्फ इसलिये उल्टी, दस्त या हैजा से मर गए क्योंकि अंग्रेजों ने ‘नमक पर नियंत्रण’ कर लिया था। गाँधी जी की दांडी यात्रा या ‘नमक सत्याग्रह’ ने देश को तो आज़ादी दे दी लेकिन हम अभी तक अगरियाओं को अपना उपनिवेश बनाए हुए हैं। यह कहानी सिर्फ अगरियाओं की नहीं है।

महाराष्ट्र की चीनी मिलों के बाहर ऐसे सैकड़ों ‘एक बेडरूम के मकान’ मिल जाएँगे जो कि प्लास्टिक की तालपत्री से बने हैं और एक, दो, तीन, पाँच या पाँच सितारा नहीं बल्कि लाखों, करोड़ों अनगिनत सितारों को रोज अपने आँगन में समेटते हैं। वैसे व्यापक नज़रिए से देखें तो हिन्दुस्तान के कम-से-कम 20 करोड़ लोग इसी ‘वन बीएचके’ की ‘लग्झरी’ का उपयोग कर रहे है।

‘साझी विरासत’ की ये पंक्तियाँ हमें अपने समय की सच्चाई से रुबरु करा देती हैं। ये हैं, ‘जिन्दा विरासत खो रही है अपनी कहानी/सांझा विरासत बोल रही है अपनी जुबानी’। सारी दुनिया कभी एक थी। एक दूसरे के साथ मेल जोल से जो साझा संस्कृति बनी है उसे ‘पासपोर्ट की संस्कृति’ अब तहस-नहस कर रही है।

एक और महत्त्वपूर्ण रचना ‘बेटा जल्दी घर आना’ हमें बचपन के उस गीत को याद कराती है जिसे हम सुनते थे।

‘पप्पा जल्दी आ जाना,
सात समन्दर पार से
गुड़ियों के बाजार से
गुड़िया चाहे मत लाना
पर पप्पा जल्दी आ जाना।’


आज परिस्थितियाँ कितनी भयावह हो गई है,

जब माँ कहती है ‘कितने दिनों से तुम खो गए
कौन सी जेलों में सो गए
कोई समझा न जाना
बेटा जल्दी घर आना
कोई मुझसे आकर कहे
तुम इस दुनिया में ना रहे
तुम ही आकर बताना
बेटा जल्दी घर आना।’


अब इसके बाद क्या कहा जा सकता है? जैसे कुछ कहने को बचा ही नहीं।

अन्तिम गीत ‘हम लोग’ एक बार पुनः अपनी आज़ादी से की गई उम्मीदों को हमें याद दिलाता है। जैसा पहले भी कहा था। गीतों की पंक्तियाँ सुन्दर है लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण है सारगर्भिय गायकी। विनय-चारुल ने संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं ली है।

परन्तु उनकी आवाज़ और संगीत इस कदर सम्प्रेषणीय है कि वह लगातार विचलित करता है और हमें सिर्फ सुनने की अवधि तक ही नहीं बाद में भी लगातार विचलित करता रहता है। कोशिश करे ‘आज़ादी’ यानि हम लोग जिसे लोकनाद ने अपने सूत्र वाक्य हमारे सपने-हमारी यात्रा के साथ समाज को सौंपा हैं।

उसे एक बार सामूहिक रूप से सुने। कुछ देर सुने और उसके बाद यदि आँसू निकलें तो बिना किसी शर्म या ग्लानि के सामूहिक रूप से रोकर अपना मन हल्काकर उन तमाम बच्चों और कारगारों के बारे में कुछ सोचें यदि सम्भव हो तो कुछ करें भी। शायद इस सामूहिक रुदन से हमारे हृदय पर जमी धूप थोड़ी से छटेगी।

सम्पर्क

लोकनाद, बी-701, सफल परिवेश, प्रहलाद नगर, सेटेलाइट, अहमदाबाद-380015 (गुजरात)

फोन: 796521883,

ईमेल : loknad@gmail.com

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