आर्थिक विकास में पर्यावरण का योगदान

30 Jan 2015
0 mins read
'एक वैश्विक मत सर्वेक्षण दर्शाता है कि भारत तथा वास्तव में सभी देश टिकाऊ विकास एवं इसके तीन आयामों- सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरण के प्रति भी उतने ही प्रतिबद्ध हैं। फिर भी, आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए संसाधन की अपेक्षित मात्रा प्राप्त करने के सन्दर्भ में चुनौतियाँ भी विकट हैं। जनता के बीच वाद-विवाद में जलवायु विज्ञान को महत्वपूर्ण स्थान देना सही है। जहाँ जलवायु विज्ञान अनिश्चितताओं का सामना कर रहा है, वहीं विश्व और अधिक संख्या में परम संकट से जूझ रहा है। अब कुछ करने की भावना को इस तरह से महसूस किया जा रहा है जैसा आज तक नहीं किया गया था।’’
—आर्थिक समीक्षा 2012-13 के बारहवें अध्याय का एक महत्वपूर्ण अंश

प्रधानमन्त्री का वादा और आर्थिक समीक्षा के दस्तावेज बताते हैं कि अब वह वक्त आ गया है जब देश के आर्थिक विकास में पर्यावरण की भूमिका न केवल स्पष्ट रूप से तय की जाए बल्कि उसी के लिहाज से कार्यक्रम भी बनाए जाएँ। पर्यावरण की रक्षा पर जोर देते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि आर्थिक विकास तभी टिकाऊ होगा जब यह इस तरह से किया जाए जिससे पर्यावरण की रक्षा हो।आम बजट से ठीक पहले भारत सरकार के फ्लैगशिप दस्तावेज में पिछले बारह महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में घटनाक्रमों की समीक्षा करते हुए पर्यावरण को लेकर उपरोक्त सारतत्व सामने आए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के प्रधानमन्त्री की ये चिन्ताएँ हमें बताती हैं कि अब हमें ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को पर्यावरण के प्रति ज्यादा संवेदनशील होना ही पड़ेगा, वरना हम सबके अस्तित्व पर संकटों का गहराते जाना निश्चित ही है। बजट के करीब एक महीने बाद प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने पर्यावरण-अनुकूल विकास मॉडल पर जोर देते हुए कहा कि विकास तभी टिकाऊ रह सकता है जब वह प्राकृतिक सन्तुलन की रक्षा करता हो।

इंटरनेशनल वर्कशॉप ऑन ग्रीन नेशनल एकाउण्टिंग फॉर इण्डिया को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि टिकाऊ विकास को बारहवीं योजना अवधि (2012-17) में शीर्ष वरीयता मिलेगी। प्रधानमन्त्री का वादा और आर्थिक समीक्षा के दस्तावेज बताते हैं कि अब वह वक्त आ गया है जब देश के आर्थिक विकास में पर्यावरण की भूमिका न केवल स्पष्ट रूप से तय की जाए बल्कि उसी के लिहाज से कार्यक्रम भी बनाए जाएँ। पर्यावरण की रक्षा पर जोर देते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि आर्थिक विकास तभी टिकाऊ होगा जब यह इस तरह से किया जाए जिससे पर्यावरण की रक्षा हो। बड़ा सवाल यह है कि क्या विकास की दौड़ हमारा पर्यावरण पीछे छूटता जा रहा है और अब उसकी कीमत चुकाने का वक्त भी आ ही गया है।

जिस जल, जंगल और जमीन के जरिये पर्यावरण की चिन्ता की जा रही है उसमें जंगल के आँकड़े काफी हद तक जमीनी हकीकत को चिन्तनीय बनाते हैं। इक्कीसवीं सदी में हम दुनिया से लोहा ले रहे हैं लेकिन हमारे पर्यावरण की अहम कड़ी यानी जीवनदायी जंगलों का ह्रास होता जा रहा है। भारत 6,92,027 वर्ग कि.मी. के जंगलों से घिरा है जो कुल क्षेत्रफल का 21.05 फीसदी है। वहीं 77.67 फीसदी जमीनें खाली हैं जिस पर या तो कंक्रीट के जंगल विकसित हुए हैं या उससे जुड़ी चीजें बनती जा रही हैं।

