अरावली में पारम्परिक वन प्रबन्ध


भारत में जल, वायु, वन, सूर्य, आकाश सभी को भगवान का रूप माना गया है। इसमें राज्य का कोई दखल नहीं था, इसलिये सभी लोग सहजता से इनका मर्यादित उपयोग करते थे और जनसंख्या दबाव बढ़ने के बाद भी ये प्राकृतिक भण्डार सबकी आवश्यकता की पूर्ति करते थे, इसलिये लम्बे समय तक सन्तुलन बना रहा। लेकिन धीरे-धीरे विचारों में बदलाव आया और वन प्रबन्ध की आवश्यकता आ पड़ी। अरावली पर्वतमाला के वनों का पारम्परिक वन प्रबन्ध उन विभिन्न व्यवस्थाओं में से एक है जिनका मूल उद्देश्य वनों का बचाव करना ही था। लेकिन आज इसका स्वरूप विपरीत हो गया है और वनों की बर्बादी हमारी भविष्य को भयंकर अन्धकार में ढकेल रही है। यही कारण है कि कहीं-कहीं गाँव अपने वनों को फिर से बचाने और उनके टिकाऊ प्रबन्ध की तरफ मुड़ने लगे हैं। प्रस्तुत है कि परम्परागत वन प्रबन्ध व्यवस्था और वन-संरक्षण के लिये किये जा रहे प्रयासों का लेखा-जोखा।

आज बहुत से गाँव अपने वन को फिर से बचाने और टिकाऊ प्रबन्ध की तरफ मुड़ने लगे हैं। सरिस्का में देवरी, राडा, गूर्जरों का लोसल गाँव का अनुभव ही बता रहा है कि ये छोटे-छोटे गाँव आसपास में मिल-बैठकर निर्णय लेकर अपने जंगल बचाते रहे हैं। ऐसा करने से ये ही रोज अदालतों के चक्कर एवं अव्यवस्था के चंगुल में फंस गए हैं। इन वनों के हरा-भरा रहने से पशु भी भरपेट रहने लगे हैं। आज लोगों को इस बात की पूरी फिक्र रहती है कि हमारे गाँव की सीमाओं में आकर कोई हमारे वनों को हानि नहीं पहुँचा दे। राजस्थान में अरावली पर्वतमाला के वनों की परम्परागत प्रबन्ध व्यवस्था अंग्रेजी राज्य के प्रारम्भ होने तक लोगों के हाथ में रही। इसे लोग अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से जानते थे, किन्तु तरीका लगभग समान था। मूलतः वनों का बचाव हो रहा था। यह सब कार्य अलिखित, स्वस्फूर्त एवं सजह तरीके से चलता था। शायद इसीलिये आज के वन कानून की पुस्तकों में उन व्यवस्थाओं का वर्णन नहीं मिलता।

वन लगाने व बचाने का काम लोगों में परम्पराओं व संस्कार के रूप में था। प्रत्येक ग्राम, समुदाय, जाति या गोत्र अपने लिये किसी एक प्रजाति के पेड़ों को अपनी ‘धराड़ी’ मानकर उसे लगाते थे तथा उसकी रक्षा करते थे।

वन गाँव की सार्वजनिक सम्पदा अर्थात सामलात देह मानी जाती थी। यह गाँव की मिली-जुली देह थी तथा वनों के प्रबन्धन हेतु कई अलिखित दस्तूरों का विधान था। इन्हीं विधानों के अनुसार गाँव के पहाड़, गोचर, जंगल व जोहड़ का प्रबन्ध कार्य चलता रहता था। इस व्यवस्था में गलती करने वाले के लिये दण्ड एवं प्रायश्चित की भी व्यवस्था थी, इसीलिये लोग वनों की पूरी सुरक्षा करते थे।

सम्भवतः यह कोई भगवान या देवी-देवताओं का डर या अन्धविश्वास मात्र ही नहीं था, बल्कि गलती करने वालों के मन पर एक नैतिक दबाव डालने की एक सुसंस्कृत व्यवस्था थी। यह व्यवस्था महाभारत के भीम को पेड़ उखाड़ने-तोड़ने जैसे कृत्य से रोककर पेड़-पौधों का महत्त्व समझाते रहने के लिये युशिष्ठिर को उसके बड़े भाई के रूप में प्रतिष्ठित करने जैसी ही थी।

