आपदा के बाद उत्तराखंड

उत्तराखंड की आपदा ऐसे छोड़ गई है जिसकी टीस मिटने में लंबा वक्त लगेगा। दो महीने बाद भी कहीं राहत सामग्री और मुआवजे की बंदरबांट चल रही है तो कहीं मलबों में दबे शव डीएनए परीक्षण के इंतजार में दुर्गंध फैला रहे हैं। प्रशासन की उदासनता और हीलाहवाली लोगों की तकलीफ़ को और बढ़ा रही है। इस उथल-पुथल की दास्तान बयान कर रहे हैं गुंजन कुमार साथ में शंभूनाथ शुक्ल का यात्रा अनुभव।

आपदा के शुरुआती दिनों में आपदाग्रस्त गाँवों में हेलिकॉप्टर से बिस्कुट, पानी वगैरह गिराया गया था। उसके बाद लोग रोज़ाना दर्जनों बार हेलिकॉटर को अपने गांव के ऊपर से उड़ान भरते देखते हैं। जैसे ही किसी हेलिकॉप्टर की आवाज़ इनके कानों में पड़ती है तो सभी अपने आंगन में आकर आसमान को निहारने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन्हें दो महीने हो गए हैं। लेकिन एक भी पैकेट अन्न इस क्षेत्र में नहीं गिरा। राहत सामग्री नहीं मिलने के कारण घाटी के लोगों पर भुखमरी का संकट गहराने लगा है। आपदा के दो महीने बाद भी उत्तराखंड में केदारनाथ इलाके की हकीक़त अब भी भयावह है। वहां मलबों में अब भी दबी लाशें डीएनए परीक्षण के इंतजार में दुर्गंध फैला रही हैं। भूख से तड़पते लोग हैं, मगर राहत सामग्री उन तक नहीं पहुंच पाई है। कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी की सूरत-ए-हाल जानने के लिए जान जोखिम में डालकर उन दुर्गंध घाटियों में गया, जहां अभी तक कोई मीडियाकर्मी नहीं पहुंचा पाया था और न सरकारी कारिंदा। मुआवज़े का मरहम ज़ख्म तक पहुंचने से पहले ही प्रहसन में तब्दील हो रहा है। पीड़ा की घाटियों को जानने-समझने के क्रम में हमारा पहला पड़ाव ऊखीमठ था। इसी तहसील में केदारनाथ है, जो रुद्रप्रयाग जनपद में है। अगले दिन सबसे पहले ऊखीमठ का पैंज गांव जाना हुआ। बताया गया कि इस गांव के आठ लोग केदारनाथ के काल के गाल में समा गए, जिनमें पांच बच्चे थे।गांव से तहसील मुख्यालय ऊखीमठ करीब ढाई किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर स्थित है। पैंज गांव शुरू होने से पहले यहां का प्राथमिक स्कूल है। स्कूल से करीब आधा किलोमीटर ऊपर चढ़ने पर आबादी शुरू होती है। आबादी में पहुंचने के बाद लगा कि वातावरण अब भी गमगीन है। स्कूल में जरूर बच्चों का शोर है, लेकिन गांव में मातमी सन्नाटा पसरा है।

पैंज के सभी आठ परिवारों से मिलने के बाद हम लोग किमाणा गांव की ओर बढ़े। इस गांव के लिए हमें फिर ऊखीमठ आना पड़ता, लेकिन पैंज के एक लड़के आलोक ने बताया कि अगर हम जंगल के रास्ते से जाते हैं तो एक किलोमीटर नीचे ही किमाणा है। हमने जंगल के रास्ते जाने का निर्णय किया। आलोक ने हमारा मार्गदर्शन किया। इस रास्ते से दूरी ज़रूर घट गई थी लेकिन यह मार्ग था बहुत खतरनाक। लगभग 80-85 डिग्री के ढलान पर पहाड़ से नीचे उतरना जोखिम भरा था। ग्रामीणों ने बताया कि किमाणा के अठारह लोग केदारनाथ में मौत के शिकार हुए हैं। इस गांव के अधिकतर लोग केदारनाथ में पंडे हैं। इसलिए इनकी आर्थिक स्थिति ठीक है। लेकिन अठारह लोगों की मौत से पीड़ित परिवारों के साथ-साथ पूरा गांव गहरे दुख में है। लोगों ने बताया कि इन्हें राहत सामग्री तो मिली, लेकिन अभी तक राहत राशि नहीं मिल पाई है।