अब इन आँकड़ों की तुलना निकट अतीत में जाकर करते हैं। पिछले दो सालों में 367 वर्ग कि.मी. जंगल कम हुए हैं। ये आँकड़े तब और भी भयावह हो जाते हैं जब यह पता चलता है कि हमारे देश के बारह राज्यों में 867 वर्ग कि.मी. इलाके के जंगल खत्म हो गए हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के अद्यतन आँकड़े बताते हैं कि पन्द्रह राज्यों में 500 वर्ग कि.मी. नये जंगल तैयार हुए हैं जिस वजह से यह आँकड़ा 367 वर्ग कि.मी. नुकसान का ही बनता है।

2009 की तुलना में आन्ध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा 281 वर्ग कि.मी. में फैले जंगलों का नाश हुआ। फिर मणिपुर में 190 वर्ग कि.मी., नगालैण्ड में 146 वर्ग कि.मी., अरुणाचल प्रदेश में 74 वर्ग कि.मी., मिजोरम में 66 वर्ग कि.मी. और मेघालय में 46 वर्ग कि.मी. जंगल खत्म किए गए। हालाँकि बिहार, गोवा, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक और अण्डमान-निकोबार में जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ा है। मध्य प्रदेश, दिल्ली और सिक्किम में जंगलों की स्थिति पिछले वर्ष जितनी ही है।

6,640 वर्ग कि.मी. का हिस्सा अत्यन्त सघन वन क्षेत्र है जबकि 34,986 वर्ग कि.मी. सामान्य सघन वन क्षेत्र हैं। पूरे देश में सात प्रतिशत ही अत्यन्त सघन वन हैं जबकि 36 प्रतिशत जमीन पर सघन वन और 39 प्रतिशत जमीन पर खुले वन हैं। अगर वर्ष 2007 से 2009 के बीच के दो सालों में हालात बिगड़े तो उससे पहले स्थिति इतनी बुरी भी नहीं थी। 1993 से 2005 के बीच देश में जंगल बढ़े ही थे। 5 करोड़ वर्ग कि.मी. में बारह सालों में वन क्षेत्र बढ़े थे। ये दौर ऐसा था जब जनसंख्या में इक्कीस फीसदी का इजाफा हुआ था। साफ है कि जंगलों को लेकर अभी हो रही चिन्ता बिल्कुल गैर-वाजिब नहीं है।

आँकड़े बताते हैं कि कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का बीस फीसदी सिर्फ वनों के विनाश की वजह से हो रहा है। अगर जंगलों को बचाने के समुचित प्रयास किए जाएँ तो ये बिना पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुँचाए लगातार समुदायों और पारिस्थितिकी तन्त्र की मदद करते रहेंगे। वन ही हमारी जीविका, समाज व संस्कृति और जलवायु का आसरा हैं। इसके अलावा ये वन्य जीवों और पारिस्थितिकी तन्त्र के आवास भी हैं। इस सूरत में वनों का ख्याल रखना उतना ही जरूरी हो जाता है जितना पानी को लेकर चिन्ता करना। आँकड़े बताते हैं कि कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का बीस फीसदी सिर्फ वनों के विनाश की वजह से हो रहा है। अगर जंगलों को बचाने के समुचित प्रयास किए जाएँ तो ये बिना पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुँचाए लगातार समुदायों और पारिस्थितिकी तन्त्र की मदद करते रहेंगे। पूरे विश्व में इसे लेकर तमाम कोशिशें होती रही हैं। ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो में पिछले साल आयोजित सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा के लिए विश्व समुदाय सिर्फ चिन्ता ही जता सका। पिछले साल हुए सम्मेलन से भी ढेरों उम्मीदें थीं जिसमें दुनिया के 193 देशों के अलावा लगभग पचास हजार से अधिक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हुए। सम्मेलन में दो थीम निर्धारित किए गए। हरित अर्थव्यवस्था का निर्माण और गरीबी दूर करने के उपाय और निर्वहनीय विकास के लिए अन्तरराष्ट्रीय भागीदारी में सुधार पर चर्चा हुई।

