आपदाओं के कुदरती होने या न होने का सच

11 Oct 2015
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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


. अचानक होने वाले हादसों से जिन्दगी में जो हाहाकार मचता है वो तो है ही, पर ऐसे हादसों का अन्देशा भी उतना ही भयावह होता है। सुरक्षित और निश्चिन्त जीवन के लिये मानव दस हजार साल से लगातार अपने विकास की कोशिश में लगा है। हमने पिछली सदी के आखिरी दशकों में आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा गौर करना शुरू कर दिया था।

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में तो आपदा प्रबन्धन अकादमिक विषय भी बन गया है। अपने नागरिकों को आपदाओं के अन्देशे से मुक्त रखने के लिये विश्व की लगभग सारी सरकारें सतर्क हैं। हम भी हैं। लेकिन अभी विकसित देशों के ज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे ही हैं। और हम नई पीढ़ी को सिर्फ इस बात के लिये तैयार कर रहे हैं कि आपदा की स्थिति आने पर एक जागरूक नागरिक की तरह उन्हें क्या-क्या करने के लिये तैयार रहना चाहिए।

आपदा प्रबन्धन के लिये कोई शोधपरक पाठ हमें देखने को नहीं मिलता जो बताता हो कि आपदा के लिये हमारी कौन सी हरकतें जिम्मेदार हैं। यानी हम क्या करें कि आपदाएँ आएँ ही न, और जो कुदरती आपदाएँ आती भी हैं उनसे नुकसान ज्यादा न हो।

सरकारों और सम्बन्धित अफसरों को यह बात खराब जरूर लग सकती है लेकिन इस पर चर्चा इसलिये जरूरी है क्योंकि जनसंख्या के मामले में हम विश्व में नम्बर दो पर हैं और जल्दी ही नम्बर एक बनने वाले हैं। आबादी का बढ़ता घनत्त्व हमारा डर और बढ़ा रहा है। पानी जैसे मूलभूत संसाधन की कमी ने हमें आपदा प्रवण बना रखा है।

सामान्य अनुभव और निरीक्षण की बात है कि शब्द के तौर पर विपत्ति या विपदा का पर्यायवाची आपदा का इस्तेमाल हाल के वर्षों में काफी ज्यादा बढ़ गया है। खासतौर पर इसके अंग्रेजी पर्याय डिज़ास्टर के लिये हमने इसका इस्तेमाल शुरू किया।

विकसित देशों में भयावह दुर्घटनाओं और कुदरती कहर से बचाव और ऐसे हादसों के बाद तुरत-फुरत राहत और बचाव कार्य के इन्तजाम होने लगे हैं। अपने को उसी श्रेणी का साबित करने के लिये हम भी वैसे ही दावे करने लगे हैं। हमारे दावे का आधार यह है कि जागरुकता बढ़ाने के लिये देश के करोड़ों विद्यार्थियों के पाठयक्रम में यह विषय शामिल हो गया है।

राष्ट्रीय, प्रदेश और जिला स्तर पर आपदा प्रबन्धन संस्थाएँ खड़ी करने का काम भी निपटा लिया गया है। नियमित रूप से आपदा प्रबन्धन पर बैठकें और अभ्यास के आयोजन होते रहें इसकी व्यवस्था भी हो गई है। लेकिन इस पूरे उपक्रम का लेखा-जोखा बनाने में ज्यादा दिलचस्पी कोई नहीं लेता। जबकि छोटी बड़ी कैसी भी आपदा की स्थिति में हमारे हाथ-पैर फूल जाते हैं।

चाहे उत्तराखण्ड की बाढ़ हो चाहे श्रीनगर में बाढ़ और चाहे बुन्देलखण्ड में बेमौसम बारिश और ओलों से भारी तबाही रही हो, कहीं भी ऐसा नहीं दिखाई दिया कि आपदा प्रबन्धन की प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल ने कमाल दिखा पाया हो। मिसाल के तौर पर यहाँ जिक्र किये गए इन हादसों में एक-सी बात यह थी कि सारे हादसे आधुनिक प्रौद्योगिकी के उस युग के हैं जब हम दावा कर रहे हैं कि उपग्रहों के जरिए मौसम की सटीक जानकारी देने में हम सक्षम हैं। बेशक हो भी गए हैं।

