आयोजना एवं जनजातीय विकास

यह एक विचित्र विरोधाभास है कि देश के सम्पूर्ण-भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग जनजातीय प्रदेश है जहाँ अनुमानतः राष्ट्रीय संसाधन का 70 प्रतिशत खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल-संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन विद्यमान है और देश के अधिकांश मूलभूत उद्योगों, ऊर्जा संसाधनों, बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं तथा यातायात एवं संचार के साधनों में सर्वाधिक पूँजी विनियोजित की गई है। फिर भी यहाँ रहने वाले भारतीय भूमिपुत्रों की पहचान देश के निम्नतम समुदाय के रूप में की जाती है क्योंकि अब तक उनके जीवन दर्शन में उत्पादन, उपभोग, आय, बचत, पूँजी निर्माण तथा विनियोजन की मनोवृत्ति का सर्वथा अभाव है। अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय में आदिवासियों का योगदान लगभग शून्य है। तो क्या इसका अर्थ यह है कि इनके लिए विकास का अर्थशास्त्र अप्रासंगिक हो चुका है?

वर्ष 1991 की जनगणना के दौरान 806.64 लाख व्यक्तियों को, जो देश की कुल आबादी का 9.55 प्रतिशत थे, आदिवासी घोषित किया गया। ये आदिवासी देश के 15 प्रतिशत भूभाग में बहुसंख्यक हैं। देश के 9 बहुसंख्यक जनजातीय समुदायों में 52 लाख भील, 48 लाख गोंड, 36 लाख संथाल, 17 लाख उरांव, 15 लाख मीणा, 12 लाख मुण्डा, 9 लाख खोंड तथा क्रमशः 5-5 लाख आबादी हो तथा नागाओं की है। अत्यन्त संकटापन्न एवं लुप्तप्रायः आदिम जनजातियों में अण्डमान तथा कार-निकोबार की शाम्पेन 214, जाखा 200 आन्गी 97, सेन्टलीज 80 तथा ग्रेट अण्डमानीज लोगों की आबादी केवल 28 है। इनके अतिरिक्त आदिम जनजातीय समूहों को 72 समुदायों के रूप में चिन्हित किया गया है जिनकी कुल जनसंख्या 13,94,692 है (वर्ष 1981)।

यह एक विचित्र विरोधाभास है कि देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग जनजातीय प्रदेश है जहाँ अनुमानतः राष्ट्रीय संसाधन का 70 प्रतिशत खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन विद्यमान है और देश के अधिकांश मूलभूत उद्योगों, ऊर्जा संसाधनों, बहुउद्देशीय नदीघाटी परियोजनाओं तथा यातायात एवं संचार के साधनों में सर्वाधिक पूँजी विनियोजित की गई है। फिर भी यहाँ रहने वाले भारतीय पुत्रों की पहचान देश के निम्नतम समुदाय के रूप में की जाती है क्योंकि अब तक इनके जीवन दर्शन में उत्पादन, उपभोग आय, बचत, पूँजी निर्माण तथा विनियोजन की मनोवृत्ति का अभाव है। अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय में आदिवासियों का योगदान लगभग शून्य है। तो क्या इसका अर्थ यह है कि इनके लिए विकास का अर्थशास्त्र अप्रासंगिक हो चुका है? क्या राष्ट्र निर्माताओं, नीतिनिर्धारकों, योजनाकारों और प्रशासकों की रणनीति असफल हो चुकी है? उपर्युक्त प्रश्नों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के पूर्व इनके सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के स्तर को समझना अधिक समीचीन होगा।

विकसित समुदाय


आर्थिक-सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत की नागा एवं मिजो, पश्चिमी भारत अर्थात राजस्थान की मीणा और उत्तरी भारत यानि हिमाचल प्रदेश की नेगी जनजातियाँ सर्वाधिक चैतन्य, जागरुक तथा विकसित मानी जाती हैं उदाहरणार्थ वर्ष 1981 की जनगणना के अनुसार मिजो लोगों में साक्षरता का प्रतिशत 59.62 दर्ज किया गया था जो निःसंदेह अखिल भारतीय औसत दर से कहीं अधिक हैं।