दरअसल, जिस ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था की हर अन्तरराष्ट्रीय मंच से बात हो रही है उसी के जरिये पर्यावरण विकास का हिस्सा बन सकेगा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक ग्रीन इकोनॉमी वह है जिसमें लोगों की अच्छी सेहत के साथ-साथ सामाजिक समानता हो और वह पर्यावरण के खतरे को कम करने के साथ ही उसकी कमियों को भी दूर करती हो। यूएनईपी के मुताबिक ग्रीन इकोनॉमी में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों का इस तरह का निवेश होता हैं जो कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण को कम करत हैं, ऊर्जा के स्रोतों की क्षमता को बढ़ाने के साथ उसमें आय और रोजगार का विकास भी होता है। इन सारी बातों के बीच सबसे बड़ा भ्रम यह है कि या तो हम जैव-विविधता की बात कर सकते हैं या फिर गरीबी के समाधान की। जबकि यह उतना ही सच है कि जो सबसे ज्यादा गरीब लोग हैं वे सबसे ज्यादा पर्यावरण पर निर्भर हैं। जंगल के कटने का असर जितना एक आदिवासी या एक गरीब पर होगा, उतना किसी और पर नहीं। इसीलिए जैव-विविधता का जितनी तेजी से नुकसान होगा, वह गरीबों के हितों को उतना ही दुष्प्रभावित करेगी। पारिस्थितिक तन्त्र से जुड़ी सेवाएँ गरीब आदमी की जीडीपी बढ़ाने में सहयोग करती हैं। इसलिए जैव-विविधता और गरीबी के बीच सीधा सम्बन्ध है। जैव-विविधता का बढ़ता नुकसान न सिर्फ गरीबी बढ़ाएगा बल्कि विकास में भी बाधा पैदा करेगा।

बीस करोड़ से ज्यादा लोग आज भी अपनी जीविका के लिए जंगलों पर आश्रित हैं और इसलिए लगातार जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। नतीजा ये है कि आज भी भारत के अधिकांश भागों में ईन्धन के रूप में लकड़ी, चारकोल और केरोसीन जैसी प्रदूषणकारी चीजों का उपयोग ज्यादा मात्रा में होता है। देश की अधिकांश आबादी जंगलों की लकड़ी पर निर्भर हैं। यह भी जंगलों के समाप्त होने का एक प्रमुख कारण है। विकसित देशों द्वारा दी गई नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर भारत जैसे दूसरे विकासशील देश भी स्वच्छ ईन्धन का प्रयोग कर सकते हैं। जैव-विविधता का नुकसान उन गरीब लोगों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ेगा जो इस पर निर्भर हैं। वे या तो किसी दूसरे शहर में जाएँगे या फिर किसी सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर आश्रित रहने पर मजबूर हो जाएँगे।

इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण प्रशान्त महासागर के ऐसे देश हैं जिनके अस्तित्व पर खतरा मण्डराना शुरू हो चुका है। पिछली सदी में समुद्र का जल-स्तर करीब 20 से.मी. बढा़ है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण जानकारों के पैनल ने पिछले साल अनुमान लगाया था कि अगर ग्रीनलैण्ड और अण्टार्कटिका में बर्फ पिघली तो इस सदी में समुद्र 18-59 मीटर बढ़ेगा। प्रशान्त महासागर में मौजूद दुनिया का चौथा सबसे छोटा देश है तुवालू। इस देश की अस्सी फीसदी से ज्यादा जमीन समुद्र से एक मीटर से भी कम ऊँचाई पर है, महज 26 वर्ग कि.मी. में फैला और सिर्फ बारह हजार नागरिकों वाला यह दुनिया का ऐसा पहला देश है जो बदलते वातावरण के खतरों से सीधे-सीधे जूझ रहा है।

पिछले साल जारी हुई रिपोर्ट बताती है कि समुद्र के लगातार बढ़ते पानी ने यहाँ जमीन के नीचे मौजूद पीने योग्य पानी को खारा बना दिया है। खारे पानी की वजह से सबसे बड़ा खतरा फसलों को है। यह ऐसा इलाका है जहाँ समुद्र का पानी हर साल एक मि.मी. की दर से बढ़ रहा है। यह दर हमें भले ही मामूली लगे, लेकिन तुवालू और उसके आसपास मौजूद अन्य छोटे द्वीपीय देशों के लिए तो यह जीने-मरने का सवाल बन चुका है। जलवायु परिवर्तन का कितना बड़ा खतरा हमारे सिर पर मण्डरा रहा है और हम आँखें बन्द किए बैठे हैं। जाहिर है कि हमारी दुनिया का आर्थिक विकास हमारे पर्यावरण के बिना बेमानी ही है। तुवालू से आगे बढ़ें तो हमारे पड़ोसी मालदीव और सेशेल्स जैसे देशों पर भी यही खतरा मण्डरा रहा है। हालात बदतर तब हो उठेंगे जब यह खतरा हमारे अपने दरवाजे पर दस्तक देने लगेगा और लक्षद्वीप तक पहुँच जाएगा।