लेकिन सिर्फ जानकारी और जागरुकता से ही काम नहीं हो जाता। सामान्य अनुभव है कि किसी भी जगह आपदा प्रबन्धन की जरूरी तैयारी नहीं थी। इसके लिये कहीं भी पर्याप्त संसाधनों का इन्तजाम नहीं था। इसमें किसी भ्रष्टाचार या लापरवाही की बात कहना ठीक नहीं होगा। जानने वाले जानते हैं कि इस मामले में सक्षम होना ज्यादा ही बड़ा काम है, उसके लिये संसाधन चाहिए।

यहाँ दिये उदाहरणों पर कोई सवाल कर सकता है कि सिर्फ बाढ़ और सूखा ही आपदाएँ नहीं हैं, भूकम्प, ट्रेन हादसे, महामारियाँ वगैरह भी आपदाएँ कहलाते हैं। बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन पिछले तीन दशकों के अनुभव से पता चलता है कि सभी आपदाओं से होने वाली हानि का आधे से ज्यादा नुकसान सिर्फ बाढ़ और सूखे की आपदाओं से होता है। ये ही दो आपदाएँ हैं जो भारत जैसे देश के लिये नियमित होने वाली आपदाएँ बन गई हैं। इनका नियमित बन जाना ही बताता है कि ये आपदाएँ प्राकृतिक आपदाएँ कम और मानवनिर्मित दुर्घटनाएँ ज्यादा हैं।

भूगर्भशास्त्रीय अध्ययनों से क्या हमें यह नहीं पता कि देश के कौन-कौन से इलाके भूकम्प प्रवण हैं? मोटा हिसाब है कि देश में लगभग चार करोड़ हेक्टेयर ज़मीन बाढ़ के अन्देशों वाली यानी बाढ़ प्रवण है। फिर भी क्या वहाँ बहुमंजिली इमारत बनाने पर पाबन्दी की बात सोची गई। क्या वहाँ भूकम्प रोधी डिजाइनों पर इमारत बनाने के मुगालते में रह कर हम खतरा मोल नहीं लेते।

इसी तरह क्या हमें नहीं पता कि देश में कितने किलोमीटर की रेलवे लाइनें अपनी उम्र पार करके तेज रफ्तार ट्रेनों के लिये बेहद खतरनाक हो गई हैं? हमें यह भी पता है कि दिल्ली की आबादी किसी भी तरह के प्रबन्धन के लिये हमारे बूते से बाहर होती जा रही है।

वहाँ तो न्यूनतम साफ-सफाई के लिये रकम का इन्तजाम कर सकने में सब सरकारें हाथ ऊपर उठा रही हैं। और डेंगू को मौसमी या कुदरती आपदा ही मानकर अस्पतालों में मरीजों का आपदा प्रबन्धन हो रहा है। मन-ही-मन यह भी मानकर कि मौसम बदलते ही महीने दो महीने में अपने आप यह आपदा प्रबन्धित हो जाएगी। और आगे की आगे देखी जाएगी। क्या यह छदम व्यवहार नहीं है?

कुल मिलाकर कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं दिखता जिसमें आपदा की परिभाषा में आने के लिये अचानक वाला तत्व मौजूद हो। लगभग सभी आपदाएँ वैसी दुर्घटनाएँ नजर आती हैं जिनका निश्चित तौर पर अन्देशा होता है। होने वाली आपदाओं के भावी पीड़ितों के लिये मुआवजे वगैरह के लिये आपदा कोष का चलन हमारे सामने है।

जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है उसके मुताबिक हर साल बढ़ रहे दो करोड़ नागरिकों के लिये पानी और भोजन का इन्तजाम आखिर सरकार का ही काम तो हैै। बाढ़ और सूखे की आपदाओं से बचाव के नाम पर ही सही, अगर देश में जल प्रबन्धन का यह काम शुरू हो जाये तो एक नहीं दसियों समस्याओं से निपटने का काम अपने आप ही होने लगेगा। तब सरकार सीना ठोक के कह सकेगी कि हमने आपदा प्रबन्धन की तैयारी तो क्या कुदरती कहर को काबू में करने का काम भी कर दिखाया।