किमाणा में भी करीब सभी पीड़ित परिवारों से हमारी बातचीत हुई। उनसे सवाल पूछने के लिए काफी हिम्मत जुटानी पड़ी। एक दिन में इन दो गाँवों में ही जा पाए। शाम को ऊखीमठ वापस आए। यहां के एक वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्णसिंह नेगी ने बताया कि पैंज और किमाणा जैसे तहसील से सटे गाँवों में राहत सामग्री पहुंच रही है। देर-सबेर इन्हें राहत राशि भी मिल जाएगी। लेकिन, पहले आपदा ने, फिर प्रशासन ने किस तरह लोगों की कमर तोड़ दी है। यह जानना है तो कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी चलिए। रास्ता विकट है। बहुत संभव है कि आप लौटकर वापस भी न आ पाएँ। थोड़ी देर के लिए हम डर ज़रूर गए, लेकिन इसी डर ने वहां जाने के लिए प्रेरित किया।

नेताओं के साथ हेलिकॉप्टर से केदारनाथ पहुंचे कुछ चैनलों के रिपोर्टरों से तो लोगों को उम्मीद ही नहीं रही कि वे सही तस्वीर सामने लाएंगे। उनका और सरकार का फोकस केदारनाथ धाम और केदारघाटी तक सीमित रहा जबकि गुप्तकाशी और ऊखीमठ से कुछ किलोमीटर आगे जाने के बाद केदार घाटी से कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी अलग होती है। इन दोनों घाटियों में तबाही का मंजर और भी भयावह है जिस पर किसी की नजर नहीं गई। सितम तो यह कि इन दोनों घाटियों के गाँवों में सरकारी नुमाइंदे के तौर पर पटवारी तक नहीं पहुंच पाया था। तहसीलदार, एसडीएम और डीएम तो दूर की बात है। यहां के लोग सरकार के नहीं, भगवान भरोसे थे।

ऊखीमठ से मदमहेश्वर घाटी जाने वाले रास्ते का हाल भी अच्छा नहीं है। मंदाकिनी और कालीगंगा का संगम कालीमठ में होता है। इसके ऊपर कालीगंगा का क्षेत्र कालीमठ घाटी कहलाता है। कालीमठ घाटी करीब तीस किलोमीटर की लंबाई में फैली है। वहीं गुप्तकाशी से चार किलोमीटर आगे निवासिणी में मंदाकिनी और मधुगंगा का संगम होता है। यहां से ऊपर मधुगंगा का क्षेत्र मदमहेश्वर घाटी के नाम से जाना जाता है। मदमहेशवर घाटी की लंबाई करीब बीस किलोमीटर है। कालीमठ घाटी की कुल सात ग्रामसभाओं में ग्यारह गांव है। इस घाटी की आबादी चार हजार के करीब है। मदमहेश्वर घाटी की कुल तेरह ग्रामसभाएं और पंद्रह गांव है। इसकी आबादी करीब पांच हजार है।

इन लोगों के तकलीफ़ और हालात जानने के लिए हमने फिसलन भरी पहाड़ी रास्तों से कालीमठ की ओर जाने का फैसला किया। यह रास्ता ऐसा है जहां एक-दूसरे का हाथ छूटा नहीं कि आप सीधे कई सौ मीटर नीचे मंदाकिनी में समाए। इन दोनों घाटियों में मुआवजा तो दूर राहत सामग्री तक नहीं पहुंची थी। लिहाजा इन पर आपदा की दोहरी मार पड़ी। एक तो इन दोनों घाटियों के लोगों ने केदारनाथ में काम करने वाले अपनों को खोया है, दूसरा ये देश-प्रदेश के अन्न हिस्सों से कट गई हैं।

