अपना हाथ जगन्नाथ

Kolar pond
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कई बार बेहतर प्रारंभ पर हमारा बस नहीं होता है, लेकिन अपने प्रयासों से सुखद समापन हम अवश्य सुनिश्चित कर सकते हैं। ये उदाहरण समाज को अपनी शक्ति व क्षमता को पहचानने में मदद तो करेंगे ही, हमारे जन प्रतिनिधियों को भी समझाईश देंगे कि उनके झांसे में आने की जगह जनता अपने हाथों पर भरोसा करना सीख रही है। सनद रहे कि देश के कई गांवों में स्वयं सहायता समूह के गठन व उनके सफल संचालन के उदाहरण सामने आ रहे हैं। ये समूह जल-प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जरूरत केवल इस बात की हैं कि उन्हें यह बता दिया जाए कि कमी पानी की नहीं, जल प्रबंधन की है और यह प्रबंधन, सरकार नहीं समाज के हाथों ही संभव है। कभी सोना उगलने वाली धरती कहलाने वाले कोलार (देश की सबसे पुरानी स्वर्ण खदानों की धरती, जो अब बंद हो गई हैं) के पास का छोटा-सा गांव चुलुवनाहल्ली में ना तो कोई प्रयोगशाला है और ना ही कोई प्रशिक्षण संस्थान ; फिर भी यहां देश के कई राज्यों के अफसर व जल विषेशज्ञ, स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग कुछ सीखने आ रहे हैं। ऊंचे पहाड़ों व चट्टानों के बीच बसा यह गांव, कर्नाटक के किसी दूसरे पिछड़े गांवों की तरह हुआ करता था।

बीते दस साल तो इसके लिए बेहद त्रासदीपूर्ण रहे। गांव के एकमात्र तालाब की तलहटी में दरारें पड़ गई थीं, जिससे उसमें बारिश का पाानी टिकता ही नहीं था। तालाब सूखा तो गांव के सभी कुएं- हैंडपंप व ट्यूबवेल भी सूख गए। साल के सात-आठ महीने तो सारा गांव महज पानी जुटाने में खर्च करता था। खेती-किसानी चौपट थी।

गांव के एक स्वयं सहायत समूह ‘‘गर्जन’’ ने इस त्रासदी से लोगों को उबरने का जिम्मा उठाया। लोगों को यह समझााने में आठ महीने लगे कि बगैर सरकारी ठेके व इंजीनियर के गांव वाले भी कुछ कर सकते हैं। जब अनपढ़ ग्रामीणों को उनके पारंपरिक ज्ञान का वास्ता दिया तो वे माने कि भूजल को रिचार्ज कर गांव को जल समस्या से मुक्त किया जा सकता है फिर समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधित्व के साथ ‘‘श्री गंगाम्बिका तालाब विकास समिति’’ का गठन हुआ। झील की सफाई, गहरीकरण व मरम्मत की पूरी योजना गांव वालों ने ही बनाई व इस पर नौ लाख 58 हजार के संभावित व्यय का प्रस्ताव बना कर राज्य सरकार को भेज दिया गया। बजट को मंजूरी मिली तो गांव वालेे तालाब को नया रूप देने के लिए एकजुट हो गए।

दिन-रात काम हुआ।, दो चेकडैम और तीन बोल्डर-डैम भी बना दिए गए। साथ ही नहर की खुदाई, पानी के बहाव पर नियंत्रण के लिए एक रेगुलेटर भी लगा दिया गया। यही नहीं गांव के स्कूल और मंदिर के आसपास के गहरे गड्ढों को भी भर दिया गया। तिस पर भी सरकार से मिले पैसों में से साठ हजार रूपए बच भी गए। यहां मेहनत-मजदूरी का सारा काम गांव वालों ने मिल कर किया।

खुदाई व ढुलाई के लिए दो जे.सी.बी. मशीनें और तीन ट्रैक्टर किराए पर लिए गए। खर्चे का विवरण नियमित रूप से एक कागज पर लिख कर सार्वजनिक कर दिया जाता। नहर के पास बगीचा भी बन गया है। अब सारे गांव के भूजल स्रोतों में पर्याप्त पानी है, वहीं खेतों को बेहतरीन तरावट मिल रही है।

यह एक सुखद बात है कि पढ़े-लिखे ही नहीं ठेठ देहाती किसान भी अब तालाबों को बचाने के लिए सोचने लगे हैं। चिकबल्लापुरा के पास स्थित ‘दोड्डामरली हल्ली’ तालाब की सफाई ने प्रदेश भर में नया आयाम ला दिया है । 81 एकड़ में फैले इस तालाब का सफाई और गहरीकरण के लिए सिंचाई विभाग ने 55 लाख रुपए की योजना बनाई थी। फिर गांव वालों ने तय किया कि सफाई का जिम्मा सरकार का होगा और निकली गाद की ढुलाई किसान मुफ्त में करेंगे।

इस तरह परियोजना की कीमत घटकर 12 लाख रह गई। दूसरी तरफ किसानों को थोड़े से श्रम के बदले बेशकीमती खाद निशुल्क मिल गई। सनद रहे यह तालाब 20 गांवों की पानी की जरूरत पूरी करता है। इसकी सफाई गत 80 सालों से नहीं हुई थी। इसमें से 72,500 किलो गाद निकाली गई।

सन् 1997 में नागरकेले ताल पूरी तरह सूख गया । फिर शहर का कचरा और गंदे पानी की निकासी इस ओर कर दी गई। अब जल संकट से बेहाल लोगों को समझ में आ गया कि तालाबों के बगैर पानी मिलना मुश्किल ही है। तालाब के किनारे नियमित सैर करने वाले कुछ लोगों ने इसके पुराने दिन लौटाने की शुरूआत की। ये लोग हर सुबह पौने छह बजे से पौने आठ बजे तक यहां आते व तालाब की गंदगी साफ करते।

देखते-ही-देखते सुबह आने वालों की संख्या सैंकड़ों में हो गई। पास के कंगोडियप्पा हाई स्कूल के एनसीसी के बच्चे भी इस अभियान में शामिल हो गए। किसी ने ट्रैक्टर दे दिए तो कोई डीजल की व्यववस्था करने लगा। देखते-ही-देखते नागरकेरे की तस्वीर ही बदल गई। तस्वीर तो भूजल की भी बदली- जो नल कूप बेकार हो गए थे, आज उनमें से जलधारा बह रही हैं।

तुमकूर जिले के चिक्कनायकनहल्ली ब्लाक का कांधीकेरे गांव समाज द्वारा जल-प्रबंधन का अनूठा व अनुकरणीय उदाहरण है। इस गांव में हीरेकेरे और नोणावीनाकेरे नाम के दो तालाब हैं। वैसे तो इन पर सरकार के राजस्व, मछली, सिंचाई विभाग के भी हक हैं, लेकिन इसमें पानी की आवक व जावक की एक-एक बूंद का हिसाब-किताब गांव वाले ही करते हैं। बताया जाता है कि 17वीं सदी में निर्मित इन तालाबों के जल की सामाजिक व्यवस्था तभी से चली आ रही है। ये नियम पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक चले आते रहे।

1930 में इन्हें ‘केरे पुस्तक’ यानी तालाब की किताब के नाम से छापा भी गया। गांव में सभी को समान व सहज पानी मिले, कितने जल की उपलब्धता पर किस काम के लिए पानी का उपयोग होगा? खेती के बनिस्पत घरेलू काम के लिए पानी की प्राथमिकता, तालाब व उसकी नहर की नियमित मरम्मत व रखरखाव के सभी मसलों पर किताब में स्पष्ट कायदे-कानून हैं। तालाब से मिलने वाली मछली व अन्य उत्पादों से होने वाली आय का इस्तेमाल गांव के सार्वजनिक विकास कार्यों में करने पर यहां कभी कोई विवाद नहीं हुआ।

कई बार बेहतर प्रारंभ पर हमारा बस नहीं होता है, लेकिन अपने प्रयासों से सुखद समापन हम अवश्य सुनिश्चित कर सकते हैं। ये उदाहरण समाज को अपनी शक्ति व क्षमता को पहचानने में मदद तो करेंगे ही, हमारे जन प्रतिनिधियों को भी समझाईश देंगे कि उनके झांसे में आने की जगह जनता अपने हाथों पर भरोसा करना सीख रही है।

सनद रहे कि देश के कई गांवों में स्वयं सहायता समूह के गठन व उनके सफल संचालन के उदाहरण सामने आ रहे हैं। ये समूह जल-प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जरूरत केवल इस बात की हैं कि उन्हें यह बता दिया जाए कि कमी पानी की नहीं, जल प्रबंधन की है और यह प्रबंधन, सरकार नहीं समाज के हाथों ही संभव है।

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