बहुत आश्चर्य नहीं होगा कि दिल्ली में आगे से डेंगू के मरीजों के इलाज के लिये पहले से ही बजट में प्रावधान होने लगे। जबकि धन का प्रबन्ध साफ-सफाई के लिये बढ़ना चाहिए जिससे बीमारियों और महामारियों की आपदाएँ अपने आप रुकेंगी। बाढ़ वगैरह के लिये तो भारी-भरकम दिखने वाली रकम का पहले से इन्तजाम होने ही लगा हैै। बड़ी दिखने वाली लेकिन अपर्याप्त रकम का रहस्य भी जान लेना चाहिए।

सामान्य निरीक्षण में तमाम तरह की आपदाओं से देश में हर साल औसतन 60 से 70 हजार करोड़ का नुकसान होता है। यह बात उजागर इसलिये नहीं होती क्योंकि हर आपदा के समय सारा ध्यान पीड़ितों के लिये मुआवजे की माँग पर ही बनाए रखने का रिवाज है।

कोई भी हो सभी सरकारें चाहती हैं कि उन्हें करुणा और दया वाली माँगे पूरा करने के जितने मौके मिलें उतना अच्छा है। लेकिन किसी भी सरकार की कूवत किसी भी आपदा से होने वाले नुकसान की भरपाई करने की नहीं हो सकती। और फिर नुकसान के आकलन का काम भी सरकारों के हाथ में होता है। आकलन में कितना समय लगे यह भी सरकार के हाथ में रहता है।

यहीं पर यह गुंजाईश बनी रहती है कि बड़ी-से-बड़ी आपदाओं के पीड़ितों के लिये हजार पाँच सौ करोड़ के राहत पैकेज से काम चल जाये। बेचारे पीड़ितों का क्या है वे तो हमेशा से ही विश्वास बनाए हुए हैं कि आपदा प्राकृतिक ही होती है या उसकी किस्मत का नतीजा होती है। उन्हें नहीं पता होता कि ज्यादातर कुदरती हादसे कुप्रबन्ध का नतीजा होते हैं। सिर्फ 68 साल पहले यानी हाल ही में आजाद हुए नागरिकों को कोई भी मुआवजा अभी भी सरकार की कृपा लगती है।

लिहाजा सरकार कोई भी हो उसके लिये यह बड़ी अच्छी स्थिति है कि साल भर के लिये दो चार हजार करोड़ के आपदा कोश से ही उसका काम आसानी से चल जाता है। जबकि बाढ़ या सूखे से बचाव के बड़े जरूरी काम खर्चीले हैं। बाढ़ और सूखे पर नियंत्रण का वास्तविक काम शुरू हो तो सरकार को उन हजारों बड़े बाँधों की परियोजनाओं को शुरू करना पड़ेगा जो खूब सोच-विचार करने के बाद मंजूर की जा चुकी हैं लेकिन भारी-भरकम खर्च के कारण कोई-न-कोई बहाना बनाते हुए ठंडे बस्ते में पड़ी हैं।

सन् 1987 में ऐसी मंजूरशुदा बाँध परियोजनाओं पर खर्च का आँकड़ा 60 हजार करोड़ का था। आज स्थिति यह है कि सरकार को हिसाब लगाने में ही डर लगता है कि कितनी मंजूरशुदा परियोजनाओं को चालू करने के लिये कितने लाख करोड़ रुपए चाहिए होंगे। ऐसा नहीं है कि ये बाँध सिर्फ बाढ़ या सूखे के हालात रोकने के लिये ही बनने हों।

ये परियोजनाएं पीने और सिंचाई के लिये पानी की उपलब्धता को भी सुनिश्चित करने वाली हैं। इनसे बिजली का प्रबन्ध अलग से पक्का होता है। जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है उसके मुताबिक हर साल बढ़ रहे दो करोड़ नागरिकों के लिये पानी और भोजन का इन्तजाम आखिर सरकार का ही काम तो हैै।

बाढ़ और सूखे की आपदाओं से बचाव के नाम पर ही सही, अगर देश में जल प्रबन्धन का यह काम शुरू हो जाये तो एक नहीं दसियों समस्याओं से निपटने का काम अपने आप ही होने लगेगा। तब सरकार सीना ठोक के कह सकेगी कि हमने आपदा प्रबन्धन की तैयारी तो क्या कुदरती कहर को काबू में करने का काम भी कर दिखाया।

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