अपनी खूँटी पर टिका, एक सुनने वाला पत्रकार

1 Jan 2017
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(अनुपम मिश्र (1948 - 19 दिसम्बर 2016) लेखक, सम्पादक, छायाकार। महाराष्ट्र के वर्धा में सरला और भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन 1948 में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968 में संस्कृत पढ़ने के बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया। तब से आज तक वही काम, वहीं पर। गाँधी मार्ग पत्रिका का सम्पादन। कुछ लेख, कुछेक किताबें। 'आज भी खरे हैं तालाब' को खूब प्यार मिला। कोई दो लाख प्रतियाँ छपी।)

लगभग 46 साल के उनके कामकाजी जीवन में अनुपम मिश्र का बहुत कहीं आना–जाना हुआ। इस पूरी अवधि में वे नई दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ही अपना चिमटा गाड़े रहे। इस दौरान उनके बहुत से साथी–सहयोगी आए, कुछ समय साथ रहे, और फिर कहीं और चले गए। वे जहाँ थे, वहीं बने रहे। उन्हें कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी, कहीं भी पहुंचने की जल्दबाजी नहीं थी। महत्वाकांक्षा उन्हें कहीं भी नहीं ले जा सकी। जैसा भी संसार उन्हें मिला था, उसे निष्ठा से निभाना और जतन से बरतना अनुपम मिश्र के स्वभाव का बुनियादी हिस्सा था। उलझी, बरगलाई, उलटती–पलटती दुनिया के ठीक बीच, वे ठीक अपनी खूंटी पर शांत भाव से टिके रहने वाले व्यक्ति थे।

अपनी साधारणता में स्थित रहने का ऐसा ठहराव असाधारण होता है। बहुत से लोग उनसे मिलने केवल इसलिये आते थे कि अपने जीवन की आपाधापी में थोड़ा मन का आराम पा सकें, कड़ी धूप से निकल कर शीतल छाया में कुछ पल बिता सकें। अनुपम मिश्र सभी से प्यार से मिलते थे, सम्बन्धों का इतिहास हमेशा ध्यान रखते थे, किसी भी तरह के प्यार और सम्मान का आभार सदा ही अपने मन में रखते थे। वे अपने सभी प्रियजनों के मन के सम्पादक भी थे। अनुपम मिश्र शब्दों और लेखों का सम्पादन भी वैसे ही करते थे जैसे अपने मित्रों के विचारों का, उनके निर्णयों का, उनके कथनों का। धीरज से, उदारता से, प्यार से, सत्य से।

उनके दफ्तर में उनसे मिलने कुछेक मानसिक रोगी भी लगातार आते थे। अनुपमजी उनसे उसी घनिष्ठता से मिलते जैसी वे किसी निकट के मित्र के लिये रखते थे। ऐसे लोग जिन्हें उनके अपने परिजनों ने त्याग दिया था, अनुपमजी के पास वह घरोपा और स्नेह पाते जो उन्हें कहीं और नहीं मिलता था। इनमें ऐसे भी थे जो किसी भी दूसरे व्यक्ति पर भरोसा नहीं करते थे, अपनी बात केवल अनुपम मिश्र से ही करते थे। उनकी सरलता ऐसी थी कि अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे व्यक्ति को भी दिखती थी।

किसी भी तरह की बातचीत को बीच में छोड़ कर, वे अपने इन मित्रों से मिलने अपने कमरे के बाहर चले जाते थे। दूर से देखो तो प्रतीत होता था कि कोई गहरी बातचीत चल रही है। फिर जितनी बन सके उतनी मदद वे उनकी करते, और वापस अपनी कुर्सी पर आ कर बैठ जाते। कहते, “कुछ सामाजिक टैक्स हम सभी को चुकाने होते हैं।” सरकार को टैक्स भरने वाले तो आपको मिल जाएंगे, अपने सामाजिक काम को टैक्स की संज्ञा देने वाले शायद ही मिलें। वे यह भी लगातार जताते थे कि मानसिक सन्तुलन का बिगड़ना एक लॉटरी है, कभी भी, किसी की भी खुल सकती है। फिर विश्व साहित्य से मानसिक रोगियों पर लिखे अनूठे उदाहरण भी बताते, पर किसी साहित्यिक हस्ती के पढ़े–लिखे ठाठ के साथ नहीं। गली–मुहल्ले में चाय–पकौड़ी खाते हुए किस्सा सुनाने वाले किसी मित्र के भाव से। रूसी लेखक अंतोन चेखोव की प्रसिद्ध कहानी ‘वार्ड नंबर ६’ उन्हें बहुत प्रिय थी, प्रेमचंद की कई कहानियाँ भी। अपनी अनेक यात्राओं में साधारण ग्रामीणों के बताए किस्से भी। संस्कृत के सूक्त भी और पुरानी हॉलीवुड फिल्मों के सन्दर्भ भी।

