बाढ़ की बहस महफिलों से निकल कर बाजार में आ गई

यह व्यवस्था यदि चलती रहती तो शायद लोग ऊँचे और मजबूत तटबंधों के बारे में न सोचते। वैसे भी इस तरह के तटबंध स्थानीय आवश्यकताओं और भागीदारी के आधार पर बनते थे। इन बुजुर्गों को यह व्याख्या करनी तो नहीं आती कि ऐसे तटबंध नदी द्वारा भूमि निर्माण की प्रक्रिया में बाधा नहीं डालते थे पर वह इतना जरूर कहते हैं कि कैसे उनके खेतों पर हर साल नई मिट्टी पड़ती थी और जाहिर है कि नदी अपना यह कर्तव्य आसानी से पूरा करती थी।

कोलकाता सम्मेलन (1897) कोसी के लिए किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका मगर सम्मेलन के बाद छोटे-मोटे तटबंध चारों ओर बनने लगे थे। इंजीनियर, कैप्टन एफ.सी. हर्स्ट (1908) इन तटबंधों और उनकी भूमिका पर पैनी नजर रखे हुये था। उसका कहना था कि, ‘‘ इधर कुछ वर्षों से कोसी के बाएं किनारे पर पूर्णियां जिले में बाढ़ से कुछ समय के लिए निजात पाने के लिए व्यक्तिगत प्रयासों से बीर बांध की तर्ज पर बहुत से तटबंध बने हैं। यह बाद में समझ में आयेगा कि यह भविष्य में जनहित के लिए खतरा बनेंगे।’’ उसने चीन में जिस तरह ह्नांग हो नदी पर तटबंध बनाये गये थे उसकी भी तीव्र भर्त्सना की और कहा कि, ‘‘ चीनियों ने गलत तरीक़े से डिजाइन का उपयोग करके एक पीढ़ी को फायदा पहुंचाने और भविष्य की सभी पीढ़ियों को नुकसान पहुंचाने का सबसे अच्छा उदाहरण पेश किया है जिसके परिणाम बड़े शोचनीय हैं। वहां की एक बहुत ही महत्वपूर्ण नदी को, जो कि अपने पानी में लाई गाद के जमाव के कारण भूमि निर्माण का एक निश्चित कार्य कर रही थी, इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वह एक निश्चित धारा में बहे और इसके लिए उसे तटबंधों में कैद किया गया, उसके सारे निकासों को बंद करके उसे अपने पूरे इलाकों पर गाद फैलाने से रोका गया जबकि इस गाद की उन क्षेत्रों को बहुत आवश्यकता थी। आने वाली हर पीढ़ी के पास नदी की हमेशा बढ़ती हुई बाढ़ों का मुकाबला करने के लिए तटबंधों को ऊँचा करते रहने के अलावा कोई रास्ता न बचा और आजकल इस नदी में बहुत से स्थानों पर आस-पास के कन्ट्री साइड की जल-निकासी करके खेती की व्यवस्था की गई है और यह कृषि साल दर साल बढ़ने वाली जनसंख्या का पोषण करती है। एक असामान्य बाढ़ आने पर तटबंध या तो टूट जाते हैं या उनके ऊपर से पानी बह निकलता है और चढ़ा हुआ पानी उन्हीं लोगों की अगली पीढ़ियों के विनाश का कारण बनता है जिन्होंने भला सोच कर ही इस अनर्थ का रास्ता खुद तैयार किया था। ...तटबंध बनाने का खौफनाक नतीजा हिन्दुस्तानी इंजीनियरों के लिए एक चेतावनी समझा जायेगा। ज्यादा संभावना इस बात की है कि हाल के वर्षों में उत्तर बिहार के जिलों में जो विनाशकारी बाढ़ें आई हैं, अगर यह पूरी तरह नहीं तो काफी हद तक, इन इलाकों में तटबंधों की मौजूदगी के कारण आई हैं। नदी की धारा को मजबूर करके एक निश्चित प्रवाह पथ से बहाना, चाहे वह कितनी ही छोटी नदी क्यों न हो, वास्तव में प्रकृति की मंशा के खिलाफ है। एक तटबंध, जिसमें पानी की निकासी के लिए मामूली या नहीं के बराबर रास्ते बनें हों और जिससे उम्मीद की जाती हो कि वह बाढ़ से रक्षा करेगा, वास्तव में प्रकृति को ललकारता है, उसको अपमानित करता है और इस तरह के अपमान को पचा जाना प्रकृति की आदत नहीं है।’’

हर्स्ट ने सात साल तक नदियों की खाक छानने के बाद थोड़ा बहुत कहने का साहस बटोरा था और इस पूरे मुद्दे पर बहस निखारने की कोशिश की थी और यह बहस चली भी। एक समय बंगाल प्रांत के चीफ इंजीनियर रहे डब्ल्यू.ए. इंगलिस (1909) ने हर्स्ट द्वारा उठाये गये सवालों का जवाब दिया और कुछ कहने के पहले उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि, ‘‘बंगाल की नदियों से जिन इंजीनियरों का वास्ता पड़ा है उनमें से कुछ तो नदी के किनारे बनाये जाने वाले तटबंधों को एकदम ही घृणित चीज मानते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी इंजीनियर हैं जो कि यह मानते हैं कि यदि संबंधित विषयों की पूरी जानकारी और विवेक के साथ तटबंधों की डिजाइन की जाय तो इनसे फायदा हो सकता है और मैं खुद अपने आप को इसी पक्ष का समर्थक मानता हूं। फिर भी, यह पूरी तरह माना जाता है कि तटबंध अनियंत्रित बाढ़ों के मुकाबले हलकी बुराई है और यह निश्चित रूप से कल्याणकारी हैं।’’ इंगलिस ने और भी स्थिति को साफ किया कि, ‘‘सच यह है कि (गंगा के मैदानों की) ऐसी नदियों के कुछ गुण समान हैं। इनमें से सभी को कम या अधिक मात्रा में सिल्ट वहन करना पड़ता है तथा यह कि लगभग सभी नदियां किनारे काटती हैं। फिर भी इन सभी क्षेत्रों में हर नदी में काफी अंतर है और मैं ऐसी हरेक नदी के अनूठेपन को सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर खास जोर दूंगा।’’

एफ.सी. हर्स्ट ने प्रकृति के साथ और खास कर नदियों के साथ छेड़-छाड़ न करने की बात कही थी, प्रकृति को ललकारने और उसके बदला लेने की बात उठाई थी जिसके बारे में इंगलिस का कहना था, कि ‘‘ इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रकृति की बड़ी ताकतों को काबू में करने या बदलने के बारे में हम कुछ भी नहीं कर सकते। हम न तो बारिश करवा सकते हैं, न सूरज चमका सकते हैं और न ही हवा को बहा सकते हैं। फिर भी हम प्रकृति के साथ उलझ सकते हैं और उसके क्रिया-कलाप में रोज सुधार कर सकते हैं और यह करते भी हैं। हमने चुन करके और संकरण से बहुत से पौधों और जानवरों की नस्ल में सुधार किया है। हमने पानी जमा करने के लिए जलाशय बनाये हैं और हम नदी नालों से पानी खींच कर सिंचाई के लिए खेतों में डालते हैं और ऐसा करते समय हम प्रकृति की व्यक्त मंशा की कभी परवाह नहीं करते। नदियों द्वारा तट के कटाव से बचाव हम करते हैं और हमीं ने उन जगहों से बालू और मिट्टी हटाई है जहां प्रकृति चाहती थी कि वह बनी रहे। फिर भी ऐसे कामों की एक सीमा होती है और हमें इस सीमा के अंदर रहना होगा और सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम इन सीमाओं को पहचानें और आनुपातिक मर्यादाओं का ख्याल रखें।’’

इंगलिस ने यह इशारा जरूर किया कि नदियों के किनारे कम ऊँचाई के तटबंध बनाये जा सकते हैं और उसके ऊपर से पानी बहाने की व्यवस्था की जा सकती है जिससे कि एक हद तक बाढ़ से बचाव भी हो सकता है और नदी अपना भूमि निर्माण का काम भी सुचारु रूप से चला सकती है। विल्कॉक्स ने दामोदर घाटी के संबंध में जो कुछ भी कहा है वह प्रायः ऐसी ही व्यवस्था की ओर एक इशारा है।

विलियम इंगलिस, जो कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में बंगाल के चीफ इंजीनियर थे और सारी बातें समझते भी थे फिर भी पता नहीं क्यों उनके कार्यकाल में इस तरह के प्रयोग क्यों नहीं हो पाये या पुरानी कारगर व्यवस्था फिर क्यों नहीं लागू की गई और क्यों उसे जान-बूझ कर मरने दिया गया। इस तरह का प्रस्ताव आज भी किया जाता है कि तटबंधों के साथ-साथ नियंत्रित बाढ़ें पैदा करके निचले इलाकों और चौरों को पाटने का काम चलता रहे जिससे अधिकाधिक निचली जमीन का पुनरुद्धार किया जा सके। यह काम हमारा कृषक समाज पहले से कर भी रहा था मगर राज-सत्ता और इंजीनियरों ने इसमें बेवजह दखलअंदाजी की, लोगों के सामूहिक प्रयास को खत्म किया, उन पर सरकारी व्यवस्था थोपी, उनके पारम्परिक ज्ञान को समाप्त कर दिया और अपनी हर हरकत का खर्चा भी किसानों से ही वसूला। अब अगर ऐसी किसी तरह की सामूहिक व्यवस्था को फिर से चालू किया जाये तो बस एक दिक्कत है और वह यह कि बाढ़ सुरक्षा का आंशिक स्वरूप आम जनता के गले नहीं उतरेगा। बाढ़ से सुरक्षा या तो पूरी तरह मांगी जायेगी या उसके बिना ही काम चलेगा। लेकिन आंशिक सुरक्षा या एक सीमा तक सुरक्षा और उसके बाद बाढ़, इस तर्क को आम लोग बिना एक व्यापक शिक्षण अभियान चलाये समझने वाले नहीं हैं। भारत जैसे देश में ऐसा समाधान बेहतर होते हुये भी एक अव्यावहारिक समाधान का मुद्दा बन कर रह जायेगा। लोग हमेशा यह पूछते ही रहेंगे कि बाढ़ से सुरक्षा नहीं मिलने वाली है तो बाढ़ से बचाव का कोई काम करने से भी क्या फायदा?

फिर भी बाढ़ के इलाकों के पुराने लोगों का कहना है कि अंग्रेजों ने जमींदारों द्वारा बनाये गये कम ऊँचाई के कमजोर तटबंधों के पीछे की तार्किकता को समझने में भूल की। उनका कहना है कि कम ऊँचाई का होने के कारण यह केवल एक सीमा तक ही बाढ़ को रोक पाते और लोगों का अभीष्ट भी यही था। सीमा से बाहर जाने पर बांध टूटने की तैयारी पहले से रहा करती थी और नदियों द्वारा भूमि-निर्माण का काम भी चलता रहता था और बांध की मरम्मत भी आसान थी। कम ऊँचाई का तटबंध होने के कारण उनके टूटने से नुकसान कम होता। नदी के पानी के केवल ऊपरी सतह का पानी खेतों पर फैलता जो कि बहुत अच्छा उर्वरक होता है। खेतों पर बालू नहीं बैठता और खेत खराब नहीं होते। यह व्यवस्था यदि चलती रहती तो शायद लोग ऊँचे और मजबूत तटबंधों के बारे में न सोचते। वैसे भी इस तरह के तटबंध स्थानीय आवश्यकताओं और भागीदारी के आधार पर बनते थे। इन बुजुर्गों को यह व्याख्या करनी तो नहीं आती कि ऐसे तटबंध नदी द्वारा भूमि निर्माण की प्रक्रिया में बाधा नहीं डालते थे पर वह इतना जरूर कहते हैं कि कैसे उनके खेतों पर हर साल नई मिट्टी पड़ती थी और जाहिर है कि नदी अपना यह कर्तव्य आसानी से पूरा करती थी।

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