इन घाटियों के गाँवों के अधिकतर लोग केदारनाथ में ही काम करते थे। यात्रा अवधि में छह माह की कमाई से ये लोग अपने परिवार का साल भर पेट पालते हैं। कोटमा ग्रामसभा के प्रधान लक्ष्मण सिंह सत्कारी बताते हैं – ‘सभी गाँवों के करीब नब्बे लोग केदारनाथ में ही काम करते थे। केदारनाथ धाम यहां के लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन था।.. कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी के ज्यादातर लोग आपदा के शिकार हुए है।’ प्रशासन के आंकड़ों को सही माने तो ऊखीमठ तहसील के ही 176 बच्चे केदारनाथ से वापस नहीं लौटे हैं, जिनकी उम्र सात से उन्नीस साल के बीच की है। इन दोनों घाटियों से कुल कितने लोग हताहत हुए हैं, सही-सही आंकड़ा प्रशासन के पास नहीं है। सवाल है जब प्रशासन गाँवों तक पहुंच ही नहीं पाया है तो यहां से लापता लोगों की जानकारी उन्हें कैसे मिल सकती है। सिर्फ उन्हीं लोगों की सूची सरकार के पास है, जिनके परिजनों ने स्वयं प्रशासन के पास-जाकर उनके लापता होने की शिकायत दर्ज कराई है। मगर कई ऐसे परिवार भी हैं जो अपने लापता परिजनों को ढूंढ़ ही रहे हैं। जाल तल्ला गांव के सूरज सिंह के दोनों बेटे मनोज सिंह और अनूप सिंह केदारनाथ कमाने गए थे। नहीं लौटे। उनका गला भर आता है। ‘मेरे बेटे मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। उन्हें मेरा वंश चलाना है।’

कालीमठ घाटी का जाल तल्ला गांव करीब अट्ठावन परिवारों का है। यहां के नब्बे फीसद लोगों की आजीविका केदारनाथ पर निर्भर है। इस गांव के लोग केदारनाथ आने-जाने के लिए खच्चर और चाय-नाश्ते की छोटी-मोटी दुकानें चलाया करते थे। गांव के बीस लोग केदारनाथ से वापस नहीं आ पाए हैं। उनमें महीपाल सिंह के चार बेटे भी हैं। इनके चारों बेटे सत्रह से छब्बीस साल के थे। उनके बुढ़ापे का एक मात्र सहारा अब आठ माह का पोता सागर है। इसी गांव के दिलवर सिंह ने अपने दो बच्चों को खोया है। इनके घर में अब कोई भी काम करने वाला नहीं बचा है। पूरे कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी में श्मशानी सन्नाटा है। दिलवर सिंह अपनी भीगी आंखों को पोंछते हुए रुंधे हुए कंठ से बताते हैं-‘हर साल यात्रा खत्म होने के बाद गांव के लोग पूरी कमाई लेकर आते थे। पूरे गांव में जश्न मनाया जाता था। चौपाल सजाई जाती और लोक नृत्य का आयोजन होता था। मुझे नहीं लगता, दशकों तक इस इलाके में जश्न और ढोल-दमाऊ सुनाई पड़ेगा।’ कई घरों में महिलाएं, बूढ़े और गोद के बच्चे ही बचे हैं। गुप्तकाशी से कोई चार किलोमीटर आगे चलने पर निवासिणी है। यहीं पर मंदाकिनी और मधुगंगा का संगम है। निवासिणी से आगे कालीमठ की ओर बढ़ रहे थे तो वातावरण में दुर्गंध महसूस हुई। कालीमठ गांव से कुछ पहले ही मंदाकिनी के किनारे कई शव बिखरे पड़े थे। ये शव केदारनाथ से बहकर आए होंगे। शवों को पहचानना नामुमकिन था। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने देशवासियों से वादा किया था कि सभी शवों की पहचान के लिए उनका डीएनए परीक्षण कराकर, सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया जाएगा। एक स्थानीय निवासी ने बताया कि दुर्गंध पूरे क्षेत्र में फैल रही है। लोग बीमार पड़ रहे हैं। सरकार शुरुआती दिनों से ही आपदा पर झूठ बोल रही है।

आपदा के शुरुआती दिनों में आपदाग्रस्त गाँवों में हेलिकॉप्टर से बिस्कुट, पानी वगैरह गिराया गया था। उसके बाद लोग रोज़ाना दर्जनों बार हेलिकॉटर को अपने गांव के ऊपर से उड़ान भरते देखते हैं। जैसे ही किसी हेलिकॉप्टर की आवाज़ इनके कानों में पड़ती है तो सभी अपने आंगन में आकर आसमान को निहारने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन्हें दो महीने हो गए हैं। लेकिन एक भी पैकेट अन्न इस क्षेत्र में नहीं गिरा। हेलिकॉप्टरों में कोई राहत सामग्री नहीं, बल्कि, अधिकारी और मंत्री होते हैं। हालत यह है कि अब किसी तहसीलदार को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना होता है तो वह भी हेलिकॉप्टर की मांग करता है। राहत सामग्री नहीं मिलने के कारण घाटी के लोगों पर भुखमरी का संकट गहराने लगा है। घर में जमा अनाज खत्म हो गया है। बाहर से कोई सामान गांव नहीं आ रहा है। रास्ता बनने में भी अभी महीनों लगेंगे। ऐसे में अगर जल्द ही इन लोगों को अनाज मुहैया नहीं कराया गया तो ये भुखमरी के कगार पर जा पहुंचेगे।

कहने को तो विभिन्न प्रदेशों से भरपूर मात्रा में राहत सामग्री पहुंची है। सैकड़ों की तादाद में गैर सरकारी संगठन भी गुप्तकाशी और ऊखीमठ में शिविर लगाए हुए है। लेकिन कोई भी कालीमठ घाटी की ओर रुख नहीं कर रहा है। गैरसरकारी संगठनों के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन का भी कहना है कि पीड़ित परिवार गुप्तकाशी और ऊखीमठ आकर राहत सामग्री लें। अब सवाल है कि जिसके घर में सिर्फ बूढ़े और गोद में खेलने वाले बच्चे बचे हों वह कैसे तीस किलोमीटर दूर पैदल जाकर राहत सामग्री ले सकता है।

शासन-प्रशासन की लापरवाही का आलम यह है कि पहले तो महीने भर तक राहत सामग्री को देहरादून, रुद्रप्रयाग, गुप्तकाशी, ऊखीमठ में डंप कर रखा गया। इसका वितरण नहीं किया गया। जब मीडिया में राहत सामग्री डंप होने की खबरें आने लगी तब उसका वितरण शुरू किया गया। यह वितरण दूर के गाँवों में नहीं बल्कि तहसील मुख्यालय और सड़क मार्ग से लगे गाँवों में ही हुआ। तहसील प्रशासन ने प्रधान के माध्यम से संदेश भेज दिया कि राहत सामग्री ले जाएं। वितरण का केंद्र ऊखीमठ और गुप्तकाशी बनाया गया है। तहसील से लगे गांव के लोग, जिनके पास खाद्यान्न संकट नहीं है, वे तो सामग्री लेकर जा रहे हैं, लेकिन जिन लोगों पर गाज गिरी है वहां के लोगों को राहत नहीं मिल रही है।

गुप्तकाशी से कालीमठ घाटी के सबसे नज़दीकी गांव की दूरी करीब सत्रह किलोमीटर है और सबसे दूर गांव की दूरी करीब तीस। इन गाँवों के पीड़ितों के लिए पैदल दूरी तय कर गुप्तकाशी आना काफी कठिन है। फिर भी कुछ लोग जान जोखिम में डालकर गुप्तकाशी राहत सामग्री लेने जाते हैं। लेकिन यहां से भी इन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है क्योंकि वहां पहुंचकर इन लोगों से मृतकों के प्रमाणपत्र मांगे जाते हैं, जो किसी के पास नहीं है। रांसी से अनिल ऊखीमठ राहत सामग्री के लिए आया था। यहां साध्वी ऋतंभरा ने राहत सामग्री का शिविर लगाया है, जब अनिल इनके शिविर में राहत सामग्री लेने पहुंचा तो उससे परिवार के मृतक परिजन का प्रमाण पत्र मांगा गया। प्रमाण पत्र नहीं दिखाने पर उसे राहत सामग्री नहीं मिली। लोगों ने बताया कि यह स्थिति यहां रोज की है।

इन इलाकों में राहत सामग्री पहुंचाने का एक मात्र साधन हेलिकॉप्टर है। लेकिन यह राहत सामग्री पहुंचाने के बजाय कर्मचारियों और अधिकारियों के घूमने का साधन बना हुआ है। जाल तल्ला गांव के महिपाल सिंह कहते हैं, ‘मैं किसके लिए राहत लेने जाऊं।’ जब हमारे बेटे ही नहीं रहे तो मेरा अस्तित्व भी कहां? अब तो सिर्फ अपने पोते की चिंता सता रही है। पड़ोसी खाना दे जाते हैं। उसी के आसरे जिंदा हूं। घर का अन्न भी खत्म होने वाला है। हम पड़ोस पर बोझ बने हुए हैं। प्रशासन ने आज तक हमारा हाल नहीं पूछा है।

