अपने आँगन से विस्थापित

10 Sep 2015
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Refugee
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कोई छह करोड़ लोग अपने घरों से, अपने शहरों से, अपने देशों से और कुछ तो अपने महाद्वीपों से उजड़कर न जाने कैसी जगहों में किसी तरह बस सांस भर ले पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का एक विभाग ऐसे अभागों को शरणार्थी कहता है। लेकिन ये शरणार्थी भी कहाँ हैं? जहाँ ये ‘शरण’ लेते हैं वहाँ भी ये भयभीत-से रहते हैं। तरह-तरह के कारणों से अपना सब कुछ छोड़कर आये इन लोगों का साथ दुख नहीं छोड़ रहा। एक बहुत बड़े दुख को समेट कर व्यक्त करता है एक बिल्कुल छोटा-सा शब्द अनाथ। लेकिन अभी दुनिया में कुछ करोड़ों लोगों पर इतना बड़ा और इतना बुरा संकट छाया हुआ है कि उसे बताने के लिये हमारी किसी भी भाषा का कोई शब्द काम नहीं आएगा।

कोई छह करोड़ लोग अपने घरों से, अपने शहरों से, अपने देशों से और कुछ तो अपने महाद्वीपों से उजड़कर न जाने कैसी जगहों में किसी तरह बस सांस भर ले पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का एक विभाग ऐसे अभागों कोशरणार्थी कहता है। लेकिन ये शरणार्थी भी कहाँ हैं?

जहाँ ये ‘शरण’ लेते हैं वहाँ भी ये भयभीत-से रहते हैं। तरह-तरह के कारणों से अपना सब कुछ छोड़कर आये इन लोगों का साथ दुख नहीं छोड़ रहा। कोई एक जगह नहीं, कोई एक धर्म नहीं, एक समाज नहीं- ये तो कई जगहों से, धर्मों से, कई समाजों से बाहर फेंके जा रहे हैं। इस विचित्र दुख का यह किस्सा एकदम सार्वजनिक और सार्वभौम हो गया है।

सब लाचार हैं और इसे रोकने में किसी का हाथ, किसी का साथ आगे बढ़ता नहीं दिखता। अपने-अपने आँगनों से उजड़ने वाले लोगों का यह भयानक किस्सा बिल्कुल नया नहीं है। लेकिन अब जो गिनती सामने आ रही है वह एकदम डरावनी है। संयुक्त राष्ट्र संघ का एक विभाग हर साल अपनी एक रिपोर्ट निकालता है और छोटी-बड़ी लड़ाईयों आदि के कारण बेघर-बार हुए, खदेड़े जाने वाले, भागकर किसी अन्य देश में शरण लेने वाले लोगों की परिस्थिति सदस्य देशों और समाजों के सामने रखता है। इस विभाग का नाम है- संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी उच्च आयोग।

इस साल के प्रारम्भ में इस आयोग की रिपोर्ट ने बताया था कि 2013-14 में कोई पाँच करोड़ बारह लाख लोग अपनी-अपनी जगहों से विस्थापित हुए थे। लेकिन इस वर्ष आयोग ने बहुत दुख के साथ दुनिया को सूचित किया है कि इस अभिशप्त संख्या में कोई एक करोड़ लोग और जुड़ गए हैं। इस नए आँकड़े में जुड़ गए हैं ऐसे अबोधबच्चे जिन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें किस कारण अपना घर छोड़ना पड़ा है। और शरणार्थियों में आधे से ज्यादा येबच्चे हैं।

जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ का स्वभाव है, उसने इस दुख भरे प्रसंग को तरह-तरह के आँकड़ों से प्रस्तुत कियाहै। पहले एक बार उन सबको उसी ढंग से देख लेते हैंः दुनिया के हर 122 लोगों में से एक व्यक्ति आज शरणार्थी है।सारे शरणार्थियों की गिनती कर यदि उन्हें दुनिया में किसी एक नए देश की तरह बसा दें तो आबादी के लिहाज सेयह दुनिया का 24वाँ देश होगा।

युद्ध चल रहे हैं, शान्ति वार्ता भी चल रही है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि हर रोज कोई 42,500 लोगअपनी-अपनी जगहों से अपने काम-धंधों से उजड़कर ऐसी अपरिचित जगहों में किसी तरह सिर छिपाने के लिये मजबूर हैं, जहाँ उनकी ओर कोई भी प्यार भरी नजर नहीं उठती।

कारणों की कोई कमी नहीं है। कहीं धर्म है। कहीं धर्म का एक छोटा-सा टुकड़ा, सम्प्रदाय है। कहीं रंग है। कहीं जाति है। कहीं विचार हैं तो कहीं विचारहीन राजनीति है। कहीं सब कुछ एक है तो भूगोल अलग है। छोटे देश हैं, बड़े देश हैं। लोकतंत्र का झंडा उठाने वाले देश हैं तो तानाशाही का डंडा चलाने वाले भी।

म्यांमार में रोहिंग्या लोगों को इतने वर्षों बाद भी मान्यता प्राप्त नहीं है। वे कभी बांग्लादेश से आकर यहाँ बस तो गए थे। पर म्यांमार सरकार उन्हें अपने देश का हिस्सा मानने से इनकार करती रही है। सन् 2012 में रखिने नाम के शहर को रोहिंग्या लोगों ने दंगों के कारण छोड़ दिया था। अब वे थाईलैंड या इंडोनेशिया में शरणार्थी की तरह रह रहे हैं।

आपका देश है, हमारा भी देश है। कभी एक ही देश के दो राज्य हैं, तो एक ही राज्य के दो गाँव भी हैं। दिल्ली की त्रिलोकपुरी बताती है कि हम लोग इतने गिर गए हैं कि त्रिलोक, तीन लोकों में कहीं भी ऐसा घिनौना काम करने वाले मिल जाते हैं।

ऐसे शरणार्थियों की संख्या रोज-रोज बढ़ाने में और उनकी तकलीफें भी बढ़ाने में कोई किसी से कम नहीं दिखता। आज जो हालत दुनिया के सामने है उसमें यह कहना भी कठिन है कि कल इसमें कोई सुधार आ पाएगा। पिछलेसाल कोई 40 लाख लोग ईराक और सीरिया से बाहर निकले हैं।

अफगान से कोई 30 लाख लोगों ने अपना घर छोड़ा है और सोमालिया से कोई 10 लाख लोगों ने। इन तीनों देशों के शरणार्थियों की संख्या दुनिया की कुल शरणार्थी संख्या का आधा भाग है। इन अभागे लोगों का किस्सा दुनियाके हर कोने में हर कभी घटता रहता है।

आज यह तेल के देशों में है। ईराक, सीरिया, यमन आदि में। एक समय पहले यह एशिया के वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया में था। उन दिनों इन देशों से कोई चार लाख लोग थाईलैंड और इंडोनेशिया में शरण लेने के लिये अपने देशों को छोड़कर आये थे। दुख पर दुख। जिन देशों में ये लोग शरण ले रहे थे, वे देश उनको अनेक कारणों से अपनी भूमि पर एक बड़े खतरे की तरह देख रहे थे।

मलेशिया सरकार ने तो तब यह भी कहा था कि वह ऐसे कोई 75,000 लोगों को नावों में बैठाकर वापस समुद्र में ठेल देगी। फिर लोग कहाँ जाते हैं, वे ही जाने। लेकिन वापस हमारी तरफ आएँगे तो हम नावें डुबो देंगे। इसी दौरान थाइलैंड में कम्बोडिया से आये 42,000 लोगों को सचमुच बन्दूक दिखाकर अपनी सीमा से वापस उनके देश में खदेड़ दिया था।

यह स्वाभाविक ही है कि ऐसे लोग तब तक घर नहीं छोड़ते, जब तक उनकी जान पर न आ जाये। और तब जो कुछ बुनियादी चीजें साथ लेकर भाग सकते हैं, उतना ही उठाते हैं। पूरी जिन्दगी तिनका-तिनका जोड़ा हुआ उनका सारा संसार वहीं पीछे छूट जाता है। वे पीछे मुड़कर भी नहीं देख पाते। ये लोग उतनी ही दूर जा पाते हैं जहाँ उनको सिर और कंधे पर रखी पोटली पटक कर, बच्चों को गोदी से उतार कर थोड़ी साँस लेने का मौका मिल जाए। अपने देश से बाहर फेंके गए और फिर बाहर से दोबारा जबरदस्ती भीतर ठेले गए इन हजारों लोगों का फिर क्या हुआ होगा, इसकी चिन्ता भी तब किसी ने नहीं की थी। इन्हीं दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने शरणार्थियों की समस्याओं पर ध्यान देने और दूसरी सरकारों का ध्यान खींचने के लिये एक उच्च आयोग का गठन भी किया था। इसका उल्लेख पहले आया ही है।