विकासशील समुदाय


मध्य भारत की कुछ जनजातियों को जिन्होंने कृषि को स्थाई रूप से अंगीकृत कर लिया है, इस कोटि में रखा गया है। असम, प. बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा गुजरात में रहने वाले अधिकांश जनजातीय समूहों में स्थायी कृषि कार्य के अतिरिक्त शिक्षा, प्रशासन एवं राजनीतिक चेतना के प्रति अनुकूल प्रवृत्ति स्पष्ट दृष्टिगत होती है। इनमें बोडो, संथाल, उरांव, मुण्डा हो, किसान, गोंड, दामोर इत्यादि उल्लेखनीय हैं जिन्हें विकासशील समुदायों की श्रेणी में रखा जाता है।

अविकसित समुदाय


इस वर्ग में उन समुदायों को शामिल किया गया है जो मुख्यतः खाद्य संग्राहक, आखेटक, ययावर, अर्द्ध घुमन्तु अथवा पशुपालक हैं तथा स्थानांतरी या झूम कृषि जैसे कार्यों में संलग्न हैं। कोचीन की कादर, तमिलनाडु की मालापात्राम पलियान, इरुला, कुरुम्बा तथा कोया, आंध्र प्रदेश की चेंचु एवं मेनादी, बिहार के बिरहोड़, बिरजिया तथा नगेसिया और अण्डमान द्वीप समूहों में वास करने वाली आन्गी तथा जखा जनजातियाँ पूर्णतः आखेटक और खाद्य संग्राहक हैं। इसके विपरीत उत्तर-पूर्वी भारत की अंगामी नागा, लोहता, कुकी तथा खासी जनजातियाँ, बिहार में रहने वाली असुर, कोखा, विंझिया तथा माल पहाड़िया उड़ीसा की जुआंग, सओरा तथा हिल खड़िया और मध्य प्रदेश की माड़िया, बैगा तथा कोखा जनजातियाँ आंशिक रूप से आखेटक तथा खाद्य संग्राहक का काम करती हैं किन्तु झूम कृषि द्वारा मोटे अनाज एवं कन्द-मूल की खेती भी करती हैं। हिमालय के पर्वतीय अंचल में रहने वाली गद्दी, गूजर व खंपा तथा नीलगिरी की पूर्वी ढाल में रहने वाली टोडा जनजातियाँ मुख्यतः पशुपालक हैं।

उपर्युक्त पेशेगत विभिन्नता के अतिरिक्त प्रजातीय, भाषाई, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं, स्वरूपों एवं स्तरों के कारण नीति निर्धारकों, योजनाकारों एवं प्रशासकों के लिए इनके विकास की सर्वमान्य नीति निर्धारित करना एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य है। अतः जनजातीय विकास के लिए लचीला दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है।

नियोजित विकास


स्वाधीनता के शीघ्र पश्चात नियोजित विकास की अवधारणा को राष्ट्रीय नीति के रूप में स्वीकार किया गया और अपेक्षा की गई कि भारत के आदिवासी भी समानता के आधार पर विकास की दौड़ में शामिल होंगे।

प्रथम पंचवर्षीय योजना


देशवासियों की विकास की उत्कट अभिलाषा को पूरा करने के लिए भारत के स्वप्न दृष्टाओं ने 1 अप्रैल 1951 को पहली पंचवर्षीय योजना आरम्भ की। दो अक्टूबर 1952 को योजना के प्रमुख उपकरण के रूप में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया और राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को सुनियोजित आर्थिक विकास में शामिल करने की महती जिम्मेदारी को सरकार ने स्वीकार किया। सामुदायिक विकास कार्यक्रम को अन्य क्षेत्रों की भाँति जनजातीय क्षेत्रों में भी समान रूप से लागू किया गया।

