माजुली नदी द्वीप: असम में बाढ़ से तबाही के दौरान दिखा मानव और वन्यजीवों में स्नेह

17 Aug 2020
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माजुली नदी द्वीप
माजुली नदी द्वीप

असम में माजुली नदी द्वीप में ‘सल्मोरा’ कोई साधारण गाँव नहीं है। तीन तरफ से ब्रह्मपुत्र नदी से घिरे द्वीप के दक्षिण-पूर्वी कोने पर स्थित यह गाँव कई मायनों में उल्लेखनीय है। सल्मोरा असम के सबसे बड़े कुम्हार गांवों में से एक है। यहां की मिट्टी के बर्तनों की दो विशिष्ट विशेषताएं हैं - पहला, यह पूरी तरह से हस्तशिल्प है और कुम्हार की चाक का उपयोग किए बिना बनाए जाते हैं। दूसरा, सल्मोरा गांव की अर्थव्यवस्था काफी हद तक एक वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था (barter system) है।

कुम्हार पुरुष हर साल ब्रह्मपुत्र और इसकी सहायक नदियों को पार कर बाजारों, कस्बों और गांवों में अपने मिट्टी के बर्तन बेचने जाते हैं। चूंकि वहां वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था है, इसलिए मिट्टी के बर्तनों के बदले ज्यादातर खाद्यान्न (विशेष रूप से चावल) लिए जाते हैं, लेकिन कई जगह से वें कपड़े और नकदी भी लेते हैं। सल्मोरा के कम्हारों को नाव बनाने के अपने शिप्ल कौशल के लिए भी जाना जाता है, जिसके कई लोकगीत व लोककथा-कहानियां द्वीप पर प्रचलित हैं।

सल्मोरा गांव राजनीतिक परिदृश्य में भी काफी सक्रिय रहा है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान पूरे देश में जब ‘मोदी लहर’ चल रही थी, तब यहां के लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दरअसल, ये इलाका बाढ़ प्रभावित है और यहां नदी के कटाव से क्षेत्र पर संकट मंडराता रहता है, लेकिन इस समस्या से निजात दिलाने में सरकारें विफल रही हैं। इसके विरोध स्वरूप ही लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया था

जैसा कि सर्वविदित है कि वार्षिक बाढ़ और नदी के कटाव की एक निरंतर प्रक्रिया ब्रह्मपुत्र घाटी का हिस्सा रही है। इसने न केवल मानव जीवन और आजीविका को भारी नुकसान पहुंचाया है, बल्कि जंगली जानवरों के निवास स्थान को नुकसान पहुंचाया है। राजसी हाथी उन पीड़ित वन्यजीवों में से एक हैं।

हाथियों के स्थायी घर (प्राकृति आवास स्थल) को नुकसान पहुंचने के कारण हाथियों के झुंड कई वर्षों से ब्रह्मपुत्र घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों में घूम रहे हैं। सल्मोरा के कुछ निवासियों ने मुझे बताया कि वर्ष 2000 में यहां प्रलंयकारी बाढ़ आई थी। इसके बाद से ही हाथियों का झुंड हर बाढ़ के मौसम में गांव का दौरा कर रहा है। ऐसे में यहां मानव-हाथी संघर्ष भी हुआ है, जिसमें बीते वर्षों में 2 से 3 लोगों की मौत भी हुई है। हालांकि अधिकांश भागों में ऐसी कोई घटनाएं नहीं हुई हैं।

इस बार मानसून में हाथियों ने फिर से सल्मारो गांव का दौरा किया है, लेकिन इस बार उनका झुंड गांव के ही पास थोड़ी दूरी पर रह रहा है। लोगों ने हाथियों की इस पहली सैर का स्वागत उन्हें चारे के रूप में चावल और केले देकर किया। अब हाथियों का झुंड पास के ही एक चापोरी (एक नदी द्वीप या सैंडबार) में चला गया है और पिछले 2-3 हफ्ते से यहीं पर डेरा डाले हुए है। 

सल्मोरा के एक ग्रामीण ने बताया कि हर रात हाथी जोर से रोते हैं। यह दिल दहला देने वाला होता है। हाथी के छोटे बच्चों को मिलाकर झुंड में 60 से 70 हाथी हैं, लेकिन हम जानते हैं कि चापोरी गांव में हाथियों के इतने बड़े झुंड को हफ्तों तक बनाए रखने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। ऐसे में हमें एहसास हुआ है कि वे भोजन के लिए रो रहे हैं, खासकर अपने बच्चों के लिए। इसलिए, हमने उन्हें कुछ खाने की आपूर्ति करके उनकी देखभाल करने का फैसला किया है। 

उल्लेखनीय है कि माजुली में ‘सल्मोरा’ बाढ़ और नदी किनारे के कटाव से सबसे ज्यादा प्रभावित गांवों में से एक है। ये इलाका इतना ज्यादा प्रभावित है कि गांव का हर घर कई बार स्थानांतरित हुआ है, अब तक कई लोग पलायन कर चुके हैं। बड़ी संख्या में गांव के लोगों के घर जलमग्न हो गए हैं और वें तटबंध पर बने टैंट में रह रहे हैं। फिर भी, गांव में हाथियों के झुंड को भोजन उपलब्ध कराने का निर्णय सर्वसम्मत था। 

इसलिए युवा गांव के चारों ओर गए और केले (फल और पौधे दोनों), धान, बांस की टहनी, कटहल आदि लाए। फिर ये सब हाथियों को भोजन के रूप में देने के लिए चापोरी जाने की योजना बनाई। नमक हाथियों को काफी पसंद है और उनके आहार का एक महत्वपूर्ण घटक है। नमक खरीदने के लिए गांव वालों ने गांव के अंदर ही आपस में फंड एकत्रित किया। भोजन को चापोरी ले जाने के लिए नौका किराए पर ली और अगली सुबह उन्होंने चापोरी में 15 मिनट की नौका की सवारी कर हाथियों को भोजन दिया।

बाढ़ और नदी के कटाव से सबसे ज्यादा प्रभावित गांवों में से एक में लोग हाथियों के लिए भोजन उपलब्ध कराते हुए। फोटो - Mitul Baruah

भोजन देने का यही काम लोगों ने दूसरे दिन भी दोहराया। जंगली हाथियों के पास जाकर भोजन देना खतरनाक होता है, लेकिन जैसे ही नौका नदी किनारे पहुंची तो हाथियों ने भी दूरी बना ली। इससे लोगों ने सुरक्षित महसूस किया और कुछ सूखे स्थानों पर खाद्य पदार्थों को रख दिया। नौका के रवाना होते ही झुंड भोजन के पास आया और भोजन को सहर्ष स्वीकार किया। ये सब घाट पर मौजूद लोगों ने दूर से ही देखा। सल्मोरा समुदाय के इस कार्य से अन्य लोग भी प्रेरित हुए और दखिनपट कुम्हार गांव और दखिनपट काइवर्त गांव ने भी हाथियों को भोजन दिया। हालांकि ये दोनों गांव भी बाढ़ और कटाव से नष्ट हो गए थे। 

सल्मोरा में नदी किनारे बसे लोगों में हाथियों के झुंड के प्रति ये भाव क्या इशारा करता है ? हो सकता है कि ये भूख के कारण हथिनी के रात भर रोने के कारण हो, जैसा कि मुझे सल्मोरा के लोगों ने बताया था। ऐसे में मैं तर्क दूंगी कि हाथियों के लिए इस तरह की असाधारण सहानुभूति के पीछे सल्मोरा समुदाय का बार-बार विस्थापन और स्थानांतरण का अपना अनुभव है। शायद सल्मोरा के सभी लोग बेघर होने, पलायन और अज्ञात भौगोलिक क्षेत्र में अपने नातेदारों से अलग होने का दर्द अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए, यही भाव उनका हथियों के लिए भी है और वे ऐसे में समय में उनके दर्द को समझते हैं। 

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है और ये भी ध्यान में रखना जरूरी है कि सल्मोरा के कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तनों को बचने के लिए साल में कई महीनें नावों पर ही बिताते हैं। उन यात्राओं के बारे में सल्मोरा में एक कुम्हार पुरुष के साथ बातचीत सहासिक कथाओं से भरी हुई है, जिसमे जंगली जानवरों के साथ करीबी मुठभेड़ भी शामिल है। 

क्या ऐसा हो सकता है कि इन अनुभवों के माध्यम से सल्मोरा के कुम्हारों ने समय के साथ नदी के प्रति एक विशेष बंधन और संवेदलनशीलता विकसित की है और सभी उसमे रहते हैं, जिसमें हाथियों के झुंड़ जैसे गैर-मानव प्राणियों (वन्यजीवों) के साथ सह-अस्तित्व सीखना भी शामिल है ? क्या हम इसे एक तरह का ‘‘रिवरेन इंटरस्पेसिस काॅसमोलाॅजी’ कह सकते हैं या यह हो सकता है कि प्यार और समानुभूमि के इस छोटे से इशारे से माजुली में आपदाग्रस्त इलाके के लोग दुनिया को ये संदेश दे रहे हैं कि कैसे संकट के समय जरूरतमंदों की देखभाल और मदद की जाए।


यहां से पढ़ें मूल लेख  - Interspecies love in a flood-ravaged Assam village
 

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