आवश्यकता है राजनैतिक भूमंडलीकरण की

यह भी स्पष्ट है कि उभरते समृद्ध राष्ट्र चीन, भारत व अन्य पहले से ही उपलब्ध सीमित साधनों की सहायता से तुलनात्मक रूप से औद्योगिक विश्व के बजाय प्रति इकाई उत्पादन में किफायत दिखा रहे हैं। अतएव वे अपनी कार्यकुशलता के बदले क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ मुआवजा तो चाहेंगे ही। दुनिया एक दूसरे से जुड़ी ही अवश्य है पर यह ‘एक’ नहीं है। हम सब के लिए एक सुरक्षित भविष्य बनाने में पूर्णतः असफल सिद्ध हुए हैं। सरकारों द्वारा मौसम से लेकर जैविक प्रदूषण तक बहुपक्षीय पर्यावरण समझौतों पर सहमति बनाने हेतु लाखों-लाख घंटे लगा देने के बावजूद विश्व इस मसले पर आज और भी अधिक विभाजित होने के साथ ही अत्यधिक पर्यावरणीय विनाश के दौर से गुज़र रहा है। आज यह अपनी यात्रा के प्रारंभ की वनस्पति अधिक खतरनाक हो गया है। यही समय है पीछे मुड़कर अपनी दिशा को पुनः निर्धारण करने का, जिससे कि हम वास्तव में परिवर्तन ला सकें।

गत 15 वर्षों में सरकारों के बीच अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय संधियों के निर्माण से संबंधित संवादों में इज़ाफा हुआ है। यह पारिस्थितिकीय वैश्वीकरण वर्तमान आर्थिक विकास का नतीजा है। आधुनिक आर्थिक वैश्वीकरण न केवल दुनिया के अर्थतंत्र को एक साथ जोड़ता है बल्कि पारिस्थितिकीय तंत्र को नुकसान पहुंचाने की हद तक उत्पाद और उपभोग को बढ़ावा देता है।

यह आर्थिक ढाँचा अत्यधिक भौतिकवादी और ऊर्जा दोहक है। इसके अंतर्गत भारी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का व्यय एवं अपव्यय होता है। जो अपने पीछे बेहद विषैला, अवनत और परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र छोड़ जाता है। उत्पाद और उपभोग की नई ऊंचाईयां इस पारिस्थितिकीय वैश्वीकरण को जन्म देती हैं। होता यह है कि लोग अपने देश में जो भी करते हैं उसका व्यापक असर उनके पड़ोसी देश या शेष दुनिया पर भी पड़ता है। पहले कभी भी इंसान को ‘जीने’ के लिए इतना कुछ सीखने की जरूरत नहीं पड़ी, जितनी की आज है।

समस्या यह है कि उपरोक्त वैश्वीकरण की दोनों धाराएं किसी भी तरह से राजनैतिक वैश्वीकरण के साथ नहीं चलती हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि हमारे पास ऐसी कोई प्रक्रिया उपलब्ध नहीं है जो इस उभरते वैश्विक बाजार और वैश्विक पारिस्थितिकीय नीतियों को व्यापक जनहित के प्रति अच्छे प्रशासन मूल्यों, समानता व न्याय, के आधार पर प्रतिबंधित कर सके। इतना ही नहीं दुनिया में चंद सरकारें ही इन मुद्दों को अपने राजनैतिक एजेंडे में शामिल करती हैं।

हमें भलीभांति पता है कि इस विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि से पृथ्वी बद से बदतर स्थिति में पहुंच रही है। इस बात के सबूत मिले हैं कि वातावरण में बदलाव सभी देशों खासकर गरीब देशों के लिए तकलीफदायक होगा। अंततः पूरी दुनिया को इसकी कीमत तो चुकानी पड़ेगी। आज हम उत्सर्जन की दर को कम करने में जितना खर्च करेंगे वह भविष्य में प्रलय की परिस्थिति में चुकाई जाने वाली कीमत की तुलना में काफी कम होगा।

दुनिया में बढ़ता तापमान संभवतः अब तक का सबसे बड़ा और जटिल आर्थिक व राजनैतिक मुद्दा है, जिससे कि पूरी दुनिया को जूझना है। सर्वप्रथम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन सीधे-सीधे आर्थिक विकास से जुड़ा है। अतः यह तथाकथिक विकास भी खतरे में है। हमें पुनः खोजना होगा कि हम क्या करें और कैसे करें? इसमें लागत तो आएगी पर वह भविष्य में खर्च की जाने वाली पूँजी का नाम मात्र ही होगी।

