आपदा के आगे असहाय

16 May 2017
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सौ-सवा-सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ा है। प्रकृति को छेड़ने और विकास के लिए उसके अति दोहन की प्रवृत्ति ने उत्तराखंड के जनजीवन को प्रभावित किया है। पलायन और गावों से लोगों के निकलने की एक बड़ी वजह आर्थिक दिक्कतों के साथ-साथ प्रकृति का प्रकोप भी रहा है।

आपादा पर उत्तराखंड की आवाजउत्तराखंड की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति अगर प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में वरदान रही है, तो इसे आपदाएं भी झेलनी पड़ी हैं। प्राकृतिक आपदाओं के तौर पर भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने, वनाग्नि, हिमखंडो के गिरने की घटनाएं, इस क्षेत्र में त्राहि मचाती रही हैं। प्रकृति को छेड़ने और विकास के लिए उसके अति दोहन की प्रवृत्ति ने उत्तराखंड के जनजीवन को प्रभावित किया है। पलायन और गावों से निकलने की एक बड़ी वजह आर्थिक दिक्कतों के साथ-साथ प्रकृति का प्रकोप भी रहा है। बेशक प्रकृति के प्रकोप को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन बचाव, संरक्षण, पुनर्वास, राहत कार्य के लिए जो प्रभावी ढ़ांचा होना चाहिए था, उसमें काफी शिथिलता दिखती है। जबकि राज्य बनने के बाद आपदा प्रबंधन पर सबसे ज्यादा सजगता होनी चाहिए थी। जून 2013 में उत्तरकाशी और केदारनाथ में हुई त्रासदी ने यही साबित किया कि प्राकृतिक आपदाओं के बाद की स्थितियों ले निपटने में तंत्र बहुत कमजोर दिखता है।

उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप को समझने के लिए अतीत में भी कई उदाहरण मिल जाएगें। गोरखाओं ने 1790 में कुमाऊं के चंद राजाओं को हराकर इस क्षेत्र को जीत लिया। इसके कुछ समय बाद 1804 में अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गढ़वाल पर भी अपना अधिकार कर लिया। इन युद्धों के बारे में कहा जाता है कि पहाड़ी शासकों की अपनी कमजोरियों के साथ-साथ विनाशकारी भूकंप भी बहुत बड़ी वजह थी। गढ़वाल का अधिकांश इलाका उस समय आए भूकंप से तहस-नहस हुआ था। ऐसे में गोरखाओं को आक्रमण करने का अच्छा अवसर मिल गया।

भूकंप के लिए संवेदनशील


यहां प्राचीन समय से ही प्राकृतिक आपदा आम बात रही है। यदि सौ-सवा-सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ा है। इनमें कुछ प्रमुख आपदाएं और उनसे हुई तबाही के ब्योरे देखे जा सकते हैं -

1894 में गौना झील का टूटना।
1916 में पिथौरागढ़ जिले में भूकंप, नीलकंठ में भूस्खलन।
1991 में उत्तरकाशी में विनाशकारी भूकंप, पिंडर घाटी में भूस्खलन से 246 लोगों की मौत, उखीमठ क्षेत्र में भूस्खलन से कई गांव तबाह, 70 लोगों की मौत।
1998 में पिथौरागढ़ में मालपा क्षेत्र में बादल फटने से करीब तीन सौ लोगों की मौत।
1999 में चमोली में भूकंप।
2002 में बूढ़ाकेदार में बादल फटने से तबाही।
2004 में टिहरी बांध में टनल धसने से 28 लोगों की मौत।
2005 में गोविंदघाट की तबाही।
2010 में कमकोट बागेश्वर में भूस्खलन। और अभी दो वर्ष पूर्व 2013 में आई प्राकृतिक आपदा से तो उत्तराखंड उबरने की कोशिश ही कर रहा है। उत्तराखंड को कई दशक पीछे ले जाने वाली यह आपदा भीषण बारिश, बाढ़ और भूस्खलन का नतीजा थी, जिसमे हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हुए और न जाने कितने भवन ध्वस्त हो गए। गांव के गांव भूगोल से गायब हो गए।

समय-समय पर आई आपदाएं इस बात का प्रतीक हैं कि यह क्षेत्र काफी संवेदनशील है। इन परिस्थितियों के लिए कुछ तो दैवीय आपदा जिम्मेदार है, लेकिन आपदाओं से होने वाले नुकसान के पीछे बहुत कुछ जीवन जीने की बदलती शैली, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनो का अंधादुंध दोहन, अवैध खनन, बहुमंजिली इमारतों का विस्तार जैसे कारण भी जिम्मेदार रहे हैं। प्रकृति के साथ जमकर खिलवाड़ किया गया है। पूरे पहाड़ को छलनी बना देने का परिणाम है कि पहले यदा-कदा होने वाली आपदाएं अब आए दिन घट रही हैं। जहां-तहां प्रकृति का तांडव दिख रहा है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पिछले सौ साल में पचास से ज्यादा विनाशकारी भूस्खलन आए हैं। लेकिन इनसे सबक नहीं सीखा जा रहा है।

