आया मौसम प्रदूषण का

river pollution
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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


बारिश के बादल अपने घरों को लौट रहे हैं, सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगा है, मौसम का यह बदलता मिज़ाज असल में उमंगों, खुशहाली के स्वागत की तैयारी है। सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसी लिये उत्सवों का प्रारम्भ गणेश चतुर्थी से ही होता है।

अब दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से लेकर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति-पंथ के नहीं, बल्कि भारत की सम्बद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रतीक हैं। विडम्बना है कि जिन त्योहारों के रीति-रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण।

खूब हल्ला हुआ, निर्देश, आदेश का हवाला दिया गया, अदालतों के फरमान बताए गए, लेकिन गणपति का पर्व वही पुरानी गति से ही मनाया जा रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आन्ध प्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व म.प्र. के मालवा-निमाड़ अंचल में पारम्परिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गाँव-कस्बे तक फैल गया है।

दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित हैं। यही नहीं मुम्बई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहाँ देखी जा सकती है। पारम्परिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएँ प्लास्टर ऑफ पेरिस से बन रही हैं, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है।

कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार घटिया रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है। इन्दौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने गोबर व कुछ अन्य जड़ी बूटियों को मिला कर ऐसी गणेश प्रतिमाएँ बनवाई जो पानी में एक घंटे में घर में ही घुल जाती है, लेकिन बड़े गणेश मण्डलों ने ऐसे पर्यावरण-मित्र प्रयोगों को स्वीकार नहीं किया।

पंडालों को सजाने में बिजली, प्लास्टिक आदि का इस्तमेाल होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कला के नाम पर भौंडे प्रदर्शन व अश्लीलता का बोलबाला है। अभी गणेशोत्सव का समापन होगा ही कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाएगी। यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गाँव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पण्डाल बन रहे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ गई और अब इसी की प्रतिमाएँ बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। कहना ना होगा कि प्रतिमा स्थापना कई हजार करोड़ की चन्दा वसूली का जरिया है।

एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएँ बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर ऑफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है।

पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने की सम्भावना बहुत अधिक है। प्लास्टर ऑफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है चूँकि ज्यादातर मूर्तियाँ पानी में न घुलने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है, इसलिये हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिये कहर बनता है।

चन्द साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियाँ पाई गई थीं।

हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएँ बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर ऑफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने की सम्भावना बहुत अधिक है। इसलिये हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बीओडी तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिये कहर बनता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस सम्बन्ध में आँखें खोलने वाला रहा है कि किस तरह नदी का पानी प्रदूषित हो रहा है। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक नदी के पानी में पारा, निकल, जस्ता, लोहा, आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का अनुपात दिनों-दिन बढ़ रहा है।

इन आयोजनों में व्यय की गई बिजली से 500 से अधिक गाँवों को साल भर निर्बाध बिजली दी जा सकती है। नवरात्रि के दौरान प्रसाद के नाम पर व्यर्थ हुए फल, चने-पूड़ी से कई लाख लोगों का पेट भरा जा सकता है। इस अवधि में होने वाले ध्वनि प्रदूषण, चल समारोहों के कारण हुए जाम से फुँके ईंधन व उससे उपजे धुएँ से होने वाले पर्यावरण के नुकसान का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल है। दुर्गा पूजा से उत्पन्न प्रदूषण से प्रकृति सम्भल पाती नहीं है और दीपावली आ जाती है।

आतिशबाजी का जहरीला धुआँ, तेल के दीयों के बनिस्पत बिजली का बढ़ता इस्तेमाल, दीपावली में स्नेह भेंट की जगह लेन-देन या घूस उपहार का बढ़ता प्रकोप, कुछ ऐसे कारक हैं जो सर्दी के मौसम की सेहत को ही खराब कर देते हैं। यह भी जानना जरूरी है कि अब मौसम धीरे-धीरे बदल रहा है और ऐसे में हवा में प्रदूषण के कण नीचे रह जाते हैं जो साँस लेने में भी दिक्कत पैदा करते हैं।

सबसे बड़ी बात धीरे-धीरे सभी पर्व व त्योहारों के सार्वजनिक प्रदर्शन का प्रचलन बढ़ रहा है और इस प्रक्रिया में ये पावन-वैज्ञानिक पर्व लंपटों व लुच्चों का साध्य बन गए हैं प्रतिमा लाना हो या विसर्जन, लफंगे किस्म के लड़के मोटर साईकिल पर तीन-चार लदे-फदे, गाली गलौच , नशा, जबरिया चंदा वूसली, सड़क पर जाम कर नाचना, लड़कियों पर फब्तियाँ कसना, कानून तोड़ना अब जैसे त्योहारों का मूल अंग बनता जा रहा है। इस तरह का सामाजिक व सांस्कृतिक प्रदूषण नैसर्गिक प्रदूशष से कहीं कम नहीं है।

सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बन्द कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहार की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे! क्या छोटी प्रतिमा बनाकर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करके, प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो की जा सकते हैं।

पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पॉलिथिन का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में ज़मीन में दबाकर उसका कम्पोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल, अन्य सामग्री को जरूरतमन्दों को बाँटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साधारण से प्रयोग हैं; जो पर्वों से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियों पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं।

पर्व आपसी सौहार्द्र बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी समाज की है।

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