आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय

बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय शोषण किया जा रहा हैं, जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावह आपदाओं के रूप में करना पड़ता रहा है उत्तराखंड की विभीषिका से देश एक साल आगे बढ़ आया है। देश में नए निजाम की नियुक्ति हो चुकी है और विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न तरीकों से नई नीतियों का निर्माण भी शुरू हो चुका है। लेकिन देश की एक स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है, वो है आपदा से जुड़ी समस्याएं और उन पर हमारी तैयारी। हिमाचल प्रदेश में 25 लोगों का बह जाना हमारी मूलभूत तैयारियों के कंगालेपन को दिखा रहा था और बता रहा था कि हमने सच में अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा है। उत्तराखंड की बाढ़ के बाद देश में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी थी। लगभग सभी विचारक एकमत होकर उन सभी मानवीय मूल्यों की आलोचना कर रहे हैं, जिसने प्रकृति के स्वरूप को बदल दिया।

निसंदेह बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय शोषण किया जा रहा हैं, जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावह आपदाओं के रूप में करना पड़ता रहा है। हर वर्ष प्रकृति का अपना संतुलन बनाने के लिए किया गया बदलाव मानव और मानवीय सभ्यता के लिए घातक होता जा रहा है। इसके कई उदाहरण देश प्रतिवर्ष देखता ही है। सन् 2013 की ही मापक वर्ष मान लें तो उत्तराखंड में आई बाढ़ के बाद उड़ीसा में उपजे तूफान ने चुनौती जारी रखी। अक्टूबर में फैली देश के कई हिस्सों में बाढ़ ने बड़े पैमाने पर नुकसान किया। 2014 में ठंड के इतर लारजी प्रोजेक्ट से व्यास में छोड़े गए पानी की घटना में 25 लोगों का लाशों में तब्दील होना हमारी आपदाग्रस्त स्थिति का खाका खींचने में लगे हुए हैं।

उत्तराखंड की बाढ़ और हिमाचल की लारजी प्रोजेक्ट पर हुई घटनाओं का सामान्य रूप से मूल्यांकन करे तो हम पाते हैं कि कई दिन बीत जाने के बाद भी बचाव कार्य पूरा नहीं हो पाता हैं। सेना के उतरने के बाद बचाव कार्य में तेजी तो आती है, लेकिन परिस्थितियां विपरीत ही बनी रहती हैं, क्योंकि हमारे पास इन चीजों से निपटने के लिए जिन मूल संरचनाओं पर सबसे पहले काम करना चाहिए था, वो इतनी कमजोर होती हैं कि किसी भी आपदा के बाद आपदा राहत कार्यक्रम से पूर्व इन स्थितियों से निपटना पड़ता है। निसंदेह कई बार यह आपदा की परिस्थितियों पर भी निर्भर करता हैं और बतलाता है कि विभीषिका का स्तर मानवीय क्षमताओं से कहीं अधिक है। प्राकृतिक आपदाएं बार-बार एक ही पाठ सिखलाती हैं, जिनमें स्पष्ट संदेश होते हैं कि प्रकृति में अत्याधिक परिवर्तन मानव जाति के लिए सिर्फ और सिर्फ अहितकर होगा। लेकिन कई बार तंत्र की इच्छाशक्ति के आगे आपदा की स्थिति विषम हो जाती है

आपदा के बाद सामान्य जनजीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होती है, वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा हो जाता है। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होती है। उत्तराखंड में पहले चरण का बचाव लगभग खत्म हो चुका है और बचे लोगों को लगभग सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया हैं। अब दूसरे चरण की बारी है। दूसरा चरण महत्वपूर्ण होगा, जो ना केवल आपदा का सही मूल्यांकन करेगा वरन आने वाले वक्त में आपदा प्रबंधन को किन-किन भागों में काम करने की जरूरत है, उस ओर भी निर्देशित करेगा। दूसरे चरण के मूल्यांकन में हमें आपदा के बाद सामान्य जनजीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होती है, वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा हो जाता है। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होती है। इस चरण में ही उन सब पर ध्यान भी जाएगा, जिनको अभी तक प्रबंधन तंत्र सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हैं। दूसरा चरण प्रमुख चुनौती लिए हैं, क्योंकि इनको सामान्य जिंदगी में लाना काफी कठिन होगा। आपदा के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम आपदा से प्रभावित उन लोगों की पहचान करना होता हैं, जो सच में आपदाग्रस्त हैं। यह एक कठिन चुनौती होती है। इस तरह की आपदा के बाद लाभ के कारण हर कोई अपने को आपदाग्रस्त दिखाने की कोशिश करने लगता हैं ऐसे में आपदा में सचमुच प्रभावित, जिन्हें प्राथमिक सहायता की जरूरत होती हैं, उनकी पहचान करना सबसे कठिन हो जाता हैं। यह एक कठिन और जटिल प्रक्रिया होती है।

जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी आपदा का प्रभाव सभी पर बराबर नहीं पड़ता हैं। समाज में संवदेनशील जैसे गरीब, पिछड़े, महिलाओं व बच्चों पर इसका प्रभाव काफी अधिक पड़ता हैं। इसी प्रकार दैनिक मजदूर जिसकी आजीविका का संसाधन दैनिक मजदूरी से संचालित होती हैं, उनकी स्थिति इन आपदाओं में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पूर्णतया कुछ दिनों तक समाप्त हो जाती है और नुकसान की मात्रा इन सब पर सबसे ज्यादा होती हैं। पुरुषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। आपदा प्रंबधन को इन सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैं। आपदा प्रबंधन की नैतिकता के आदर्श, हकीकत के मैदान पर आते ही उन सभी सामाजिक कारणों से दूषित हो जाते हैं, जो सामान्य दिनों में स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। जिनमें स्थानीय राजनीति, प्रभुत्व जाति का प्रभाव, आर्थिक रूप से सम्पन्नता का प्रभाव, लिंग के आधार पर प्राथमिकताओं का चयन आसानी से देखा जा सकता हैं।

पुरुषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। आपदा प्रंबधन को इन सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैंउदाहरण के लिए राहत नुकसान का आकलन करने वाला स्थानीय अधिकारी प्रभुत्व जाति के संबंधों के कारण इन लोगों के नुकसान का आकलन सबसे पहले करता हैं और इनके लिए राहत राशि को आपदा के पहले एक या दो माह पूर्व जारी कर देता हैं, लेकिन निम्न सामाजिक और आर्थिक जातियों जो सबसे अधिक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनके आकलन में तमाम प्रकार की बाधाएं होती हैं, जिनकी वजह से आपदा के सामान्यतया तीन से चार माह से पहले किसी भी बड़ी सरकारी मदद की उम्मीद करना बेईमानी होता है। ऐसे में ये कमजोर तबका इन घनवानों से औने-पौने दामों में ऋण लेते हैं और चार माह बाद मिले मुआवजें की कीमत इन ऋणों के ब्याज उतारने तक ही खत्म हो जाती है। ऐसे में जिनको आपदा ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया हैं, आपदा राहत भी उनकी स्थिति में किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो पाती हैं। वो सतत चलने वाली समस्या में फंस जाते हैं, जिससे निकलने का कोई ओर-छोर आसानी से नहीं मिलता हैं। मौजूदा तंत्र तो सिर्फ कुछ सक्षम लोगों के नुकसान की भरपाई के लिए बना मालूम पड़ता हैं, जो सर्वमान्य रूप से स्थानीय सहभागिता का अच्छा उदाहरण नहीं है।

स्थानीय सहभागिता को बढ़ावा देने और इस पर कार्ययोजना वाले जिला आपदा नियंत्रण समिति को इस ओर ध्यान रखकर कार्ययोजना बनाने की जरूरत है ताकि सही मायनों में स्थानीय सहभागिता हो सके और सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिल सकें। जिससे प्राकृतिक आपदा जिसका परभाव सामाजिक हैं, उस ओर हम अपनी योजना को संचालित कर सकें। स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैंगिक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर कार्ययोजना को बराबरी के आधार के बजाय न्यायसंगतता को ध्यान में रखकर बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप में अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें। यही सही मायनों में स्थानीय सहभागिता के विचार को पूर्ण करेगा, वरना यह विचार सिर्फ कुछ लोगों के लाभ के लिए बना एक तंत्र रह जाएगा, जिससे कमजोर और पिछड़ों के लिए कोई जगह नहीं होगी। इस तरह की व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं हुआ तो आपदा के बाद यह एक और आपदा होगी, जिसमें गरीब, पिछड़े महिला और कमजोर वर्ग अपनी बलि लगातार चढ़ाते रहेंगे। (लेखक जेएनयू, नई दिल्ली में आपदा विषय में शोधार्थी हैं। संपर्कः ईमेल- shishiryadav16@gmail.com)

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