लेकिन आज इसका विपरीत स्वरूप क्यों हो गया? इसका जवाब पाने हेतु हमें ग्यारह सौ वर्ष पूर्व से देखना शुरू करना पड़ेगा। तब ‘सबै भूमि गोपाल की’ मानी जाती थी। इसलिये वन तथा इनकी उपज भी किसी एक राजा की मिल्कियत नहीं, बल्कि लोक सम्पदा थी। इन पर उस समय कोई कर भी नहीं लगता था। किन्तु मुगलों के अन्तिम काल तथा अंग्रेजों के राज्य में वनों को भोग की वस्तु मानकर उससे लाभ कमाया जाने लगा। तभी से इन पर सरकारी कब्जा करने हेतु अलग-अलग राज्यों में कानून बनने आरम्भ हुए। उदाहरणार्थ, अलवर-भरतपुर राज्य में ‘रून्ध’ बनने की प्रक्रिया कैसे शुरू हुई। ‘रूपवास रून्ध’ के निर्माण से संकटपन्न होने तक की कहानी तथा इस विषय में लोगों की सोच पर चर्चा करने से पूर्व की परम्परागत प्रबन्ध व्यवस्था का विवरण समझना उचित रहेगा। पहले लोग गँवई वनों से काष्ठ या काष्ठेत्तर वनोपज लेने की तिथि निश्चित करते थे, जो सभी लोगों द्वारा विचार-विमर्श से ही निश्चित की जाती थी। कांकड़बनी, रखतबनी, देव औरण्य, वाल आदि में पशुओं की चराई कब व कैसे करनी है, आदि सब मुद्दों पर खुलकर चर्चा के बाद ही निर्णय होता था।

सामलात देह का उपयोग करने वाले और उसके सन्दर्भ में निर्णय लेने वाले समान लोग ही थे, इसीलिये सभी निर्णय सबके हित में होते थे। किन्तु आज निर्णय लेने वाली शक्ति अलग है। यह निर्णयकर्ता जंगल के उपयोग एवं रख-रखाव से अनभिज्ञ है।

आज स्थिति यह है कि जो इसका उपयोग करता है, वह इसके विषय में कोई सक्षम निर्णय नहीं ले सकता, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था ने इस पर से लोगों के हक कम कर दिये। जब लोगों की अपनी कोई व्यवस्था बरकरार रही नहीं तो लोगों को वन बर्बाद करने का दोष देना कहाँ तक ठीक है? लोगों की व्यवस्था समाप्त करने का दोष केवल पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव ही नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली में बढ़े भोगवाद एवं औद्योगीकरण के कारण पुराने गँवई दस्तूर एवं रक्षा भाव समाज से समाप्त होना भी हैं। इसके स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थ बढ़ने लगा है, जिससे लोगों ने सामलात देह की देखभाल एवं सम्भाल करनी छोड़ दी है।

परिणामस्वरूप सूखे, अकाल, बाढ़ आदि हमारे सामने हैं। ईंधन, लकड़ी व चारे का अभाव लोगों को अब खलने लगा है। वर्तमान व्यवस्था पर एक प्रश्नचिन्ह है। लोग अब चिन्तित हैं, उनका मानना है कि यदि अब कोई इन्हें पुरानी व्यवस्था बताकर हनुमान की तरह उनकी शक्ति का भान करा दें तो लोग पुनः अपने जंगल को सामलाती भाव से सम्भाल सकते हैं।

लोग मिलकर कुटुम्ब बनाते हैं और कुछ कुटुम्ब मिलकर एक ऐसा गाँव जिसमें रहने वाले सब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को जानते व पहचानते हैं। यहाँ सभी कार्यों हेतु मिलकर निर्णय लेते हैं और मिलकर उनका पालन करते हैं। जो इस निर्णय को नहीं मानता है, उसे प्रायश्चित कराने की व्यवस्था भी होती है। प्रायश्चित न करने की दशा में उसका सामाजिक बहिष्कार तो होता ही है उसके साथ बोलचाल तक बन्द कर देते हैं। जहाँ इन बातों का पालन किया जाता रहा है, वहाँ पर आज भी वन बचे हुए हैं।

अकबरपुर व भरतपुर के रून्ध


तत्कालीन अलवर राज्य में कई रून्ध बनी थी, जिनमें बड़ोद, ढबकन, सरिस्का, सिलीवावड़ी, भूरियावास एवं भांवता की रून्ध प्रसिद्ध थीं। राजा ‘‘सरकार दौलत मदार’’ की भूमि को तो बिना किसी की सहमति से रून्ध घोषित कर सकता था, लेकिन जिस ‘‘मकबूजा मालकान सामलात देह’’ को रून्ध बनाया जाता था, उसके लिये जनता की सहमति प्राप्त करनी पड़ती थी। इसी प्रकार की छोटे जमींदार व पटेलों की जमीन को मिलाकर उसमें भी रून्ध घोषित की जाती थी। ढबकन (अलवर) की रून्ध किसी प्रकार बनाई गई थी। रूपवास (भरतपुर) की रून्ध राजा की अपनी भूमि ‘सरकार दौलत मदार’ से बनाई गई थी। कांकवाड़ी (अलवर) की रून्ध यहाँ के जागीरदार ने अपने पशुओं के लिये घोषित की थी।

सरिस्का में मुगलकाल तक अघोषित सीमांकन रहित शिकारगाह थी, लेकिन 1885 में सरिस्का रून्ध का सीमांकन करके शिकारगाह घोषित किया गया था। इस घोषणा के बाद इस क्षेत्र में लोगों का निवास तथा पशु चराई आदि को वर्जित कर दिया गया। जबकि मुगलकाल की सभी शिकारगाह में पशु चराई, लोगों के निवास हेतु गृह निर्माण आदि की मनाही नहीं थी।

उस काल में शिकारगाह की देखभाल के लिये राज्य की ओर से लोग नहीं रखे जाते थे, जबकि औपनिवेशिक काल में बनी शिकारगाह में निगरानी के लिये अलग विभाग बनाए गए थे। इस विभाग के संचालन हेतु प्रत्येक राज्य में कानून बनाए गए। इन सब राज्यों के कानूनों में अनेक समानताएँ थीं।

उदाहरणार्थ अलवर-भरतपुर राज्य में फॉरेस्ट कानून और रून्ध बनाने की प्रक्रिया भी लगभग एक जैसी ही थी। रून्ध से जन उपयोगी सामग्री घास-लकड़ी आदि का भुगतान करके लेने का प्रावधान था। साथ ही राजा के सद्व्यवहार का लाभ भी जनता को मिलता था। अलवर के महाराज ‘रून्ध’ को अकाल जैसे संकट के समय जनता के लिये मर्यादित उपयोग हेतु खोल देते थे, जबकि अन्य राज्यों में ऐसा नहीं था।

भांवता (अलवर) में आज भी रून्ध अपने वास्तविक स्वरूप में बची हैं। यहाँ पर लोग अपनी रून्ध के पुराने दस्तूरों की पालना करते हैं। इसमें से हरे पेड़ नहीं काटते, भयंकर अकाल पड़ने पर ही हरे पेड़ों की पत्तियाँ-टहनियाँ व छालचारे के लिये काम लेते हैं। सामान्य तौर पर सूखी पत्तियाँ व घास से ही काम चलाते हैं।

पड़ोसी गाँव के द्वारा हरे पेड़ों की कटाई करने या इनकी रून्ध में नुकसान करने पर भांवता-भूरियावास, कोल्याला आदि गाँव के सब लोग संगठित रूप से उनका विरोध करते हैं। इन्होंने 27 दिसम्बर 1993 को बामनवास, चौगान, अंगारी, डूमेडा, डूमोली व जयसिंहपुर के 150 लोगों से कुल्हाड़ी छीन ली। यह तकरार हालांकि पिछले 7 वर्षों से चल रही थी, लेकिन इस वर्ष बामनवास आदि गाँवों ने भी सामूहिक निर्णय लिया है कि भूरियावास-भांवता रून्ध से पेड़ नहीं काटेंगे।

भांवता के पशुओं की चारे की आवश्यकता आज उनकी रून्ध से पूरी हो रही है। यहाँ हरे पत्ते काटे बिना ही घास व सूखे पत्तों से चारे की पूर्ति हो जाती है। इसी प्रकार नाडू, घेवर, व लोसल गाँव की रून्ध को ही लोग सुरक्षा दे रहे हैं। जहाँ-जहाँ रून्ध बची है, वहाँ सको दूध-छाछ तथा घी आज भी सहज उपलब्ध है।

आज बहुत से गाँव अपने वन को फिर से बचाने और टिकाऊ प्रबन्ध की तरफ मुड़ने लगे हैं। सरिस्का में देवरी, राडा, गूर्जरों का लोसल गाँव का अनुभव ही बता रहा है कि ये छोटे-छोटे गाँव आसपास में मिल-बैठकर निर्णय लेकर अपने जंगल बचाते रहे हैं। ऐसा करने से ये ही रोज अदालतों के चक्कर एवं अव्यवस्था के चंगुल में फंस गए हैं। इन वनों के हरा-भरा रहने से पशु भी भरपेट रहने लगे हैं।

आज लोगों को इस बात की पूरी फिक्र रहती है कि हमारे गाँव की सीमाओं में आकर कोई हमारे वनों को हानि नहीं पहुँचा दे। इसके लिये वे दूसरों से लड़ते भी हैं, एक गाँव को दूसरे गाँव के विरुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह भी करना पड़ा है, लेकिन इन्होंने अपने वन बचाए हैं।

आरम्भ में जब देवरी गाँव ने जंगलात विभाग के कर्मचारियों को वन और लोक विरुद्ध कार्यों का प्रतिकार करने के लिये गाँव से बहिष्कृत करने का निर्णय लिया तो उनकी तरफ से बहुत-सी दिक्कतें खड़ी हो गई थीं, लेकिन इन्होंने अपना जंगल बचा लिया, अब वन विभाग ही उनकी पूरी सहायता कर रहा है। इस गाँव को देखकर ही राडा गाँव में, व बाद में गूर्जरों की लोसल गाँव में यह कार्य आरम्भ हुआ था। अब तो मुरलीपुर, माण्डलवासा, मिश्राला, सिटवट आदि गाँवों में भी यही प्रबन्ध व्यवस्था फैलने लगी है। घेवर, नाडू, ऊमरी, क्रासका हरिपुर गाँव भी उसी रास्ते पर चलने की कोशिश में हैं।

अरावली वन संरक्षण


अरावली पहाड़ियों में रहने वाले जन समूहों की आस्थाओं के केन्द्र और सभी धर्मों के ‘तीर्थ’ जंगलों में ही थे। इनकी पवित्रता भी वनों से ही बनती थी, यहाँ के लोगों ने इन्हें भी अपनी सामलात देह मानकर इनका प्रबन्ध किया था। इस प्राचीनतम पर्वतमाला के सघन जंगलों में ही सृष्टि के रचरियता ‘ब्रह्माजी’ का पुष्कर में मन्दिर है और पास में ही गरीब नवाज ख्वाजा-चिश्ती की दरगाह है।

जैन धर्मावलम्बियों के अधिकतर क्षेत्र इसी पर्वतमाला में वनों के मध्य में स्थित हैं। प्राचीनतम शिव मन्दिर नीलकण्ठ जी, भर्तृहरि की समाधि, पाण्डुपोल भी वर्तमान सरिस्का वन क्षेत्र में स्थित है। ईसाईयों के गिरजाघर और सिखों के गुरुद्वारे भी इस पर्वतमाला के नैसर्गिक सुख देने वाले वनों के मध्य निर्मित हैं। इस प्रकार अरावली पर्वतमाला के वन (तीर्थ) एकता के प्रतीक होने के साथ-साथ यह भी सिद्ध करते हैं कि यहाँ रहने वाले सभी धर्मों के लोग अपनी परम्परागत वन प्रबन्ध कुशलता के साथ-साथ मिलजुल कर रहने वाले भी हैं। साथ-साथ रहकर साथ निर्णय लेकर जंगल लगाने व बचाने का काम करने की परम्परा भी अरावली क्षेत्र में रही है।

आज भी बाग व वन लगाते समय पूजा-पाठ व प्रत्यक्ष कार्य में भी प्रायः सभी धर्मों के लोग मिलकर भाग लेते हैं। लेकिन आज वनों में आना-जाना केवल थकान व तनाव-मुक्ति के लिये ही रह गया है। वनों के प्रबन्ध से बाहरी समुदायों का कोई नाता नहीं रहा। जन-सामान्य को परम्परागत सामलाती वनों के रख-रखाव की चिन्ता अब कम है। हमारे सामलाती परम्परागत वन प्रबन्ध में जो रुकावटें हैं उन्हें हटा दें और पुनः सब मिलकर वनों को अपने भविष्य हेतु आवश्यक मानें तथा इनके प्रबन्ध और संवर्धन में लग जाएँ तभी अरावली में वनों को संरक्षित किया जा सकता है।

अरावली वन संरक्षण अभियान


इस दिशा में राजस्थान सरकार द्वारा सराहनीय प्रयास किये गए हैं। उदयपुर (दक्षिण) वनमण्डल द्वारा वर्ष 1992 से भारत में अपनी तरह का अनूठा अभियान ‘अरावली देववन संरक्षण अभियान’ प्रारम्भ किया गया है ताकि इस प्राकृतिक धरोहर को नष्ट होने से बचाया जा सके। अभियान के अन्तर्गत ग्राम वन सुरक्षा एवं प्रबन्ध समितियों का गठन, देववन संरक्षण पर ग्रामवासियों, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा वन विभाग के कर्मचारियों को प्रशिक्षण, देववनों का सर्वेक्षण, जैव-विविधता का अध्ययन, पारिस्थितिकी विकास, लोक-वानस्पतिक कुंजों का रोपण, देववनों में स्थित वृक्षों एवं वनस्पतियों का बीज एकत्रीकरण, वनभूमि पर स्थित देववनों के इर्द-गिर्द स्थानीय लोकोपयोगी एवं संकटापन्न प्रजातियों का वृक्षारोपण आदि तकनीकी निवेश किये गए हैं।

इसके साथ ही सामाजिक तथा वैधानिक निवेश के रूप में लोक-शिक्षा एवं अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालयीय प्रक्रिया शामिल हैं। संरक्षित किये गए देवनापें में उमेश्वर महादेव, मोरिया का खुना, केवडेश्वर, राडा बावजी, रामा राठौड, बलिया खेड़ा, बडला भेरूजी, कमलनाथ, गोमतेश्वर (उदयपुर उत्तर), ढीकली, पठमाता, झामेश्वर, सोनारमाता, नालसांडोल माता, लालीमाता आदि शामिल हैं।

अरावली देववन संरक्षण अभियान लोक श्रमदान का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसी प्रकार उदयपुर दक्षिण मण्डल में ग्रामवासियों के सहयोग से वन प्रबन्ध में अत्यन्त सफलता प्राप्त हुई है। यहाँ गत तीन वर्षों में 52 पंजीकृत ग्राम वन सुरक्षा एवं प्रबन्ध समितियाँ स्थापित की गई है; जिनके द्वारा वनों एवं वृक्षारोपणों की रक्षा की जा रही है।

अरावली की स्थानीय आजीविका प्रजातियों का रोपण किया जा रहा है। सूक्ष्म आयोजन कर ग्राम के प्राकृतिक संसाधन प्रबन्ध के साथ-साथ आजीविका के सम्मानजनक साधनों का भी विकास किया जा रहा है। लोक भागीदारी एवं पुख्ता तकनीकी निवेशों का कुशलतम संयोजन ही अरावलजी के वनों को संरक्षित करने में सक्षम होगा

राजेन्द्र सिंह तरुण भारत संघ, भीकमपुरा किशोरी, अलवर, (राज.) एवं दीपनारायण पांडेय उप वन संरक्षक, भारतीय वन सेवा, उदयपुर (दक्षिण) राज.

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