यहां थोड़ी भी हलचल विनाश का कारण बन जाती है। ‘भारतीय भू-गर्भीय सर्वेक्षण संस्थान’ ने भूकम्प प्रभावी जोन को पांच भागों में बांटा है -

पांच से कम तीव्रता वाले क्षेत्र को न्यूनतम प्रभाव क्षेत्र,
5.01 से छह तक तीव्रता वाले क्षेत्र को न्यून,
6.01 से सात तक तीव्रता वाले क्षेत्र को मध्यम प्रभाव क्षेत्र,
7.01 से नौ तीव्रता वाले क्षेत्र को अधिक प्रभाव क्षेत्र,
नौ से ज्यादा को अधिकतम प्रभाव क्षेत्र माना है।

उत्तराखंड को अधिकतम और अधिक प्रभाव वाले क्षेत्र में माना गया है। यह नहीं कि केवल पहाड़ी क्षेत्रों में ही इसके खतरे की आशंका हो। शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ रहा है। बहुमंजिली इमारतें बढ़ रही हैं। इस लिहाज से राजधानी देहरादून भी सुरक्षित नहीं है। यह क्षेत्र संवेदनशील जोन चार में शामिल है। इसके अलावा टिहरी, उत्तरकाशी, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर संवेदनशील जोन चार में आते हैं। जबकि चमोली रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चंपावत अति संवेदनशील क्षेत्र में आते हैं। मनुस्यारी, कपकोट और चमोली ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र में आते हैं।

उत्तराखंड त्रासदी के बाद पलायनहिमालय क्षेत्र को अभी अपने बचपन की अवस्था में माना जाता है। हिमालय क्षेत्र में भूकंप प्लेटों की गतिशीलता और भ्रंशो की उपस्थिति के कारण आते हैं। इंडियन प्लेट हर वर्ष उत्तर और उत्तर पूर्व की दिशा की ओर एक सेंटीमीटर खिसक रही है। इससे उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट उसमें अवरोध उत्पन्न करती है। इसी तरह वृहत हिमालय और मध्य हिमालय के बीच मुख्य केंद्रीय भ्रंश रेखा स्थित है। यह गढ़वाल-कुमाऊं के कई भागों को छूती है। इस तरह की परिस्थितियों में उत्तराखंड में हमेशा खतरे की आशंका बनी रहती है।

विकास की राह में रोड़ा


प्राकृतिक आपदा कहर तो बरपाती है, साथ ही उस क्षेत्र का विकास भी अवरुद्द हो जाता है। भूस्खलन, बाढ़ आदि के कारण कई तरह की रुकावटें आती हैं, जिससे उस क्षेत्र की पूरी व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में निर्माण कार्यों पर बहुत ध्यान दिए जाने की जरूरत थी। खनन, नदी घाटियों के कुछ किनारे कुछ निश्चित सीमा तक निर्माण कार्य रोकने, वनीकरण को बढ़ावा देने, कृषि की समुचित प्रणाली, वनस्पतियों की सुरक्षा, बड़ी विकास परियोजना की समीक्षा पर काफी गंभीरता बरती जानी जरूरी थी। लेकिन दैवीय आपदाओं के कहर को देखने और विकास के नाम पर अति दोहन होते रहने के बावजूद राज्य का सरकारी तंत्र आपदा प्रबंधन के नाम पर संवेदनशील नही हो पाया।

राज्य की जिम्मेदार एजेंसियां बहुत तत्पर नहीं दिखीं। यह भी अजब है कि देहरादून में, जो संवेदनशील जोन चार में है, 22 हजार से ज्यादा अवैध निर्माण चिन्हित हुए हैं। बताया जाता है कि मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के पास कई भवनों का रिकॉर्ड नहीं है। जर्जर इमारतों के खतरे अलग हैं। इसी तरह नदी घाटियों से अवैध खनन के खिलाफ आंदोलन होते रहे हैं। उत्तरकाशी, श्रीनगर जैसे शहर उजड़ रहे हैं। नदी इन शहरों के हिस्सों को काटती जा रही है। बहुमंजिली इमारतों का जाल उस उत्तराखंड में बिछ रहा है, जिसके अस्तित्व को लेकर पर्यावरणविद और भूविज्ञानी डरे हुए हैं। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में हमारा तंत्र किस प्रकार कमजोर है, उसकी झलक केदारनाथ त्रासदी में स्पष्ट हो गई। इससे पहले भी उत्तरकाशी, मालपा, बूढ़ाकेदार और उखीमठ की घटनाएं हमारे लिए सबक बन सकती थीं। लेकिन उनसे सीखा नहीं गया। इन घटनाओं से निपटने में प्रबंध तंत्र सक्षम नहीं था।

