बाढ़ और सूखा

सूखा
सूखा

इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


. बरसात, कुदरत की नियामत है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठे बादल, हर साल, भारत की भूमि को पानी की बूँदों की सौगात देते हैं। कहीं कम तो कहीं अधिक पर बूँदों के अवदान का सिलसिला तीन से चार माह चलता है। शीत ऋतु में, भूमध्य सागर से पूरब की ओर चली हवाएँ जब लम्बी दूरी तय कर उत्तर भारत में प्रवेश करती हैं तो हिमालय की पर्वतमाला उन्हें रोककर बरसने के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करती हैं।

हिमालय की इसी निर्णायक भूमिका के कारण, रबी के मौसम में उत्तर भारत में बरसात होती है। बरसात के आँकड़ों को देखने से पता चलता है कि भारत के पूर्वी भाग में अधिक तो पश्चिमी भाग में कम वर्षा होती है। राजस्थान के थार मरुस्थल में उसकी मात्रा सबसे कम है।

बरसात की मात्रा तथा अन्य घटकों के कारण पूर्वी भारत में मुख्यतः धान तो पश्चिमी भारत में मोटे अनाज बोये जाते हैं। मानसून की अनिश्चितता के कारण भारत के किसी भाग में सूखा तो किसी भाग में बाढ़ का प्रकोप देखने में आता है। किसी-किसी साल तो एक ही इलाका बाढ़ और सूखे की मार झेलता है। बाढ़ और सूखे का असर खेती, पेयजल स्रोतों तथा देश की अर्थव्यवस्था पर दिखाई देता है।

ब्रह्मपुत्र, मेघना, गंगा, यमुना, सोन, गंडक, कोसी, राप्ती, महानन्दा, झेलम, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि नदियों में अक्सर बाढ़ आती है। बाढ़ के कारण कछारी इलाकों और डेल्टा क्षेत्रों में भारी तबाही मचती है। बिहार का मोकामा इलाका और बुढ़ाती नदियों का लगभग सपाट कछार अक्सर बाढ़ की चपेट में रहता है।

देश के हर भाग में हर साल छोटी-मोटी बाढ़ तो आती ही रहती है। बादल फटने से भी बाढ़ आती है। बाँधों को फूटने से बचाने के लिये जब भारी मात्रा में पानी छोड़ा जाता है तो कृत्रिम बाढ़ आती है। यह पानी निचले इलाकों में तबाही मचाता है और जानमाल तथा सम्पत्ति की हानि को बढ़ा देता है। नदियों के मार्ग बदलने से नए-नए इलाकों में बाढ़ आती है।

कोसी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उसके मार्ग बदलने से भारी तबाही मचती है। गंगा कछार के निचले इलाकों में बाढ़ का पानी तटबन्धों को लाँघकर, अक्सर निचली भूमि में जमा हो जलमग्नता पैदा करता है। बाढ़ के कारण होने वाली दूसरी तबाही मिट्टी का कटाव है।

यह मिट्टी कहीं खेतों को उपजाऊ बनाती है तो कहीं उनमें बजरी, कंकड़ और बालू जमाकर उनकी गुणवत्ता खराब करती है। तबाही दौर अषाढ़ से प्रारम्भ हो कुआंर (क्वार) तक चलता है, हर साल, देश के किसी-न-किसी भाग में तबाही लाता है और सरकार तथा लोगों की मुसीबतें बढ़ाता है।

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार देश का लगभग चार सौ लाख हेक्टेयर इलाका बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के अर्न्तगत आता है। उसकी मात्रा में हर साल इज़ाफा हो रहा है।

अनुमान है कि हर साल लगभग 76 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बाढ़ आती है। औसतन 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसल नष्ट होती है। सन् 1987 में लगभग 175 लाख हेक्टेयर इलाका बाढ़ से प्रभावित हुआ था।

बाढ़ से हर साल लगभग 1600 लोग और लगभग 94,000 पशु मरते हैं। सन् 1998 में बाढ़ से लगभग 5846 करोड़ का नुकसान हुआ था। आशंका है कि आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन का असर उसकी विभीषिका तथा जानमाल की हानि के ग्राफ को बढ़ाएगा।

पिछले पचास-साठ सालों में बाढ़ के असर को कम करने के लिये अनेक काम हुए हैं। उनके निर्माण पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च की गई है पर कुछ लोग, बाढ़ नियंत्रण से सम्बन्धित अनेक कामों (मुख्यतः तटबन्धों तथा बाँधों) की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। ग़ौरतलब है कि पिछले सालों में बाढ़ की चेतावनी का बेहतर नेटवर्क स्थापित हुआ है।

यह नेटवर्क लोगों को समय पर सचेत करता है, सरकारी अमले को सक्रिय करता है लेकिन वह बाढ़ की समस्या का समाधान नहीं है इसलिये बाढ़ से तबाही मचती है। लोग अस्थायी कैम्पों में रहकर बाढ़ उतरने का इन्तजार करते हैं। लौटकर जब घर जाते हैं तो फिर से आशियाने को ठीक करने में जुट जाते हैं। बाढ़ उनके लिये वरदान नहीं अभिशाप होती है।

बाढ़, प्राकृतिक घटना है। कुछ अरसे से उसमें मानवीय हस्तक्षेप जुड़ गया है। प्राकृतिक कारणों यथा बादल फटने या अप्रत्याशित बरसात पर भले ही हमारा नियंत्रण नहीं है पर मानवीय हस्तक्षेप के कारण होने वाली बाढ़ को कम करने के बारे में सोचा जाना चाहिये और पूर्वाग्रह को त्यागकर नए विकल्प तलाशने चाहिए।

पुराने समय में, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में, बरसाती पानी को कछार में बनाए जलाशयों में रोकने की परिपाटी थी। बड़ी या मंझौली नदियों पर बाँध बनाकर पानी रोकने का चलन नहीं था। इस कारण, नदीमार्ग से बाढ़ का पानी अल्पकाल में निकल जाता था और बाढ़ की त्रासदी तथा अवधि अपेक्षाकृत कम होती थी। बाढ़ के पानी के साथ अधिकतम सिल्ट भी बिना रोक-टोक के बह जाती थी। सिल्ट के बह जाने के कारण नदी मार्ग पर पानी का निकास बेहतर होता था। नदी अविरल तथा स्वच्छ रहती थी।

भारत के पश्चिमी भूभाग में अपेक्षाकृत कम पानी बरसता है। राजस्थान सहित पश्चिमी घाट की वृष्टिछाया में आने वाले इलाकों में भी अक्सर कम ही पानी बरसता है। आँकड़ों की भाषा में कहें तो इस साल, देश में अभी तक लगभग 15 प्रतिशत कम बारिश हुई है। यह प्रारम्भिक अनुमानों से लगभग तीन प्रतिशत अधिक है।

मासिक जानकारी के अनुसार जून-जुलाई में अधिक और अगस्त सितम्बर में कम वर्षा हुई है। अधिक वर्षा के कारण एक ओर यदि खरीफ का रकबा बढ़ा है तो अगस्त-सितम्बर में हुई कम वर्षा के कारण खरीफ फसलों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम होगा। कृषि विभाग का अनुमान है कि इस साल दालों का उत्पादन 5.5 प्रतिशत और तिलहन फसलों का उत्पादन 10 प्रतिशत कम रह सकता है।

भारत जैसे विशाल देश में मानसून की बेरुखी, उसका असमय या जल्दी विदा होना, कम या अधिक बरसना, सूखे के कारण फसलें नष्ट होना, जलाशय फूटना या आधे-अधूरे भरना और पेयजल संकट गहराना आम बात है। सब जानते हैं कि बरसात की कमी के कारण पीने के पानी का संकट गहराता है। जलाशय तथा तालाब आधे-अधूरे भरते हैं। सिंचित रकबा घटता है।

भूजल का उपयोग बढ़ता है। भूजल स्तर तेजी से गिरता है। जल स्रोत और छोटी नदियाँ असमय सूखती हैं। हजारों सालों से देश इन घटनाओं से रुबरु है। उसके लिये मानसून का उपरोक्त व्यवहार अनहोनी घटना नहीं है।

भारत जैसे विशाल देश में मानसून की बेरुखी, उसका असमय या जल्दी विदा होना, कम या अधिक बरसना, सूखे के कारण फसलें नष्ट होना, जलाशय फूटना या आधे-अधूरे भरना और पेयजल संकट गहराना आम बात है। सब जानते हैं कि बरसात की कमी के कारण पीने के पानी का संकट गहराता है। जलाशय तथा तालाब आधे-अधूरे भरते हैं। सिंचित रकबा घटता है। भूजल का उपयोग बढ़ता है। भूजल स्तर तेजी से गिरता है। जल स्रोत और छोटी नदियाँ असमय सूखती हैं। हजारों सालों से देश इन घटनाओं से रुबरु है।पुराने समय में किसान बरसात की प्रकृति की समझ के आधार पर देशज बीजों की मदद से खेती करते थे। खेती करते समय ज़मीन की सामर्थ्य देखी जाती थी। स्थानीय बरसात, ज़मीन और वातावरण किस फसल के लिये मुफीद है, के अनुसार फैसले लिये जाते थे। नमी या पानी की सुविधा वाले खेतों में दो फसलें ली जाती थीं।

किसान, फसलों को बदल-बदल कर बोते थे। एक ही खेत में एक से अधिक फसल ली जाती थी। एक से अधिक फसल लेने अर्थात मिश्रित खेती करने के कारण मानसून की बेरुखी का खास असर नहीं होता था और मिट्टी की गुणवत्ता बरकरार रहती थी। खेती भले ही असिंचित थी पर खेती का पूरा तरीका प्राकृतिक घटकों पर आधारित था।

फसलों तथा उनके बीजों का चयन इस प्रकार किया जाता था कि उत्पादन पर बरसात की सामान्य घट-बढ़ का बहुत ही कम असर पड़ता था। ग़ौरतलब है कि प्राचीन कृषि पद्धति, केवल स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल करती थी। वह बाजार पर निर्भर नहीं थी। वह प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध भी करती थी।

उत्पादन अपनी तथा स्थानीय समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिये किया जाता था। खाद्यान्न आपूर्ति के लिये नगर, ग्रामों पर निर्भर थे। प्राचीन पद्धति के असर से बीज हानिकारक, खेत अनुत्पादक, मिट्टी घटिया और पानी प्रदूषित नहीं होता था। पर्यावरण ठीक रहता था। गाँव का हर खेत, देशज कृषि अनुसन्धान केन्द्र था।

खेती कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के लिये मोहताज नहीं थी। बीजों की अनुशंसा का काम, परिणाम देखकर किया जाता था। परम्परागत खेती का स्थानीय वर्षाचक्र से गहरा नाता था। सूखा कभी-कभार ही पड़ता था। भारतीय किसान वर्षा, खेत की मिट्टी और बीजों के रिश्ते से अच्छी तरह वाकिफ था।

मानसून का अध्ययन और उसकी सटीक भविष्यवाणी, मौसम वैज्ञानिकों का कार्यक्षेत्र है। उनके पास देशव्यापी नेटवर्क और अनुभव की थाथी है। सरकार का सहयोग है। सारी दुनिया से सम्पर्क है। अनुसन्धान और जानकारी का सुलभ तथा सहज आदान-प्रदान है। उपरोक्त सुविधाओं की पृष्ठभूमि में समाज की अपेक्षा, मौसम की वह सटीक भविष्यवाणी है जो उसे निरापद खेती करने, जल स्रोतों के भरने, नदियों के अविरल प्रवाहित होने जैसे कामों को करने में सहायक हो।

खरीफ की फसलों पर मुख्यतः दो खतरे होते हैं। असमय हुई बरसात और सूखे अन्तराल उसे हानि पहुँचाते हैं। अधिक पानी बरसने तथा जल निकास की अपर्याप्तता के कारण फसल सड़ जाती है। सूखे का सही तरीके से सामना करने के लिये फसल को सही समय पर सही मात्रा में पानी चाहिये।

सही समय पर पानी की सही मात्रा का अर्थ है अंकुरण, विकास और इष्टतम उत्पादन के लिये इष्टतम जल उपलब्धता। नदियों में अविरल प्रवाह के लिये कैचमेंट से पानी की सतत आपूर्ति और पानी का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग। रालेगाँव, हिवरे बाजार या सुखोमाजरी के उदाहरण बताते हैं कि कम बरसात के बावजूद निरापद खेती सम्भव है और सूखे का सामना किया जा सकता है। अलवर, राजस्थान का उदाहरण बताता है कि कम बरसात के बावजूद नदियों को जिन्दा किया जा सकता है।

खरीफ की फसलों पर दूसरा खतरा सूखे अन्तरालों का होता है। खरीफ की फसलों को सूखे से बचाने के लिये स्थानीय बरसात के आँकड़ों की मदद से सूखे अन्तरालों की अवधि और संख्या ज्ञात की जानी चाहिए। इन सूखे अन्तरालों में फसल की सम्भावित माँग का आकलन कर उसकी पूर्ति के तरीकों तथा स्रोतों के बारे में विचार करना चाहिये।

यह काम क्षेत्रीय आधार के स्थान पर हर खेत के लिये किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये पहला अन्तराल जुलाई के तीसरे सप्ताह में सम्भावित हो तो प्रारम्भिक बरसात के पानी का संचय इस प्रकार किया जाये कि उसे जरूरत के समय हासिल किया जा सके। अधिकांश इलाकों में यह संचय धरती के नीचे या ऊपर या दोनों जगह किया जा सकता है।

इस विधि से बरसात के मौसम में फसल को सुरक्षात्मक सिंचाई उपलब्ध कराने के लिये ज़मीन के नीचे, ऊपर या उसके मिलेजुले अंश का पानी, नदी नालों में उपलब्ध प्रवाह तथा निकटतम तालाबों में संचित पानी का उपयोग किया जा सकता है। इस अवधारणा पर काम करने से बरसात की फसलों पर सूखे के असर को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

रबी की फसलों का लेना, खेत में उपलब्ध नमी और स्थानीय मौसम के मिजाज पर निर्भर होता है। उत्पादन पर स्थानीय तापमान, वाष्पीकरण, मिट्टी की पानी सहेजने की क्षमता, ओस और शीतकालीन बरसात इत्यादि भी प्रभाव डालते हैं।

पुराने समय में लोग परम्परागत अनुभव के आधार पर तथा खेत की माटी के गुणधर्मों के आधार पर केवल उचित फसल ही बोते थे। वे खेती में प्रकृति से जुड़ी कहावतों, उपयुक्त नक्षत्रों और अनुभवजन्य कहावतों का उपयोग करते थे।

ज्ञातव्य है कि भारत में प्रचलित उपरोक्त विधियाँ आज भी अस्तित्व में हैं। भारतीय किसान उन पर पूरा विश्वास करता है तथा उनके संकेतों या सुझावों का अनुसरण करता है। सूखे से निपटने के लिये उसकी समझ को और पुष्ट करने की आवश्यकता है।
 

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