आसान नहीं एसवाईएल नहर विवाद का हल

सतलुज-यमुना लिंक नहर
सतलुज-यमुना लिंक नहर


बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार द्वारा बनाए गए सतलुज यमुना लिंक नहर समझौते को निरस्त करने वाले कानून को असंवैधानिक करार दे दिया। इससे सुप्रीम कोर्ट का सन 2002 और 2004 का आदेश प्रभावी हो गया है जिसमें कहा गया था कि केन्द्र सरकार नहर का कब्जा लेकर लिंक नहर का बकाया निर्माण पूरा कराए।

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस दवे की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय पीठ ने यह फैसला देश के राष्ट्रपति के सन्दर्भ पर दिया है। पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि पंजाब एसवाईएल के जल बँटवारे के बारे में हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली समेत अन्य राज्यों के साथ हुए समझौते को एकतरफा रद्द करने का फैसला नहीं कर सकता है।

देश की सर्वोच्च अदालत के इस फैसले से साफ हो गया है कि सतलुज के पानी पर हरियाणा समेत अन्य दूसरे राज्यों का भी हक है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जहाँ हरियाणा में खुशी की लहर है, वहीं पंजाब सरकार अपने पुराने रुख पर कायम है। उसके अनुसार सरकार की सर्वसम्मत राय है कि वह हरियाणा को एक बूँद पानी नहीं देगी, न ही एसवाईएल नहर का निर्माण ही करेगी और इसके लिये वह नया कानून बनाएगी। हम लोकतांत्रिक तरीके से अपने हक की हर लड़ाई लड़ेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पंजाब सरकार अन्तरराज्यीय जल बँटवारे को लेकर एक नया विधेयक लाने जा रही है जिसे वह आगामी 16 नवम्बर को बुलाए गए विधानसभा के विशेष अधिवेशन में पेश करेगी। इसके लिये उसने सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसवाईएल समझौते को रद्द करने के फैसले का अध्ययन करने के लिये कानूनविदों की एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है जो इस मुद्दे पर राज्य सरकार को परामर्श देगी। उसके बाद नया बिल विधानसभा के विशेष अधिवेशन में पेश किया जाएगा।

इस मुद्दे पर पंजाब के महाधिवक्ता अशोक अग्रवाल की मानें तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर महज अपनी राय भर दी है। यह राष्ट्रपति के ऊपर है कि वह इसे स्वीकार करते हैं या फिर अस्वीकार। कानूनविदों की राय मिलने के बाद ही इस पर हम कोई अगला कदम उठाएँगे।

दरअसल यह पूरा विवाद 214 किलोमीटर लम्बी नहर को लेकर है। गौरतलब है कि 1981 में पंजाब और हरियाणा के बीच पानी लाने के लिये सतलुज-यमुना लिंक यानी एसवाईएल नहर बनाने का समझौता हुआ था। हरियाणा ने अपने हिस्से की 92 किलोमीटर लम्बी नहर निर्माण का कार्य सालों पहले पूरा कर लिया था लेकिन दुख की बात यह है कि पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किलोमीटर लम्बी नहर के निर्माण का काम अभी तक पूरा नहीं किया है।

सच तो यह है कि पंजाब की नहर निर्माण के काम में रुचि ही नहीं है। कारण वह हरियाणा को पानी देना ही नहीं चाहता। इसके पीछे उसकी दलील है कि यदि वह नहर के जरिए हरियाणा को पानी देता है तो राज्य में जल संकट गहराएगा। गौरतलब है कि 1 नवम्बर 1966 को पंजाब से अलग होकर हरियाणा एक नए राज्य के रूप में भारत के मानचित्र पर उभर कर सामने आया।

विडम्बना यह रही कि पानी के बँटवारे का मुद्दा अनसुलझा ही रहा। केन्द्र ने विवाद खत्म करने हेतु अधिसूचना जारी कर हरियाणा को 3.5 एमएएफ पानी आवंटित किया। इस पानी को लाने के लिये ही 214 किलोमीटर लम्बी सतलुज-यमुना नहर बनाने का फैसला हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी की मौजूदगी में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों ने इस समझौते पर दस्तखत किये थे।

1990 में पंजाब में नहर परियोजना पर हुई हिंसा के बाद पंजाब ने नहर निर्माण का काम रोक दिया। यहाँ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह नहर हरियाणा के लोगों के लिये जीवनरेखा के समान थी, वहीं पंजाब को अपने दिनोंदिन घट रहे जलस्तर की चिन्ता सता रही थी। 1996 में राजनीति के चलते हो रहे भारी विरोध के बीच यह मसला सुप्रीम कोर्ट में जा पहुँचा।

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 और 2004 में दो बार पंजाब को यह निर्देश दिया कि वह अपने हिस्से की नहर के निर्माण कार्य को पूरा करे। लेकिन 12 जुलाई 2004 को पंजाब विधानसभा ने एक बिल पास करके पंजाब के पानी को लेकर पुराने सभी समझौतों को रद्द कर दिया।

11 साल यह मसला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा और फिर हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने 20 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट से राष्ट्रपति के सन्दर्भ पर सुनवाई का अनुरोध किया। 20 फरवरी 2016 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पाँच सदस्यीय पीठ ने सभी पक्षों को बुलाकर पहली सुनवाई की। 12 मई 2016 को सुनवाई पूरी कर पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया और बीते 10 नवम्बर को पंजाब सरकार को नहर निर्माण कार्य पूरा करने का आदेश दिया। इस फैसले से ही दोनों राज्यों के बीच तनाव ने उग्र रूप धारण कर लिया है।

बहरहाल इस मुद्दे पर अब राजनीति तेज हो गई है। दोनों राज्यों के रिश्ते और तल्ख होते जा रहे हैं। पंजाब के रुख को देखते हुए जहाँ हरियाणा में धरने-प्रदर्शनों का दौर तेज हो गया है। रेलें रोकी जा रही हैं। हरियाणा से होकर पंजाब जाने वाली बसों को आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है। हिंसा की आशंका के मद्देनजर हरियाणा रोडवेज की बसों का संचालन रोक दिया गया है।

खाप पंचायतों ने खुला ऐलान कर दिया है कि यदि हरियाणा को पानी नहीं मिला तो पंजाब के लोगों को राज्य में आने नहीं देंगे। पंजाब की बसों की जो राज्य से होकर दिल्ली जाएँगी, उनकी एंट्री बन्द कर दी जाएगी। पानी के मामले पर पंजाब की ज्यादती इस बार बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उसने फैसले का विरोध कर सुप्रीम कोर्ट का ही अपमान किया है।

राज्य के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं। उनका मानना है कि इस फैसले से हर हरियाणवी के चेहरे पर मुस्कराहट आई है। क्योंकि अब सतलुज-व्यास के पानी में से उसे उसका हक मिलेगा। फैसले को लागू करने की अब दोनों राज्यों की जिम्मेदारी है। इस पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। असलियत यह है कि हरियाणा को अस्तित्व में आये 50 साल बीत चुके हैं।

इन 50 सालों के दौरान हरियाणा को कभी भी माँग के अनुरूप पानी नहीं मिला है। नतीजन राज्य अभी तक 35 हजार करोड़ का नुकसान झेल चुका है। राज्य कृषि विभाग द्वारा कुछ समय पहले विधानसभा में पेश रिपोर्ट में इस तथ्य का खुलासा हुआ है। इस नहर निर्माण को लेकर लड़ी गई लड़ाई में हरियाणा अब तक तकरीब 20 करोड़ से भी अधिक की राशि खर्च कर चुका है। सबसे बड़ी बात यह हुई है कि राज्य की सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस मुद्दे पर एकजुट हो गई हैं।

राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने इस मामले पर राज्य सरकार को पूरा साथ देेने का भरोसा दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का एसवाईएल पर आया फैसला बेहद सराहनीय है। मैं इससे बहुत खुश हूँ। इसका लम्बे समय से इन्तजार किया जा रहा था। पानी पर हरियाणा का पूरा अधिकार है।

हम राज्य सरकार के साथ कदम मिलाकर चलेंगे। मेरी दोनों राज्यों के लोगों से अपील है कि वह माहौल बेहतर बनाए रखें। कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं कि अब केन्द्र सरकार का काम है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्रियान्वित करवाए। केन्द्र को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक राष्ट्रधर्म की अनुपालना करनी चाहिए।

वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को लिखे पत्र में उनसे इस मसले पर अपना पक्ष रखने के लिये मिलने का समय माँगा है। उन्होंने राष्ट्रपति को भेजे पत्र में लिखा है कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हैं लेकिन पंजाब के लोग चाहते हैं कि यह संविधान की भावना के अनुरूप हो। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सांसद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने 42 विधायकों सहित लोकसभा और विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया है। उनका कहना है कि अब हम न तो लोकसभा और न विधानसभा के ही सदस्य हैं। हम जनता के बीच जाएँगे। उन्होंने आरोप लगाया कि पंजाब के हितों की रक्षा करने में बादल सरकार विफल रही है। मुख्यमंत्री ऐसा क्यों कर रहे हैं। वह कौन सा कारण है कि मुख्यमंत्री पंजाब के हितों की रक्षा नहीं कर रहे हैं। यह समझ नहीं आता।

अब यह स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। राष्ट्र्पति पंजाब सरकार को टर्मिनेशन एक्ट वापस लेने को कह सकते हैं जो पंजाब विधानसभा में 2004 में हरियाणा के खिलाफ पारित किया गया था। गौरतलब है कि इस एक्ट के तहत सभी जल समझौते रद्द कर दिये गए थे।

निष्कर्ष यह कि यह मसला इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है। वैसे तो सब कुछ अब राष्ट्रपति के ऊपर निर्भर है। देखना यह होगा कि राष्ट्रपति के आदेश के बाद पंजाब सरकार का क्या रुख रहता है। इतिहास इसका प्रमाण है कि देश में आज तक किसी भी जल विवाद का ऐसा समाधान नहीं निकल सका है जो सभी पक्षों को मान्य हो।

 

 

 

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