इस योजनाकाल में अनुसूचित जनजाति के लोगों के आर्थिक कल्याण हेतु 19.93 करोड़ रुपये व्यय किए गए। उक्त राशि लगभग 4,000 विद्यालय एवं 1000 आश्रम तथा सेवाश्रम स्थापित करने में खर्च की गई। 8,500 छात्रों का उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की गई। इसके अतिरिक्त 2,400 मील पक्की सड़कें, 653 सहकारी संस्थाएँ, 310 बहुउद्देशीय सहकारी संस्थाएँ, 110 कुटीर उद्योग, 3200 चिकित्सा इकाईयाँ, 25 मलेरिया नियन्त्रण केन्द्र एवं 26 मातृ एवं शिशु कल्याण केन्द्रों की स्थापना जनजातीय क्षेत्रों में की गई।

यद्यपि प्रथम योजनाकाल में आदिवासियों के लिए कोई पृथक कार्यक्रम लागू नहीं किया गया तथापि इनके लिए आवंटित राशि के क्रियान्वित विकास कार्यक्रमों का लाभ आदिवासी क्षेत्र के गैर-आदिवासियों ने उठाया जिनका प्रशासन तंत्र के साथ गहरा सम्पर्क था।

द्वितीय योजना


जनजातीय विकास के लिए इस योजनाकाल में दो अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित किए गए जिनमें कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों को 50:50 के अनुपात में वित्तीय साधनों की व्यवस्था करनी थी। इस योजनाकाल में सामुदायिक अवधारणा को राष्ट्रव्यापी बनाया गया जिसके फलस्वरूप आदिवासी-बहुल क्षेत्र भी सामुदायिक विकास कार्यक्रम की परिधि में आ गए। किन्तु जनजातीय क्षेत्र की समस्याएँ शेष भारत से भिन्न थी। बिखरी जनजातीय आबादी एवं दुर्गम पर्वतीय अंचलों में स्वास्थ्य, शिक्षा, यातायात एवं संचार सुविधाओं की संरचनात्मक कमी के कारण इन क्षेत्रों में ‘विशेष उपचार अपनाना अवश्यंभावी हो गया। फलतः 1955 में ‘विशेष बहुउद्देशीय जनजातीय विकास खण्ड’ के रूप में व्यवस्थित प्रयास द्वारा सांस्कृतिक अवरोधों को दूर करने की दिशा में कारगर कदम उठाए गए। इस योजना में कुल 4672 करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान था जिसमें से जनजातीय विकास हेतु 42.92 करोड़ रुपये व्यय किए गए।

‘विशेष बहुउद्देशीय जनजातीय विकास खण्ड’ सामुदायिक विकास अवधारणा का संशोधित रूप था जो गृह मन्त्रालय तथा सामुदायिक विकास मन्त्रालय द्वारा संयुक्त रूप से प्रायोजित था।

तृतीय योजना


इस योजना काल में ‘विशेष बहुउद्देशीय जनजातीय विकास खण्ड’ का नाम परिवर्तित कर ‘जनजातीय विकास खण्ड’ कर दिया गया तथा क्षेत्र की आर्थिक प्रगति, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास एवं संचार पर विशेष बल दिया गया। विकास नीति को कार्यान्वित करने के लिए इस योजनाकाल में 415 विकासखण्डों की स्थापना की गई और प्रत्येक खण्ड की 25,000 आबादी को शामिल कर कुल जनजातीय जनसंख्या के 38 प्रतिशत भाग को जनजातीय विकास-खण्डों की परिधि के अन्तर्गत लाया गया और यह निर्णय लिया गया कि यह कार्यक्रम उन सभी क्षेत्रों में पहुँचाया जाए जहाँ जनसंख्या का 50 प्रतिशत भाग आदिवासियों का है। इस योजनाकाल के लिए 4577 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया था जिसमें 50.53 करोड़ रुपये जनजातीय विकास कार्यक्रमों पर व्यय किए जाने का लक्ष्य था।

