आर्सेनिक का कहर (Arsenic havoc)

5 Sep 2015
0 mins read

भारतवासी जिस भूजल को पीते हैं, उसमें जहरीला आर्सेनिक (संखिया) आखिर किस हद तक फैल चुका है? दिल्ली में एक डाॅ. के फोन ने ‘डाउन टू अर्थ' को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में जाने पर मजबूर किया। इस देश की राजधानी से 950 किलोमीटर की दूरी पर हमने गाँव के गाँव को आर्सेनिक से प्रभावित पाया- इस तरह देश में आर्सेनिक के दूषण का एक नया नक्शा ही बन गया है। सरकार इस महामारी के बारे में किस हद तक चिन्तित है? दिल्ली में, भारतीय नागरिकों को सुरक्षित पानी की गारण्टी देने या इसकी गुणवत्ता की निगरानी करने वाले संस्थान स्थापित किए गए हैं, जो बड़ी बेशर्मी से इस समस्या से दूर भाग रहे हैं। 950 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बलिया शहर के सरकारी अधिकारियों ने भी इसी तरह से बड़े रूखे अंदाज में इसकी उपेक्षा की है। आगे की कहानी डाउन टू अर्थ के सितम्बर 15, 2004 के अंक में प्रकाशित हुई है।

दीनानाथ सिंहदीनानाथ सिंह के बाएँ पैर में कैंसर का जख्म है, जिसमें से निरन्तर खून और मवाद निकलता रहता है। उनके पूरे शरीर में काले और सफेद धब्बे हैं। 61 वर्षीय सिंह त्वचा के कैंसर से भी पीड़ित हैं। उनके बाएँ हाथ की दो उँगलियों में फोड़े हो गए थे। इसकी वजह से उँगलियों को काटना पड़ा। उनमें कई रोग हैं, परन्तु उन सभी का कारण एक ही है- आर्सेनिक, जिसे हिन्दी में ‘संखिया’ कहा जाता है।

दीनानाथ उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एकावाना राजपुर गाँव में रहते हैं। वे जून 2004 में डॉक्टरी सलाह के लिए दिल्ली स्थित ‘आॅल इण्डिया इंस्टिट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेज (एम्स)’ में पहुँचे। एम्स में त्वचा विज्ञान के प्रोफेसर नीना खन्ना और उनके सहकर्मी अमित मल्होत्रा को दीनानाथ के दस्तावेज देखने के दौरान कुछ चौंका देने वाली बातें जानने को मिलीं। तारीख 12 मई, 2004 को खून की जाँच रिपोर्ट से पता चला कि दीनानाथ के शरीर में 34.40 पार्टस पर बिलियन (पीपीबी) का आर्सेनिक है, जबकि अग्रणी विष-विज्ञान नियमावलियों में मात्र 1-4 पीपीबी सीमा का ही उल्लेख किया गया है।

नक्शा नाप के अनुसार नहीं“खून में आर्सेनिक की इतनी ज्यादा मात्रा तभी सम्भव है, जब इसका चिरकालिक प्रभाव पड़ा हो,” ऐसा खन्ना महसूस करती हैं। वे इस कारण ज्यादा व्याकुल थीं क्योंकि दीनानाथ बलिया के रहने वाले हैं, जहाँ भूजल में आर्सेनिक के दूषण का कोई इतिहास नहीं था। चिन्ताग्रस्त होकर उन्होंने सीएसई की पत्रिका 'डाउन टू अर्थ' को फोन किया। वे जानना चाहती थीं कि उनके मरीज की विकराल बीमारी के पीछे कौन सा सम्भावित कारण हो सकता है। हमारी तरह उन्होंने भी पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में संख्यिा के प्रकोप के बारे में सुन रखा था। “परन्तु ये तो बलिया से हैं,” उन्होंने कहा। फिर इन्हें क्यों? यह आर्सेनिक कहाँ से आ रहा है?

हम भी चक्कर में पड़ गए। हमने सोचा कि हो सकता है इसका स्रोत औद्योगिक हो। 'डाउन टू अर्थ' ने फैसला किया कि डाॅक्टर और उनके मरीज से इसकी दास्तां समझी जाए।

एम्स में जब 'डाउन टू अर्थ' ने दीनानाथ से उनकी बीमारी का कारण पूछा, तो उनका जबाव काफी चौंका देने वाला था। उनका मानना था कि वे अपने गाँव में जिस हैंडपम्प से पानी निकालकर पीते हैं, वह आर्सेनिक से सराबोर है। “जो आप कह रहे हैं, उसका आपके पास क्या सबूत हैं?” हमने पूछा। “बनारस हिन्दूू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के डाॅक्टरों ने मुझे बताया कि हो सकता है पानी दूषित हो,” उन्होंने जवाब दिया। हमने अपने सवाल जारी रखे। “लेकिन क्या आपका कुआँ दूषित है?”नहीं। बल्कि, मैं जानता नहीं हूँ। उनकी लाचारी साफ झलक रही थी। “कृपया आप मुझे बताएँ,” उन्होंने 'डाउन टू अर्थ' से कहा, “क्या मेरे कुएँ में कोई समस्या है? मेरा पूरा परिवार यह पानी पीता है। मुझे पता होना चाहिए।”