केदारनाथ की महाआपदा ने यह बता दिया कि वास्तव में इन परिस्थितियों से लड़ने के लिए हमारे पास कोई सिस्टम ही नहीं है। न प्रभावी संचार तंत्र, न सरकारी संस्थाओं में समन्वय, न चौकसी, न राहत-बचाव के तरीके, न इन हालात में गांव से शहर कस्बों को जोड़ने के लिए वैकल्पिक साधन। फिर सब कुछ सेना के भरोसे ही हो रहा है। यहां तक कि जो राहत सामग्री आई उसे निश्चित जगहों तक पहुंचाने के लिए कोई सिस्टम नहीं था। केवल सरकारों को ही दोष नहीं दे सकते। पहाड़ों की बदलती जीवनशैली भी इसमे आड़े आई है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आॅस्ट्रेलियाई मॉडल पर आपदा प्रबंधन एंव न्यूनीकरण केंद्र की स्थापना की गई है। राज्य आपदा प्रतिक्रिया निधि और राज्य आपदा न्यूनीकरण निधि का भी गठन किया गया है। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में आपदा प्रबंध प्राधिकरण गठित किया गया है। राज्य में प्राकृतिक आपदाओं से निकलने के लिए संचार खोज, भूकंप रोधी भवन, जन-जागरुकता के कुछ कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

विशेष तौर पर संवेदनशील राज्य के छह जिलों, 52 विकासखंडों और पैंसठ हजार गावों में आपदा प्रबंधन समिति का गठन किया गया है। आपदा के हालात से निपटने के लिए पुलिस, चिकित्सकों, शिक्षकों, राष्ट्रीय सेवा योजना, नगर आपदा प्रबंधन समिति को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई है। आपातकालीन परिचालन केंद्र को स्थापित करने के अलावा संचार प्रयोजन से लाल टिब्बा मसूरी में रडार लगाया गया है। जिससे दस पर्वतीय जनपद को सैटेलाइट से जोड़ा गया है। आपदा प्रबंधन कोष के लिए जिलाधिकारी को पचास लाख की धनराशि उपलब्ध कराई गई है। इन तमाम योजनाओं और प्रबंधों का फायदा मिल सकता है।

लेकिन उन पहलुओं पर गौर करना होगा कि राज्य बनने के बाद आपदा प्रबंधन जैसे महत्व के विषय पर उच्च स्तरीय बैठक क्यों नही हो पाई? देहरादून में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संस्थाओं में इस बारे में समन्वय क्यों नहीं हो पाता? मौसम विभाग की सूचनाओं आशंकाओं पर तत्परता क्यों नहीं दिखाई जाती? केदारनाथ की आपदा के बाद इस पूरे सिस्टम पर बहुत गंभीरता से पहल की जरूरत है। इस दिशा में संचार सिस्टम और कनेक्टिविटी पर भी ध्यान देना होगा। आपदा के बाद की स्थितियों और उससे निपटने के लिए विदेशों के बेहतर सिस्टम से हम सीख सकते हैं।

हालांकि नीति आयोग ने हिमालय नीति पर अपनी मोहर लगा दी है और केंद्र ने पहले ही ‘हिमालय अध्ययन केंद्र’ के लिए 100 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान रखा है। लेकिन सबसे जरूरी यह है कि हिमालय के आसन्न संकट को समझते हुए व्यावहारिक कदम उठाए जाएं। दैवीय आपदाओं को बेशक रोका नहीं जा सकता, लेकिन संकट को कम जरूर किया जा सकता है। राहत व्यवस्था को चौकस बनाया जा सकता है। स्थितियों पर नियंत्रण करना के लिए प्रभावी पहल की जा सकती है। सरकार ने हाल में गंगा के किनारे एक निश्चित सीमा तक निर्माण कार्य पर रोक लगाई है। इसके अलावा भी अलग-अलग स्तर पर चौकसी बरतने के संकेत हैं। लेकिन सब कुछ बहुत तत्परता और ठोस तरीके से करना होगा। अब भी सड़कों पर बीस फुट के गहरे गड्ढे दिख रहे हैं। घाटों पर मलबा हटाने के नाम पर गंगा सफाई के बहाने अवैध खनन होता रहता है।

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