आपदा के आगे ज़ीरो प्रबंधन

31 Aug 2017
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आपदा का मतलब होता है कि अचानक होने वाली घटना, लेकिन वहाँ तो तय है कि साल के इस महीने में बाढ़ आएगी, फिर इसे आपदा कैसे कह सकते हैं? जरा सी तेज बारिश होती है और जुलाई, अगस्त में बाढ़ आ जाती है तो क्या सरकारों को इससे निपटने के पुख्ता उपाय नहीं करने चाहिये?

प्रादेशिकी : सरकारें आपदा को एक अनिवार्य परिघटना मान कर इसका इंतजार करती हैं
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पानी में डूबी है। भारी बारिश, तेज हवाओं और समुद्र में उठती ऊँची लहरों ने मुंबई की रफ्तार पूरी तरह से रोक दी। दो दिन की बारिश ने पूरे शहर को ऐसा ठहरा दिया कि सड़क, रेल और हवाई यात्राएँ ठप्प हो गईं। लोग दफ्तरों में फँसे रह गये और सड़कों पर गाड़ियाँ पानी में डूब गईं। स्कूल, कॉलेज बंद करने पड़े और सरकारी व निजी संस्थानों में कामकाज ठप्प हो गया। लेकिन सवाल है कि क्या सरकार इससे कोई सबक लेगी और भविष्य में ऐसी घटनाओं का दोहराव नहीं हो, इसके उपाय करेगी?

मुंबई में 12 साल के बाद ऐसे हालात बने हैं। इससे पहले 2005 के जुलाई अगस्त में इसी तरह की बारिश हुई थी और कई दिनों तक मुंबई में सब कुछ अस्त-व्यस्त रहा था। लोग जहाँ के तहाँ फँसे हुए थे, संस्थान बंद थे और मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन भी बंद थी।

उसके 12 साल बाद अगर फिर वैसी ही स्थिति बन रही है तो इसका मतलब है कि इन 12 सालों में महानगर के बुनियादी ढाँचे में कोई बदलाव नहीं हुआ और न ऐसी किसी प्राकृतिक आपदा से निपटने के उपाय किये गये। यह महज संयोग था कि पिछले 12 साल में वैसी बारिश नहीं हुई। इस साल 2005 जैसी बारिश हुई तो हालात वैसे ही बन गये। इसका मतलब यह है कि देश की आर्थिक राजधानी में सब कुछ भगवान भरोसे है प्राकृतिक आपदा को लेकर भगवान भरोसे रहने की इस देश की सोच मुंबई से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक एक जैसी है। जैसे मुंबई में 2005 जैसे हालात हैं, कुछ-कुछ वैसे ही बिहार में 2008 जैसे हालात हैं।

2008 में कोसी की बाढ़ ने ज़बरदस्त तबाही मचाई थी। लेकिन उसके बाद नौ साल में बाढ़ से बचने या लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं किया गया। तभी इस साल की बाढ़ में अब तक पाँच सौ से ज्यादा लोग मर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भी मरने वालों का आंकड़ा सौ से ऊपर चला गया है।

सवाल है कि क्या बिहार और उत्तर प्रदेश में आई बाढ़ को प्राकृतिक आपदा मानेंगे? आपदा का मतलब होता है कि अचानक होने वाली कोई घटना, लेकिन वहाँ तो तय है कि साल के इस महीने में बाढ़ आएगी, फिर इसे आपदा कैसे कह सकते हैं?

जरा सी तेज बारिश होती है और जुलाई, अगस्त में बाढ़ आ जाती है तो क्या सरकारों को इससे निपटने के पुख्ता उपाय नहीं करने चाहिये? लेकिन ऐसी लगता है कि सरकारें इसे एक अनिवार्य परिघटना मान कर इसका इंतजार करती हैं। बाढ़ में सैकड़ों, हजारों करोड़ों की लूट का रास्ता खुलता है, शायद इसलिये इससे निपटने के स्थायी उपाय नहीं किये जाते हैं।

उत्तराखंड में ज़बरदस्त तबाही मची थी। भारी बारिश और भूस्खलन से कई गाँव तबाह हो गये थे और एक अनुमान के मुताबिक छह हजार लोगों की मौत हो गई थी। लेकिन क्या उससे कोई सबक लिया गया है? क्या कोई भी सरकार इस बात की गारंटी कर सकती है कि देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में बदरीनाथ, केदारनाथ की यात्रा पर जाने वाले लोग सुरक्षित हैं?

सैकड़ों गाँवों की तबाही और हजारों लोगों की मौत के बाद स्थिति जस की तस है। उत्तराखंड हो या हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर हो, कहीं भी वैसी दुर्घटना कभी भी हो सकती है। प्रकृति के सामने इंसान की मजबूरी का राग-अलाप कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाएगा। भारत में जितने किस्म की विविधता है, उतने ही किस्म की प्राकृतिक आपदाएँ भी हैं। कहीं बाढ़ से, कहीं बारिश से तो कहीं भूस्खलन से लोग तबाह होते हैं तो कहीं सुनामी और चक्रवाती तूफान से। तमिलनाडु में 2004 में सुनामी आई थी। तमिलनाडु इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। दक्षिण भारत के और भी कई राज्यों में इससे तबाही मची।

उसके बाद पिछले 13 साल में सुमानी तो नहीं आई है, लेकिन कई चक्रवाती तूफान आये हैं। इन छोटे-मोटे तूफानों में ही आंध्र प्रदेश से लेकर ओडिशा और तमिलनाडु तक भारी तबाही मच जाती है। बिजली के खंभे गिर जाते हैं और हजारों लोग बेघर हो जाते हैं। कुछ लोग मारे भी जाते हैं। इस मामले में भी बचाव के स्थायी उपाय करने की बजाय आपदा का इंतजार किया जाता है।

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