एक अनुमान के मुताबिक 2016 तक आबादी सवा अरब को पार कर जाएगी और 2050 तक हम दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले राष्ट्र बन जाएँगे और जमीन का ये हाल है कि दुनिया के 2.4 फीसदी क्षेत्रफल पर विश्व की जनसंख्या का 18 फीसदी हमारे यहाँ निवास करती है। आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण को समायोजित न कर पाने के कितने खतरनाक नतीजे हो सकते हैं इसकी एक बानगी महाराष्ट्र का सूखा भी है। 1970 के बाद महाराष्ट्र में अब तक का सबसे बड़ा सूखा पड़ा है। फसलें चौपट हो चुकी हैं, लोग पानी की बून्द-बून्द के लिए तरस रहे हैं। किसान दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी की तलाश में शहरों का रूख कर रहे हैं। आखिर ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? महाराष्ट्र में एक बहुत बड़े हिस्से में गन्ने की फसल बोई गई थी। जबकि यह फसल वहाँ के पर्यावरण के अनुकूल भी नहीं था, लेकिन महाराष्ट्र में काफी तादाद में चीनी की मिलें हैं। ये मिलें तभी चल पातीं जब गन्ना मिल तक पहुँचता। ये मिलें चलती रहें, इसलिए बड़े पैमाने पर गन्ने की फसल का उत्पादन किया गया। गन्ना भले ही हमारे आर्थिक विकास में महती भूमिका निभाता हो लेकिन गन्ने की फसल बहुत ज्यादा पानी माँगती है। एक तो जमीन में पानी कम, ऊपर से गन्ने की फसल पैदा करके हालात और बदतर करने का फैसला ले लिया गया। आर्थिक विकास का देश सबसे ज्यादा गरीब किसानों को ही भुगतना पड़ा जो देश का अन्नदाता है। इसके अतिरिक्त उन जानवरों ने भी भुगता जो फसल जोतकर सामान्य जीवन का हिस्सा बनते हैं। इस सूखे ने चिड़िया से लेकर इंसान तक और जानवर से लेकर जंगल को नुकसान पहुँचाया है।

हमारी सारी कोशिशें विफल रही हैं। चालीस साल पहले शुरू की गई कोशिशें किसी ठोस अंजाम तक नहीं पहुँच सकी हैं। साल 1972 के बाद से हर बीस साल बाद वर्ष 1972, 1992, 2012 तक तीन सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। रियो प्लस 20 के नाम पर हर बीस साल बाद ये लेखा-जोखा लिया जाता है कि हमने पिछले बीस सालों में क्या हासिल किया। 1992 में पर्यावरण और विकास पर सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का गठन हुआ था। साथ ही जैव-विविधता को नुकसान न पहुँचे इसके लिए व्यापक अन्तरराष्ट्रीय सहमति बनी लेकिन कागजों से आगे बढ़कर नतीजा सिफर रहा।

तालिका-1

राज्य

जंगल का क्षेत्र वर्ग मिलियन (किलोमीटर में)