दूसरा मुद्दा है वर्तमान में बढ़ रही समृद्धि की व्यक्तियों और राष्ट्रों के बीच हिस्सेदारी का। विश्वव्यापी आर्थिक समृद्धि काफी असंतुलित है और इसी तरह ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी आसमान है। अहम सवाल यह है कि विश्व अपने उत्सर्जन (प्रदूषण) के अधिकार का बँटवारा किस प्रकार करेगा। क्योंकि इसमें बहुत असमानताएं हैं। सवाल यह है कि अमीर देश जिन्होंने ढेर सारा ‘प्राकृतिक कर्ज’ समेट लिया है और जो साझा संसाधनों से अपने लिए अत्यधिक बटोर रहे हैं किस प्रकार इसका पुनर्भुगतान कर पाएंगे जिससे कि गरीब देश इसी पर्यावरणीय क्षेत्र का उपयोग कर पाएं।

तीसरा मुद्दा पर्यावरण में बदलाव के संबंध में अंतरराष्ट्रीय तालमेल का है। यह कुछ और दर्शाए या न दर्शाए, इतना ज़रूर सिखाता है कि दुनिया एक है। यदि अमीर दुनिया कल आवश्यकता से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती थी तो आज की उभरती अमीर दुनिया भी वैसा ही करेगी इतना तो समझ आता है कि इस पर नियंत्रण स्थापित करने का एक रास्ता यह होगा कि इसके लिए बनने वाले अनुबंधों में निष्पक्षता व समानता हो ताकि यह अब तक विश्व का सबसे बड़ा सहकारी उद्यम साबित हो सके।

हमें इस पर्यावरणीय बदलाव को टालने के लिए क्या करना चाहिए? सर्वप्रथम हमें यह स्वीकारना होगा कि आज विश्व को ‘क्योटो संधि’ से भी आगे जाने की आवश्यकता है। सभी राष्ट्रों को इस अनुबंध पर पुनः संवाद करना होगा। परंतु इस बार यह अनुबंध राजनैतिक होना चाहिए। यह कार्य प्राथमिकता से होना आवश्यक है क्योंकि दुनिया आज प्रलय की कगार पर खड़ी है। सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो यह वर्तमान क्योटो-संधि जैसा कमजोर व कायरतापूर्ण न हो और ना ही उत्सर्जन को कम करने के लिए 15 वर्ष का समय मांगे।

यह तो साफ है कि अमीर एवं उभरते संपन्न विश्व को कम और किफायत से कार्बन के उपयोग की तरफ अग्रसर करने की आवश्यकता है। इसी के साथ यह भी उतना ही स्पष्ट है कि भविष्य में हमे जिस तरह की तकनीक की आवश्यकता होगी वह आज भी हमारे पास है। यहां नई शोधों को रोकने की बात नहीं है वरन वर्तमान उपलब्ध तकनीक ही ज्यादा दक्षता और किफायत से इस्तेमाल करने की जरूरत है। हमें ऊर्जा दोहन और उससे उत्पाद निर्माण में दक्षता बढ़ानी होगी। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम किस तरह का परिवर्तन लाना चाहते हैं। यह हमारे शहरों की परिवहन नीतियों से लेकर वहां के प्रत्येक क्षेत्र पर लागू होना चाहिए।

यह भी स्पष्ट है कि उभरते समृद्ध राष्ट्र चीन, भारत व अन्य पहले से ही उपलब्ध सीमित साधनों की सहायता से तुलनात्मक रूप से औद्योगिक विश्व के बजाय प्रति इकाई उत्पादन में किफायत दिखा रहे हैं। अतएव वे अपनी कार्यकुशलता के बदले क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ मुआवजा तो चाहेंगे ही।

अंत में पर्यावरण में बदलाव सचमुच वैश्वीकृत है। यह विश्व पर एक साथ आने के लिए दबाव डालता है। यह सिर्फ थोड़े से फायदे के लिए नहीं वरन लंबे समय के लिए सभी पर आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय लाभ के लिए दबाव डालता है। अब यह हम पर है कि हम इस चुनौती को स्वीकारते हैं या नहीं।

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