चतुर्थ योजना


उपरोक्त तीन योजनावधियों की क्रमिक विफलताओं के बावजूद न तो आदिवासी विकास की अवधारणा का पुनर्मूल्यांकन किया गया और न ही किसी प्रकार के संरचनात्मक परिवर्तन हेतु कोई ठोस कदम उठाया गया। जो भी हो, चतुर्थ योजना के अन्त तक 504 जनजाति विकास-खण्डों में कुल आदिवासी आबादी की 43 प्रतिशत जनसंख्या को शामिल कर लिया गया था। इस योजनाकाल में 75 करोड़ रुपये जनजातीय विकास कार्यक्रमों पर व्यय किए जाने थे।

सामान्यतः यह माना गया है कि प्रथम योजनाकाल से चतुर्थ योजनाकाल तक आदिवासी कल्याण कार्यक्रमों पर अधिक धनराशि खर्च की गई, परन्तु टास्क फोर्स के प्रतिवेदन से स्पष्ट होता है कि अनुसूचित जनजातियों पर किया जाने वाला व्यय आनुपातिक रूप से घटता चला गया। प्रथम योजना में यह कुल व्यय का एक प्रतिशत था जो चतुर्थ योजना में कुल व्यय का मात्र 0.4 प्रतिशत ही रह गया।

पाँचवीं योजना


जनजातीय विकास योजनाओं में पाँचवें योजनाकाल को मील का पत्थर कहा जा सकता है क्योंकि सर्वप्रथम इसी योजना में जनजातीय विकास हेतु व्यापक एवं सघन कार्यक्रम लागू किया गया। इसे जनजातीय उपयोजना का नाम दिया गया।

इस उपयोजना के उद्देश्य थे-
(1) आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना, तथा
(2) शोषण के विरुद्ध आदिवासियों को संरक्षण प्रदान करना।

उपयोजना की अवधारणा जिला एवं खण्ड स्तर पर सघनता का क्षेत्र सीमांकित करने के पश्चात एकीकृत क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (आई.टी.डी.पी.) ग्रहण करने पर आधारित थी जहाँ जनजातीय आबादी अपेक्षाकृत अधिक थी। बिखरी हुई जनजातीय आबादी वाले राज्य तथा केन्द्रशासित प्रदेशों में संशोधित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (एम.ए.डी.ए.) लागू किया गया किन्तु जनजाति-बहुल राज्यों यथा नगालैंड एवं मेघालय में उपयोजना की आवश्यकता महसूस नहीं की गई क्योंकि सम्पूर्ण योजना का लक्ष्य आदिवासियों का विकास करना था। ऐसे क्षेत्र जिनकी जनजातीय आबादी 50 प्रतिशत या उससे अधिक थी जैसे तमिलनाडु एवं त्रिपुरा, वहाँ अधिसूचित क्षेत्रों में एम.ए.डी.ए. अपनाया गया किन्तु कर्नाटक तथा उत्तर प्रदेश में जहाँ इनकी आबादी फैली हुई थी, परिवार आधारित कल्याण कार्यक्रम लागू किए गए।

इस योजनाकाल के अन्त तक 18 उपयोजना क्षेत्रों को 179 एकीकृत जनजाति विकास परियोजनाओं में विभाजित कर कुल जनजातीय आबादी के 65 प्रतिशत भाग को शामिल कर लिया गया था और जनजातीय विकास हेतु 1102 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था।

उपयोजना क्षेत्र हेतु वित्तीय स्रोत सामान्य राज्य योजनाओं, विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं, केन्द्रीय मन्त्रालयों तथा विशिष्ट केन्द्रीय अनुदानों द्वारा जुटाए गए थे। परिवार आधारित कल्याण कार्यक्रमों के लिए अनुदान, राजकीय कोष एवं ऋण की व्यवस्था विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं द्वारा की गई थी। इस रणनीति के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु आई.टी.डी.पी. तथा आई.टी.डी.ए. लागू किए गए।

आदिवासियों को महाजनों एवं साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए एकीकृत ऋण एवं विपणन सेवाएँ जारी की गईं। बकाया ऋणों से मुक्ति दिलाने, भू-हस्तांतरण पर रोक लगाने एवं भू-वापसी कराने, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, औद्योगीकरण एवं विस्थापन से उत्पन्न समस्याओं का निदान करने तथा मद्यपान से मुक्ति दिलाने के लिए आबकारी नीतियों के पुनर्निरीक्षण जैसे तत्वों पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर ठोस कदम उठाने की व्यवस्था की गई।

छठी योजना


इस योजनाकाल में उपयोजना क्षेत्रों के लिए निम्न दीर्घकालिक उद्देश्य निर्धारित किए गए-

(1) जनजातीय क्षेत्रों तथा अन्य क्षेत्रों के विकास स्तर की दूरियों को कम करना तथा
(2) जनजातीय लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना।

इस अवधि में पिछड़े एवं दुर्गम क्षेत्रों का विकास सुनिश्चित करने के लिए कृषि, कुटीर एवं घरेलू उद्योगों, सहायता प्राप्त व्यवसायों, सम्बन्धित सेवाओं एवं न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों को लागू किया गया। आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के तहत बहुउद्देशीय विस्तृत सहकारी समितियों (एल.ए.एम.पी.एस.) जैसी संस्थाओं की भूमिकाओं पर विशेष बल दिया गया।

छठे योजनाकाल में सामान्य जनजातीय कल्याण की अपेक्षा परिवार आधारित कल्याणकारी योजनाओं को अधिक श्रेयस्कर समझा गया। पहली बार 50 प्रतिशत से अधिक जनजातीय परिवारों को निर्धनता की रेखा से ऊपर उठाने का संकल्प लिया गया और आदिम जनजातीय समूहों को 50 से बढ़ाकर 72 कर दिया गया।

इस योजनाकाल में 39.64 प्रतिशत आदिवासी परिवारों को आर्थिक सहायता प्रदान कर पूर्वनिर्धारित लक्ष्य से 40 प्रतिशत अधिक कार्य किया गया और जनजातीय क्षेत्रों के विकास हेतु 5,535 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की गई।

सातवीं योजना


सातवें योजनाकाल में उपयोजना क्षेत्रों के लिए संरचनात्मक नीति निर्धारण हेतु एक कार्यकारी अध्ययन दल का गठन किया गया जिसके द्वारा निम्न नीतियाँ तय की गईं-

(1) कृषि, उद्यान, वन तथा लघु कुटीर व ग्रामोद्योगों की उत्पादन क्षमता में सुधार लाना,
(2) औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना,
(3) ऋण, बंधुआ मजदूरी, मद्यपान एवं सामाजिक-सांस्कृतिक शोषण का उन्मूलन करना,
(4) आदिम जनजातियों तथा महिलाओं के लिए विशेष कार्यक्रम तैयार करना, तथा
(5) वर्ष 1989-90 में 40 लाख परिवारों को निर्धनता की रेखा से ऊपर उठाना।

इस योजनाकाल में जनजातीय उपयोजना को देश के सभी भागों में लागू करने के लिए 15 राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में कुल 191 आई.टी.डी.पी., 268 एम.ए.डी.ए. तथा 74 जनजातीय समूहों को सम्मिलित किया गया और जनजातीय विकास हेतु 7072.63 करोड़ रुपये आवंटित किए गए।

आठवीं योजना


आठवीं योजना के दौरान अनुसूचित जनजातियों के विकास एवं कल्याण पर कार्यदल ने उपयोजना पहुँच में कई गम्भीर खामियों को चिन्हित किया-

1. कई राज्यों में टी.एस.पी. के परिणाम अपेक्षाओं एवं विनियोजन से मेल नहीं खाते।
2. अनेक राज्यों में जनजतीय विकास पर ध्यान दिए बिना संरचनात्मक विकास पर अत्यधिक बल दिया गया जिसके फलस्वरूप टी.एस.पी. का लाभ गैर आदिवासियों को मिला।
3. टी.एस.पी. हेतु आवंटित धनराशि के व्यय की व्यवस्था अत्यन्त अनियमिततापूर्ण और लचीली है।
4. गैर-आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए जो वैधानिक प्रावधान हैं उन्हें क्रियान्वित करने में लापरवाही बरती गई है।
5. साहूकारों तथा बिचैलियों के चंगुल से आदिवासियों को छुटकारा दिलाने में लैंप्स (एल.ए.एम.पी.एस.) असफल रही है।

अतएव सम्बन्धित केन्द्रीय मन्त्रालयों को निम्न कदम उठाने की सलाह दी गई-

(1) आदिवासी क्षेत्रों के लिए जरूरत आधारित कार्यक्रम बनाना।
(2) समस्त जारी कार्यक्रमों को जनजातीय आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना।
(3) केन्द्रीय मन्त्रालयों में जनजातीय कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराना, तथा
(4) आदिवासियों के कल्याण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की निगरानी हेतु विशेष तौर पर एक वरिष्ठ अधिकारी की नियुक्ति करना।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि आठवीं योजना के कार्यदल का दृष्टिकोण न्यूनाधिक तकनीकी-प्रशासकीय था। इस योजनाकाल में आदिवासियों के विकास हेतु 10,000 करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान किया गया।

मूल्यांकन


जनजातीय विकास कार्यक्रमों का सिंहावलोकन करने से स्पष्ट है कि जनजातीय विकास के नाम पर बहुत-सा रुपया व्यय करने के पश्चात भी जनजातियों को संविधान के अनुरूप सुरक्षा प्रदान करने में सफलता नहीं मिली है।

वस्तुतः जनजातीय विकास नीति ही इस अवनति का कारण बनी जो निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है-

(1) स्वाधीनता के पश्चात इनके विकास के लिए निर्धारित धनराशि जनजातीय क्षेत्रों से लिए गए संसाधन मूल्यों की तुलना में भी कम थी।

जनजातीय क्षेत्रों में वित्तीय निवेश

योजना

कुल योजना व्यय

जनजातीय विकास पर व्यय

प्रतिशत

प्रथम योजना

1960

19.93

1.0

द्वितीय योजना

4672

42.92

0.9

तृतीय योजना

4577

50.53

0.6

चतुर्थ योजना

15902

75.00

0.5

पंचम योजना

39322

1102.00

8.01

षष्ठ योजना

97500

5533.00

5.00

सप्तम योजना

180000

7072.68

3.92

अष्टम योजना

798000

10,000.00

498

स्रोत: ट्राइबल डेवलपमेंट, स्टैटिस्टिकल प्रोफाइल, गवर्नमेंट आफ इंडिया मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स।

 


(2) जनजातियों के अधिकारों की सुरक्षा के सम्बन्ध में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग तथा अन्य उच्च समितियों द्वारा प्रदत्त सिफारिशों को लागू करने में लापरवाही बरती गई।
(3) विकास के लिए किए गए प्रयासों ने जनजातियों में विषमता की स्थितियों को कम करने के बजाय उन्हें और बढ़ा दिया।
(4) जनजातियों के विकास के लिए आवंटित धनराशि को गैर-उपयोजना क्षेत्र में व्यय करने की प्रवृत्ति अब भी जारी है।

इसके अतिरिक्त जनजातीय क्षेत्र के पूर्व जमींदारों की सामंती सोच तथा सरकारी कर्मचारियों एवं व्यवसायी वर्ग का दुर्भावनापूर्ण असहयोग भी आदिवासी विकास कार्यक्रम में बाधक रहा है।

वस्तुतः आदिवासी क्षेत्रों में वहाँ की भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थिति के अनुरूप संविधान की छठी, अनुसूची से मिलता-जुलता संरचनात्मक मॉडल विकसित करके जनजातीय विकास कार्यक्रमों को सार्थक बनाया जा सकता है।

(लेखक कार्तिक उरांव महाविद्यालय रातू, बिहार के वाणिज्य संकाय में विभागाध्यक्ष हैं।)

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