मुख्यमंत्री और उनके मंत्री दावे कर रहे हैं कि पीड़ितों को सभी प्रकार की सहायता दी जा रही है। पता नहीं किनको मिल रही है। मुख्यमंत्री का दावा कालीमठ आते-आते दम तोड़ देता है। सरकार केदारनाथ में हुई मौत के आंकड़ों को छिपाती रही है। अब मौत का सरकारी ग्राफ 5748 पर आकर रुक गया। इनमें 934 उत्तराखंड के लोग हैं। लेकिन क्या यह आंकड़ा सही है? सरकार इसे सही मान रही है। पर विधानसभा अध्यक्ष ने ही सरकार के इस आंकड़े को गलत बताया था। कुछ गैर सरकारी संगठन भी विधानसभा अध्यक्ष की बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं।

इन सबसे जुदा स्थानीय लोगों और केदारनाथ और आसपास के इलाके में काम करने वाले लोग मृतकों के आंकड़े को और भी ज्यादा मान रहे हैं। इस सीजन में केदारनाथ में करीब पंद्रह घोड़े-खच्चर तीर्थयात्रियों को ढो रहे थे। इस सीजन से पहले एक व्यक्ति दो-तीन खच्चरों पर तीर्थ यात्रियों को बैठाकर एक साथ केदारनाथ ले जाता था और वहां से इसी प्रकार वापस लाता था। लेकिन इस साल यात्रा शुरू होने से पहले सरकार ने एक नियम बनाकर घोड़ा-खच्चर वालों को आदेश जारी किया कि एक व्यक्ति एक ही खच्चर ले जा सकता है। इस नियम के कारण इस साल यात्रा सीजन में घोड़ा-खच्चर वालों की संख्या तीन गुना बढ़ गई। पहले जहां करीब चार हजार खच्चर वाले थे वहीं इस बार करीब पंद्रह हजार घोड़े-खच्चरों को इतने ही लोग हांक रहे थे। खच्चर वालों की मानें तो पंद्रह हजार खच्चरों में चार से पांच हजार खच्चर ही बच पाए हैं। इतनी ही संख्या में घोड़े-खच्चर वाले भी बचे हैं।

सरकारी आंकड़े दर्ज शिकायतों पर आधारित हैं। प्रदेश के लापता 934 लोगों की शिकायत स्थानीय प्रशासनिक दफ्तर में दर्ज करवाई गई है। इन्हीं दर्ज मामलों के आधार पर सरकार प्रदेश के सिर्फ 934 लोगों को केदारनाथ से लापता मान रही है। जबकि आंकड़े इससे कहीं ज्यादा हैं। कालीमठ और मदमहेश्वर घाटी में प्रशासन आज तक नहीं पहुंच पाया है। यहां के बहुत कम लोगों के लापता होने के मामले दर्ज हो पाए हैं। इसलिए इस घाटी के लापता सभी लोगों के आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं। डुंगर शिमला के खच्चर वाले बसंत लाल कहते हैं – ग्रामबाड़ा में मेरी एक दुकान और तीन खच्चर थे। दुकान और तीनों खच्चर बह गए। जिस वक्त आपदा आई मैं दुकान में था। हम जंगल की ओर भागे और बच गए। खच्चर केदारनाथ के रास्ते में थे। मैंने खच्चर के साथ नेपाली नौकर को काम पर रखा था। मुझे नहीं पता वह बचा है या नहीं।

खच्चर का लाइसेंस जिला पंचायत से जारी किया जाता है। जिला पंचायत रुद्रप्रयाग ने खच्चर का लाइसेंस बनाया। लेकिन खच्चर के साथ चलने वाले व्यक्ति का कोई पंजीकरण नहीं किया गया। यहां एक और महत्वपूर्ण बात है। खच्चर की पंजीकरण मालिक के नाम पर होता था। अगर किसी व्यक्ति के पास तीन खच्चर हैं तो लाइसेंस एक ही व्यक्ति (मालिक) के नाम जारी किए जाते और खच्चर हांकने वाला उसी लाइसेंस को लेकर काम करता था। इसीलिए प्रशासन के पास खच्चर वालों की संख्या का कोई आंकड़ा नहीं है। इस बार नए नियम के मुताबिक यात्रा शुरू होने पर खच्चर को हांकने वालों की मांग अचानक बढ़ गई थी। पहाड़ से पलायन होने के कारण स्थानीय लोग बहुत कम थे। ऐसे में नेपाल से आए मज़दूर बड़ी संख्या में इस काम के लिए रखे गए। इन मज़दूरों का भी सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है। इसके अलावा सरकार की सूची में शायद ही किसी नेपाल के मज़दूर का नाम दर्ज हो। फिर भी सरकार दावे कर रही है कि उसकी सूची दुरुस्त है।

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