गरीबी दर

1991-2001 में बढ़ती जनसंख्या का प्रतिशत

1993

2005

2005 में परिवर्तन

1993-94

2004-05

2000-05 में परिवर्तन

1991-2001

आन्ध्र प्रदेश

47.26

45.23

-2.03

22.19

15.77

-6.42

14.59

बिहार

26.59

29.52

2.93

54.96

42.69

-12.36

28.62

गुजरात

12.04

14.60

2.56

24.21

14.07

-10.14

22.66

हरियाणा

0.51

1.60

1.09

25.05

8.74

-16.31

28.43

हिमाचल प्रदेश

12.5

14.66

2.16

28.44

7.63

-20.81

17.54

कर्नाटक

32.34

36.20

3.86

33.16

20.04

-13.12

17.51

केरल

10.34

17.28

6.94

25.43

12.72

-12.71

9.43

मध्य प्रदेश

135.4

133.65

-1.75

42.52

37.43

-05.09

24.26

महाराष्ट्र

43.86

50.66

6.80

36.86

25.02

-12.84

22.73

ओडिशा

47.15

48.75

1.60

48.56

47.15

-1.41

16.25

पंजाब

1.34

1.66

0.32

11.77

06.16

-5.61

20.1

राजस्थान

13.1

16.01

2.91

27.41

15.28

-12.13

28.41

तमिलनाडु

17.73

23.31

5.58

35.03

21.12

-13.91

11.42

उत्तर प्रदेश

33.96

38.83

4.87

40.85

31.15

-9.7

25.85

पश्चिम बंगाल

8.35

12.97

4.62

35.66

27.02

-8.64

17.77

भारत

640.11

690.17

50.06

35.97

27.05

-8.47

21.54

स्रोत : योजना आयोग और राष्ट्रीय सैम्पल सर्वेक्षण डाटा 61वें राउण्ड, जनगणना 2001 और राष्ट्रीय वन सर्वेक्षण से परिकलित

नोट : *झारखण्ड, **छत्तीसगढ़, #उत्तराखण्ड को जोड़कर


पचास पृष्ठों का ‘द फ्यूचर वी वाण्ट’ यानी ‘जो भविष्य हम चाहते हैं’ शीर्षक से एक मसौदा तैयार हुआ लेकिन पर्यावरण पर वैश्विक सहमति कायम किए जाने का प्रयास फिर विफल रहे। इस सम्मेलन का सबसे बड़ा मुद्दा हरित अर्थव्यवस्था को अपनाने का था लेकिन यह प्रयास कई देशों के विरोध की वजह से लागू नहीं हो पाया है। दरअसल, इसके मूल में विकासशील और विकसित देशों के बीच की लड़ाई है जो इसे मूर्त रूप धारण नहीं करने देती। आर्थिक विकास के बीच जब हरित विकास की अवधारणा को अपनाने के लिए जोर दिया गया तो यूरोपीय देशों के प्रतिनिधियों ने इसकी खामियाँ निकाल दीं।

हरित अर्थव्यवस्था की राह पर लाना कई देशों को मुश्किल लगने लगा और उन्होंने इसे सम्प्रभुता का प्रश्न बना लिया। नतीजा यह हुआ कि बैठक विकसित और विकासशील देशों के बीच बने दो खेमों के एजेण्डे के बीच रह गया। विकसित देश जाहिर है कि बड़े पैमाने पर पर्यावरण का दोहन कर चुके हैं और विकासशील देशों को विकसित देश की राह में आने के लिए पर्यावरण के सहारे की जरूरत है, ऐसी हालत में विवाद इस मुद्दे को लेकर है कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किसे पहल करने की जरूरत है?

आँकड़े बताते हैं कि सीओटू यानी प्रमुख ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन करने में भारत और अमेरिका में कितना फर्क है। आय, विकास और प्रति व्यक्ति जीएचजी के उत्सर्जन में विकासशील देश और विकसित देशों के बीच फर्क साफ दिख रहा है। अमेरिका में 2005 के मुकाबले 2009 में सीओटू प्रति व्यक्ति का उत्सर्जन घटा है जबकि ऑस्ट्रेलिया में बढ़ा है। 2005 में प्रति व्यक्ति अमेरिका में 19.7 मीट्रिक टन सीओटू का उत्सर्जन था जिसके बाद ऑस्ट्रेलिया में 18.0 मीट्रिक टन सीओटू का उत्सर्जन होता था। 2005 में प्रति व्यक्ति सीओटू का उत्सर्जन ब्राजील (1.9), इण्डोनेशिया (1.5) और भारत (1.2) ने सबसे कम किया था और चार साल बाद भी वो निचले तीन पायदानों पर बने रहे। हालाँकि चिन्ता की बात यह रही कि भारत भी उन देशों में शामिल रहा जहाँ प्रति व्यक्ति सीओटू गैस का उत्सर्जन बढ़ा है।