उनसे ज्यादा ज्ञानी लोग आपको कई मिल जाएंगे। पर ऐसा तो कोई विरला ही मिलेगा जिसमें अज्ञान की समझ इतनी गहरी हो। उनकी मिट्टी में ज्ञान और अज्ञान का एक अनुपम बोध था। उन्हें यह सहज ही पता था कि हर व्यक्ति जो जानता है, उसकी सीमा है। ज्ञान और जानकारी एक तरह की सत्ता पैदा करते हैं, एक तरह का ‘क्लब’ बना देते हैं, जिसमें प्रवेश सीमित होता है। लेकिन ज्ञानी और जानकार लोग ही अच्छा काम करें ऐसा वे नहीं मानते थे। “बहुत मामूली लोग भी ऊंचा काम कर जाते हैं,” वे दुहराते थे। अनुपम मिश्र ऐसे किसी भी क्लब, केंद्र, पार्टी या विचारधारा के सदस्य नहीं थे। अगर उन्हें ऐसी विशेष जगहों पर किसी कारणवश जाना होता था, तो वे वहाँ यूं ही हो आते थे। उस मुकाम या उससे आने वाली सत्ता के प्रति उनके हाव–भाव में कभी कोई राग दिखता नहीं था।

ज्ञान के अहंकार से उन्हें डर लगता था, ऐसी सूझ–बूझ से भी जिसका अदम्य आत्मविश्वास दूसरे लोगों की समझ के लिये कोई स्थान न रखे। अनुपम मिश्र की वाणी में, उनके मन में, और उनकी बातचीत में लगातार एक तरह का संशय रहता था। जो अपने को पता है उससे आगे क्या है? वे हमेशा अपने मन में गुंजाइश रखते थे उसके लिये जो अपने से बड़ा हो। अगर कुछ ऐसा सामने आ जाए जो अपने जीवन, अपनी बुद्धी से परे है, तो उसे विनम्रता से ही देखते। आपको शायद ही ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति मिले जिसके मानस में अज्ञान के प्रति इतनी प्रतिबद्धता थी। विनोबा भावे से लेकर स्टुअर्ट फायरस्टीन जैसे नए वैज्ञानिकों तक का साहित्य उन्होंने इकट्ठा किया था, जो मनुष्य के ज्ञान की सीमा की बात करता है। यही नहीं, अपने अज्ञान में सन्तुष्ट रह कर कर भी अपना आचरण कैसे साफ–सुथरा, उपयोगी, और सुरुचिपूर्ण रखना, यह उनका खास ध्येय था।

अनुपम मिश्र बहुत ज्यादा पढ़ते नहीं थे, बहुत ज्यादा लिखते भी नहीं थे।

इस अज्ञान के बिना शायद उन्हें उस विवेक के दर्शन नहीं होते जो हमारे साधारण जनमानस में रचा–बसा है। पत्रकार बहुत से होते हैं, ऐसे भी जिनकी पत्रकारिता में सामाजिकता होती है। लेकिन ऐसी अनुपम पत्रकारिता आपको और कहीं नहीं मिलेगी जिसमें साधारण लोगों में और उनके व्यवहारिक ज्ञान में इतनी रुचि हो। वह भी सालों–साल यात्राएं कर के, लोगों से उनके अपने परिवेश में मिल कर, मिट्टी–पानी के उनके सामाजिक संस्कार को आत्मसात करने के बाद।

किसी भी पत्रकार के लिये अनुपम मिश्र को यात्रा के दौरान काम करते देखना एक यादगार अनुभव रहता था। उनमें खोजी पत्रकार, या सत्ता प्रतिष्ठान को जानने वाले और उसकी बखिया उधेड़ने वाले रिपोर्टर की आक्रामकता का एक अंश भी नहीं था। वे बहुत सवाल नहीं करते थे, जबकि सवाल करना किसी भी पत्रकार का प्रधान औजार होता है। वे लोगों से ऐसे मिलते–जुलते थे जैसे अपने परिजनों से मिल रहे हों। उनकी सौम्यता सहज ही लोगों को आश्वस्त करती थी। उनका पहनावा, भाषा, आंखों का भाव ज्यादातर लोगों को निशस्त्र कर देता था।

उनके काम में पत्रकारिता का एक और गुण थाः ध्यान से सुनना। आज पत्रकारिता बहुत ज्यादा बोलने वालों का क्षेत्र हो गया है। अनुपम मिश्र सुनने वाले पत्रकार थे।

ऐसे तरीकों से किए काम का परिणाम गजब का था। अनुपम मिश्र को लोगों से वह सब पता चलता था जो किसी तेज–तर्रार खोजी रिपोर्टर को भी नहीं मिलता। उनसे अनजाने लोग भी परिजन की तरह बात करते थे, उन्हें अपने घर के भीतर ले जाते थे, अपने मन के भीतर भी। ऐसे ही १९७० के दशक में वे उत्तराखंड के चमोली जिले में कुछ गाँव वालों का विरोध समझने पहुंच गए। सरकार ने जंगल काटने का ठेका किसी क्रिकेट बैट बनाने वाली कम्पनी को दे दिया था, लेकिन ग्रामीण अपने जंगल की रक्षा कर रहे थे। जिसे बाद में ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना गया उस पर लिखने वाले शुरुआती लोगों में अनुपम मिश्र थे। चंबल घाटी में १९७२–७४ में डाकुओं के समर्पण के लिये जो दल जयप्रकाश नारायण ने बनाया था उसमें प्रभाष जोशी और श्रवण गर्ग के साथ अनुपम मिश्र भी थे।

इसी दौरान नर्मदा घाटी में बाँधों की वजह से बिगड़ती खेती ने जब ‘मिट्टी बचाओ आंदोलन’ का रूप लिया, तो उसकी आवाज दुनिया तक पहुंचाने का काम अनुपम मिश्र ने ही किया। बीकानेर में गौचर की रक्षा हो, कुएं–तालाब के बचाव की बात हो, सार्वजनिक यातायात बढ़ाने की बात हो… हमारे पर्यावरण की बातचीत के हर सामाजिक स्वरूप में अनुपम मिश्र की अंगुलियों की छाप मिलेगी। इन सब विषयों और लोगों के पास वे दूसरे लोगों को भी ले कर गए। उन्हें कहीं ऐसा नहीं लगा कि उनकी लिखाई या उनकी रिपोर्ट उन्हीं की विशिष्ट मानी जाए।

अपने काम पर उन्होंने कभी सर्वाधिकार नहीं रखा। लोग किताब छपने के बाद लोकार्पित करते हैं, अनुपम मिश्र की किताबें लिखाई के पहले से ही लोकार्पित रहती थीं। कोई और उनके काम को अपनाए इससे अच्छा क्या हो सकता है, भला! “अगर अपनी ही बपौती बना लो और दुनिया सुधारने का ठेका अपना ही मान लो, तो सामाजिक काम दूर तक नहीं जा सकता। उसके लिये तो अपना और अपने समाज का सम्बन्ध ठीक होना जरूरी है। अपनी आंख, अपना भाव ठीक होना जरूरी है।” उनकी लिखी किताबों से दूसरे प्रकाशकों ने भी धन कमाया है, और इसे अनुपम मिश्र अपनी ही सफलता मानते थे।

जैसे अकादमिक ज्ञान की दुनिया से उन्होंने दूरी बना कर रखी वैसे ही पेशेवर पत्रकारिता से भी अनुपम मिश्र जरा दूर ही रहे। (हालांकि ऐसे सम्पादक और अखबार मालिक भी थे जो उन्हें बुला कर महंगी नौकरी देने के लिये तैयार ही नहीं थे, आग्रह भी करते थे।) इसका प्रभाव उनकी भाषा में दिखता है, जिसके बारे में न जाने कितने लोग कितनी प्रशंसा में कितने ही लेख लिख चुके हैं। उनके आखिरी १०–१५ साल में उनकी जैसी प्रसिद्धी हुई उसका वे आभार मानते थे, पर उसे सहज ही लेते थे। जब कोई उनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए भी कठिन और टेढ़ी भाषा का उपयोग करता, तो वे निजि रूप से चुटकी भी लेते थे। “जब पाँव पर चलना इतना आसान है, तो लोग लिखते समय हाथ पर चलने की कोशिश क्यों करते हैं?”

जो कोई उनके सम्पादक के रूप को करीब से जानता था उसे पता था कि वे एक–एक शब्द पर कितने नृशंस हो सकते थे। उनकी व्यवहार की सरलता के पीछे जटिल–से–जटिल विचार को समझ लेने की गहराई भी थी। “अच्छी, साफ–सुथरी लिखाई, अच्छे, साफ–सुथरे विचार से ही आती है,” वे बार–बार याद दिलाते थे। क्योंकि हमारे विचार भाषा में उभरते हैं, इसलिये विचार को ठीक करने का, ठीक रखने का माध्यम भी भाषा ही है।

कैसा विचार? ऐसा, जो सत्यनिष्ठ हो। किसी एक विचारधारा या किसी एक धर्म या किसी एक राजनीतिक दल के दरवाजे पर बन्धा न हो। जिसकी निर्मलता सामने वाले के मन में झलके। जिसके विरोधियों को भी उसकी शीतलता का आभास हो। जिसमें पूर्वाग्रह न हों। बस सत्य के प्रति एक अनुपम आग्रह भर हो।

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