अति भूजल दोहन क्षेत्र के लिए पेयजल योजना

जल, विशाल पारिस्थितिक पद्धति की क मूलभूत इकाई है। स्वच्छ जल की महत्ता एवं दुर्लभता को दखते हुए सभी वनस्पति, जीव-जन्तुओं को उत्पत्ति के लिए जल ही एक अति आवश्यक मूल-भूत आधार है। इसी पर सबका जीवन निर्भर करता है एवं जल बिना किसी भी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती प्रकृति की यह अनमोल भेंट सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। इस राष्ट्रीय की सुरक्षा, विकास एवं संचयन, वैज्ञानिक तकनीकों से सामाजिक एवं आर्थिक पहलुओं को देखते हुए क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप करना चाहिए।

ताजा अनुमानों के अनुसार 4000 क्यूबिक मीटर (BCM) वर्षाजल एवं हिमपात से सतही एवं भूजल की उपलब्धता मात्रा 1869 BCM है। भौगोलिक एवं अन्य कारणों से इसका केवल 60 प्रतित यानि 1122 BCM जल (सतही जल 690 BCM भूजल 432 BCM) ही उपयोग में लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जल सभी स्थानों पर समान समय पर एवं समान रूप में उपलब्ध नहीं होता। पूरे वर्ष, वर्षा जल केवल 2-3 महीनों में ही उपलब्ध रहता है और वह भी असमान रूप में।

भारत में 50 प्रतिशत से अधिक शहरी एवं औद्योगिक जल आपूर्ति 85 प्रतिशत से अधिक ग्राम्य पेयजल आपूर्ति तथा 50 प्रतिशत से अधिक सिंचित आवश्यकता भूमि-जल संपदा पर ही निर्भर है। भारत के कई भागों में भौम जल धारक रचनाओं (वाटर वियरिंग फारमेशन) से भूमि-जल इन रचनाओं के प्राकृतिक पुनर्भरण पूर्ति होने के मुकाबले तेजी से निकाल लिया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में जल स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। बढ़ती हुई जनसंख्या व विकास का दबाव भूजल के साथ हिंसा कर रहा है। अधिक उपज व नकदी फसलों के लिए भूजल के अत्यधिक दोहन से मध्यप्रदेश भी अछूता नहीं है और ऐसे क्षेत्रों में संकट सन्निकट है। इसके लिए अभी से तद्नुरूप योजना बनाकर काम करना समय की माँग है।

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