वैश्विक औसत तापमान में पहले ही 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। ये व्यापक रूप से स्वीकारा गया है कि हम तेजी से 2 डिग्री सेल्सियस की ओर बढ़ रहे हैं जिसके भीतर वैश्विक समुदाय खुद को सीमित करने का प्रयास कर रहा है। तापमान का बढ़ना सीधे तौर पर ग्लेशियरों के गलने की ओर इशारा करता है और वातावरण में जो तब्दीली बीते दशक में हमें भी दिखाई देती है उसके पीछे इस वृद्धि को नकारा नहीं जा सकता।

पर्यावरण की फिक्र किसी देश, उपमहाद्वीप की नहीं है बल्कि इस वैश्विक समस्या का समाधान वैश्विक समुदाय ही कर सकता है। पिछले साल जून महीने में हुई रियो-डी-जनेरियो की बैठक में एडीबी, विश्व बैंक और छह अन्य बहुपक्षीय विकासशील बैंकों ने पर्यावरण अनुकूल विकास पर बैठक के बाद फैसला किया कि आने वाले दशक में वे पर्यावरण अनुकूल परिवहन प्रणाली के लिए 175 अरब डॉलर का निवेश करेंगे लेकिन एक साल नजर नहीं आ रहें। तब यह तय हुआ था कि इस निवेश के साथ हजारों जीवन की रक्षा होगी क्योंकि इससे वायु स्वच्छ होगी, सड़क सुरक्षित होगी, सैंकड़ों शहरों में भीड़भाड़ घटेगी और नुकसानदेह जलवायु प्रदूषण में परिवहन का योगदान घटेगा। अधिक सक्षम यात्री और ढुलाई परिवहन के विकास के साथ पर्यावरण अनुकूल शहरी आर्थिक विकास का सपना देखा गया था।

विकसित देशों के बजाय विकासशील देशों में परिवहन प्रणाली, ईन्धन जैसी मूलभूत जरूरतों पर जो निर्भरता है वो ही पर्यावरण की भूमिका को विकसित देशों और विकासशील देशों की बीच फर्क स्थापित कर देता है। शुरू में विकास और पर्यावरण को दो अलग-अलग अवधारणाओं के रूप में देखा जाता था लेकिन बाद में महसूस किया गया कि ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और दुनिया को बचाए रखने के लिए इन दोनों पहलुओं पर बराबर ध्यान देने की जरूरत है। जिस बात पर प्रधानमन्त्री जोर दे रहे हैं उसके मुताबिक पर्यावरण की सुरक्षा के बगैर हो रहे विकास के दूरगामी महत्व नहीं हैं। पर्यावरण और विकास पर वैश्विक आयोग की रिपोर्ट में स्थायी विकास की परिभाषित संकल्पना ‘आवर कॉमन फ्यूचर-1987’ में स्पष्ट रूप से विकास के लक्ष्यों को पर्यावरणीय सुरक्षा से जोड़ने पर जोर दिया गया है। पर्यावरण की सुरक्षा के साथ विकास के लिए ग्रीन ग्रोथ की संकल्पना को मूर्त रूप देना होगा।

आर्थिक विकास के दौरान सरकार की चिन्ता बढ़ जाना निराधार नहीं है। एक तरफ आबादी अपनी रफ्तार से बढ़ती जा रही है। इस आबादी और विकास का दबाव सीधे-सीधे पर्यावरण के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। विकास के लिए शहर बसाए जा रहे हैं, उद्योग बढ़ रहे हैं और खेती के लिए भी जंगल काटे जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2016 तक आबादी सवा अरब को पार कर जाएगी और 2050 तक हम दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले राष्ट्र बन जाएँगे और जमीन का ये हाल है कि दुनिया के 2.4 फीसदी क्षेत्रफल पर विश्व की जनसंख्या का 18 फीसदी हमारे यहाँ निवास करती है। जाहिर है कि प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव तेजी से बढ़ा है।

आर्थिक विकास में पर्यावरण के योगदान को देखते हुए यह भी रेखांकित करने योग्य है कि मौजूदा राष्ट्रीय लेखा-परीक्षण प्रणाली में पर्यावरण सम्पदा के उपयोग की कीमत को पूरी तरह शामिल नहीं किया जा सकता। एक खास नजरिये से तो जीडीपी देश की प्रगति को मापने का सही तरीका भी नहीं है क्योंकि ऐसे नीरस आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण के नुकसान की कीमत चुकानी पड़ सकती है।

(लेखक टी.वी. पत्रकार हैं)
ई-मेल : abhineet.pradhan@gmail.com


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading