औद्योगिक गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण (Water pollution due to industrial activities)


जल प्रदूषण का प्रमुख कारण औद्योगिक निस्राव है। सभी औद्योगिक इकाइयों में कम या अधिक मात्रा में जल की खपत होती है। इसी अनुपात में दूषित जल उत्पन्न होता है। दूषित जल की प्रकृति औद्योगिक प्रक्रिया में जल, कच्चे माल के उपयोग, उत्पाद एवं उत्पादन प्रक्रिया पर निर्भर करती है। उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में मुख्य रूप से 2 प्रकार के प्रदूषक होते हैं :-

जल प्रदूषण 1. कार्बनिक प्रकृति के प्रदूषक
2. अकार्बनिक प्रकृति के प्रदूषक

1. कार्बनिक प्रकृति के प्रदूषक :-


सभी प्रकार के कृषि आधारित (एग्रोबेस्ड) उद्योग, डिस्टलरीज, राइस मिल, पोहा मिल, खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) उद्योग, पेपर मिल आदि में प्रक्रिया के अंतर्गत बड़ी मात्रा में जल की खपत होती है। इनसे उत्पन्न होने वाले दूषित जल की मात्रा भी काफी अधिक होती है। इस दूषित जल में बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं। किसी जलस्रोत में ऐसा प्रदूषित पानी मिलकर उसकी गुणवत्ता पर तत्काल विपरीत प्रभाव डालता है। जलस्रोत में प्रदूषण भार बढ़ने से उसके सामान्य पैरामीटर्स में वृद्धि होती है। इस प्रकार प्रभावित होने वाले प्रमुख पैरामीटर्स हैं :-

1. टोटल सॉलिड्स :-


जलस्रोत में दूषित पानी के मिलने से जल में उपस्थित टोटल सॉलिड्स की मात्रा में वृद्धि होती है।

2. सस्पेंडेड सॉलिड्स :-


जलस्रोतों में दूषित जल के मिलने से सस्पेंडेड सॉलिड्स की मात्रा भी बढ़ जाती है।

3. घुलित ऑक्सीजन :-


दूषित जल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा ज्यादा होने के कारण जब वो किसी जलस्रोत में मिलता है तो जलस्रोत के घुलित ऑक्सीजन में कमी हो जाती है। दूषित जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ उनमें सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि की दर को बढ़ाते हैं। अतः जलस्रोत का घुलित ऑक्सीजन उपयोग में आ जाने के कारण घुलित ऑक्सीजन में कमी हो जाती है।

4. बी.ओ.डी. :-


कार्बनिक पदार्थयुक्त दूषित जल के जलस्रोत में मिलने पर उसकी बी.ओ.डी. यानि बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड बढ़ जाती है। बी.ओ.डी. के बढ़ने का अर्थ जल का प्रदूषण भार बढ़ना है।

5. सी.ओ.डी. :-


साथ ही, कार्बनिक पदार्थयुक्त दूषित जल के सामान्य जल में मिलने से उसकी सी.ओ.डी. यानि केमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड भी बढ़ जाती है। सी.ओ.डी. बढ़ने से भी जल का प्रदूषण भार बढ़ जाता है।

6. सूक्ष्म जीवाणुओं की मात्रा :-

कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म जीवाणुओं के लिये पोषण का कार्य करते हैं। इनकी उपस्थिति में जलस्रोतों में सूक्ष्म जीवाणु जैसे बैक्टीरिया आदि तेजी से पनपते हैं। जिसके कारण इनकी संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।

 

जलस्रोतों में सूक्ष्म जीवाणुओं/पैथोजेन/जीव के पनपने से होने वाले रोग

क्रमांक

सूक्ष्म जीवाणुओं/पैथोजेन/जीव

बीमारी

1

साल्मोनेला टाईफोसा

टाइफाइड

2

एस. टाईफीमुरिनम

एन्ट्रिक फीवर

3

एस. स्कोटुमुएरी

गैस्ट्रोएन्ट्राइटिस

4

लाइस

टाईफस

5

हुक-वर्म

त्वचा रोग

6

मच्छर

मलेरिया, यलो फीवर, हाथी पाँव, मस्तिष्क ज्वर।

7

विब्रियो-कॉलेरी

हैजा

8

टेप-वर्म

पाचनतंत्र सम्बन्धी रोग

 

 

7. धात्विक प्रदूषकों में वृद्धि :-


कुछ उद्योगों जैसे कागज उद्योग, गैल्वेनाईजिंग/इलेक्ट्रोप्लेटिंग इकाइयों, धातु निष्कर्षण इकाइयों आदि के दूषित जल निस्सारण में धात्विक प्रदूषक विशेष कर मरकरी, क्रोमियम आदि की सांद्रता काफी अधिक रहती है। इसके अतिरिक्त इनके निस्सारण में कॉपर, लेड, कैडमियम एवं निकिल भी उपस्थित रहते हैं। इसी प्रकार चर्म उद्योग के निस्सारण में आर्सेनिक, मरकरी, जिंक एवं क्रोमियम, वस्त्र उद्योग के निस्सारण में आर्सेनिक, मरकरी, जिंक, क्रोमियम, कॉपर, लेड, निकिल आदि उपस्थित रहते हैं।

कुछ विषैले धातुओं के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव निम्नानुसार श्रेणीबद्ध किये गये हैं :-

क्रमांक

विषैले धातु

प्रमुख स्रोत

मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव

1

आर्सेनिक

कोयला जलाने, फास्फेट, सल्फाइड अयस्क खदानें आदि।

कैंसर कारक, गैस्ट्रोइन्टेस्टाइनल रोग

2

लेड

पेन्ट, गैसोलीन

मस्तिष्क क्षति

3

बेरेलियम

कोयला जलाने, रॉकेट ईंधन

फेफड़े सम्बन्धी रोग

4

मरकरी

पेपर मिल, कीटनाशक

मस्तिष्क क्षति, मिनिमाता रोग

5

कैडमियम

इलेक्ट्रोप्लेटिंग इकाई, रसायन उद्योग

किडनी, लीवर, पैनक्रियास सम्बन्धी रोग, ईटाई-ईटाई रोग।

 

2. अकार्बनिक प्रकृति के प्रदूषक :-


विभिन्न प्रकार की गैल्वेनाइजिंग इकाइयों, धातु निष्कर्षण इकाइयों, धात्विक उत्पाद इकाइयों आदि में विभिन्न चरणों में पानी का उपयोग होता है। इनसे उत्पन्न होने वाला दूषित जल अकार्बनिक प्रकृति का होता है। गैल्वेनाइजिंग/इलेक्ट्रोप्लेटिंग इकाइयों से उत्पन्न होने वाले दूषित जल की प्रकृति अम्लीय होती है।

उपरोक्त इकाइयों से निकलने वाले दूषित जल के जलस्रोतों में मिलने से निम्नलिखित पैरामीटर्स प्रभावित होते हैं :-

1. पी.एच. :-


जैसा कि हम जानते हैं कि गैल्वेनाइजिंग/इलेक्ट्रोप्लेटिंग इकाइयों से उत्पन्न होने वाले दूषित जल की प्रकृति अम्लीय होती है। ऐसे दूषित जल के जलस्रोत में मिलने से ये उसकी उदासीन प्रकृति को हानि पहुँचाती है। स्थिर जलस्रोतों जैसे तालाब व झील आदि में सतत रूप से मिलने वाला अम्लीय दूषित जल, जलस्रोत को अम्लीय बना देता है।

2. धात्विक प्रदूषकों में वृद्धि :-


धातु कर्म इकाइयों, गैल्वेनाइजिंग इकाइयों आदि के निस्सारण में बड़ी मात्रा में धात्विक प्रदूषक उपस्थित रहते हैं। गैल्वेनाइजिंग इकाइयों से निकलने वाले दूषित जल में जिंक, लेड तथा धातु कर्म इकाइयों में आर्सेनिक, कैडमियम, लेड, मरकरी, जिंक आदि धातु उपस्थित रहते हैं जो जलस्रोतों में मिलकर इन हानिकारक धातुओं की सांद्रता बढ़ा देती है।

3. सी.ओ.डी. :-


विभिन्न प्रकार के रासायनिक प्रदूषकयुक्त दूषित जल निस्सारण जब जलस्रोतों में मिलते हैं तो उनकी सी.ओ.डी. को बढ़ा देते हैं।

जलस्रोतों में भारी धातुओं की उपस्थिति जोकि ज्यादातर विषैली प्रकृति की होती है, स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है। इसको ध्यान में रखते हुए जलस्रोतों में भारी धातुओं की उपस्थिति का आकलन किया जाना आवश्यक है। चूँकि भारी धातुओं की उपस्थिति रासायनिक विश्लेषणों द्वारा ही पता लगाई जा सकती है और ऐसे विश्लेषण काफी जटिल एवं खर्चीले होते हैं, इसलिये सामान्य तौर पर किसी समस्या के आने या शिकायत की स्थिति में ही इनका विश्लेषण किया जाता है। फिर भी ऐसे सभी जलस्रोत जिनका उपयोग सीधे पेयजल के रूप में किया जाता है अथवा सिंचाई के कार्य या मत्स्य पालन आदि में किया जाता है, उन जलस्रोतों में भारी धातुओं की उपस्थिति और मात्रा का आकलन किया जाना बेहद जरूरी है। क्योंकि पेयजल के अतिरिक्त वनस्पतियों, सब्जियों, फलों और जीव जन्तुओं का उपयोग करने पर इनके माध्यम से भी भारी धातुएँ हमारे शरीर में पहुँच जाती हैं और इनका हानिकारक व घातक प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। इनकी अधिक सांद्रता जानलेवा भी साबित हो सकती है।

धातुओं की उपस्थिति को जाँचने के लिये सबसे लोकप्रिय साधन जैव-प्रबोधन है। इस विधि में वनस्पतियों या जीव-जन्तुओं का उपयोग सूचक के रूप में किया जाता है। इनमें शैवाल प्रमुख हैं। स्फैगनम शैवाल का उपयोग जल में जिंक, लेड, कैडमियम का पता लगाने के लिये किया जाता है। इसी प्रकार थ्लास्पी अल्पेस्टे द्वारा जिंक, मिनुएर्टिया वर्ना द्वारा लेड एवं कैडमियम ट्रेकीपोगोन स्पिकेटस द्वारा कॉपर का पता लगाया जा सकता है।

पेयजल में भारी धातुओं की मान्य अधिकतम मात्रा निम्नानुसार है:-

तत्व या धातु

अधिकतम ग्राह्य सांद्रता मिग्रा/लीटर

मरकरी

0.001

कैडमियम

0.01

सेलीनियम

0.01

आर्सेनिक

0.05

क्रोमियम

0.05

कॉपर

0.05

मैग्नीज

0.05

लेड

0.1

आयरन

0.1

जिंक

5.0

 

अब हमारे देश में स्थापित प्रमुख जल प्रदूषक उद्योगों एवं इनसे उत्पन्न होने वाले दूषित जल की प्रकृति के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे। हमारे देश में कृषि एवं कृषि उत्पाद आधारित उद्योग बहुतायत में हैं; इनमें से कुछ इस प्रकार हैं :-

1. चीनी उद्योग :-


गन्ना भारतीय वाणिज्यिक कृषि का प्रमुख आधार है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि प्रान्तों में गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर होती है। गन्ने से चीनी या शक्कर बनाई जाती है। शक्कर बनाने की प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में पानी का उपयोग किया जाता है। इसी अनुपात में उद्योग से दूषित जल भी उत्पन्न होता है। दूषित जल अम्लीय प्रकृति का होता है तथा इसमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा भी बहुतायत में होती है। चीनी उद्योग से मोलासेस बड़ी मात्रा में बनता है, जिसकी बी.ओ.डी. एवं सी.ओ.डी. अत्यधिक होती है। चीनी उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल का उपचार यदि ठीक तरह से न किया जाए तो ये जलस्रोतों पर अत्यंत विपरीत प्रभाव डालते हैं। हमारे देश में लगभग 300 चीनी मिलें उत्पादनरत हैं।

2. डिस्टलरीज :-


देश में लगभग 150 डिस्टलरीज या आसवनियाँ उत्पादनरत हैं। जैसा कि बताया गया है कि शक्कर कारखानों से बड़ी मात्रा में मोलासेस द्रव अपशिष्ट के रूप में उत्पन्न होता है। यही मोलासेस ज्यादातर आसवनियों में एल्कोहल बनाने के लिये कच्चे माल के रूप में उपयोग में आता है। मोलासेस के किण्वन के द्वारा इथाइल एल्कोहल बनाया जाता है। मोलासेस के अतिरिक्त आसवनियों में अन्न भी कच्चे माल के रूप में उपयोग लाया जाता है। डिस्टिलरीज से निकलने वाला दूषित जल भी अत्यधिक प्रदूषक प्रकृति का होता है।

ज्यादातर डिस्टिलरीज नदियों के किनारे स्थित होती हैं। कार्बनिक पदार्थों की अधिकता के कारण इनके दूषित जल की बी.ओ.डी., सी.ओ.डी. आदि अत्यधिक होती है। यदि डिस्टिलरीज से निकलने वाले दूषित जल का निस्सारण जलस्रोतों में किया जाता है तो जलस्रोतों में घुलित ऑक्सीजन की सांद्रता में तीव्र गिरावट आती है और मछलियों सहित अन्य जलीय जीव ऑक्सीजन की कमी के कारण मारे जाते हैं।

3. खाद्य तेल एवं वनस्पति उद्योग :-


हमारे देश में खाद्य तेल एवं वनस्पति उद्योगों की संख्या 500 से अधिक है। खाद्य तेल एवं वनस्पति उद्योगों में दो प्रमुख इकाइयाँ होती हैं- 1. साल्वेंट एक्सट्रेक्शन प्लांट एवं 2. रिफाइनिंग यूनिट (परिष्करण इकाई)
1. साल्वेंट एक्सट्रेक्शन प्लांट में खाद्य तेल को सुसंगत कच्चे माल से विलायक निष्कर्षण विधि से पृथक किया जाता है। इसके लिये विभिन्न विलायकों का उपयोग किया जाता है, जिनमें हैक्सेन प्रमुख है। तत्पश्चात विलायक को पृथक कर तेल प्राप्त कर लिया जाता है।
2. रिफाइनिंग यूनिट में उपरोक्त विधि से प्राप्त खाद्य तेल को परिष्कृत किया जाता है। ज्यादातर राइसब्रान या धान का कोहड़ा, सोयाबीन, सूर्यमुखी, मूँगफली, सरसों, तिल, नारियल, जैतून आदि से खाद्य तेल प्राप्त किया जाता है।

खाद्य तेल प्राप्त करने की प्रक्रिया में विशेषकर रिफाइनिंग के दौरान दूषित जल काफी मात्रा में उत्पन्न होता है। इस दूषित जल में भी कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बहुत अधिक होती है।

4. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग :-


खाद्य संस्करण इकाइयों में फलों, सब्जियों आदि को धोने से लेकर प्रसंस्करण की प्रक्रिया के दौरान काफी मात्रा में पानी की खपत होती है। इसी अनुपात में दूषित जल भी उत्पन्न होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल की बी.ओ.डी. एवं सी.ओ.डी. काफी उच्च होती है। दूषित जल का समुचित उपचार न करने पर इससे काफी तीक्ष्ण दुर्गंध उत्पन्न होती है। कार्बनिक पदार्थ युक्त ऐसा दूषित जल स्वच्छ जलस्रोत को प्रदूषित करता है। कार्बनिक पदार्थों के मिलने से जलस्रोत में स्वपोषण की प्रक्रिया की दर बढ़ जाती है तथा कोलीफार्म बढ़ने से जल पीने योग्य नहीं रह जाता।

5. कागज एवं लुग्दी उद्योग :- कागज निर्माण में बड़ी मात्रा में उपयोग किया हुआ रद्दी कागज रिसाइकिल या पुनर्चक्रित होता है। पेपर या गन्ने अथवा कार्ड बोर्ड की लुग्दी बनाने में भी पुराने पेपर, गन्ने या कार्ड बोर्ड को पुनर्चक्रित किया जाता है। दोनों के ही निर्माण में पहले लुग्दी तैयार की जाती है। जिस हेतु बड़ी मात्रा में जल की खपत होती है। पेपर या कार्डबोर्ड बनाने के दौरान लुग्दी को प्रेस कर उसमें से पानी निकाला जाता है। इस पानी में बड़ी मात्रा में पेपर या गत्ते के फाइबर एवं निलम्बित कण होते हैं। अतः उपचार के दौरान पुनः लुग्दी बनाने के दौरान इसमें अधिकांश कण का पुनर्चक्रण किया जाता है। फिर भी उद्योग से उत्पन्न होने वाले दूषित जल की मात्रा काफी होती है। इसी प्रकार सफेद कागज बनाने के दौरान बड़ी मात्रा में ब्लीचिंग रसायन का उपयोग होता है। इस रसायनों में धात्विक यौगिक उपस्थित होते हैं। ऐसे उद्योगों से निकलने वाला ब्लैक लिकर (दूषित जल) अत्यधिक प्रदूषणकारी प्रकृति का होता है, जिसमें अनेक विषैली धातुएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें मरकरी प्रमुख हैं। ब्लैक लिकर के जलस्रोतों में मिलने से जल की गुणवत्ता प्रभावित होने के साथ ही जलीय जीव जन्तुओं पर भी इसका घातक प्रभाव पड़ता है।

6. दुग्ध उद्योग :-


देश में दुग्ध के पाश्चुरीकरण एवं दुग्ध उत्पाद बनाने के लगभग 150 कारखाने उत्पादनरत हैं। जिनमें दूध से क्रीम पृथक करके पनीर, चीज, मक्खन, घी आदि बनाया जाता है। अमूल, दिनशॉ, सॉची आदि प्रमुख समूहों के अत्याधुनिक एवं वृहद कारखानों सहित छोटे पैमाने पर अनेक लघु उद्योग भी उत्पादनरत हैं। कंटेनर, वाशिंग, फ्लोर, वाशिंग, एवं अन्य स्तरों पर उद्योगों में जल की खपत होती है। इनसे उत्पन्न होने वाले दूषित जल में कार्बनिक पदार्थों विशेषकर तेल और ग्रीस की मात्रा काफी होती है। इसी अनुपात में दूषित जल की बी.ओ.डी. तथा सी.ओ.डी. भी निर्धारित होती है। दुग्ध उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल का उपचारोपरान्त सिंचाई में उपयोग किया जा सकता है।

7. कपड़ा उद्योग :-


देश में सबसे अधिक कपड़ा मिलें महाराष्ट्र में हैं। अनेक कपड़ा मिलें विभिन्न कारणों से बन्द कर दी गईं। जिनमें छत्तीसगढ़ की प्रमुख कपड़ा मिल; बी.एन.सी. मिल, राजनांदगांव भी शामिल है। फिर भी देशभर में लगभग 100 कपड़ा मिले आज भी उत्पादनरत हैं।

कपड़ा निर्माण की प्रक्रिया में रेशों का निर्माण, रेशों से कपड़ा निर्माण और कपड़ों को रंगने तक अनेक क्रियाएँ शामिल होती हैं।

कपड़ा निर्माण की प्रक्रिया में कपड़ों को रंगने की प्रक्रिया सबसे अधिक जटिल होती है जिसमें जटिल यौगिकों का उपयोग होता है। इनमें भारी धातुएँ उपस्थित होती हैं। विभिन्न रंजकों के उपयोग से उद्योग से निस्सारित दूषित जल में भी इनकी बड़ी मात्रा उपस्थित रहता है। ऐसा दूषित जल भूमि और जलस्रोतों में भारी धातुओं की सान्द्रता को बढ़ा देता है।

