अपना मूल पछाण

पुराण, इतिहास गवाह हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य कभी बचाए नहीं जा सके। सभ्यताएँ, परम्पराएँ, समाज भी हरे पेड़ों की तरह होती हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, सरल मन जल की नमी, ममता की आँच और प्रकृति के उपकारों के प्रति कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बिना समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

पंजाब आज इसी उदासी का शिकार है। अनुभव कहता है कि जब भी कोई समाज अपने को अपने से काट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें परायापन झलकने लगता है। परायेपन को बनावटीपन में बदलते देर नहीं लगती। आज ऐसा ही परायापन हरित क्रान्ति के मारे और नशों में झूमते पंजाब के कोने-कोने में देखने को मिलता है। परायापन एक गम्भीर समस्या है, बेशक वो घर का हो या समाज का। उससे सबकी कमर झुकने लगती है। इतिहास के क्षर प्रसंगों में सुनहरे अक्षर वही होते हैं, जब कुछ लोग अपनी रीढ़ सीधी कर समाज की उदासी हरने के लिए उठते हैं और परायेपन की बनावटी पाल तोड़ कर श्रद्धा के छोटे-छोटे बांध बना कर मुरझाये समाज की जड़ें फिर से सींचने का प्रयास करते हैं।

पिछले कई बरसों से पंजाब से बहुत डरावनी खबरें आ रही हैं। किसानों की आत्महत्याएँ, पानी में यूरेनियम, पंजाब के प्रत्येक गाँवों में कैंसर के मरीजों का मिलना, नशों के छठे दरिया जैसे तानों से पंजाब की ऊंची कलगी वाला माथा आज कुछ झुक चला है। प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक संकटों के अंधड़ों में सूखते ऐसे पंजाब को फिर से सींचने की कोशिश में जुटी है जालंधर के गाँव ‘लांबड़ां’ की सथ्थ नाम की संस्था।

‘सथ्थ’ का अर्थ है साथ-साथ मिल बैठना। सथ्थ समाज के भीतर से ही ऐसे आत्मीय लोगों के समूह का नाम है जो कहीं गाँव, चौपाल, घर, द्वार या शामलात भूमि पर मिल बैठ आस-पास के सब दुखों का निदान ढूँढ़ते थे।

समाज में तरह-तरह की संस्थाएं काम करती ही हैं। उनमें अच्छे-बुरे का भाव भी ढूँढ़ा ही जा सकता है। लेकिन सथ्थ कुछ बिरले प्रयोगों में लगी संस्था है। सथ्थ का मूल काम दोनों ओर के पंजाब की लुप्त होती आत्मा तलाशना है। सथ्थ का कोई दफ्तर, दस्यता, पहचान पत्र, पिता का नाम, राष्ट्रीयता, अध्यक्ष, सचिव, साइन बोर्ड, बैंक बैलेन्स वगैरा कुछ नहीं है। कुछ है तो नशे और जहर से पुते प्रदेश में अमृत से मन वाले सैकड़ों कार्यकर्ता, जो बची खुची देशज परम्पराओं से दिशा लेकर एकदम चुप-चाप अपने आस-पास काम करते हैं। सथ्थ के पास इसके अलावा कुछ है तो सबकी पीठ थप-थपाने वाला हाथ और संकट की घड़ी में सबके साथ खड़े रहने का जज्बा और प्रदेश को जानने समझने वाला ममता भरा भाव।

सथ्थ की कार्यशैली के मूल में दो मन्त्र हैं। पहला मन्त्र गुरु नानक देवजी का, किरत (कर्म) करो, किरस (किफायत) करो, वंड छको (मिल बाँट कर खाओ)। इसके बाद अगर समय मिले तो सामाजिक कामों में जुटो। दूसरा मंत्र तीसरे गुरु श्री अमरदासजी का है, जिसमें वे कहते हैं, मन तू जोति सरूप है, अपना मूल पछाण। मूल की पहचान के बिना जीवन सार्थक कैसे किया जा सकता है?