इस विभाग ने अनेक भाषाओं में विज्ञापन प्रचारित किये थे और बताया था कि आज हजारों परिवारों को अपने घरों से भागना पड़ रहा है क्योंकि उनका धर्म, उनकी जाति, उनका विश्वास, उनका संप्रदाय, उनका रंग सब कुछ उन लोगों से अलग है, जिनके हाथ में आज सत्ता है। यदि वे इन हाथों मरने से बच जाते हैं तो वे बस शरणार्थी कहलाएँगे।

यह स्वाभाविक ही है कि ऐसे लोग तब तक घर नहीं छोड़ते, जब तक उनकी जान पर न आ जाये। और तब जो कुछ बुनियादी चीजें साथ लेकर भाग सकते हैं, उतना ही उठाते हैं। पूरी जिन्दगी तिनका-तिनका जोड़ा हुआ उनका सारा संसार वहीं पीछे छूट जाता है। वे पीछे मुड़कर भी नहीं देख पाते। ये लोग उतनी ही दूर जा पाते हैं जहाँ उनको सिर और कंधे पर रखी पोटली पटक कर, बच्चों को गोदी से उतार कर थोड़ी साँस लेने का मौका मिल जाए।

दुनिया में इस समय तीन ऐसे देश हैं, जिनमें इस अभागी आबादी की उपस्थिति बहुत बड़ी संख्या में है। इस समय तुर्की में 10 लाख से ज्यादा शरणार्थी हैं। पाकिस्तान में भी लगभग इतने ही लोग हैं और इसी तरह लेबनान में। आसपास से उखड़ कर आये हुए कोई 10,000 लोगों ने ईरान में भी शरण ली है। इथोपिया और जॉर्डन में भी कोई 60-60 हजार शरणार्थी आये हैं। एक समय में, भारत में भी बांग्लादेश से आये शरणार्थियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी।

और भी चिन्ताजनक बात यह है कि उजड़े और उखड़े लोगों की यह संख्या एकदम नई है। इसमें दुनिया में पिछले दौर में हो चुके शर्मनाक युद्ध शामिल नहीं हैं। फिलिस्तीन, इजराइल, श्रीलंका और सोवियत संघ टूटने के बाद बने नए देशों में चले परस्पर लम्बे संघर्ष और उसके कारण बने शरणार्थियों की गिनती शामिल नहीं है। वह दुखद इतिहास अभी भी समाधान का रास्ता देख रहा है और इधर नए-नए विवाद उठते जा रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ को इस बात की चिन्ता है कि दुनिया में अलग-अलग जगह चलने वाले युद्ध, संघर्ष, छोटी-मोटी झड़पें कम होने के बदले बढ़ती ही चली जा रही हैं और इसलिये शरणार्थियों की संख्या में समय के साथ कमी आने के बदले बढ़ोत्तरी ही होती जा रही है। संघ के जिम्मेदार सदस्य भी इस चिन्ता में शामिल हैं।

लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हथियार भी इन्हीं जिम्मेदार देशों में बनते हैं और इन्हीं हथियारों से पूरी दुनिया में ये युद्ध जारी है। यों अवैध हथियार बनाने वालों की भी कमी नहीं। लेकिन आज के संघर्ष और युद्ध किसी गाँव की छोटी-सी झोपड़ी या खेतों में खड़ी फसल के पीछे अवैध रूप से बनाए जाने वाले कट्टों, तमंचों से नहीं लड़े जा रहे। इनमें तो सबसे आधुनिक मशीनगन, ए.के.-47, रॉकेट लांचर, बड़े-बड़े टैंकर और गगनभेदी तोपों का खुलेआम इस्तेमाल हो रहा है।

ऐसे आधुनिकतम हथियार खेतों में नहीं पैदा होते। ये उन्हीं 9-10 देशों के व्यापारियों और सरकारों से मिलते हैं, जिन्हें दुनिया में शान्ति स्थापित करने की भी उतनी ही चिन्ता है, जितना हथियार बेचकर भारी मात्रा में पैसा कमाने की।

इस अंक में छपा चित्र देखिए। न तो इस चित्र को खींचने वाले का नाम मालूम है और न इस बिटिया का। पूरी तरह से अनाथ हो जाने के बाद भी वह अपनी माँ को नहीं भूली है। उसने अपनी माँ का चित्र बनाया है, इराकी शरणार्थी शिविर के फर्श पर एक खड़िए के टुकड़े की मदद से। और वह चित्र से बाहर जूते उतार कर निश्चिंत होकर माँ की गोद में सो गई है।

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