8. धातुकर्म उद्योग :-


धातुकर्म उद्योग में कच्चे माल की ढुलाई, धातु निष्कर्षण, रिफाइनिंग आदि में पानी का उपयोग किया जाता है। इन उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में धात्विक अपशिष्ट बड़ी मात्रा में होते हैं। इसी प्रकार धातु कर्म उद्योगों में स्थापित अन्य इंटरमीडिएट (माध्यमिक) इकाइयों से भी बड़ी मात्रा में दूषित जल उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ एकीकृत इस्पात संयंत्र की कोक-ओवन बायप्रोडक्ट इकाई से निकलने वाले दूषित जल में फीनॉल, फीनॉलिक यौगिक घातक एवं विषैले होते हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रक्रियाओं और मशीनों के उपयोग के कारण इन उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में तेल और ग्रीस भी बड़ी मात्रा में होते हैं।

लेड स्मेलटर्स से उत्पन्न होने वाले निस्सारण में लेड उपस्थित होता है।

9. खदानें :-


खदानों में भूमि सतह के नीचे उत्खनन कर खनिज और अयस्क निकाले जाते हैं। इन खदानों में उत्खनन के दौरान भूमिगत जल एवं इसके पश्चात वर्षा का जल इन खनिजों के सम्पर्क में आता है। यहाँ से निकलने वाला या इनमें से होकर बहने वाला पानी अपने साथ बड़ी मात्रा में खनिज पदार्थों के कणों को निलम्बित और कभी-कभी खनिज में उपस्थित तत्वों की घुलनशीलता के आधार पर घुलित अवस्था में लेकर बहता है। ये जल नदियों या अन्य जलस्रोतों में हानिकारक तत्वों की सांद्रता बढ़ाते हैं तथा उनमें गाद भी बढ़ा देते हैं, जिससे ये स्रोत उथले होने लगते हैं।

10. औषध, कीटनाशक आदि उद्योग :-


इन उद्योगों में प्रक्रिया के दौरान बड़ी मात्रा में रसायनों का उपयोग होता है। जो उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में भी बड़ी मात्रा में होते हैं। दोनों ही प्रकार के उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में इनकी सान्द्रता अधिक होने पर ये जलीय जीवों को बड़ी मात्रा में हानि पहुँचाती हैं। साथ ही ये जलस्रोतों को किसी अन्य उपयोग के भी अयोग्य बना देते हैं।

कीटनाशक उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में कैंसरकारक रसायन भी अनुपस्थित हो सकते हैं।

11. फ्लाई एश पॉण्ड :-


ताप विद्युत संयंत्रों अर्थात थर्मल पावर प्लान्ट में कोयला जलाने के कारण बड़ी मात्रा में फ्लाई एश उत्पन्न होती है। जिसे स्लरी के रूप में पॉण्ड्स में एकत्र कर रखा जाता है। इस फ्लाई एश में भारी धातुएँ उपस्थित होती हैं। इनसे निकलने वाले लीचेट में भी भारी धातुओं की सांद्रता होती है। इस लीचेट के सीधे अथवा वर्षा जल के साथ मिलकर किसी जलस्रोत में मिलने से उस स्रोत में भी भारी धातुओं की सान्द्रता बढ़ जाती है।

12. औद्योगिक ठोस अपशिष्ट अपवहन स्थल :-


औद्योगिक ठोस अपशिष्ट के अपवहन स्थल से उत्पन्न होने वाली लीचेट में भारी धातुओं सहित अनेक रसायन उपस्थित रहते हैं। जिनके जलस्रोतों में मिलने से जलस्रोतों के प्रदूषित होने की सम्भावना बनी रहती है।

इसी प्रकार देश में अन्य प्रकार के उद्योग हैं, जिनसे कम या अधिक मात्रा में दूषित जल उत्पन्न होता है। जिनके उपचार हेतु पृथक अथवा संयुक्त उपचार व्यवस्था की जाती है। जिस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

 

जल प्रदूषण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पुस्तक भूमिका : जल और प्रदूषण

2

जल प्रदूषण : कारण, प्रभाव एवं निदान

3

औद्योगिक गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण

4

मानवीय गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण

5

भू-जल प्रदूषण

6

सामुद्रिक प्रदूषण

7

दूषित जल उपचार संयंत्र

8

परिशिष्ट : भारत की पर्यावरण नीतियाँ और कानून (India's Environmental Policies and Laws in Hindi)

9

परिशिष्ट : जल (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1974 (Water (Pollution Prevention and Control) Act, 1974 in Hindi)

 

 

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