सथ्थ के प्रमुख सेवादार श्री निर्मल सिंह पेशे से डाॅक्टर हैं। चालीस वर्ष पहले एमबीबीएस करने और फिर सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद जालन्धर-नकोदर रोड पर छोटे से गाँव लांबड़ां में अपना छोटा सा अस्पताल चलाते हुए न सिर्फ पंजाब बल्कि पाकिस्तान, इंग्लैण्ड, कैनेडा तथा अन्य देशों के सभी कार्यकर्ताओं के सुख-दुःख से जुड़े रहते हैं। निर्मल जी सभी कार्यकर्ताओं से अक्सर कहते हैं कि बेशक अपने प्रदेश का ताना-बाना उलझ गया है, लेकिन हमें सीधे रह कर इस उलझे ताने को सुलझाना है। हर दौर में थोड़े से लोग ही काम करते हैं। इसलिए हमें निराशा त्याग कर सृजन के काम में जुटना है।

‘सथ्थ’ का अर्थ है साथ-साथ मिल बैठना। सथ्थ समाज के भीतर से ही ऐसे आत्मीय लोगों के समूह का नाम है जो कहीं गाँव, चौपाल, घर, द्वार या शामलात भूमि पर मिल बैठ आस-पास के सब दुखों का निदान ढूँढ़ते थे। समाज में तरह-तरह की संस्थाएं काम करती ही हैं। उनमें अच्छे-बुरे का भाव भी ढूँढ़ा ही जा सकता है। लेकिन सथ्थ कुछ बिरले प्रयोगों में लगी संस्था है। सथ्थ का मूल काम दोनों ओर के पंजाब की लुप्त होती आत्मा तलाशना है। सथ्थ का कोई दफ्तर, दस्यता, पहचान पत्र, पिता का नाम, राष्ट्रीयता, अध्यक्ष, सचिव, साइन बोर्ड, बैंक बैलेन्स वगैरा कुछ नहीं है।

निर्मल जी उन्हें ये भी कहते हैं कि पहले आप खुद अपने पैरों पर खड़े हों और घर परिवार को जमाएँ, उसके बाद अगर समय बचे तो सामाजिक कामों की ओर आएँ। उनका साफ कहना है कि निराश लोगों को सामाजिक कामों में नहीं आना चाहिए। सामाजिक काम बेहद चाव से करना चाहिए। निराश लोग जब सामाजिक कामों में आते हैं तो परिणाम शुभ नहीं होते, समाज के भीतर नकारात्मक भाव बढ़ता है। इसलिए कई बार अच्छे लोगों के हाथों भी अशुभ हो जाता है, जिसके परिणाम फिर कई पीढ़ियों को भुगतने पड़ते हैं।

सथ्थ की स्थापना 1991 में हुई। इसके मूल कामों में पंजाब में ‘हरित क्रांति’ के नामुराद दौर के विकास से लताड़ दिए पंजाब के लोकजीवन, विरासत, माँ बोली, पर्यावरण को भविष्य के बेटी-बेटों के लिए फिर से सहेजना-संजोने के लिए हुई। सथ्थ की इसी आत्मीयता के कारण इस पार और उस पार के पंजाब में चालीस इकाइयाँ बन चुकी हैं।

आत्मीयता का एक उदाहरण देखें, एक बार सथ्थ के एक साझे कार्यक्रम में पाकिस्तान से दो बहनें आईं थीं, उनके परिवार के कुछ लोग विभाजन की मार-काट की भेंट चढ़े थे। निर्मल जी ने सार्वजनिक मन्च से भरी सभा में उनसे हृदय से माफी माँगते हुए कहा, ”मेरी बहनो, उस दौर में जो कुछ हुआ, गलती किसी से भी हुई, आपसे माफी हम माँगते हैं। उस दौर के पुरखे तो हमारे साझे ही थे।“ आत्मीयता की ये रेशमी डोर पंजाब के अलावा दूर-दूर देशों तक गई है।

निर्मलजी ने उस कार्यक्रम में यही कहा, ऐसा नहीं कि उस दौर में सब बुरा ही था, जो अच्छा था उसे फिर से झाड़-पोंछ कर हमें आने वाली पीढ़ी को सौंपना होगा, आज नहीं तो कल ये सब करना ही होगा। ऐसी अराजकता में तो कोई भी समाज जी नहीं सकता। ये जिम्मेदारी हम सबकी है, आज दुनिया में लोग हत्याओं, अपराधों तक की जिम्मेदारी खुलेआम ले रहे हैं, तो हमें अच्छे कामों की जिम्मेदारी लेनी ही होगी। पर यह जिम्मेदारी खुलेआम नहीं, चुपचाप उठानी होगी। ढोल बजाकर नहीं।

हम थे कौन, पुरखे हमें यहाँ तक कैसे लेकर आए, उनकी रुचियाँ, दिनचर्या, काम-धन्धे कैसे थे? कैसे हल करते थे वे अपने जीवन के बुनियादी संकट, प्रकृति के प्रति उनका नजरिया कैसा था? ऐसे सब प्रश्न मन में लेकर सथ्थ के कार्यकर्ता अपने-अपने इलाके में काम करते हैं। पन्थ, मजहब, जाति जैसी नई रुकावटें उनके इस काम में आड़े नहीं आतीं। सथ्थ के मजबूत कामों में एक काम उनका पन्चनद नामक प्रकाशन है। इसके तहत सथ्थ अब तक एक सौ चालीस पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है।

इन पुस्तकों की खूबसूरती ये है कि सथ्थ के कार्यकर्ता अपने कार्यक्षेत्र में काम करते-करते जो भी महसूस करते हैं, इन पुस्तकों में वही सब अनुभव हैं। विभाजन के दुखान्त किस्से, देशज बाल साहित्य, लोक-जीवन, रस्मों-रिवाज, सूफियों द्वारा रचित किस्से, जिनमें किस्सा सीता स्वयम्बर, हीर वारिस शाह, हीर हजूरा सिंह, किस्सा शाह-मोहम्मद, किस्सा शहीदे आजम भगत सिंह, कूका लहर आदि बेहद लोकप्रिय प्रकाशन हैं।

पंजाब में कैंसरसथ्थ ने अपने कार्यकर्ताओं के मन में पंजाब की मिट चुकी मिट्टी का मोह फिर से लौटाने का काम किया है। अब उनको भी लगने लगा है कि संस्कृति, परम्पराओं, समाज-सबकी जड़ों का सम्बन्ध मिट्टी से ही है। मिट्टी की शुद्धता ही समाज की शुद्धता है। सथ्थ के अनेक कार्यकर्ता अब मानने लगे हैं कि ‘हरित क्रांति’ का प्रयोग एक बड़ी भूल थी। पंजाब ने बीते पचास वर्षों में दायें-बाएँ झुकाने वाले भिन्न-भिन्न नारों से अपने पूरे लोकजीवन का कहीं न कहीं नाश ही किया है।

सथ्थ के कार्यकर्ता सब बीती-बिसार के आगे बढ़ना चाहते हैं। उनको लगने लगा है कि पंजाब की विरासत और परम्पराओं से दिशा लेकर ही मौजूदा संकटों का सामना किया जा सकता है। कार्यकर्ता ये भी स्वीकार करते हैं कि हमें ऐसा कोई भ्रम नहीं कि हम बुद्धिजीवी, प्रगतिशील आदि कहलाएँ और न हमें यह वहम होना कि हम इंकलाबी, अक्ल लतीफ या क्रांति के झंडाबरदार कहलाएँ। जब तक हमारे फेफड़ों में सांस बचेगी, दृढ़ विश्वास का सामर्थ्य बचेगा, इस नामुराद विकास की सुनामी से पंजाब के तंदुरुस्त लोकजीवन की कश्ती को बचाने की कोशिश करते रहेंगे हम।

सथ्थ के सेवादारों का मानना है कि कोई भी प्रदेश अपनी मातृ-भाषा की उंगली पकड़कर ही प्रदेश की परम्पराओं को गहराई से समझ सकता है। इसलिए हमने सबसे पहले भाषा का अकाल दूर करने से ही बात शुरू की। माँ बोली के पुनः प्रचार-प्रसार की बात शुरू की। पुराने मुहावरे, लोकोक्तियों से नाता जोड़ने का प्रयास शुरू किया। मात्रा पुस्तकें छापना, बाँटना ही उनका काम नहीं बल्कि लोकजीवन के सभी गुमशुदा पहलुओं की प्राण प्रतिष्ठा करना भी उनके काम का हिस्सा है।

आपसी भाईचारे को निरन्तर बढ़ाना उनका असल मकसद है। पश्चिम के निजवाद, व्यक्तिवाद और ‘मैं’ से सभी सेवादार खूब बचकर रहते हैं। सभी सेवादार इस बात पर जोर देते हैं कि जीवन अधिक से अधिक सार्वजनिक और सामूहिक बने ताकि सामाजिक जीवन में आने वाले नित नए संकटों से आसानी से निपटा जा सके। यहाँ यह बताना भी बेहद जरूरी है कि उन किसान परिवारों तक सांत्वना का हाथ सिर्फ सथ्थ का ही पहुँचा जिन परिवारों से किसानों ने आत्महत्याएँ की थीं।

सथ्थ का लांबड़ां गाँव के ही एक स्कूल में विरासती म्यूजियम भी है। इस संग्रहालय की पूरी व्यवस्था स्कूल के बच्चे ही सँभालते हैं। इसमें सैकड़ों साल पुरानी चीजें जिनमें कृषि से जुड़े औजार, कुओं से पानी निकालने वाले साधन, चरखों के अनेक प्रकार, बीज सम्भालने वाली गुल्लकें, सन्दूक, चूल्हों के प्रकार, कांसे के बर्तन, लोक कवियों के चित्र, सूफी सन्तों की मालाएँ, सूक्तियों की पांडुलिपियाँ, कीर्तन के सदियों पुराने वाद्य आदि रखे गए हैं। आज के दान-अनुदान पर टिकी सामाजिक संस्थाओं के इस दौर में बहुत से लोगों को यह भरोसा भी नहीं हो पाएगा कि यह संग्रहालय बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी अनुदान के चलता है।

सथ्थ के सेवादार संगठन, संस्था, आन्दोलनों के तमाम प्रचार -प्रसार के तरीकों से दूर रहते हैं। उनका मानना है कि गाँव सीखने की श्रेष्ठ पाठशाला है, न कि कुछ सिखाने की। उनके मन में ये भी मलाल है कि हम सब शहर वाले कहीं न कहीं गैरजिम्मेदार साबित हुए हैं। वे अपने मन के इस बोझ से उबर कर अच्छे कामों में अपना मन लगाना चाहते हैं। उनका ऐसा विश्वास है हमारा कृषि प्रधान देश बेशक अराजक कृषि नीतियों के कारण आज गुमराही के चैराहे पर है, लेकिन देश के बड़े संकटों से किसान ही उसे उबारेंगे।

सथ्थ के सेवादारों का मानना है कि कोई भी प्रदेश अपनी मातृ-भाषा की उंगली पकड़कर ही प्रदेश की परम्पराओं को गहराई से समझ सकता है। इसलिए हमने सबसे पहले भाषा का अकाल दूर करने से ही बात शुरू की। माँ बोली के पुनः प्रचार-प्रसार की बात शुरू की। पुराने मुहावरे, लोकोक्तियों से नाता जोड़ने का प्रयास शुरू किया। मात्रा पुस्तकें छापना, बाँटना ही उनका काम नहीं बल्कि लोकजीवन के सभी गुमशुदा पहलुओं की प्राण प्रतिष्ठा करना भी उनके काम का हिस्सा है।

पंजाब की चौतरफा बर्बादी देख वे अक्सर सोचते हैं कि जिस देश में ऋषि विनोबा ने हर दुखिहारे का दुख हरने के लिए भूदान आन्दोलन चलाया हो, वहाँ आज सब तरह की, सब विचारों और दलों की सरकारें भूमि अधिग्रहण को अपनी श्रेष्ठ नीतियों में क्यों शुमार कर रही हैं! हरित क्रांति के अवशेषों के रूप में बचे उजाड़ को देख सथ्थ के सेवादार अब माता तृप्ता के तृप्त पुत्र के पंजाब को वापिस लौटाना चाहते हैं।

काम असम्भव हो चला है। पँच आब यानी पाँच नदियों के नाम पर बने इस प्रदेश पंजाब में आज दुर्भाग्य से एक छठवीं नदी भी बहा दी गई है। इसका उद्गम स्थल यहाँ की राजनीति है। यह नदी है नशे की। तरह-तरह के नशे। वैध बताए गए और अवैध भी। इस पार पैदा हुए नशे तो उस पार से लाए गए नशे भी। प्रदेश के 67 प्रतिशत युवा नशे के इस छठे दरिया में तैर रहे हैं, डूब रहे हैं सरकार को खुद नहीं पता कि वह किसके खिलाफ नारे लगा रही है।

जिस प्रदेश में पेट की भूख की बजाय मन की भूख का विस्तार हुआ हो, जिस प्रदेश के किसान अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने लगे हों, जिस प्रदेश में रोजी-रोटी के लिए बनी नीतियों के कारण करोड़ों लोग मनरेगा में धक्के खा रहे हों, जिस प्रदेश की सरकारें विकास करते-करते मुफ्त में आटा दाल की स्कीमों पर चुनाव लड़ने लग जाएँ, जिस दौर की सरकारी भाषा में हुनरमंद जातियों और किसानों को अकुशल मान लिया गया हो और जिस दौर में समाज अपनी जमीन से उखड़ कर इन्टरनेट पर सोशल हो चला हो- ऐसे दौर में सथ्थ जैसी संस्थाओं को देख हौसला मिलता है। लगता है बिना अपना और प्रदेश की प्रकृति का मूल पछाणे विकास के नामुराद अंधड़ों में कोई चिराग जल रहा है। हमारा आने वाला कल अपने मूल की पहचान से ही बचेगा। मूल की पहचान का कोई मूल्य नहीं। इन अनमोल काम में सथ्थ चुपचाप लगा है।

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