आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्ध, आज भी अधूरा प्रयास

6 Sep 2015
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people inhabiting in tent
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हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


हम ऊर्जा प्रदेश के नाम पर विकसित देशों की पंक्ति में अपने को खड़ा रखना होशियारी समझते हैं। जिस क्षेत्र में इस तरह की मानवकृत गतिविधियाँ चल रही हों उस क्षेत्र में 20-20 वर्ष पुरानी निर्मित सड़कों की ओर निहारने की जरूरत है कि वे कितनी बार बड़े भूस्खलन की समस्याएँ पैदा कर चुकी हैं। तो क्या बाँध के ऊपर भूकम्प के समय लोगों की ज़मीन के अन्दर ही दफन होने की सम्भावनाएँ नहीं दिखाई देती है? उत्तराखण्ड राज्य देश का एक ऐसा पहला राज्य है, जिसने अपने यहाँ आने वाली दैवीय आपदाओं की भरमार को देखते हुए इसका अलग से आपदा प्रबन्धन विभाग बनाया और 11 नवम्बर 2005 को आपदा न्यूनीकरण, प्रबन्धन तथा निवारण अधिनियम 2005 भी जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।

इस अधिनियम को पढ़ने से ज्ञात हुआ कि जिस गाँव अथवा क्षेत्र में आपदा आती है, वहाँ की पूरी जिम्मेदारी सरकार ने स्वयं ही ले ली है। गाँव वालों पर यदि आपदा आती है तो समझ लीजिए कि पुलिस, डीएम, तहसीलदार भागे-भागे नजर आएँगे। उत्तराखण्ड के 13 जिलों में से 8 जिलों में तो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के सहयोग से आपदा प्रबन्धन के लिये राज्य से लेकर जिला स्तर तक अधिकारियों की तैनाती भी की गई है।

इनका दावा है कि राज्य के अधिकतर गाँवों को आपदा प्रबन्धन की शिक्षा देंगे। सिद्धान्ततः यह प्रयास काफी मजबूत लगता है, लेकिन जिला स्तर पर जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में चलने वाली आपदा प्रबन्धन समितियों में तमाम अधिकारियों के कंधों पर ही आपदा का प्रबन्धन होता है, जो सरकारी विभाग अपने चपरासी और क्लर्क से काम नहीं करवा पा रहे हैं, वे जोखिम भरी स्थिति में क्या आपदा प्रभावित क्षेत्र का दौरा भी करेंगे? साथ ही बचाव और राहत में भी जुटेंगे।

यह तैयारी केवल दैवीय आपदाओं से ही निपटने के लिये हो रही है, जो मानवकृत आपदाएँ है उसका समाधान करने के लिये ना तो विधेयक में वर्णन, और ना ही जिला स्तरीय आपदा प्रबन्धन की बैठकों में यह बात सुनी जाती है। आपदा न्यूनीकरण प्रबन्धन तथा निवारण विधेयक में आपदाओं की सूची में जल तथा जलवायु, भूगर्भिक हलचल, दुर्घटना जैसी आपदाओं को सूचीबद्ध किया गया है। इस सूची में मानवकृत आपदाओं पर परदा डालने का प्रयास भी किया गया है।

मानवकृत आपदाएँ क्या हैं? यह कोई नई चीज नहीं है बल्कि मानवीय गतिविधियों से पैदा की जा रही आपदा है, जिसके कारण लोगों की असामयिक मौतें हो जाती हैं। उत्तराखण्ड में सैकड़ों सुरंग बाँध बनाए जा रहे हैं इससे सर्वाधिक बाँध ऐसे क्षेत्र में बन रहे हैं जो भूकम्पीय क्षेत्र जोन-5 में स्थित हैं।

यहाँ पर निर्माण करने वाली कम्पनियों के द्वारा लोगों को केवल रोज़गार देने की अफ़ीम पिलाई जा रही है लेकिन यहाँ पर सुरंगों के ऊपर बसे गाँव क्या 9 रिक्टर स्केल तक के सम्भावित भूकम्प को सहन कर पाएँगे? यदि यह सत्य है तो कम-से-कम इस पर विचार तो हो। खेद इस बात पर है कि सरकारी वैज्ञानिक इस दावे को कभी नहीं करते हैं। क्योंकि उन्हें ऊर्जा प्रदेश बनाना है।

हम ऊर्जा प्रदेश के नाम पर विकसित देशों की पंक्ति में अपने को खड़ा रखना होशियारी समझते हैं। जिस क्षेत्र में इस तरह की मानवकृत गतिविधियाँ चल रही हों उस क्षेत्र में 20-20 वर्ष पुरानी निर्मित सड़कों की ओर निहारने की जरूरत है कि वे कितनी बार बड़े भूस्खलन की समस्याएँ पैदा कर चुकी हैं। तो क्या बाँध के ऊपर भूकम्प के समय लोगों की ज़मीन के अन्दर ही दफन होने की सम्भावनाएँ नहीं दिखाई देती है?

आपदा प्रबन्धन के दौरान यही सिखाया जाता है कि कोई आपदा घटित हो तो अपने को कैसे पूर्व से ही बचा के रखें। इसकी जानकारी बाँध के ऊपर रहने वाले लोगों को पहले से ही बता देनी चाहिए। सन् 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प के बाद उत्तरकाशी से पिथौरागढ़ तक की पहाड़ियों में जगह-जगह दरारें देखी गई थी।

अधिकांश बस्तियाँ इन दरारों के आसपास बसी हुई हैं और यह जानते हुए भी इन दरारों के नीच सुरंगें बनाए जाने की योजनाओं पर लगातार अमल हो रहा है। इसके साथ-साथ ऊँचाई के वन क्षेत्रों में वन विकास निगम लगातार सूखे पेड़ों के नाम पर दुर्लभ हरे पेड़ों का कटान कर रहा है। यह क्रम जारी रहा तो एक दिन ये स्थान वन विहीन हो जाएँगे और ऊँचाई पर रहने से लेकर घाटियों और मैदानी क्षेत्रो तक के लोग बाढ़ एवं भूस्खलन की विभिषिका से तबाह होंगे।

इधर भागीरथी नदी का जलग्रहण क्षेत्र भूकम्प एवं बाढ़ के लिये लगातार संवेदनशील बना हुआ है। अतः मानवकृत गतिविधियों के कारण प्राकृतिक आपदाएँं बढ़ रही हैं। दैवीय आपदा के रूप में सबसे बड़ा खतरा उत्तराखण्ड को भूकम्प से है। इसके अलावा आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने, आग लगने, सड़क दुर्घटनाएँ आदि के कारण भी आपदाएँ घटित हो रही हैं।

भूकम्प से निबटने के लिये भूकम्परोधी घरों के निर्माण के लिये स्थानीय राज मिस्त्रियों के प्रशिक्षण पर सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों का विशेष ध्यान है। जिला आपदा प्रबन्धन विभाग की ओर से भी राजमिस्त्रियों को समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाता रहा है। विशेषकर 1803 के भूकम्प के बाद लोगों ने स्वयं भी अपने घरों की दीवारों की चिनाई के चारों ओर दो स्तरों पर लकड़ी की फेरुल लगाकर भूकम्परोधी घर बनाए हैं।

इसी को ध्यान में रखते हुए घरों के निर्माण में अब सीमेंटेड लिंटर, बैण्ड वाली दीवारों के सहारे समानान्तर में डाला जा रहा है। जो की काफी महंगी तकनीक है, जिससे गरीब के घर को तो कभी भूकम्परोधी नहीं बनाया जा सकता। जबकि इसके लिये परम्परागत रूप से लकड़ी की फेरुल ही सस्ती थी। लेकिन लकड़ी वन विभाग ने डिपो बनाकर अपने पास रख दी है। बचे-खुचे जंगलों पर वन विकास निगम मोटी कमाई कर रहा है। अब सवाल यह है कि ग्रामवासी कैसे सस्ते में अपना घर भूकम्परोधी बना सकेगा।

उत्तराण्ड में चीड़ के जंगलों का क्षेत्रफल कुल वन क्षेत्रफल में लगभग 70 प्रतिशत के बराबर है। इस कारण भी वन विभाग को काफी वाणिज्यिक लाभ हो रहा है। इस लकड़ी को भूकम्परोधी घरों के निर्माण के लिये लोगों को हक-हकूक के रूप में दिया जाना चाहिए था। परन्तु इस तरह की व्यवस्था देने में आपदा न्यूनीकरण प्रबन्धन निवारण अधिनियम 2005 कन्नी काट रहा है।

सस्ती दरों पर लकड़ी के बिना 27 हजार, 38 हजार व 82 हजार रुपए की लागत से बनने वाले गरीबों के आवासों को भी भूकम्परोधी नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि सीमेंट और लोहा के उपयोग को सही रूप से करने के लिये भी यह राशि पूरी नहीं पड़ती है। कुल मिलाकर मध्यम वर्ग के साथ-साथ आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के भवन भूकम्परोधी कैसे बनेंगे? अधिनियम इसको दिशा निर्देशित नहीं कर पाया है।

ताज्जुब है कि आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन की पूर्व तैयारी के लिये समुदाय आधारित कोई कार्यक्रम सामने नहीं आ पाया है। ना ही सरकारी तथा गैर सरकारी विभाग जो भी निर्माण के काम करवा रहे हैं उनके पास आपदा-जोखिम से निपटने के लिये कोई पुख्ता इन्तज़ाम है।

तात्पर्य यही है कि आपदा-जोखिम से निपटने के लिये गाँवों में लोगों के साथ तैयारी होनी अभी बाकी है। जिसे ग्राम पंचायत का मुख्य अंग बनाना भी शेष है। जबकि विधेयक में यह कार्य आपदा प्रबन्धन समितियों को करना है मगर ग्राम पंचायत के साथ अब तक राज्य के आपदा प्रबन्धन विभाग ने कोई सामंजस्य नहीं बैठा पाया।

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