अरवरी नदी पुनर्जन्म-ग्रामीण समाज का अभिनव प्रयोग (Arvari River Reincarnation - Innovation of Rural Society)

अरवरी नदी
अरवरी नदी


अरवरी नदी, राजस्थान के अलवर जिले की एक छोटी की गुमनाम नदी है। यह कहानी, इसी गुमनाम बारहमासी नदी के सूखने और उसे जिलाने में 70 गाँवों के लोगों की भूमिका की कहानी है। कहानी से जुड़ा घटनाक्रम और नदी के सूखने और फिर उसके जिन्दा होने तथा संसद बनने की कहानी निम्नानुसार है:-

1. अठारहवीं सदी में अरवरी नदी प्रतापगढ़ नाले के रूप में पहचानी जाती थी। उस समय यह बारहमासी थी, इसके कैचमेंट में घने जंगल थे। लोग पशुपालन करते थे और पानी की मांग बहुत कम थी।

2. समय बदला, परिवार बढ़े और बढ़ती खेती ने पानी की खपत को बढ़ाया। बढ़ती खपत ने जमीन के नीचे के पानी को लक्ष्मण रेखा पार करने के लिये मजबूर किया।

3. अरवरी नदी के सूखने की कहानी झिरी गाँव से शुरू हुई। इस गाँव में सन 1960 के आस-पास संगमरमर की खुदाई का काम शुरू हुआ। खुदाई जारी रखने के लिये खदानों में जमा भूमिगत जल को लगातार निकाला गया। इस प्रक्रिया ने पानी की कमी को आगे बढ़ाया। अरवरी नदी सन 1960 के बाद के सालों में सूख गई। झिरी गाँव में पानी का संकट गहराया और धीरे-धीरे जल संकट आस-पास के अनेक गाँवों में फैल गया।

4. जल संकट के कारण, प्यासे पशुओं को आवारा छोड़ने की परिस्थितियाँ बनने लगीं और नौजवान लोग रोजी रोटी के लिये लोग जयपुर, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली की ओर पलयन करने लगे।

5. इसी दौरान स्वयं सेवी संस्था (तरुण भारत संघ) ने इस इलाके को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने उनसे पानी का काम करने को कहा। जोहड़ बनाने का काम शुरू हुआ और फिर एक के बाद एक जोहड़ बने। ये सब जोहड़ छोटे-छोटे थे और पहाड़ियों के नीचे की जमीन बनाये गये थे। पहली ही बरसात में उनमें पानी जमा हुआ, यद्यपि अरवरी नदी सूखी रही पर कुओं में पानी लौटने लगा और लौटते पानी ने लोगों की आस भी लौटाई। सफलता ने लोगों को रास्ता दिखाया और उन्हें एक जुट किया।

6. सन 1990 में अरवरी नदी में पहली बार, अक्टूबर माह तक पानी बहता दिखा। जिससे लोगों का भरोसा मजबूत हुआ। काम और आगे बढ़ा तथा सन 1995 के आते-आते पूरी अरवरी नदी जिन्दा हो गई। तब से अब तक, वह नदी बारहमासी है।

सन 1995 में अरवरी नदी तो जी गई, पर आगे भी सदानीरा कैसे बनी रहे? कैसे सही इन्तजाम किये जावें ताकि नदी फिर नहीं सूखे? पर खूब सोच विचार हुआ और फिर व्यवस्था बनाने की बात उठी। इन सभी मुद्दों पर देश के विद्वानों और पढ़े लिखे लोगों की राय जानने के लिये अरवरी नदी के किनारे बसे हमीरपुर गाँव में 19 दिसम्बर, 1998 को जन सुनवाई कराई। इस सुनवाई में मुद्दई, गवाह, वकील, जज, विचारक, नियंता सब मौजूद थे। इसी बैठक में व्यवस्था बनाने के लिये अरवरी नदी के किनारे बसे 70 गाँवों की जल संसद बनाने का फैसला हुआ।

26 जनवरी, 1999, मंगलवार को प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी नेता सिद्धराज ढड्ढा, जिन्होंने सन 1977 में लोकसभा की अध्यक्षता ठुकराई थी, की अध्यक्षता में हमीरपुर गाँव में संकल्प ग्रहण समारोह आयोजित हुआ और 70 गाँवों की अरवरी संसद अस्तित्व में आई। उपस्थित लोग अनुभव कर रहे थे कि अरवरी संसद, हकीकत में एक जिन्दा नदी की जीवन्त संसद है। इसलिये यदि नदी है तो संसद है, यदि नदी नहीं है, तो संसद भी नहीं है।

उन्होंने अपनी संसद के उद्देश्य, दायित्व और सांसद बनने के नियम कायदे तय किये। 1999 के गणतंत्र दिवस को अस्तित्व में आई अरवरी संसद ने तब से आज तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उसकी नियमित बैठकें होती हैं, फैसले होते हैं और उनका क्रियान्वयन होता है।

हमारे देश में पिछले कुछ सालों से नदी नालों का सूखना लगातार बढ़ रहा है इसलिये अनेक लोगों को लगता है कि नदी को जिन्दा करना और फिर उसे जिन्दा बनाये रखना बहुत ही कठिन काम है। ऐसे में यह समझना दिलचस्प होगा कि अरवरी नदी को जिन्दा करने में लोगों ने किस तरह के कामों को अंजाम दिया। पहले दिन से लोगों के अजेन्डे पर निम्न विषय हैं:-

1. लोगों ने नदी से सिंचाई करने के नियम बनाये। नियम बनाते समय स्थानीय परिस्थितियों एवं घाटी के भूजल-विज्ञान को समझा गया। इस आधार पर लगा कि नदी के चट्टानी क्षेत्र में स्थित होने के कारण, उसके एक्वीफर उथले तथा भूजल पुनर्भरण क्षेत्र छोटा है इसलिये थोड़ा सा पुनर्भरण होते ही उसका जल भंडार भर कर ऊपर बहने लगता है। इसका अर्थ है नदी जितनी जल्दी जिन्दा होती है उतनी ही जल्दी सूखती भी है। इसलिये तय हुआ कि होली तक सरसों और चने की खेती करने वाले किसानों को नदी से पानी उठाने की अनुमति होगी। पशुओं के पीने के पानी और नये पौधों की सिंचाई के लिये कोई बन्दिश नहीं होगी।

2. लोगों ने कुओं से सिंचाई के नियम बनाये। नियम बनाते समय स्थानीय एक्वीफर की स्थिति और उसकी क्षमता को अनुभव की रोशनी में समझा गया। चूँकि यह पूरा इलाका भूजल की छोटी-छोटी धाराओं पर टिका हुआ है इसलिये यहाँ ज्यादा गहरे कुएँ या नलकूप बनाना ठीक नहीं है। उन्होंने पानी की कम खपत वाली फसलों को पैदा करने और रासायनिक खाद और जहरीली दवाओं का कम से कम उपयोग करने का फैसला लिया। गन्ना, मिर्च और चावल की फसल नहीं लेने और नहीं लेने देन का इन्तजाम किया। पानी की बर्बादी रोकी और गर्मी की फसलें नहीं लीं। अधिक से अधिक पशु चारा उगाया और उसकी सिंचाई के लिये पानी का उपयोग सुनिश्चित कराया।

3. तय किया कि कोई भी व्यक्ति पानी की बिक्री नहीं करेगा। गहरी बोरिंग करने और उसके पानी को बाहर ले जाने पर रोक रहेगी। पानी की बिक्री करने वाले उद्योग नहीं लगने देंगे। गरीब आदमी को पानी की पूर्ति निःशुल्क की जावेगी। पानी की कीमत लेना दंडनीय अपराध होगा।

4. उन्होंने भूमि उपयोग बदलने वाले बाहरी व्यक्तियों को जमीन बेचने पर रोक लगाई और जमीन की बिक्री का रुझान रोकने के लिये भरसक प्रयास किये।

5. उन्होंने अधिक जल दोहन करने वालों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित किया और फैसला लिया कि वे अपने इलाके में पानी का अधिक उपयोग करने वाले कल-कारखाने नहीं लगने देंगे। पानी के अतिदोहन को शुरू होने के पहले रोकेंगे।

6. लोगों के निर्णय के अनुसार जो व्यक्ति धरती को पानी देगा, वही धरती के नीचे के पानी का उपयोग कर सकेगा। स्थानीय एक्वीफर की क्षमता और व्यक्ति की पानी की जरूरत में तालमतेल रखने वाले सिद्धान्त का पालन किया जायेगा। जो जल पुनर्भरण का काम करेगा उसे पुनर्भरण नहीं करने वाले की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक पानी लेने का अधिकार होगा। गाँव के लोग एक्वीफर की क्षमता का अनुमान लगाने का काम करेंगे और तदानुसार पुनर्भरण के काम को अंजाम देंगे।

7. नदी घाटी के जीव जन्तुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अरवरी नदी क्षेत्र को ‘‘शिकार वर्जित क्षेत्र’’ घोषित किया।

8. उन्होंने अपने क्षेत्र में बाजार मुक्त फसल उत्पादन के नियम तथा स्थानीय जरूरत पूरा करने वाली व्यवस्था लागू की। अपनी आवश्यकता की चीजें खुद पैदा की, खुद अपना बाजार विकसित किया और आपस में लेनदेन कर खुशहाल स्वावलम्बी व्यवस्था बनाई।

9. लोगों ने नदी क्षेत्र में हरियाली और पेड़ बचाने का फैसला किया। गाँवों की साझा जमीनों और पहाड़ों को हरा-भरा रखने के लिये बाहरी मवेशियों की चराई पर बन्दिश लगाई। उन्होंने हरे वृक्ष काटने पर पाबन्दी, दिवाली बाद पहाड़ों की घास की कटाई करने, गाँव-गाँव में गोचर विकास करने, नंगे पहाड़ों पर बीज छिड़काव करने, लकड़ी चोरों पर नियंत्रण करने, स्थानीय घराड़ी परम्परा को फिर से बहाल करने, क्षेत्र में ऊँट, बकरी और भेड़ों की संख्या कम करने तथा नई खदानों और प्रदूषणकारी उद्योगों को रोकने का फैसला लिया।

10. अरवरी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक संरक्षण की बहुत अच्छी एवं जीवन्त परम्परायें हैं। लोगों ने इन परम्पराओं के अनुसार प्रकृति संरक्षण परम्पराओं का पता लगाकर प्रकृति के हित में उन्हें पुनः जीवित करने का फैसला लिया।

11. लोगों ने जलस्रोतों के उचित प्रबन्ध एवं बर्बादी रोकने में ग्राम सभा की भूमिका तथा उसके उत्तरदायित्वों के निर्धारण कर पूरी जागरूकता और समझदारी से विकेन्द्रित, टिकाऊ और स्वावलम्बी व्यवस्था कायम कर उसे लागू किया।

प्रख्यात गांधीवादी नेता स्वर्गीय सिद्धराज ढड्ढा ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा था कि अरवरी नदी संसद की स्थापना और उसके कार्य का महत्व केवल अरवरी नदी के पानी के उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक जनतंत्र के इतिहास का एक अभिनव प्रयोग है। जनतंत्र की सफलता के लिये उसकी प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जनशक्ति जितनी मजबूत होगी, जनतंत्र उतना मजबूत होगा। आज की संसद के निर्णयों तथा उसके बनाये हुये कानूनों की पालना का अन्तिम आधार (Sanction) पुलिस, फौज, अदालतें और जेल हैं। ‘‘अरवरी संसद’’ के पास अपने निर्णयों की पालना के लिये ऐसे कोई आधार नहीं हैं... न होना चाहिये। जन-संसदों का एकमात्र आधार लोगों की एकता, अपने वचन पालन की प्रतिबद्धता एवं परस्पर विश्वास है। यही जनतंत्र की वास्तविक शक्तियाँ हैं। अतः अरवरी संसद का प्रयोग केवल अरवरी क्षेत्र के लिये ही नहीं, जनतंत्र के भविष्य के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।

अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक पिछड़े इलाके में कम पढ़े लिखे संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। यह कहानी काफी हद तक समाज और पानी के योग क्षेम की जीवन्त कहानी भी है। यह कहानी प्रकृति के पुनर्वास, लाभप्रद खेती और आजीविका का बीमा और सरकारों तथा प्रबन्धकों के लिये लाईट-हाउस भी है। इस कहानी में तकनीकी और जनतांत्रिक संगठनों को सीखने के लिये बहुत कुछ है।

 

 

लेखक परिचय


के.जी. व्यास
73, चाणक्यपुरी, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल-462016

 

 

 

 

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