कुछ विचित्र तो था


चौबे छपरा गाँव की जानकी देवीकिस प्रकार यह व्यक्ति, भारत का एक अदृश्य इलाके का निवासी, दिल्ली पहुँचा, दीनानाथ पिछले लगभग तीन दशकों (1962) से भारतीय सेना में एक शिक्षण प्रशिक्षक रहे हैं। सन 1991 में अवकाश प्राप्त कर लेने के उपरान्त वे मध्य प्रदेश में बेतुल स्थित एक परोपकारी संगठन के साथ जुड़ गए। लेकिन जब सन 1996 में उनके पैर में चोट लगी, तो वह कभी ठीक ही नहीं हुई। वे भोपाल स्थित जवाहरलाल नेहरू कैंसर हाॅस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर गए, जहाँ डॉक्टरों ने उनसे एक बायाप्सी (जीवूति परीक्षा) करवाने के लिए कहा। परीक्षण से पता चला कि वे शल्की कोशिका कर्कटरोग (त्वचा के कैंसर) से पीड़ित हैं। कैसे? कोई नहीं जानता। अगर डाॅक्टरों ने उनके खून की जाँच की होती, तो वे पता लगा सकते कि उनके घाव आर्सेनिक विष से हुए हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

सन 2002 में दीनानाथ मध्य प्रदेश से अपने गाँव चले गए, वो भी बिना जाने कि एक हैंडपम्प उनके भाग्य का विधाता बन जाएगा। उनकी स्थिति बिगड़ती गई। उनकी दो उँगलियों में फोड़े हो गए। जून 2003 में दीनानाथ के बीएचयू अस्पताल जाना शुरू कर दिया, जो कि उनके गाँव के सबसे नजदीक का बड़ा मेडिकल सेन्टर है। इस अस्पताल के डाॅक्टर नहीं जानते थे कि दीनानाथ को कौन सी बीमारी खाए जा रही है। अतः उन्होंने उनकी बीमार उँगलियों को काट दिया।

लेकिन उन्हें कुछ विचित्र लगा और उन्होंने दीनानाथ को बीएचयू के त्वचा रोग विज्ञान विभाग में भेजा। यहाँ के एक डाॅक्टर संजय सिंह ने उनकी त्वचा के फोड़े देखते ही दीनानाथ से आर्सेनिक के लिए खून की जाँच करने को कहा। परन्तु वाराणसी में ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं है, जहाँ ऐसी कोई जाँच होती हो। इनके खून का नमूना दिल्ली के एक निजी विकृति विज्ञान प्रयोगशाला में भेजा गया। इसकी रिपोर्ट, जो अप्रैल 2004 में दीनानाथ को प्राप्त हुई, रिपोर्ट से उनके खून में आर्सेनिक की पुष्टि हुई। दीनानाथ का मानना था कि उन्हें अपने उपचार के लिए रुपयों की जरूरत पड़ेगी और वे दिल्ली में अपने पूर्व नियोक्ता-भारतीय सेना- के पास आ गए। इस सैनिक को सामाजिक भविष्य निजी प्रमाण-पत्र की जरूरत थी, इससे सरकारी अस्पताल में उनका मुफ्त इलाज हो सकता है। दिल्ली में आकर उन्होंने एम्स में दुबारा जाँच करवाया। यहाँ डाॅक्टरों ने इनकी पिछली जाँच की पुष्टि की। दीनानाथ त्वचा के कैंसर से पीड़ित थे।

लेकिन मामला अभी भी कुछ विचित्र था। दीनानाथ का इस देश के विभिन्न भू-भागों में तबादला हुआ था और हो सकता है कि उन्हें यह बीमारी कहीं और लगी हो। “इसका क्या सबूत है कि उनमें आर्सेनिक से होने वाली बीमारी आर्सेनिकोसिस उनके कुएँ के पानी से ही हुआ हो?” हमने पूछा।

गंगापुर गाँव के शत्रुघन तिवारीदीनानाथ ने अपने 39 वर्षीय बेटे, अशोक सिंह से हमारा परिचय कराया। अशोक अपने गाँव के बाहर कभी नहीं गया था। लेकिन इसकी त्वचा में भी फोड़े थे। किसी ने भी उसके खून की जाँच नहीं की थी। 'डाउन टू अर्थ' ने उसके खून की जाँच का भुगतान किया। नमूने उसी प्रयोगशाला में भेज दिए गए, जहाँ दीनानाथ के खून की जाँच हुई थी। परिणाम चौंका देने वाले थे। इस जाँच से इस बात की पुष्टि हुई कि अशोक के खून में 34.50 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक है।

अब हम और ज्यादा जानना चाहते थे। इस गाँव के अन्य लोगों का क्या हुआ? वैसे भी, इससे सिर्फ दीनानाथ का ही घर प्रभावित नहीं हुआ होगा। उन्होंने हमारे लिए भी एक सवाल खड़ा कर दिया। “मुझे बताओ कि क्या मेरा कुआँ विषैला है? मुझे बताओ कि अपने परिवार वालों से मुझे क्या कहना चाहिए?” 'डाउन टू अर्थ' ने बलिया के भ्रमण का निर्णय लिया।

भयावह स्थल


एकावाना राजपुर बलिया शहर से करीब 16 किलोमीटर की दूरी पर, जिले के बेलहारी प्रखंड के गंगातट पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग से काफी दूरी पर है। यहाँ के लोग किसान हैं। इस गाँव में न कोई सड़क, न बिजली और न ही स्वास्थ्य उपचार केन्द्र हैं। स्वाभाविक है गरीबी भी है। सन 2001 की जनगणना में कहा गया है कि इस गाँव में 1,800 लोग रहते हैं। जब उनसे मिला गया तो घर-घर से यही भयावह दास्तां सुनने को मिली। जिन 100 लोगों से मिला, उनमें अधिकांश 35 वर्ष की आयु से ज्यादा के थे और उनकी त्वचा में फोड़ थे (जिन्हें मेलानोसिस के नाम से जाना जाता है, जो कि आर्सेनिकोसिस की पहली अवस्था है)। कुछ लोगों की हथेलियोें और पैरों की त्वचा काफी खुरदरी, सूखी और मोटी परत की थी (केराटोसिस, दूसरी अवस्था) और कुछ लोग साँस की तकलीफ झेल रहे थे। डाॅक्टर कहते हैं कि यह बीमारी की तीसरी अवस्था है। बाहरी लक्षणों के अलावा, उनमें अंदरूनी गड़बड़ियाँ भी होने लगी थीं। सारणी से स्पष्ट है कि जहर कैसे असर करता है।

सरकारी अज्ञानता, वैज्ञानिक सहायता


आर्सेनिक के स्तरों में पाया गया अंतर काफी चौंका देने वाला है

संगठन

जाँचे गए नमुनों की संख्या

अधिकतम सांद्रता (पीपीबी में*)

न्यूनतम सांद्रता (पीपीबी में**)

सीमा के ऊपर के नमुनों की संख्या (% में #)

इंडस्ट्रीयल टॉक्सकोलॉजी रिसर्च सेन्टर

17**

30

1.2

41

जादवपुर विश्वविद्यालय

2,404

3,191

<3

55.4

*पार्ट्स पर बिलियन, * * उपलब्ध रिपोर्टों के आधार पर, # पीपीबी की संशोधित सीमा के आधार पर 

 


झकझोरने वाले सबूत


'डाउन टू अर्थ' ने बलिया जिले में क्या पाया

नमूनों के प्रकार/उपयोगकर्ता/गाँव

आर्सेनिक (पीपीबी में*)

सीमा (पीपीबी में*)

पानी, दीनानाथ, राजपुर

73

10

पानी, रामसागर सिंह, राजपुर

47

10

पानी, सामुदायिक हैंडपम्प, तिवारीटोला

15

10

पानी, विष्णुगौर, तिवारीटोला

129

10

बाल, रामबहादुर सिंह, राजपुर

6,310

रिक्त (सामान्य: 80-250)

बाल, जानकी देवी, चौबे छपरा

4,790

रिक्त (सामान्य: 80-250)

नाखून, मुखेश्वर सिंह पांडे, तिवारीटोला

2,480

रिक्त (सामान्य: 430-1,080)

* पार्ट्स पर बिलियन

 


आस-पास के गाँवों-सुघड़ छपरा, तिवारी टोला, गंगापुर और चौबे छपरा में भ्रमण से पता चला कि यह बीमारी अच्छी तरह से फैल गई है। इन सभी गाँवों के लोग विभिन्न अवस्थाओं में आर्सेनिक से पीड़ित थे। इन सभी गाँवों में कुछ और बातें भी देखी गईं। लोग पानी पीने के लिए हैंडपम्प पर निर्भर थे, जबकि उनके घर के सामने से नदी बहती है। “इस नदी से पानी लाने में काफी समय लगता है। हैंडपम्प इस गाँव के चप्पे-चप्पे में लगे हैं,” दीनानाथ की पत्नी बसंती ने बताया, उनके त्वचा पर भी फोड़े हैं। किसी ने भी उन्हें नहीं बताया था कि नदी और कुएँ के बीच जीवन-मरण का अंतर है।

तिवारीटोला में सुरक्षित पानी के लिए लगाए गये हैंडपम्पइन्हीं हैंडपम्पों से, जिन्हें जमीन के नीचे 27-36 मीटर गहरा खोदा गया है, उनके जीवन में आर्सेनिक का प्रवेश हुआ। “ये हैंडपम्प 70 के दशक की शुरुआत में खोदकर लगाए गए थे। इन्हें लगाने के बाद से हमें त्वचा रोग के मामले सुनने को मिलने लगे। लेकिन किसी ने भी इन दोनों के बीच सम्बन्ध नहीं बनाया,” ऐसा 68 वर्षीय राम बहादुर सिंह का कहना है, जो राजपुर के निवासी हैं और जिनमें वाराणसी स्थित विनीत स्किन इंस्टीट्यूट की जाँच से त्वचा के कैंसर की पुष्टि हुई है। “हमने इससे मरने वाले लोगों की संख्या की गिनती करना बंद कर दिया है। अब तो यह नदी भी अपना रुख बदल रही है। हो सकता है कि हम आर्सेनिक से पहले इस नदी द्वारा ही मारे जाएँ,” ऐसा उनकी बहु कांती का कहना था।

दीनानाथ का खुद का परिवार आर्सेनिक के जोखिम की दुखद मिसाल है। उनकी दो बेटियाँ- अमीता, उम्र 35 वर्ष और अंजू, उम्र 25 वर्ष पिछले दो वर्षों में गुजर गईं। अशोक की तरह अरविन्द- दीनानाथ के छोटे बेटे भी त्वचा के फोड़ों से पीड़ित हैं।

प्रत्यक्ष उपेक्षा : तिवारीटोला का प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रये फोड़े सामाजिक कलंक हैं, खासकर लड़कियों के लिए। “घाव के धब्बों के कारण कोई भी हमारे गाँव की लड़कियों से शादी करना नहीं चाहता है। गाँव के सभी लोगों को दूल्हे के परिवारवालों के सामने यह साबित करने के लिए आधे नंगे होकर घूमना पड़ता है कि समूचे गाँव को यह बीमारी लगी हुई है, हम ही सिर्फ ऐसे नहीं है।” उर्मिला देवी ने बताया, जिन्हें अपनी बेटी रूबी के लिए वर ढूँढने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। गाँव की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है। आर्सेनिक से वो हाथ अपंग हो गए हैं जिनसे उर्वर जमीन की खेती हो सकती थी।

बेदर्दी सरकार का बर्ताव


इस बीमारी से ज्यादा कठोर रवैया है सरकारी अधिकारियों का। यही है असली कैंसर जिसे डाऊन टू अर्थ ने देखा और समझा। सन 1987 में ऋषिदेव यादव के परिवार के चार सदस्य जब सुघड़ छपरा में मरे, तो यादव ने स्थानीय प्रशासन से इसकी जाँच करने को कहा। लेकिन इससे कुछ नहीं निकला। लोग निरन्तर रूप से हैंडपम्प का पानी पीते रहे। वे बीमार पड़ते और मरते रहे। लेकिन प्रशासन के अनुसार यह ‘सामान्य’ बात थी, जनवरी 2004 में, दीपंकर चक्रवर्ती ने, जो आर्सेनिक की खोजबीन में लगे रहते हैं और जो पश्चिम बंगाल स्थित जादवपुर विश्वविद्यालय के ‘स्कूल आॅफ इन्वायरमेंटल स्टडीज’ के निदेशक हैं, अपने सह-कर्मियों को बलिया भेजने का जोखिम उठाया। “बिहार स्थित भोजपुर और बक्सर के आस-पास के क्षेत्रों की जाँच कर लेने के बाद मुझे पूरी तरह से आभास हो गया था कि बलिया दूषित हो सकता है। मैं जानता था कि इन सभी की भौगोलिक स्थिति समान है। मुझे अपने कम्प्यूटर से मदद मिली- इससे जो आँकड़े मिले उससे मेरा शक सही निकला। अतः मैंने अपने सह-शोधकर्ताओं को भेजने का निर्णय लिया। और यह प्रयास सार्थक साबित हुआ,” चक्रवर्ती ने बताया।

उनकी टीम ने इस जिले के 55 गाँवों के 2,404 पानी के नमूनों की जाँच की। इनमें आधे से ज्यादा नमूनों में आर्सेनिक का स्तर 10 पीपीबी की भारतीय मार्गदर्शिका के मात्रा से ज्यादा था और इनमें से आठ प्रतिशत नमूनों में तो आर्सेनिक का स्तर 500 पीपीबी से भी ज्यादा पाया गया। मई 2004 में, चक्रवर्ती ने इन परिणामों को गोरखपुर स्थित उत्तर प्रदेश जल निगम के मुख्य अभियन्ता एन सी गुप्ता को भेजा।

जब गुप्ता से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने बताया, “हमने चक्रवर्ती को इसका जवाब भेजा और उनसे पूछा कि क्या ये हमारे इण्डिया मार्क-।। के हैंडपम्प हैं जो दूषित हुए हैं। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। हम तो अपने खुद के लगाए हैंडपम्प से सरोकार रखते हैं। फिर हमने लखनऊ आधारित इंडस्ट्रीयल टाॅक्सीकाॅलोजी रिसर्च सेंटर (आईटीआरसी) से पाँच बार पानी की जाँच कराई और हमें इसमें कोई दूषण नहीं मिला। हमें इसमें कोई संदेह नहीं कि बलिया का पानी सुरक्षित है।”

पानी में संखिया नहीं तो बीमारियों की जड़ क्याइसी बीच 'डाउन टू अर्थ' को एक उलझन में डालने वाली जानकारी मिली। अप्रैल 2004 में उत्तर प्रदेश जल निगम के लखनऊ कार्यालय के अधिकारियों ने एक पुणे स्थित कम्पनी, ‘वोटेक वॉटर टेक्नॉलाॅजी प्राइवेट लिमिटेड’ से आग्रह किया कि वे पानी से आर्सेनिक दूर करने वाली झिल्लिका प्रौद्योगिकी के आधार पर बना एक उपक्रम लगाए। वोटेक के प्रबंधन निदेशक, अनिर्बान सरकार के अनुसार, अधिकारियों का कहना था कि यह जिला आर्सेनिक के भीषण दूषण की समस्या का सामना कर रहा है। वोटेक ने लखनऊ के कार्यालय में दस लाख से भी ज्यादा कीमत का एक उपक्रम भेजा, परन्तु बलिया के जल निगम कार्यालय ने यह कहते हुए इसे लेने से इन्कार कर दिया कि यहाँ ऐसा कोई दूषण नहीं है। “इस संगठन में काफी अनिश्चितता बनी हुई है जिसका इसी बात से पता चल जाता है कि अधिकारियों को पता ही नहीं है कि यहाँ ऐसी कोई समस्या है,” सरकार ने जोर देकर कहा। यह उपक्रम आज भी लखनऊ में पड़ा हुआ है और कम्पनी इसके भुगतान की प्रतीक्षा कर रही है।

धुंधलाते तथ्य


आईटीआरसी की 20 जुलाई 2004 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बलिया जिले के विभिन्न गाँवों से एकत्रित किए गए और 9 जुलाई, 2004 को पहुँचाए गए नमूने बिना सील किए हुए थे। प्रयोगशाला में बताया गया कि इन नमूनों में आर्सेनिक का स्तर ‘स्वीकृत सीमा’ के भीतर था। इनमें अधिकतम स्तर 30 पीपीबी था। बड़ी विचित्र बात है कि इस रिपोर्ट में उन गाँवों के भी नकारात्मक परिणाम दर्शाए गए, जिन गाँवों में 'डाउन टू अर्थ' ने लोगों में बीमारी के स्पष्ट निशान देखे। मिसाल के लिए चौबे छपरा के मामले में, इस प्रयोगशाला ने सिर्फ एक पीपीबी का आर्सेनिक ही दर्शाया।

अतः सवाल उठता है कि ये नमूने कहाँ से एकत्रित किए गए? किसने इन्हें एकत्रित किया? और अगर पानी में आर्सेनिक नहीं था, तो फिर यह बीमारी कहाँ से पैदा हुई? नमूनों को स्वीकृति मिलने का एक कारण यह था कि आईटीआरसी ने आर्सेनिक की स्वीकृति सीमा 50 पीपीबी ली थी। लेकिन तब तक स्वीकृति सीमा 10 पीपीबी तय कर दी गई थी। भारतीय मानक ब्यूरो ने सितम्बर 2003 में इस न्यूनतम सीमा की घोषणा की थी। इससे स्पष्ट है कि आईटीआरसी इस संशोधन के बारे में अनभिज्ञ था। संशोधित मानकों के आधार पर, आईटीआरसी के परिणामों के अनुसार भी बलिया के कई हिस्सों में पानी में आर्सेनिक की मात्रा सुरक्षित स्तर से कहीं ज्यादा है।

आईटीआरसी की रिपोर्ट ने बलिया के लोगों का भाग्य ही निर्धारित कर दिया है। जब 'डाउन टू अर्थ' ने बलिया स्थित उत्तर प्रदेश जल निगम के कार्यकारी अभियन्ता एसआर शर्मा से सम्पर्क किया तो उन्होंने आवेेश में आकर कहा - “यहाँ इस स्थिति पर राजनीति ज्यादा है और आर्सेनिक कम। ऐसा राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है।” इनके उप-अभियन्ता इस्लामुद्दीन ने कहाः “हमने सिर्फ उन्हीं स्थलों के पानी की जाँच की है, जहाँ इस दूषण की ज्यादा आवाज और चीख-चिल्लाहट है।”

इसी प्रकार, जब 'डाउन टू अर्थ' ने बलिया जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी आर.के सिंह से बातचीत की, तो उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय की खोजों की तुरन्त ही भर्त्सना कर डाली। “इस विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के पीछे काफी हो-हल्ला हुआ है। परन्तु उनकी रिपोर्ट सही नहीं हो सकती है, क्योंकि इनके द्वारा जाँच किए गए नमूनें आर्सेनिक युक्त करार दिए गए, जोकि स्पष्ट रूप से सम्भव नहीं है।” उनकी टिप्पणी से उनकी अज्ञानता ही झलकती है, क्योंकि रिपोर्ट में जाँच किए गए नमूनों में काफी ज्यादा अंतर पाया गया है। उन्हें आर्सेनिक के जहर के लक्षणों की कोई जानकारी नहीं है।

हथेलियों की रेखाएंप्रशासन के लिए यह स्थिति सामान्य थी। जब 'डाउन टू अर्थ' ने 28 जुलाई, 2004 को सवाल खड़ा किया, तो जिला मजिस्ट्रेट विनोद कुमार मलिक ने घोषणा की कि, “मेरे क्षेत्र में पानी के दूषण की कोई समस्या नहीं है।” मलिक अपने सिद्धान्तों का खुलासा करने लगे। “नदी के कटाव से गाँवों का विनाश हो सकता है, परन्तु इससे आर्सेनिक की समस्या का स्वतः समाधान निकलेगा। सम्भवतः त्वचा की समस्या पार्थेनियम के कारण उत्पन्न हुई है - जो कि एक ऐसा अपतृण है, जिससे पूरे जिले में महामारी फैल रही है।”

अंधेरा ही अंधेरा


'डाउन टू अर्थ' के पास 31 जुलाई, 2004 का एक पत्र है - यानी मलिक के साथ साक्षात्कार करने के तुरन्त बाद का। इसमें मलिक के हस्ताक्षर हैं और इसे उत्तर प्रदेश सरकार के औषधि एवं स्वास्थ्य निदेशक के नाम लिखा गया है, जिसमें उनसे इस जिले में त्वचा के कैंसर की समस्या की जाँच-पड़ताल करने के लिए एक टीम भेजने का निवेदन किया है। 13 अगस्त, 2004 को उत्तर प्रदेश जल निगम, जिसने अब तक शुतुरमुर्ग की भाँति मुद्रा बनाई हुई थी, ने जादवपुर विश्वविद्यालय को इस क्षेत्र में पानी की दोबारा जाँच करने हेतु पुनः भ्रमण करने के लिए लिखा। स्पष्ट है कि कुछ काम हो रहा है।

हम आर्सेनिक की जाँच करते हैं


बहुत देर हो चुकीपरन्तु हमें इसके लिए आश्वस्त होना था। हम जानते थे कि गोल-मोल बातें और इन्कार का खेल जारी रहेगा। यह सरकार का पसंदीदा मनोरंजन है। दीनानाथ और उनके पड़ोसी ‘वैज्ञानिक सबूत के अभाव’ में बड़े आराम से फाइलों के नीचे दबकर रहे जाएँगे।

'डाउन टू अर्थ' ने पहले ही प्रयोगशाला में उन कार्यप्रणालियों की जाँच कर ली थी, जिनकी नमूने एकत्रित करने में जरूरत पड़ती है। दीनानाथ के हैंडपम्प, रामसागर के हैंडपम्प और विष्णु गौर के हैंडपम्प से पानी के नमूने लिए गए। ये वही लोग थे, जो आर्सेनिकोसिस जैसी दिखने वाली बिमारी से पीड़ित थे। चौथा नमूना एक ऐसे हैंडपम्प का था, जिसे ‘स्वच्छ’ माना गया था।

हमने तिवारी टोला, चौबे छपरा और राजपुर गाँवों में रहने वाले लोगों के नाखूनों और बालों के नमूने भी एकत्रित किए। इन सभी लोगों में इस बीमारी के स्पष्ट लक्षण दिख रहे थे।

परिणामों से उस बात की पुष्टि हुई जिसे हम पहले से ही जानते थे और प्रशासन जिसे देखने से भी इन्कार करता है।

दीनानाथ के हैंडपम्प में 73 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक है - यानी स्वीकृत सीमा से सात गुना ज्यादा।

राजपुर के एक 75 वर्षीय निवासी, रामसागर सिंह ऐसा पानी पीते हैं, जिसमें 47 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक विद्यमान है इसके विष के कारण उनके मुँह में अल्सर हो गया है, जिससे उनकी भूख मर गई है। उनके शरीर पर एक तरफ कृत्रिमकोष है, जोकि शायद कैंसर भी हो सकता है। सन 1988 में उनकी जाँघ में टयूमर की समस्या उत्पन्न होने लगी थी। यहाँ कोई बुनियादी डॉक्टरी सुविधा नहीं होने के कारण उन्होंने ब्लेड से अपना फोड़ा काटा और उस पर चूना लगाया। वह जख्म आजतक नहीं भरा है।

विष्णु गौर अब हमारे बीच नहीं हैं। 42 साल की उम्र में उनका देहान्त हो गया। वे जो पानी पीते थे उसमें 129 पीपीबी स्तर का आर्सेनिक था। उनके गले में कैंसर का एक बड़ा टयूमर था। बेहद गरीब होने के कारण वे कभी भी डाॅक्टर के पास नहीं जा पाए।

तिवारी टोला के चौथे हैंडपम्प में अपेक्षाकृत कम यानी 15 पीपीबी का आर्सेनिक मिला।

राजपुर के रामबहादुर सिंह के बालों में 6,310 पीपीबी का आर्सेनिक है। बालों के लिए तथाकथित सामान्य स्तर 80-250 पीपीबी के बीच माना जाता है। क्या यह प्रशासन अब उनकी त्वचा के कैंसर को आर्सेनिक से नहीं जोड़ सकता?

चौबे छपरा की 40 वर्षीया जानकी देवी के बालों में 4,790 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक है। उनके पूरे शरीर की त्वचा में घाव है। क्या प्रशासन अभी भी इसे पार्थेनियम विष का नाम देगा?

तिवारी टोला के 27 वर्षीय मुखेश्वर सिंह पांडे के नाखून में 2,480 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक है, जबकि इसका सामान्य स्तर 430-1080 पीपीबी है। मुखेश्वर जवान हैं। परन्तु उनके शरीर में आर्सेनिक का इतना स्तर होने के कारण, डाॅक्टर आपको बता देंगे कि कैंसर से उनकी मौत होना सम्भव है।

तब तक, जब तक कि इसे बदलने के लिए कुछ किया नहीं जाता। जब तक लोगों को यह बताया नहीं जाता कि उनके किस हैंडपम्प में विष है और कौन सा हैंडपम्प सुरक्षित है।

परन्तु इसके लिए सरकार को सबसे पहले यह मानना होगा कि आर्सेनिक की समस्या अब पश्चिम बंगाल के बाहर भी पहुँच चुकी है। सरकार को इसकी सीमा की रूप-रेखा तैयार करनी होगी। हैंडपम्पों को चिन्हित करना होगा और लोगों को इसकी जानकारी देनी होगी, ताकि वे जहरीले पेयजल के विकल्पों का प्रबन्ध कर सकें। यह एक बड़ा काम है। परन्तु यह असम्भव नहीं है।

शायद, दीनानाथ के एम्स जाने से यह सब कुछ बदल जाएगा। शायद।

परन्तु अंधकार कायम है …


और साथ में दीनानाथ की व्यथा भी। यद्यपि, कोई बदलाव नहीं आया है। बलिया प्रशासन अब भी समस्या को मानने से इन्कार करता है। उसने समस्या की हद जानने के लिए कोई विस्तृत मानचित्रण भी नहीं किया है। फलतः इस संकट से निपटने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

परन्तु अंधकार कायम हैपरन्तु एक दूसरे मोर्चे पर काम करने के लिए प्रशासन की फुर्ती में कोई नहीं है। ‘डाउन टू अर्थ’ को उन्होंने कानूनी नोटिस भेजे हैं जिनके अनुसार पत्रिका से कहा गया है कि वह या तो माफी माँगे अन्यथा उस पर मुकदमा चलाया जायेगा व 10 लाख रूपए का जुर्माना भी भरना पड़ेगा। बलिया के जिला मैजिस्ट्रेट व प्रमुख चिकित्सा अधिकारी ने यह नोटिस भेजे हैं जो 'डाउन टू अर्थ' को 4 अक्टूबर 2004 को मिले। पत्रिका पर जिले में आर्सेनिक संदूषण पर गलत तथ्य छापने का आरोप लगाया गया है। “जिला प्रशासन को गलत ठहराने के लिए गलत, निराधार व गैर-जिम्मेदार वक्तव्य छापे गए हैं।” इन वक्तव्यों से जनता प्रशासन के विरुद्ध उत्तेजित हो सकती है, ऐसा इस नोटिस में कहा गया है। अभिप्राय यह है कि 'डाउन टू अर्थ' का यह लेख राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध है।

विडम्बना यह है कि यह कानूनी नोटिस यह भी कहते हैं कि “डाउन टू अर्थ ने जान-बूझ कर बलिया गाँव की एक भंयकर तस्वीर प्रस्तुत की है। लेख के वर्णन से लगता है कि जैसे बलिया प्रशासन समस्या की जान-बूझ कर उपेक्षा कर रहा है।” आज तक इस समस्या के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं, यह इस बात का प्रचुर प्रमाण है कि प्रशासन सचमुच इस समस्या की जानकर अवहेलना कर रहा है। यह नोटिस मात्र 'डाउन टू अर्थ' को डराने के लिए भेजे गए थे। परन्तु बलिया प्रशासन के अधिकारियों से साक्षात्कार रिकार्डर में अभिलेखित हैं। इसलिए वे अपने वक्तव्यों को न्यायालय में अस्वीकार नहीं कर सकते।

आश्चर्यजनक और गैर-कानूनी बात यह है कि यह कानूनी नोटिस राज्य सरकार की अनुमति के बिना भेजे गए, जोकि आगे की कार्यवाही के लिए आवश्यक है (आर 17, आॅल इंडिया इण्डियन सर्विसेस (कन्डक्ट) रूल्स, 1968, बद्रीनाथ केस (1987) 4 एससीसी 654 के साथ पढ़ें तथा सीआर पीसी की धारा 199)। इसलिए, 'डाउन टू अर्थ' उलटा अधिकारियों पर मुकदमा कर सकता है। अपने वकीलों द्वारा पत्रिका ने कानूनी नोटिस का उत्तर भेजा कि वह अपने लेख का सर्मथन करता है जो कि जनता के हित में छापा गया था। जैसा कि प्रत्याशित था, इसके पश्चात बलिया प्रशासन की आरे से कोई सूचना नहीं है।

परन्तु बलिया प्रशासन के कानूनी नोटिस काफी उलझाने वाले थे। उनसे कई सवाल उठते हैंः प्रभावित जनता यदि प्रशासन से मदद नहीं माँगेगी, तो किससे मदद माँगेगी? यह प्रशासन की नहीं तो किसकी जिम्मेदारी है कि वह जनता को अराजकता से बचाए, चाहे वो पारिस्थितिकीय ही क्यों न हो?

'डाउन टू अर्थ' का ऐसे सवालों से बार-बार सामना होता है। लोग हमें लिखते हैं कि किस तरह वे मदद के लिए सरकार के ऊँचे दरवाजों तक नहीं पहुँच पाते। हमें भी इसी समस्या का सामना करना पड़ता है, हालाँकि हमारा संविधान हमें सूचना पाने का अधिकार देता है (राइट टू इन्फॉरमेशन)।

हमारी व्यवस्था किससे चलती हैः जनता के प्रति जिम्मेदारी से या जानबूझ कर की गई लापरवाही से? भारत एक महान लोकतन्त्र है। परन्तु इसमें इस नासूर को बढ़ने कैसे दिया गया है, वो भी इतने विशाक्त रूप में? इस अधिकारी तन्त्र को चलाने के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? केवल चलाने के लिए ही नहीं, बल्कि जनता के लिए व जनता के साथ चलने के लिए? स्थानीय सरकार व केन्द्रीय सरकार के बीच एक मात्र कड़ी है जिला मैजिस्ट्रेट। यदि यही कड़ी कमजोर है तो सामाजिक न्याय कैसे सुनिश्चित होगा?

सचमुच, यदि राज्य सकारात्मक रवैये की जगह नकारात्मक रवैया अपनाएगा तो केवल एक ही परिणाम हो सकता हैः ‘राष्ट्रीय हित’ में रोग व मृत्यु, जैसा कि बलिया प्रशासन के व्यवहार से प्रत्यक्ष है।

 

भूजल में संखिया के संदूषण पर एक ब्रीफिंग पेपर

अमृत बन गया विष

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)   

1.

आर्सेनिक का कहर

2.

बंगाल की महाविपत्ति

3.

आर्सेनिक: भयावह विस्तार

4.

बांग्लादेशः आर्सेनिक का प्रकोप

5.

सुरक्षित क्या है

6.

समस्या की जड़

7.

क्या कोई समाधान है

8.

सच्चाई को स्वीकारना होगा

9.

आर्सेनिक के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब - Frequently Asked Questions (FAQs) on Arsenic

 

पुस्तक परिचय : ‘अमृत बन गया विष’

 

TAGS
Underground toxin Arsenic in India in Hindi, Article on Arsenic poison in Hindi Language, Essay on Arsenic poison from drinking water in Hindi Language, symptoms of arsenic poisoning in Hindi Language, arsenic an abundant natural poison in Hindi Language, arsenic poisoning symptoms humans in Hindi Language, diagnose arsenic poisoning symptoms in Hindi Language, symptoms chronic arsenic poisoning in Hindi, arsenic poisoning treatment in India in Hindi, causes arsenic poisoning in Hindi, history arsenic poisoning in Hindi.
Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading