बाढ़ मुक्ति अभियान बाढ़ पीड़ितों का निर्मली सम्मेलन निर्मली, जिला- सुपौल, बिहार रिपोर्ट 5-6 अप्रैल 1997 (Barh Mukti Abhiyan Second Delegates Conference Nirmali, Supaul, Bihar Report April 5-6, 1997)


यह सम्मेलन निर्मली में तेरा पंथ के प्रांगण में 5-6 अप्रैल को सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में सर्वप्रथम बाढ़ मुक्ति अभियान के सह-संयोजक श्री विजय कुमार ने बाढ़ मुक्ति अभियान का परिचय उपस्थित लोगों को दिया। उन्होंने बताया कि 1984 में जब कोसी नदी पर बना पूर्वी तटबन्ध नौहट्टा के पास टूटा तब वह तटबन्ध नहीं एक आस्था टूट गई थी। तटबन्धों की छोटी-मोटी दरारों और उससे होने वाले नुकसानों को अब तक एक दुर्घटना माना जाता था पर नौहट्टा वाली घटना एक प्रलय के समान थी। नदी की धारा तटबन्ध तोड़कर बाहर आ गई। लगभग 70,000 हेक्टेयर क्षेत्र में पानी फैला, साढ़े चार लाख लोग बेघर हुये। बहुत से लोगों की जानें गई और जानवर मारे गये।

इस दुर्घटना के बाद हमलोगों ने बाढ़ की समस्या का अध्ययन किया और 1987 तक काफी जानकारी हमलोगों के पास थी। उस वर्ष 1987 में कोसी का पश्चिमी तटबन्ध समानी और घोंघेपुर में टूटा और उसके साथ अन्य नदियों पर ऐसी 103 घटनायें और हुईं। अब बाढ़ों की विभीषिका को बढ़ाने में तटबन्धों की भूमिका निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुकी थी। अब तक के अनुभवों के आधार पर हमलोगों ने बाढ़ की समस्या को लेकर लोक शिक्षण का कार्यक्रम शुरू किया। उत्तर बिहार की विभिन्न नदी घाटियों, पश्चिम में घाघरा से लेकर पूर्व में महानन्दा तक हमलोगों ने शिविर, गोष्ठी, जन-संवाद के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। एक बात जो हम स्पष्ट रूप से कह सकने की स्थिति में थे कि बाढ़ों का नियंत्रण न तो तकनीकी तरीकों से संभव है और न ही यह वांछनीय है। बाढ़ तो आनी ही चाहिये पर जिस तरह की बाढ़ का निर्माण हमने तटबन्धों को बना कर पैदा किया, वह नहीं।

हमें नदियों की स्वाभाविक बाढ़ चाहिये, प्राकृतिक बाढ़ चाहिये। मानव निर्मित और अप्राकृतिक बाढ़ नहीं। तटबन्धों के टूटने पर तो प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है, यह बाढ़ तो बाढ़ नहीं है। तटबन्ध के बाहर पानी के अटकने से एक दूसरी किस्म की बाढ़ पैदा होती है जो जल-जमाव के रूप में एक लम्बे समय तक तकलीफ देती है। हमने इन सारी बातों को लोगों तक ले जाने का प्रयास किया। स्वयं इंजीनियर लोग भी अब बाढ़ नियंत्रण की बात छोड़कर बाढ़ प्रबन्धन की बात करने लगे हैं। यानी बाढ़ के साथ अब तक जो कुछ किया गया है उससे भिन्न कुछ किया जाना चाहिये, यह बात वे भी स्वीकार करते हैं। हमलोग भी यही मानते हैं। पर जो सुझाव उनका है- बाराह क्षेत्र जैसे बाँध बनाने का, उससे हमारा मतभेद है। वास्तव में यदि बाढ़ प्रबंधन की ही बात की जाय तब भी इस दिशा में जो कुछ होना चाहिये उसके बारे में केवल बातें होती हैं, काम नहीं होता।

सूखा क्षेत्रों का ख्याल किया जाये। वहाँ सूखी खेती पर काम हुआ, जल छाजन पर काम हुआ, फसल पद्धति पर काम हुआ, मगर बाढ़ वाले क्षेत्र में वैसा आज तक कुछ भी नहीं हुआ। बाढ़ प्रबंधन की बात कीजिये तो जबाब मिलता है फ्लड प्लेन जोनिंग और उसके बाद सब कुछ शांत। इन सब मुद्दों को उभारने के लिये 1991 में हमलोगों ने मिल कर एक संगठन बनाया और नाम रखा बाढ़ मुक्ति अभियान। बाढ़ से मुक्ति एक सापेक्ष संदर्भ है। हमें प्राकृतिक बाढ़ से मुक्ति नहीं चाहिये पर अब हमारे यहाँ प्राकृतिक बाढ़ रही कहाँ। वह तो जो भी है अपाकृतिक है, मानवीकृत है। उससे हमें जरूर मुक्ति चाहिये। 1992 में पटना में बाढ़ मुक्ति अभियान का पहला सम्मेलन हमलोगों ने विद्यापति भवन में जुलाई 1-2-3 को किया। पूरे प्रान्त से और देश के विभिन्न हिस्सों से सात सौ के आस पास प्रतिनिधि आये थे। शायद पहली बार इतने लोगों ने एक साथ बैठकर बाढ़ पर चर्चा की होगी। इसके बाद कोसी क्षेत्र में कोपड़िया से बीरपुर तक की पदयात्रा का कार्यक्रम हुआ- उस क्षेत्र के लोगों ने किया।

इंजीनियर लोग बाढ़ के मसले को तकनीकी समस्या बनाकर आम आदमी की समझ के परे की चीज बना देते हैं, जबकि यह कॉमन सेन्स के अलावा कुछ नहीं है। वास्तव में उन्हें आम आदमी से बात करने की आदत ही नहीं है और न ही वे उसकी बात को कोई तरहीज देते हैं। वे सब अपने दायरे में अपनी मर्जी से काम करने में अभ्यस्त हैं। हम लोग तकनीकी मसले के इस मिथक को तोड़ना चाहते हैं।

दूसरा सम्मेलन करने के लिये हमने दूर दराज इलाके में निर्मली को चुना क्योंकि आज से 50 साल पूर्व यहीं 6 अप्रैल 1947 को एक बाढ़ पीड़ितों का सम्मेलन हुआ था जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. श्री कृष्ण सिंह तथा श्री गुलजारी लाल नन्दा जैसे दिग्गज नेता आये थे। उसी दिन कोसी हाई डैम का सार्वजनिक प्रस्ताव रखा गया था। बाद में उसकी जगह बने कोसी तटबन्ध और अब क्योंकि इन तटबन्धों की भूमिका संदिग्ध हो गई है तो बात फिर कोसी हाई डैम पर चली गई। इन पचास वर्षों में हाई डैम की भूमिका पर भी काफी काम हुआ है। कहीं कोसी हाई डैम भी संदिग्ध भूमिका वाला उपाय तो नहीं है। इसका हमें विश्लेषण करना चाहिये। बाँध बनाने वाले तो बनाकर चले जायेंगे। निर्मली का चुनाव करने के पीछे इसके समय और स्थान का ऐतिहासिक सन्दर्भ हमलोगों के दिमाग में घूम रहा था। यह एक छोटी जगह है, असुविधायें होंगी पर इसका एक ऐतिहासिक महत्व है।

हमारी विडम्बना है कि सरदार सरोवर में केवल 1,29,000 विस्थापित लोग हैं-उन्हें सारी दुनिया जानती है। यहाँ कोसी में 8 लाख लोग तटबन्ध के अन्दर होंगे और इतने ही तटबन्ध के बाहर भी होंगे जो पिछले चालीस साल से बाढ़ की यंत्रणा भोग रहे हैं। कमला क्षेत्र वालों को मिला लें तो लगभग 20 लाख हो जायेंगे। हमें कोई नहीं जानता। हमें खुशी है कि आज हमारे बीच में उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असम, दिल्ली, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक आदि प्रान्तों से हमारे मित्र आये हैं तथा इसके साथ ही दक्षिण बिहार के सूखे के क्षेत्र से भी बहुत से मित्र आये हैं। हम उन सभी का स्वागत करते हैं। उत्तर बिहार की सभी नदी घाटी क्षेत्रों के लोग यहाँ मौजूद हैं- सबका स्वागत है।

इस आयोजन में स्थानीय लोगों ने बड़ी मदद की है। श्री हरि प्रसाद साह, श्री सूर्य नारायण कामत तथा प्रो. धीरेन्द्र ने व्यवस्था करने में और उससे ज्यादा हमलोगों का हौसला बढ़ाने का काम किया है। हम इसका पूरा फायदा उठायेंगे और यहाँ आगे की रणनीति तय करेंगे।

श्री विजय कुमार के परिचयात्मक भाषण के बाद श्री हरि प्रसाद साह ने सभी आगन्तुकों का स्वागत किया। सम्मेलन का विधिवत उद्घाटन प्रख्यायत समाजकर्मी और बिहार कुदाल सेना के अध्यक्ष श्री राम लखन जी झा ने किया।

उन्होंने कहा कि जल ही जीवन है- वायु और अन्न जितना ही महत्त्वपूर्ण। जल के बिना जीवन की कल्पना व्यर्थ है किन्तु विज्ञान ने उन्मत होकर प्रकृति के साथ सामन्जस्य छोड़ कर उससे लड़ने का काम किया। नतीजा हुआ कि बाढ़ और सुखा दोनों उग्र रूप में सामने आये। उन्होंने कहा कि जब सारी प्रकृति पर अज्ञान था तब भारत में ज्ञान का प्रकाश फैला और यह ज्ञान हमें नदियों के किनारे मिला। हमारी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, सांस्कृतिक धरोहर, सभी कुछ तो नदियों के किनारे प्राप्त हुये। दुर्भाग्य से विज्ञान ने सीमा का अतिक्रमण करके के इस धारा हो उलट दिया है। मिथिला को देखिये - पश्चिम में गंडक, पूर्व में कोसी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगा, इस पूरे भाग को विभिन्न नदियों ने पवित्र किया। विदेह का स्मरण कीजिये, सीता माता का स्मरण कीजिये। सब ने इस क्षेत्र को धन्य किया और आज हम यहाँ की बाढ़ पर बात करने बैठे हैं। फँस गये हैं। यह कुदाल सेना की पुस्तिका है- बाढ़ रोको या बाँध तोड़ो। कब से हमलोग यह मुद्दा उठा रहे हैं। 1987 में सम्मेलन किया था कि यह बाढ़ मानवीकृत है, तकनीकी तिकड़म का खेल है।

मेरा सुझाव है कि आप सब अब एक कमेटी बनाइये और यह तय कीजिये कि अभी तक पूरी बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं में कितना खर्च हुआ और उसके अनुसार कितनी उन्नति हुई है। कम से कम उत्तर बिहार के लिये इतना किया जाय। अभी तक इन सारी योजनाओं की समीक्षा नहीं हुई है, उपलब्धि क्या है इसके बारे में विस्तार से कुछ नहीं मालूम। कोसी-कमला के क्षेत्र में आकर देखिये- सिंचाई विभाग की कॉलोनी है, घर बना हुआ है, सामान पड़ा हुआ है और वहाँ देखने के लिये कोई आता जाता तक नहीं है। यही हाल बाकी जगहों पर भी होगा। इसके जन-मूल्यांकन की व्यवस्था कीजिये और ऐसा सिद्धांत इस सम्मेलन में लीजिये।

श्री राम लखन जी झा के भाषण के साथ उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ।

दूसरे सत्र की अध्यक्षता डॉ. गुरूदास अग्रवाल (चित्रकूट) ने की तथा संचालन श्री दिनेश कुमार मिश्र ने किया। विषय प्रवेश के लिये श्री मिश्र ने बताया कि बहुत से क्षेत्रों में विकास के स्थान पर विकास का भ्रम पैदा किया गया है। बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में भी अधिकांशतः ऐसा ही हुआ है जहाँ बाढ़ का नियंत्रण न करके बाढ़ नियंत्रण का भ्रम पैदा किया गया है। इस सत्र में भिन्न-भिन्न नदीघाटियों से आये प्रतिनिधियों ने अपने-अपने क्षेत्र में बाढ़ और जल जमाव की स्थिति पर प्रकाश डाला।

गण्डक क्षेत्र के बारे में चनपटिया (पश्चिमी चम्पारण) से आये श्री कामेश्वर लाल ‘इन्दु’ ने कहा कि गंडक में हमारी यह वेदना है कि चाहे हम बाँध के अन्दर हैं या बाँध के बाहर- दोनों ही हालत में पुनर्वास की प्रतीक्षा में बैठे हैं। चम्पारण में जहाँ गंडक पहाड़ से उतरती है या जहाँ बूढ़ी गंडक का जन्म होता है- नदियों के जाल में बसा है। छोटी-बड़ी 59 नदियाँ हैं यहाँ के 16 प्रखण्डों में। हर आधा किलोमीटर, एक किलोमीटर पर एक नदी है और उनके जाल के बीच हम बसे हैं। इसलिये बाढ़ वहाँ बड़ी बात नहीं है। 1965 में जब गंडक पर बराज बना तथा भारत के प्रधानमंत्री और नेपाल नरेश ने उस समय जो उद्घाटन भाषण दिये थे हम आज तक इन्तजार में हैं कि उन घोषणाओं में जो कहा गया था वह धरती पर कब उतरे। दोनों प्रधानों ने चम्पारण और उसकी धरती से लगे लोगों के साथ विश्वासघात किया। तब कहा गया था कि चम्पारण में बाढ़ नियंत्रित हो जायेगी। दुर्भाग्य से चम्पारण घटता-बढ़ता रहता है।

बिहार/नेपाल की सीमा है। नदी दोनों को बाँटती है। एक किनारा नेपाल है। पश्चिम में उत्तर प्रदेश है, पूरब में बिहार है। नदी की धारा बदलती रहती है, कटाव होता रहता है। नेपाल वाला किनारा पत्थर से बंधा है अतः उधर कटाव नहीं होता है पर उत्तर प्रदेश और बिहार वाला किनारा कटता है। जब बाढ़ आती है तब तो कुछ नहीं पर बाढ़ जाते समय कटाव बढ़ता है। भारत घट रहा है, नेपाल बढ़ रहा है। वार्तायें होती हैं। जैसे बांग्लादेश के साथ तीन बीघा का प्रश्न है, उसी तरह चम्पारण में भी जमीन का सवाल है। 20 एकड़ का एक प्लॉट है, उसी पर झमेला बरसों से चल रहा है। हम उसी में जी रहे हैं। बाढ़ का सवाल-गंडक का बायां बाजू तटबन्ध 250 साल पहले बना। लगता था हम सुरक्षित हैं।

1993 तक नहीं टूटा। दायां बाजू पिपरा पिपरासी तटबन्ध है। 40 वर्षों में 53 बार टूटा है। बायां 1993 में टूटा, ब्लॉक पूरी तरह कट गया। पक्का मकान, खेत, खलिहान सब कट गया। जिसे हम सुरक्षित मानते थे 250 वर्षों से आज वहाँ गाँव नहीं है। चम्पारण का सबसे शिक्षित और सम्पन्न गाँव बथना, अब नहीं है। इस बार बाढ़ में क्या होगा कोई कह नहीं सकता। बाढ़ हमारी नियति है। बाँध बनने के बाद सिंचाई की बात थी। तत्कालीन राष्ट्रपति जी के क्षेत्र को पानी जाना था जिसके कारण बाँध नेपाल तक ले जाना पड़ा होगा। नहरें नेपाल से शुरू हुई। पश्चिमी गंडक नहर में बिजलीघर नेपाल में बैठाया गया। यह सारा सरअंजाम नेपाल में भारत सरकार की ओर से होता है और हमलोग पश्चिमी चम्पारण में डूब रहे है। गण्डक के पानी से आज मुजफ्फरपुर वैशाली का क्षेत्र डूब रहा है। जरूरत के समय वहाँ पानी नहीं है।

जिस धरती पर तटबन्ध बना है वहाँ नहर का पानी नहीं है। कभी वाल्मीकि हमारे यहाँ पैदा हुये थे। पहले डाकू थे बाद में महामानव बने। अब हम केवल डाकू हैं। डाका डालना अपराध नहीं रहा हमारे यहाँ-व्यापार है। ऐसा क्यों होता है। सिकरहना का जन्म हमारे यहाँ हुआ है। वह बढ़ते-बढ़ते 9 प्रखण्डों को बरबाद करती है। 250 वर्षों का बाँध हो या 40 वर्ष का, कोई काम नहीं करता। बिहार के पश्चिमी हिस्से के तटबन्ध की मरम्मत उत्तर प्रदेश वाले करते हैं। 6 महीने के लिये बिहार से इस हिस्से का सम्पर्क समाप्त हो जाता है। पडरौना-तमकुही आबाद होते हैं। इन दोनों नदियों के बीच प्रायः 20 लाख लोग परेशान हैं- कब हैं कब नहीं। कब कौन गाँव है कब नहीं है यह भी पता नहीं रहता। राहत तो हमारे यहाँ स्थायी है।

जब बाढ़ नहीं रहती तब कटाव होता है। एक किलो चूड़ा लेने के लिये तीन किलोमीटर पानी में होकर जाना पड़ता है। उसमें भी मार होती है। कहा तो गया है कि बाढ़ खत्म हो जायेगी, सिंचाई के लिये पानी मिलेगा बिजली मिलेगी। चम्पारण की धरती तो सोना है, पानी मिलेगा। पानी मिला भी परन्तु जितनी जमीन की सिंचाई मिली उससे ज्यादा में जल जमाव हुआ। लखनी चौर तथा तरकुलवा चौर में तीन-तीन फसल होती थी। जहाँ पर अब फसल का नामोनिशान नहीं है वहाँ। लोग बरबाद हो गये, कंगाल हो गये। बहुत इन्तजार किया कि कुछ सुधार होगा पर कुछ नहीं हुआ। मन भी टूट गया। और अब हिमम्त भी पस्त होने वाली है। किसे कहें कि वह बाँध के भीतर है। किसे कहें बाहर। हमारे लिये तो सब बराबर है। यहीं 35 वर्ष पहले एक महात्मा गांधी परियोजना शुरू की गई। नाम है मशान डैम परियोजना। 150 गाँव लेकर योजना बनी। नदी घाटी परियोजना की ओर से 750 कर्मचारियों की बहाली हुई-परियोजना गायब है पर कर्मचारी हैं 35 वर्षों से। काम शुरू नहीं हुआ- कब होगा शायद ऊपर वाला जानता है। शायद जरूरत भी नहीं है।

जिस दिन यह काम शुरू होगा उसी दिन बचा खुचा चम्पारण जो कल उजड़ने वाला है वह आज शुरू हो जायेगा। इसकी कोई उपयोगिता है ही नहीं। तो यह सारा हमारा चम्पारण का रोना है। इन्हीं सब बातों को लेकर पिछले तीस वर्षों से हम लड़ाई रहे हैं। अनेक लड़ाइयाँ लड़ी गई हैं। दो बार पानी की निकासी का कार्यक्रम बना हमारे यहाँ। नहर बनी, स्लुइस गेट बना। जब पानी निकालने का समय आया तब गेट खोला गया। चौर का पानी निकलने के स्थान पर नदी का पानी उल्टा चौर में घुस आया। लाचार होकर गाँव वालों को स्लुइस गेट बन्द करना पड़ा। जो स्लुइस गेट पानी निकालने के लिये बना था उसी ने पानी लाकर तबाही बढ़ाई। हमारी पवित्र नदी तो ऊपर से उतरी है, हमारी सारी मुसीबतें भी ऊपर से उतरी हैं। बाढ़ को हम रोक नहीं सके। बाँध जब काम ही नहीं करता तो उसकी जरूरत ही क्या है। इसलिये एक आन्दोलन होना चाहिए, एक मुहिम होनी चाहिये।

इसके अलावा पत्थर निकालने का ठेका जो दिया जाता है जिसमें हमारा गौनाहा ब्लॉक इसी पत्थर निकालने के चक्कर में बर्बाद हो गया। यह देश का पहला प्रखण्ड है और इसी में भितिहरवा आश्रम है जहाँ गांधी जी रहे थे। यहाँ की धरती, जमीन पर लोग इस पत्थर कटाई से परेशान हैं। आज हम यहाँ कुछ नया रास्ता निकालने के लिये आये हैं। यह जीने का रास्ता हो सकता है, मरने का रास्ता हो सकता है, मरते-मरते जीने का रास्ता हो सकता है या फिर जीते-जीते मरने का रास्ता हो सकता है। हम जो भी रास्ता चुनें उसमें चम्पारण के लोग तन-मन-धन से सब के साथ रहेंगे।

कमला और कोसी नदी के बीच के तथाकथित रूप से बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र से आये श्री देवनाथ देवन ने बताया कि कमला नदी मुख्य रूप से मधुबनी जिले के लिये अभिशाप बनी हुई है। आज कमला नदी का जो रूप हमारे सामने हैं वास्तव में नदी पर तटबन्ध बनने के पहले उसका वह रूप नहीं था। हमारे राजनेता अपने क्षेत्र में अपना-अपना करिश्मा दिखाने के लिये, कुछ श्रेय लेने के लिये तथा अपनी आँख विधान सभा या लोकसभा की सीट पर गड़ाये रखते हुए नदी को बाँधते रहे हैं। जैसा श्री राम लखन झा जी ने बताया कि पीढ़ी से लेकर जसिमा मराड़ तक जहाँ कमला का तटबन्ध नहीं है उसी इलाके के लोग जानलेवा बाढ़ से बचे हुए हैं और कहीं ज्यादा खुशहाल हैं। कमला तटबन्ध के किनारे पर शायद ही कोई ऐसा गाँव हो जो जल-जमाव से परेशान न हो।

जब कमला तटबन्ध नहीं था पानी मुक्त रूप से आता था, कभी उपजाऊ मिट्टी तो कभी बालू फैला कर चला जाता था। अच्छी फसल हो जाया करती थी। बाढ़ आती जरूर थी पर पानी कभी भी घुटने के ऊपर नहीं चढ़ता था। बिरले कभी कोई बाढ़ आई तभी कमर तक पानी आया। तटबन्ध बनने के पहले का कोई उदाहरण हमें नहीं मालूम जबकि कोई गाँव बह गया हो मगर कमला तटबन्ध बनने के बाद हर साल कितने ही गाँव बहते हैं या लापता हो जाते हैं। यह खतरा बढ़ता ही जा रहा है। कमला तटबन्ध जब बना तो नेता/ठेकेदार ही आगे थे मगर जब जनता यह कहती है कि हमने बहुत सुरक्षा प्राप्त कर ली, बहुत आराम कर लिया अभी अब तटबन्ध नहीं चाहिये तो अब हमारे इलाके में गुण्डे भेजे जाते हैं, ठेकेदार भेजे जाते हैं, उनके साथ पुलिस भेजी जाती है कि तुम्हारे कहने से होगा कि बाँध बनने नहीं दिया जायेगा।

आखिर यह बाँध न बनेगा तो निहित स्वार्थों का धंधा कैसे चलेगा। बंदरबांट कैसे होगी। इस परम्परा को चलाये रखने के लिये बाँध का बनना और टूटना बहुत जरूरी है। मैंने तो कोसी और कमला के तटबन्धों को घूम-घूम कर देखा है। जहाँ भी मरम्मत होती है वहाँ तटबन्ध के ठीक अन्दर की मिट्टी काटकर तटबन्ध पर डाल दी जाती है। इस तरह तटबन्ध के साथ-साथ गड्ढा बन जाता है, और नदी बढ़कर तटबन्ध के पास आ जाती है और उसके लिये तटबन्धों को तोड़ देना आसान हो जाता है। अब तटबन्ध बचाने के लिये पाइलिंग का ठेका निकलेगा। हमारी जमीन तो बाहर बरबाद है और जल जमाव में फंसी है। अब अगर कलमा तटबन्ध को लोग भगवानपुर में, निर्मला में, खैरी में काटें तो पुलिस आती है, धर पकड़ होती है, मामला मुकदमा होता है, लोगों को जेल में भर दिया जाता है। अब ऐसे में लोग ठेकेदारों, इंजीनियरों या गुण्डों को खदेड़ कर न भगाएं तो क्या करें। सरकार तो आमादा है तटबन्ध बनाने के लिये और टूटे बाँध की मरम्मत करने के लिये-जनता भले ही विरोध करती रहे। यदि यह नहीं बनेगा तो प्रशासन का काम कैसे चलेगा।

पिछले साल हमलोग बाढ़ समस्या के लिये धरना दे रहे थे क्योंकि कमला का तटबन्ध कई जगह टूट चुका था, बाद में कुछ जगह लोगों ने भी काटा था। प्रशासन कहता था कि असामाजिक तत्वों ने तटबंध काटा था। प्रश्न यह है कि जिसकी लापरवाही और मर्जी से तटबन्ध टूटता है वह क्या है? हमलोगों ने तो काटा अपनी जान बचाने के लिये क्योंकि पानी निकलने का कोई रास्ता नहीं है। बार-बार अनुरोध करने पर कि तटबन्ध मत बाँधों, फिर भी प्रशासन आकर जोर जबर्दस्ती करता है- नदी को बाँधता है तो निश्चित रूप से उन्हें कहीं-न-कहीं फायदा होता होगा तभी तो। समस्या से निबटने के लिये अब कुछ ठोस उपाय करना चाहिये और यह जितना जल्दी हो सके उतना बेहतर है।

श्री देवन जी की बात को आगे बढ़ाते हुए उसी क्षेत्र के श्री कामेश्वर कामति ने कहा कि पिछली साल जब तटबन्ध काटा गया तो प्रशासन ने प्राथमिक सूचना रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई। कहा जाता रहा कि तटबन्ध टूटा है। राजनेता यह बयान देते रहे कि असामाजिक तत्वों ने काटा। और काटने वाले कहते रहे कि तटबन्ध काटा गया। कम से कम स्थिति यही थी।

दूसरी बात यह कि मैं खुद कमला तटबन्ध के बाहर का रहने वाला हूँ और तकनीकी रूप से सुरक्षित क्षेत्र का हूँ। 1987 की बाढ़ में मेरे घर में कमर तक पानी घुसा और घर गिर गया जो कि मैं आज तक नहीं बनवा पाया हूँ। मेरे जैसे सैंकड़ों हजारों लोग होंगे जो कि घर गिरने के बाद बनवा नहीं पाते। यह हाल सुरक्षित क्षेत्रों का है।

इसके बाद निर्मला तथा खैरी (जिला-मधुबनी) के सर्व श्री सम्पत लाल तथा दिगम्बर जी ने कमला के किनारे, बसे अपने-अपने गाँवों की दुर्दशा का वर्णन किया और बताया कि किस तरह कुछ तो तटबन्ध टूट जाने के कारण तथा कुछ तटबन्धों को काट दिये जाने के कारण सुरक्षित क्षेत्र में जल जमाव से कुछ राहत मिली और लगभग बसी साल बाद उनके गाँव में पुनः खेती शुरू हो सकी।

श्री दिनेश कुमार मिश्र ने टिप्पणी की कि वास्तव में विकल्प बहुत सीमित हैं क्योंकि जिस क्षेत्र के बारे में सर्वश्री देवनाथ देवन, कामेश्वर कामति, सम्पत लाल या दिगम्बर जी ने बताया वहाँ यदि बाशिन्दे कमला और कोसी के पानी से बच जायें तो गेहुमा, सुगरवे या फिर सुपैन के पानी में डूबेंगे। कारण यह है कि नदी का तल आस-पास की जमीन के ऊपर हो गया है; स्लुइस गेट, यदि हैं भी तो, काम नहीं करते।

गुणाकरपुर के श्री रामेश्वर जी ने बताया कि वह कमला के बायें किनारे के बाहर से हैं जहाँ ऊपर से आया पानी जा नहीं पाता, नदी में। बाँध टूटे या कटे तो दस हाथ मिट्टी पड़ जाती है। 1987 में भी ऐसा ही हुआ था। कितनी मिट्टी आई-इसका टेण्डर होता तो कितना दाम बैठता। फिर तीन महीना लोग सोते नहीं मारे डर के। जहाँ टूटा नहीं है वहाँ भी जल-जमाव है। मगर प्लान, एस्टीमेट होता है कुछ-काम होता है। सिर्फ पैसा खर्च कर देना ही मकसद है। काम से कोई खास वास्ता नहीं है। पिछले साल जब निर्मला के पास बाँध कटा और टूटा और उससे जो मिट्टी कन्ट्री साइड में पड़ी, अगर उतनी मिट्टी डालने का टेण्डर किया गया होता तो करोड़ों रूपये खर्च होते। सरकार इसका हिसाब क्यों नहीं करती। हम अगर जल-जमाव में फँसे रहें और कुछ न बोलें तो इसका मतलब है कि हमारा विकास हो रहा है।

महानन्दा तटबन्ध विरोधी संघर्ष समिति, कदवा प्रखण्ड, कटिहार से आये श्री विनोद कुमार साह ने बताया कि महानन्दा का पश्चिमी तटबन्ध बेलगच्छी से शुरू होता है। बाँध के अन्दर लगभग 5 लाख लोग आज 25 वर्षों से लगातार बरबाद हो रहे हैं। जिस समय बाँध नहीं था उस समय राजनीतिज्ञों द्वारा लोगों को प्रलोभन दिया गया कि महानन्दा को बाँध देने से बाढ़ की समस्या एकदम समाप्त हो जायेगी। आज चाहे लोग बाँध के अन्दर हो या बाहर सभी तबाह हैं। कहने के लिये हमारे यहाँ जमींदार है- 200 बीघा जमीन होगी पर खाने के लिये पास में दाना नहीं है। हमारे यहाँ बाँध और तटबन्धों का यही फायदा हुआ है। जो किसान थे वह मजदूर हो गये और जो मजदूर थे वह भिखमंगे हो गये।

सरकारें आती जाती रहती हैं। वह चाहे भारत सरकार हो या राज्य सरकार- बाँध के अन्दर वालों के लिये एक मुठ्ठी अन्न लेकर मदद करने के लिये नहीं आती हैं। एक योजना के तहत ऐसा लगता है, कि बाँध के अन्दर रहने वालों के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। 1987 की बाढ़ में जब हमलोगों की जान पर बन आई तो कचौरा के पास महानन्दा का पश्चिमी तटबन्ध हमें काट देना पड़ा और बाद में सरकार ने इस स्थान पर तटबन्ध को पुनः बाँध दिया। इस तरह से कई जगह तटबन्ध बंधते रहे और हर साल अन्दर रहने वालों की सुरक्षा से खिलवाड़ होता रहा। आखिर में हमलोगों ने तय किया कि अब और अधिक बर्दाश्त नहीं करेंगे और पिछले वर्ष (1996) एक महानन्दा तटबन्ध विरोधी संघर्ष समिति का गठन हमलोगों ने किया और श्री मांगन इन्सान के नेतृत्व में इस समिति ने काम करना शुरू किया।

इसी 2 फरवरी को तीन स्थानों पर टूटे महानन्दा तटबन्ध की मरम्मत के लिये आये ठेकेदारों और इंजीनियरों तथा पुलिस को समिति के कार्यकर्ताओं ने खदेड़ दिया। बाद में 7 तारीख को पता लगा कि तटबन्ध की मरम्मत का काम फिर कल से शुरू होने वाला है। यह भी पता लगा कि इस बार तटबन्ध पर एक प्लेटफार्म बनाया जायेगा जिस पर बाढ़ के समय शरण लेने की व्यवस्था रहेगी, वहाँ शौचालय भी बनाया जाएगा। हमारा इससे मतभेद था। यदि ऐसा ही प्लेटफार्म बनना है, शौचालय बनने हैं तो हमारे गाँव में बनने चाहिये। पर हमारी समझ है कि यह प्लेटफार्म हमारे लिये नहीं वरन तटबन्ध पर पुलिस बल की आवास व्यवस्था के लिये बनाये जा रहे हैं। रातोंरात, हमलोगों ने लाउडस्पीकरों की मदद से एक गाँव से दूसरे गाँव खबर की कि कल तटबन्ध मरम्मत का काम शुरू होने वाला है। सुबह होते-होते लगभग सात हजार लोग (सरकारी अनुमान के अनुसार) उस जगह इकट्ठे हो गये जहाँ तटबन्ध मरम्मत का काम शुरू होने वाला था और एक बार फिर ठेकेदारों, इंजीनियरों तथा पुलिस बल को खदेड़ा गया और उन्हें हिदायत दी कि फिर इस काम के लिये इधर न आयें।

ठेकेदारों से लिखवाकर हमलोगों ने बयान लिया कि यदि स्थानीय जनता नहीं चाहेगी तो हम तटबन्ध नहीं बाँधेंगे। फिर भी प्रशासन ने तटबन्ध बाँधने के कार्यक्रम को वापस नहीं लिया तब 17 फरवरी को हमलोगों ने प्रखण्ड कार्यालय का घेराव किया कि जो सरकार एक मुट्ठी अनाज नहीं मुहैया कर सकती वह बाँध कैसे बाँध लेगी। बाँध के खुला रहने से दोनों तरफ की जनता खुश है। अन्दर वाले इसलिये कि अगली बाढ़ में अब पानी का लेबेल जानलेवा स्तर तक ऊपर नहीं उठेगा और बाहर वाले इसलिये कि अब बाँध टूटने या काटने का खतरा उनके ऊपर नहीं रहेगा। नदी की सामान्य बाढ़ से निबटना तो हमारे यहाँ सबको आता है। आज जाकर हमारा क्षेत्र देख कर आइये बाँध के दोनों तरफ गेहूँ की जबर्दस्त फसल लगी हुई है, ऐसी कि जैसे पहले कभी हुई नहीं। तटबन्ध बाँधने का तो अब तर्क ही हमारे समझ में नहीं आता।

आज तो हम इतना ही जानते हैं कि जब तक तटबन्ध बंधता रहेगा या उसकी मरम्मत होती रहेगी तब तक हम उसका विरोध करते रहेंगे और किसी शर्त पर इसे बाँधने नहीं देंगे। हमारी इस सम्मेलन से यह अपेक्षा है कि एक राज्य स्तरीय कमेटी बने जो कि इस सारे क्रियाकलाप पर नजर रखें और एक दिशा-निर्देश देने का काम करे।

पूर्वी कोसी तटबन्ध के पूर्व के कठघरा पुनर्वास गाँव के श्री ब्रह्मदेव चौधरी का कहना था कि निर्मली सम्मेलन के पचास साल पूरा होने के बाद हम यहाँ पिछले समय में किये गये कामों का मूल्यांकन करने के लिये बैठे हुये हैं। वास्तव में कोसी तटबन्ध बनने के बाद हमलोगों के क्षेत्र में स्थिति बद से बदतर हुई है। ‘‘मेरा गाँव पूर्वी कोसी तटबन्ध के 114 कि.मी. के आस-पास में है। बूढ़े लोग बताते हैं कि धान, दलहन और तेलहन की कमी हमारे क्षेत्र में तटबन्ध बनने के पूर्व नहीं होती थी। मछली तथा मखाना भी बहुतायत से होता था। तटबन्ध के बाहर हमारे क्षेत्र में पूरा जल जमाव है जिसकी निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। पूरे इलाके में भाखन (जलकुम्भी) फैली हुई है।

बाँध के अंदर हर साल गाँव कटा करता है और जमीन पर बालू पड़ जाया करता है। जहाँ अच्छी मिट्टी पड़ गई वहाँ कुछ फसलें हो गई वरना इस पूरे इलाके के लोग, चाहे वह तटबन्ध के अन्दर के हों या बाहर के, रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली, पंजाब का रुख करते हैं। पहले तो केवल वयस्क ही जाते थे पर पिछले दस वर्षों से बच्चे भी जाने लगे हैं- आमतौर पर भदोही, मिर्जापुर, के कालीन क्षेत्र में। बाँध के अन्दर लोग बाढ़ और कटाव से परेशान हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की इस सम्मेलन में बाढ़ समस्या के स्थायी निदान की दिशा में कुछ सुझाव आयेंगे जिन पर अमल किया जा सकेगा।’’


बागमती क्षेत्र के निवासी श्री विजय कुमार (सह-संयोजक, बाढ़ मुक्ति अभियान) ने अपने वक्तव्य में कहा कि बागमती बिहार में तीन हिस्सों में बांटी जा सकती है। ऊपरी हिस्सा सीतामढ़ी जिले में नेपाल सीमा से लेकर रुन्नी सैदपुर तक 32 किलोमीटर की दूरी में दोनों तरफ बंधा हुआ है। रुन्नी सैदपुर से लेकर समस्तीपुर में कलंजर घाट तक यही नदी अभी भी मुक्त है और उसके बाद धर्मपुर से लेकर धमारा घाट तक जहाँ यह कोसी में मिलती है, पचास के दशक में ही तटबन्धों के बीच बाँध दी गई थीं उन्होंने कहा कि बागमती नदी घूम लीजिये तो एक तटबन्धित नदी और गैर तटबन्धित नदी का अन्तर स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगा। हमारे एक बहुत बड़े इंजीनियर थे। बड़ा नाम उनका-बागमती पर बहुत लिखा और किया है उन्होंने। स्वानामधन्य इंजीनियर थे पर उनकी रीढ़ की हड्डी नहीं थी। ऐसे लोग सत्ता के लिये बहुत उपयोगी होते हैं। कहा भी है-

तख्त के आगे अदब से आइये
रीढ़ की हड्डी अलग रख आइये


उन्होंने 1954 तक बागमती के बारे में जो कुछ कहा उसका सार यही है कि बागमती एक चंचल तथा कुमारी नदी है उसकी शादी करना अर्थात उसे बन्धन में डालना उचित नहीं है। बागमती का पानी गीता के प्रवचन की तरह पवित्र और जीवनदायी माना जाता था पर कोसी नदी पर जब तटबन्धों का काम शुरू हुआ तब राजनीति ने अपना रंग दिखाया। जो लोग बागमती को एक कुमारी और चंचल नदी मानते थे वह उस समय चुप रह गये। हमारा गाँव जहाँ है वहाँ बागमती का ऊपरी तटबन्ध समाप्त होता है। अतः हम उस क्षेत्र के हैं जहाँ तटबन्ध है भी और नहीं भी है पर ऊपर बने तटबन्धों का असर हमारे ऊपर भी पड़ता है। हमने वह समय भी देखा है जब यह तटबन्ध नहीं था। बागमती का पानी आता था। पूरे इलाके पर फैलता था- स्वागत योग्य बाढ़ आती थी, फसल होती थी, सब कुछ ठीक-ठीक चलता रहता था।

जब यह ऊपर वाला तटबन्ध बना तब देश में एमरजेंसी लगी हुई थी, मुखर विरोध तो सम्भव नहीं था क्योंकि लगभग कुछ भी अहमियत रखने वाले सारे लोग जेल में थे पर किसानों को लगता था कि कुछ मुट्ठी पर पढ़े लिखे लोग जो भी कर रहे हैं नदी के साथ, वह अच्छा नहीं कर रहे हैं। उनको न तो नदी के प्रवाह का ज्ञान है न बागमती में आने वाली मिट्टी की गुणवत्ता का ज्ञान है और न ही हमारी जीवन शैली और आवश्यकताओं का बोध है। उन्होंने विरोध किया जोकि निर्णायक स्वरूप नहीं ले सका और तटबन्ध बना। हमारे क्षेत्र में तो फिर भी गनीमत है पर हमारे ठीक उत्तर पश्चिम में जहाँ नेपाल सीमा से आता हुआ बागमती तटबन्ध आता है वहाँ तो समस्यायें ही समस्यायें हैं।

वहाँ तटबन्ध टूटते हैं ओर लोग काटते भी है जल जमाव हटाने के लिये। इसी क्षेत्र के हमलोगों के एक शुभचिन्तक आजकल केन्द्र में मंत्री हैं जोकि पहले बिहार विधान परिषद के अध्यक्ष हुआ करते थे। उनके क्षेत्र में भी जलजमाव उग्र रूप धारण किये हुये था। और वहाँ भी तटबंध कटता था। जिसका संचालन मंत्री जी स्वयं किया करते थे। मिश्रा जी की पुस्तक ‘बन्दिनी महानन्दा’ के विमोचन समारोह में स्वयं उन्होंने यह बात बताई थी कि कैसे वह लोग पहले फावड़ा-कुदाल लेकर तटबन्ध काटते थे पर बाद में उन्होंने यह काम डीजल पम्प की मदद से करना शुरू किया। पम्प के इनलेट पाइप जल जमाव वाले क्षेत्र में और आउटलेट तटबन्ध के ऊपर रखकर पम्प चला दिया जाता था। थोड़ी देर में तटबन्ध और जल जमाव दोनों समाप्त हो जाता था। आज उनका क्या स्टैंड है हम नहीं कह सकते पर यह बात उन्होंने एक सार्वजनिक मंच से कही थी जिसकी वीडियो फिल्म भी हमारे पास है।

1993 में क्या हुआ। कुछ लोग कहते हैं कि बागमती बाढ़ की समस्या का समाधान नेपाल में नुनथर में डैम बना देना है। नेपाल में इसी नदी की सहयोगी धार पर बना एक कुलेखानी डैम है- इस बाँध की ऊँचाई के लिहाज से कोई हैसियत नहीं है। यह भी एक विद्युत उत्पादन की योजना है जिसमें बाँध के नीचे एक पॉवर हाउस बना हुआ है। यहाँ एक बात कह देना आवश्यक है कि नेपाल में जो भी बाँध प्रस्तावित है-जिनके बारे में हम आगे चर्चा कर पायेंगे, उनमें मुख्य उद्देश्य बिजली उत्पादन ही है- बाढ़ नियंत्रण नहीं। चाहे वह कोसी पर प्रस्तावित बाराहक्षेत्र बाँध हो, बागमती पर प्रस्तावित नुनथर हो या फिर कमला पर प्रस्तावित शीसापानी बाँध हो- सभी बिजली उत्पादन को ही ध्यान में रखकर कर बनेंगे।

1993 की बाढ़ में कुलेखानी बाँध के पॉवर हाउस तक पानी ले जाने वाला पेनस्टाॅक पाइप टूट गया और उससे ऊँचे दबाव से पानी बहना शुरू हुआ जो कि फिर नदी में वापस आया। भारी दबाव के कारण नदी पर बने करमहिया बराज को तोड़ता यह पानी भारत में घुसा पर उसके पहले वह ग्यारह सौ नेपालियों की जान ले चुका था। जब यह पानी बिहार में घुसा तब छः जगह बागमती तटबन्धों को तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। चार गाँवों का तो पता ही नहीं लगा। इस दुर्घटना के कई दिनों बाद हम लोग वहाँ पहुँच पाये तब केवल चापाकल (हैण्ड पम्प) का पाइप देखकर अन्दाजा लगता था कि यहाँ कभी कोई गाँव रहा होगा। भारी तबाही हुई। गाँव के लोग आसपास के ऊँचे स्थानों पर शरण लिये हुये थे। उनसे जब बातें हुई तो उन्हें गाँव घर बह जाने का दुःख तो अवश्य था पर वह यह भी मानते थे कि इस बार वर्षों बाद उनकी जमीन पर बागमती की मिट्टी पड़ी है और वह इस बार जमीन से सोना उपजने की अपेक्षा रखते थे।

वहाँ प्रशासन ने जब तटबन्ध बाँधने की बात उठाई तो स्थानीय लोगों ने मना किया। प्रशासन के न मानने पर गाँवों में शहीदी जत्थे का निर्माण हुआ कि लोग जान दे देंगे पर बागमती के टूटे तटबन्धों को अब बन्धने नहीं देंगे। वही ढेंग के मध्य विद्यालय में 31 जुलाई 1993 को एक सम्मेलन हुआ जिसमें लोगों ने तय किया कि किसी भी कीमत पर तटबन्धों की मरम्मत का काम रोका जायेगा और तब से आज 1997 तक यह टूटा तटबन्ध सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद बाँधा नहीं जा सका। इतना विशाल जन समर्थन वहाँ तटबन्धों के खिलाफ जुटा। आज उस क्षेत्र में जाइये तो देख पायेंगे कि जहाँ-जहाँ तक बागमती का पानी फैल पाता है वहाँ जबर्दस्त फसल है अन्यथा वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने से बाकी जगहों पर सन्नाटा है। दीमक का भारी प्रकोप है सूखे के क्षेत्रों में। बागमती परियोजना में तटबन्धों से बाढ़ सुरक्षा देने की बात थी और वह बाढ़ सुरक्षा लोग चाहते नहीं हैं।

बागमती परियोजना में सिंचाई देने की बात थी लगभग 40 करोड़ रुपया खर्च हुआ होगा केवल सिंचाई पर, और एक भी कट्ठा जमीन सींची नहीं जा सकी। बागमती क्षेत्र में भी अब लोग इन बातों से उब चुके हैं और अब अपनी नदी को मुक्त देखना चाहते हैं। वास्तव में यह मुहिम नेता, इंजीनियर और ठेकेदारों की तिकड़ी के विरुद्ध है जिसके मिट्टी के कामों में अपने निहित स्वार्थ हैं। जवाहर रोजगार योजना से लेकर तटबन्धों के निर्माण तक यह जाल फैला हुआ है। इसका संगठित रूप से विरोध ही एक मात्र विकल्प बचता है। हमलोगों को इसी दिशा में कुछ प्रयास करना पड़ेगा।

इसके बाद श्री रामनन्दन कामत ने अपनी बात कही। 7 अप्रैल, 1947 को तत्कालीन योजना मंत्री ने इसी निर्मली में बाराह क्षेत्र योजना की घोषणा की थी जिसकी लागत उस समय 100 करोड़ रुपये थी। मगर इस राशि के उपलब्ध न हो पाने के कारण 1953 में बिहार सरकार ने तटबन्धों वाली योजना को स्वीकार किया जिसमें सिंचाई तथा बिजली उत्पादन का भी प्रावधान कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि उनका गाँव कमलवा, कोसी तटबन्धों के बीच में मधुबनी जिले में पड़ता है। इस 1953 वाली योजना की उपलब्धि क्या हुई। हमलोग अब कोसी तो नहीं पर भुतही बलान की बाढ़ से परेशान रहते हैं। इस नदी पर भी तटबन्ध बनाये जाने की बात थी पर लगभग 60-70 गाँवों के लोगों ने इसका संगठित रूप से विरोध कर के अभी तक काम रोका हुआ है।

श्री विवेकानन्द मिश्र, ग्राम नरुआर (मधुबनी) ने अब तक के वक्तव्यों से मत भिन्नता रखते हुए अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि लोगों के अपने-अपने मत हैं और उसके समर्थन में उनके अपने-अपने तर्क हैं। जब हम किसी योजना के विरोध में बात करते हैं तो उसके पूरी समष्टि के बारे में बात करना समग्रता में बात करना उनके विचार से आवश्यक है। उन्होंने कहा कि, अन्य क्षेत्रों से आये मित्रों के मत पर अपना विचार कम से कम आज की व्याख्यानमाला में डालना नहीं चाहेंगे लेकिन कमला, बलान के तटबन्ध के नीचे जहाँ उनका घर है केवल उस पर अपना विचार केन्द्रित करेंगे। उन्होंने आगे कहा कि, ‘‘मैं कमला नदी के ऊपर अपने अग्रज देवन जी की बातें बड़ी गंभीरता से सुन रहा था और उन्होंने जो भी बातें मेरे सामने कही उनमें पहली है कि बाढ़ मेरे लिये अभिशाप है।

मित्रों! मेरा मानना है कि बाढ़ मेरे लिये अभिशाप के साथ-साथ वरदान भी है। मैं यहाँ देख रहा हूँ कि बहुत से लोग यहाँ बैठे हैं जो कि कमला, बलान के तटबन्ध बनने के पूर्व के हैं। और जो यह अनुभव करते हैं कि तटबन्ध बनने के पूर्व भी बाढ़ आती थी, बरबादी होती थी। तटबन्ध बनने के बाद इसके स्वरूप में परिवर्तन हुआ होगा लेकिन यह कहना निराधार है कि तटबन्ध के कारण ही बाढ़ की विभीषिका बढ़ी है। तटबन्ध के कारण जो परिणाम आये हैं उसके सारे परिणाम सुखद नहीं हो सकते पर बाढ़ का कारण केवल तटबन्ध का बनना नहीं है। रामेश्वर जी कह रहे थे कि उन्होंने तटबन्ध को काटा। शायद इसका कारण था कि उनके गाँव के सामने जो 1995 में तटबन्ध टूट गये थे उनके गैप को सरकार द्वारा भरा नहीं गया और उससे पानी निकल कर उनके गाँव में और उकने घरों में घुसा।

यह एक अलग विषय है कि उनके तटबन्ध काटने से उनके गाँव में नई मिट्टी पड़ी। लेकिन उस गैप के नहीं भरे जाने के कारण जो पानी इनके घरों में घुसा उसके आक्रोश में उन्होंने तटबन्ध काटा। मैं उस गाँव में गया था, जिन लोगों पर एफ.आई.आर हुआ था उसकी एक प्रति मुझे भी मिली थी। उसके पहले दिगम्बर जी आये थे, उन्होंने भी काटा। मिट्टी भरी होगी मगर फटकी के बाद, निर्मला के बाद भगवानपुर के नीचे उसकी क्या परिणति हुई होगी, ऊँची, बेलही में काटा गया। पचही के महावीर बाबू बैठे हैं। उनके गाँव में पानी गया। मैं भी वहाँ था। स्थिति खराब थी। वहाँ लोगों ने विरोध किया था कि नहीं। अगर देवन जी के तर्क को स्वीकार करते हैं। बाँध हम काटते हैं तो उस सम्भावना से इन्कार नहीं करते हैं कि कल फिर गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो जायेगी। मेरे गाँव के लोग भी तटबन्ध काटने के पक्ष में हैं लेकिन कोठिया के लोगों का क्या होगा, रैयाम के लोगों का क्या होगा? तीन महीने तक उनके घर पानी में फंसे रहेंगे।

ठीक है काटने से लाभ होगा, मिट्टी आ जायेगी। मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि यदि हवाई जहाज से स्मगलिंग होती हो तो हवाई जहाज उड़ाना बंद कर दिया जाय। तटबन्ध के निर्माण में जो तकनीकी भूल हुई है उसे सुधारा जाय। आप विद्वान लोग यहाँ बैठे हैं आपने दुर्गा सप्तशती के पाँचवे अध्याय में पढ़ा होगा कि जब मधुकैटभ ने प्रकृति के सारे साधनों पर विजय प्राप्त कर ली तब भगवती का उदय हुआ और यह सत्य है कि जैसा उद्घाटनकर्ता ने कहा कि हमलोग प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं रख पाये तो मान्यवर! पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में एकात्म मानववाद में उन्होंने कहा कि प्रकृति के साथ इतना छेड़छाड़ मत करो कि वह हमलोगों के लिये दुःखदायी बन जाये।

ठीक है पर्यावरण के सवाल पर, बाढ़ पर आज कल कितने ही सेमिनार हो रहे हैं। यह सत्य है कि पानी जहाँ से चलना शुरू होता है आज वहाँ नंगे पहाड़ खड़े हैं- वृक्ष कहीं दिखाई नहीं देते। पहले बाढ़ के पानी के साथ कितने वृक्ष के तने आते थे और बाढ़ के वेग को कम करने में वे सहायक सिद्ध होते थे। जब से हम जवान हुए हैं इन पेड़ों को नहीं देखा। मैंने वह क्षेत्र भी देखा है जहाँ कोसी नहर का पानी सिंचाई के लिये जाता है- किस कदर खेत उसके बालू से बरबाद हो रहे हैं- वह मैंने 1995 में देखा है। मैंने दिनेश जी की पुस्तक देखी है। 5 करोड़ रुपये की योजना पर 12 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। हो सकता है 25 करोड़ और खर्च हो जायें। इसका अध्ययन करना चाहिये। पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि उसे तोड़ दिया जाय। मैं इस तर्क से कतई सहमत नहीं हो सकता।

कोसी के बाढ़ से बचते लोगप्रकृति से सामंजस्य की बात उठती है- लोग घर बनाते थे बड़ा सुन्दर घर बनाते थे वह बह जाता है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि पहले हम नंगे रहते थे फिर से रहने लगें। इस तर्क को कोई नहीं मानेगा। यह अब सम्भव नहीं है। नदी पर जो तटबन्ध पिछले पचास साल में बने हैं उससे मेरी जीवन शैली में परिवर्तन आ गया है-उसी के अनुरूप मैंने अपने आप को ढाल लिया है। अब यदि यह तटबन्ध नहीं रहेंगे तो बदली परिस्थिति में अपने आप को ढालने के लिये मुझे 50 वर्ष और लग जायेंगे। हमलोग मई महीने में दरभंगा में बाढ़ के प्रश्न पर एक गोष्ठी करने जा रहे हैं पर मेरा मानना है कि अपने विचारों को मंच पर रखने के पूर्व, एक गैरराजनैतिक मंच पर रखने के पूर्व-उसके लोक पक्ष पर भली भांति विचार कर लेना चाहिये।’’


पलामू जिले की औरंगा बाँध विरोधी संघर्ष समिति से आये श्री भोला प्रसाद सिंह ने कहा कि मैं दक्षिण बिहार की औरंगा घाटी क्षेत्र और पलामू जिले से आया हूँ। मुझे खुशी है कि यहाँ ब्रह्मपुत्र से लेकर कोसी नदी तक के सभी स्थानों से लोग हैं और अपनी बात रख रहे हैं। मेरे यहाँ औरंगा पर एक बाँध प्रस्तावित है। सबसे पहले यह प्रस्ताव 1974 में बनाया गया था, तब उसका प्राक्कलन 41.67 करोड़ रुपये था जब कि आज यह 488.41 करोड़ रुपये हो गया है। मुझसे पहले एक मित्र ने सुझाव दिया है कि जब भी कोई योजना लागू होती है तो उसे बनने देना चाहिये। मैं पूछना चाहता हूँ कि सरकार जो भी योजना बनाती है उसके लाभ और हानि का विश्लेषण किया जाता है-यहाँ जहाँ से लोग आये हैं क्या उनकी योजना क्षेत्रों में लाभ हानि का विश्लेषण करते समय आम लोगों को शामिल किया गया था। या क्या उनको बताया गया था कभी! नहीं-ऐसा कभी नहीं होता। हमारे यहाँ भी ऐसा ही हुआ। पहले सुनने में आया कि कुछ काम होने वाला है पर क्या होने वाला है यह नहीं पता लगा। बाद में 1988 वन विभाग के संबंधित पदाधिकारी ने सबमर्जेन्स एरिया के बारे में कुछ जानकारी दी। काफी खोज बीन करने के बाद जल संसाधन विभाग से पता लगा कि औरंगा बाँध के डूब क्षेत्र में 21 गाँव पड़ने वाले हैं, हमलोगों ने जो सर्वेक्षण किया उसके हिसाब से डूब के क्षेत्र में 28 गाँव पड़ने वाले थे।

इसके बाद पुनर्वास की बात उठी तो सरकार ने कहा कि 25 डिसमिल जमीन प्रति परिवार को दे दी जाएगी आप लोग उसमें जाकर अपना घर बना लीजिये। सौभाग्य से हमलोगों ने मलय योजना का पुनर्वास देखा था जहाँ से 55 परिवारों को हटाकर पुनर्वास दिया गया था पर बाद में वह सभी लोग उठकर वापस अपनी पुरानी जगह चले आये। हमलोग पुनर्वास के प्रति संशकित थे। उसके अलावा हमलोगों ने सिंचाई का भी मुद्दा उठाया। हम जानना चाहते थे कि हमें कितनी सिंचाई इस योजना से मिलने वाली थी। एक मंत्री महोदय ने आकर बताया कि पलामू, लातेहार और गढ़वा अनुमण्डल की अधिकांश जमीन इस योजना से सींची जा सकेगी। सच यह था कि हमारी जमीन को बहुत कम सिंचाई मिलने वाली थी और अधिकांश जमीन नीचे औरंगाबाद जिले में लाभान्वित होने वाली थी। हमलोगों ने तब योजना का विरोध किया। विकल्प के तौर हमने सुझाया कि छोटे-छोटे बाँध बनें जिनपर खर्च कम आयेगा, लाभ शिघ्र मिलेगा और नियंत्रण हमारा स्वयं का रह सकेगा। 1992 के अकाल के समय इस दिशा में कुछ काम हुआ, और इसका लाभ भी किसानों को मिला है परन्तु औरंगा बाँध के निर्माण की बात अभी भी समाप्त नहीं हुई है। वह अपनी जगह पर है।

कास्ट एनालिसिस कैसे होती है, उसका एक उदाहरण देखिये। हमारे यहाँ डूब क्षेत्र में पड़ने वाले पेड़ पौधों का मुआवजा एक रुपया प्रति पेड़ तय किया गया है। पलामू लाह वाला क्षेत्र है। एक-एक पेड़ से साल में 4-5 किलो लाह मिल जाता है पर हमेशा-हमेशा के लिये पेड़ को नष्ट कर देने का मुआवजा है एक रुपया। इन सारे मुद्दों को जानने और उठाने की जरूरत है। इसका कानूनी पक्ष हमें जानना होगा। और इन्हीं सब अध्ययनों आदि से आंदोलन को बल मिल सकेगा।

श्री भोला प्रसाद के बाद सुश्री रासो जी जो पचमिनियां (मधुबनी) से आई थीं उन्होंने बाढ़ के समय महिलाओं की दुर्दशा की बात की और आशा व्यक्त की कि सम्मेलन में हरेक मुद्दे पर उपर्युक्त चर्चा हो पाएगी। रासो जी के बाद पटना से आये अधिवक्ता श्री रामचन्द्र लाल दास जी ने अपनी बातें रखीं। श्री विजय कुमार ने श्री रामचन्द्र लाल दास का परिचय कराते हुए बताया कि रामचन्द्र लाल दास जी ने 1984 में जब कोसी का बाँध नौहट्टा में टूटा था तब सरकार के विरुद्ध एक मुकदमा हुआ कि वहाँ राहत नहीं क्षति-पूर्ति चाहिये और यह केस श्री रामचन्द्र लाल दास ने ही लड़ा था। इसके अलावा लाल दास जी बिहार प्रान्त के पीयूसीएल के संयोजक हैं तथा एक संवेदनशील और प्रखर वकील हैं। श्री रामचन्द्र लाल दास ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुये कहा कि, मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन यथार्थ बोध के आधार पर बाढ़ विभीषिका को देखा है और परखा है। एक कानूनी जानकार की हैसियत से कुछ प्रश्न मेरे दिमाग में रहते हैं कि बाढ़ की विभीषिका क्या है, सरकार की उदासीनता क्या है, समस्याओं का असर कहाँ तक है, उसकी परिधि क्या है, उसका प्रभाव क्षेत्र क्या है।

इन सब प्रश्नों पर आप लोगों ने बहुत सी बातें रखी हैं-आगे भी रखेंगे। आप लोगों में बहुत से अनुभवी लोग हैं और इसके कारण बात आगे तक बढ़ेगी। आपलोग जरूर कुछ निर्णय निकालेंगे। लेकिन जिस तरह से इस देश में जन आन्दोलनों की धार कुन्द होती जा रही है और जिस तरह से सरकार उदासीन होती जा रही है, जिस तरह हमारी निष्क्रियता बढ़ती जा रही है कि आज समस्याओं के बारे में कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। आपका सोच जिस तरह से उभर कर सामने आता है या सरकारी सोच, केवल राज चलाने तक केन्द्रित रह जाता है ऐसी परिस्थिति में जो एक जनविमुखता पैदा हो रही है उसके विरुद्ध एक रणनीति बनाने की जरूरत है, और यह एक मीटिंग में तय करने की चीज नहीं है पर इसके लिये एक बहुत बड़े आत्मबल की जरूरत है, एक नई तरह की लड़ाई लड़ने की जरूरत है, क्योंकि बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ इस देश में कमजोर पड़ी है, लड़ने वालों का साहस टूटा है। आशा है आने वाले वक्ता इन बाध्यताओं का ध्यान रखेंगे। आपके साधन इतने सीमित हैं, आप का साथ देने वाले लोग इतने कम हैं, आपकी अपेक्षाएं इतनी बड़ी है कि चालू तरीकों से आपका काम नहीं चल सकता-इसके लिये एक नई रणनीति की तलाश करनी होगी।

जहाँ तक कानून का प्रश्न है कोसी बाँध के अन्दर रहने वाले लोगों का एक मामला उच्चतम न्यायालय में वर्गीज साहब ने दायर किया था। सवाल REALS रियलस के माध्यम से कोसी में मुआवजे और जल-जमाव तथा पुनर्वास का था। पूरा इलाका था भारदा से लेकर डगमारा, उधर बथनाहा से लेकर नौहट्टा तक। जिसकी जमीन पर से होकर बाँध गुजरा था, उसके मुआवजे का था। जब यह मुआवजा तय हुआ था तो बहुत से मामलों में जमीन के मालिकों को देखकर कीमत तय हुई थी और इसमें गरीब आदमी मारा गया था। भीम नगर बराज से लेकर नौहट्टा तक के मामलों में बड़ी अनियमितताएं पाई गई थीं। कोसी विकास प्राधिकार का कानून भी इसमें आड़े आया था। इसके साथ ही जमीन का रिक्लेमेशन का मुद्दा उठा। एक के बाद एक चीजें जुड़ती गईं। आखिर में सरकार को कहना पड़ा कि जिस तरह का पुनर्वास लोग चाहते हैं वह सरकार के लिये दे पाना मुमकिन ही नहीं है। तय हुआ कि जीविका के साधनों को कायम रखने का प्रयास किया जाय। यह उन लोगों के लिये प्रत्यक्ष रूप से सम्भव था जिनकी जमीन इस इलाके में थी। पर उनका क्या होता जो इन गाँवों के गृहस्थों पर आश्रित थे। धोबी था, नाई था, कहीं-कहीं अध्यापक था आदि-आदि। इस तरह से आर्थिक पुनर्वास की बातचीत हुई।

इसी तरह पूर्वी कोसी तटबन्ध जब 1984 में नौहट्टा के पास टूटा था तब रूरल एन्टाइटिलमेन्ट ऐंड लीगल सपोर्ट ने तटबन्ध टूटने से प्रभावित लोगों के हक में बिहार सरकार पर एक मुकदमा किया था कि उन्हें राहत नहीं क्षति-पूर्ति चाहिये क्योंकि तटबन्ध के रख रखाव की जिम्मेवारी सरकार की बनती थी। मामला धीरे-धीरे उच्चतम न्यायालय तक पहुँचा और वहाँ 1989 फरवरी में यह तय पाया गया कि बिहार सरकार में अगले दो महीने के अन्दर एक कमेटी का गठन करेगी जिसमें सरकार के प्रतिनिधियों के साथ-साथ तटबन्ध पीड़ितों के प्रतिनिधि भी होंगे। यह समिति तीन महीने के अन्दर मुआवजे की रकम पर अपना प्रतिवेदन दे देगी और अगले दो महीनों में क्षतिपूर्ति का भुगतान कर दिया जाय-ऐसी व्यवस्था फैसले में थी। पर समय बीतने के साथ-साथ कुछ उत्साह में कमी, मुकदमे पर खर्च तथा आर्थिक तौर पर श्री प्रेम भाई, वनवासी सेवा आश्रम गोविन्दपुर (सोनभद्र) के आकस्मिक निधन के कारण मुकदमा ठीक से जारी नहीं रखा जा सका।

मेरा कहना यह है कि ऐसे किसी भी मामले में हमें पहली बात तो यह कि भावनाओं से ऊपर उठकर तथ्यों के संकलन पर जोर देना चाहिये क्योंकि कानूनी लड़ाई भावनाओं के आधार पर नहीं, तथ्यों के आधार पर लड़ी जाती है। अतः हमें अपना होम वर्क ठीक से करने की जरूरत है और यदि कोई मामला उठता है तो उसमें लगे रहने की जरूरत है। यदि आप मेहनत करके तथ्याधारित कोई मामला सुप्रीम कोर्ट में या पटना हाईकोर्ट में दायर कर सकते हैं तो कम से कम जो जड़ता सभी ओर व्याप्त हो गई है उस जड़ता पर थोड़ी चोट पहुँचेगी।

श्री हरिकान्त झा ने श्री रामचन्द्र लाल दास के बाद बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि विनोवा ने कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान करने के लिये करुणा, सत्य और ध्यान का आश्रय लेना चाहिये। मैं उस क्षेत्र से आ रहा हूँ जो कि कमला बलान पूर्वी तटबन्ध के ठीक बाहर है। इस तटबन्ध में 15 स्लुइस गेट है जिनमें से मात्र 3 किसी तरह काम करते हैं। मेरे गाँव के आसपास की लगभग 5000 एकड़ जमीन भीषण जल जमाव से ग्रस्त है, पानी निकलने का कोई रास्ता नहीं है। 1987 में जो तटबन्ध टूटा तो पहली बार उसे बाँध दिया गया। दूसरी बार टूटा तो फिर बाँधा गया और यह पूरा इलाका अब मच्छरों के लिये स्वर्ग बन गया है। अब विनोबा की बात करें तो हमलोगों ने बहुत करुणा की, बहुत आरजू की। यह कुछ दस्तावेज मिश्र जी के लिये लाया हूँ।

बहुत धरना किया, बहुत स्मार पत्र दिया, लेकिन अब हमारे इन्हीं साथियों से सहयोग की अपेक्षा है, यदि यह मिल जाय तो अब भी बहुत कुछ हो सकता है। विवेकानंद जी ने कुछ प्रश्न उठाये हैं, उनका उत्तर देना मैं आवश्यक समझता हूँ। उन्होंने कहा है कि तटबन्ध शाप है तो तटबन्ध वरदान भी है। जब तटबन्ध नहीं बने थे तब कहावत थी ‘आयेगा बलान तो बाँधेंगे दलान।’ वह स्थिति आज बदल गई है। अब तो बलान का आना मतलब तटबन्ध तोड़ कर ही आना है जिसका मतलब केवल बरबादी है। मेरी प्रार्थना है कि कोई राय बनाने से पहले एक बार हमारा क्षेत्र देख आइये। अभी तो हम बाढ़, सूखा और अग्निकांड सभी भोग रहे हैं। इन सभी पर विचार करना चाहिये।

आचार्य बलदेव सिंह जो कि गोपालगंज से आये थे, कहा कि, कल मैंने निर्मली के चारों तरफ बाँध पर भ्रमण किया। उससे लगता था कि बाढ़ के दिनों में इस क्षेत्र की समस्या कितनी जटिल हो जाती होगी। हमारे अनेक पूर्व वक्ताओं ने तटबन्धों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है। तटबन्धों से हुए बहुत नुकसान की बात सुनने में आई है पर यह भी सच है कि यदि तटबन्ध एकदम न रहें तो बहुत सी चीजें नदी की धारा में प्रवाहित हो जाएंगी। गंडक नदी क्षेत्र में नदी उत्तर प्रदेश से होकर गोपालगंज में आती है। 6 प्रखंडों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। बहुत से गाँव नदी की धारा में प्रवाहित हो गए। बड़े-बड़े जमींदार अब झोपड़ियाँ बनाकर तटबन्धों के पास रह रहे हैं। यह नदी बहुत कटाव करती है- एक रात में गाँव/फसल सब तबाह हो जाता है। हमारी यह व्यथा है जिसको लेकर हम आपके साथ हैं।

रानीपट्टी (जिला-सुपौल) से आये श्री रामजी सन्मुख ने बताया कि कोसी नदी पर 1957 में तटबन्ध बने। कोसी हमारे क्षेत्र में, बूढ़े लोग बताते हैं, उतनी समस्या पैदा करने वाली नदी नहीं थी। पर तटबन्ध बनने के बाद राघोपुर ब्लॉक में 300-400 एकड़ जमीन ऐसी है जिस पर पूरे वर्ष पानी रहने लगा है और वहाँ के किसान, भिखमंगे हो गये हैं। बाँध के अन्दर की हालत तो खराब रहती ही है, बाहर भी ठीक नहीं है क्योंकि पानी के बहाव के रास्ते में बड़ी रुकावटें हैं। कोसी का पूर्वी तटबन्ध तो है ही, फिर नहरें हैं, उपनहरें हैं, शाखा नहरे हैं, सड़कें हैं, रेलवे लाइनें हैं। इन सबका अपना-अपना उद्देश्य है पर सब मिला कर जल जमाव की समस्या को गंभीर बनाते हैं। कोसी तटबन्ध कुल मिलाकर दस स्थानों पर अब तक टूटे होंगे। सिंचाई की हालत तो यह है कि कोसी योजना 7.12 लाख हेक्टेयर की जगह 1.85 लाख हेक्टेयर सिंचती है। कटैया बिजली घर जितनी बिजली पैदा करता है उसके बारे में किसी से भी बीरपुर जाकर पूछ लीजिये।

इसके अलावा कोसी प्रोजेक्ट बनने के साथ-साथ इस इलाके में बाहर से इंजीनियर और ठेकेदार आये। इन लोगों के पास पैसा था। जिसके दम पर इन लोगों ने मिट्टी के मोल हमारी जमीन खरीद ली। कुछ प्रोजेक्ट में चला गया कुछ प्रोजेक्ट वालों ने हथिया ली। लोग कंगाल हो गये। अब काम के तलाश में पलायन की शुरुआत होती है। मर्द तो सब चले जायेंगे बाहर और यह कोसी क्षेत्र में आज से नहीं पिछले 30-35 वर्षों से चल रहा है-और वापस गाँव में महिलायें और बच्चे जो कि बाहर जाने वालों से ज्यादा तकलीफ यहाँ रहकर भोगते हैं। यह तो देन है कोसी योजना की-कोसी तटबन्धों की। इस पृष्ठभूमि में बाराह क्षेत्र बाँध का नाम सुनकर डर लगता है। किसी बड़े खतरे की तलवार लटकेगी हमारे सीने पर। कोसी तटबन्धों की तरह कभी यह बाँध खतरा पैदा करेगा तो हमारी सुरक्षा का क्या होगा। इस प्रकार हमें यहाँ विचार करना चाहिये।

श्री सन्मुख के बाद कुनौली (जिला-सुपौल) के श्री पंचम भाई ने अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने कहा कि, ‘‘सुबह से आपने विभिन्न नदी घाटी क्षेत्रों से आये मित्रों के अनुभव सुने हैं। मैं इस कोसी क्षेत्र का रहने वाला हूँ और जब भी मैं दूसरे क्षेत्रों के बारे में, चाहे वह नर्मदा परियोजना हो, टिहरी परियोना हो या सुवर्णरेखा परियोजना हो, सुनता हूँ तो मुझे बड़ा दुख होता है। आखिर पिछले 40-42 साल से यहाँ बाढ़ नियंत्रण के नाम पर जो क्रूर मजाक हुआ है, जिस स्तर की तबाही बढ़ी है वह कभी संघर्ष का, बहस का मुद्दा क्यों नहीं बनता। आज हमारे बीच में विभिन्न प्रांतों से विद्वान आये हुये हैं। उनसे मेरा अनुरोध है कि वह हमारी दुर्दशा के बारे में वापस जाकर लोगों को बताएँ। कोसी के मसले पर एक जनहित याचिका दायर होनी चाहिये और इस मुद्दे पर एक दबाव बनाया जाना चाहिये। वैसा अभी तक हो नहीं पा रहा है।

इस पूरी समस्या को एक आन्दोलन का स्वरूप देना चाहिये और यह आन्दोलन निश्चित रूप से शान्तिपूर्ण तथा अहिंसक होना चाहिये। अब जैसे महानन्दा का आन्दोलन चल रहा है जो कि हमारे मित्रों ने बताया। वहाँ भी एक प्रेशर ग्रुप ऐसा तैयार है जो कि महानन्दा में इंजीनियरों तथा राजनीतिज्ञों को बाध्य कर सके वह जनता की आवाज सुनें और जो काम जनता को करना पड़ रहा है वह सरकार क्यों न करें।’’


ग्राम सरोजा बेला (जिला-सुपौल) के श्री राजकुमार ने चर्चा को आगे बढ़ाया, तटबन्धों के पक्ष और विपक्ष में सौ साल की बहस के बाद पचास के दशक में तटबन्धों का निर्माण शुरू हुआ और धीरे-धीरे हमारी जीवन शैली खेती आदि सभी इन तटबन्धों के कारण प्रभावित होने लगी। बाँध के अंदर तो इन तटबन्धों के निर्माण से जीवन निश्चित रूप से नारकीय हुआ। कोसी तटबन्धों के निर्माण की बातचीत पिछले 1893 से शुरू हुई थी जबकि विलबर्न इंग्लिश ने, जो कि उस समय बंगाल प्रान्त के मुख्य अभियंता थे, इस क्षेत्र का दौरा किया था पर उन्होंने कोसी से छेड़-छाड़ न करने की बात कही थी। सन 1897 में कलकत्ता की बाढ़ मीटिंग में भी इसी विचार को समर्थन मिला। उड़ीसा की 1928 की विलियम एडम्स रिपोर्ट में तटबन्धों, सड़कों तथा रेल लाइनों के बढ़ते जल-जमाव और बाढ़ का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना गया। करीब-करीब यही बात 1937 में पटना बाढ़ सम्मेलन में कही गई। यही निर्मली में सी.एच. भाभा ने 1947 में कोसी पर तटबन्धों के निर्माण को घटिया और अवैज्ञानिक कह कर खारिज कर दिया था।

1947 में यहीं से बाराह क्षेत्र बाँध का प्रस्ताव किया गया, पर हमारे हाथ में लगा कोसी पर तटबन्ध जिसका निर्माण 1955 में शुरू हुआ। तटबन्धों से होने वाली परेशानियों को सारे सम्बद्ध पक्ष जानते थे और वह यह भी जानते थे कि तटबन्धों को टूटने से बचाया नहीं जा सकता। वही हुआ। छोटी-मोटी दरारें तो कोसी तटबन्ध में अक्सर पड़ा करती है पर 1984 में जब नौहट्टा के पास तटबन्ध टूटा तब तो प्रलय हो गई। लगभग 70,000 हेक्टेयर जमीन पानी में चली गई और साढ़े चार लाख लोगों को खुले आसमान के नीचे तटबन्धों पर ही आश्रय लेना पड़ा था। इस दुर्घटना के विरोध में एक याचिका दायर की गई कि लोगों को राहत के बदले क्षति-पूर्ति दी जाए- जिसके बारे में पहले भी श्री रामचन्द्र लाल दास ने बताया। तटबन्ध के अन्दर फँसना या टूटे तटबन्ध के सामने पड़ना अब हमारी नियति है। हमें इस परिस्थिति से बचाव पर बात करनी चाहिये।

भूगर्भ वैज्ञानिक तथा समाजकर्मी डॉ. ए.के. सिंह (नई दिल्ली) ने कहा कि, पिछले कुछ दिनों से कोसी क्षेत्र में घूम रहा हूँ। यहाँ के बारे में सुना तो बहुत कुछ पहले से भी था पर देखने को मौका अब मिला है। तटबन्धों के बीच में पहली बार आया हूँ। सुबह से आप सभी लोगों की बातें सुन भी रहा हूँ और लगभग सभी वक्ताओं की बातें मुझे काफी आक्रमक स्तर की लग रही हैं पर इसके साथ यह आश्चर्य भी होता है कि आप लोगों की पिछली लगभग 40 साल की तबाही की बात प्रान्तीय या राष्ट्रीय संदर्भ में कोई मुद्दा नहीं बनती। यह बात मेरे एकदम समझ में नहीं आती। इसके साथ यह भी तय है कि बाहर से आये लोग आपके साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं लेकिन प्रयास तो आप को ही करना पड़ेगा। समस्या आखिर आप की है। बाहर वाले कुछ थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं। मार्ग के साथी यहाँ हैं, जो कि सर्वेक्षण आदि का काम कर सकने में बड़े सक्षम हैं। अपने साथ कुछ यहाँ तकनीकी विशेषज्ञ भी हैं- वह मदद कर सकते हैं।

मगर आपको उत्तर बिहार के लोगों को प्रभावित और आन्दोलित करना होगा। जब तटबन्धों या बड़े बाँधों की बात उठती है तो हमारा ध्यान इन संस्थाओं पर केन्द्रित हो जाता है। यह विकास की इस अवधारणा के प्रतीक हैं जिसमें अपनी सीमाओं को पहचाने बिना सब कुछ नियंत्रित कर लेने का अहंकार छिपा हुआ है। वास्तव में विकास की इस अवधारणा पर पहला प्रश्नचिन्ह पचास के दशक में अमेरिका में ही लगाया गया जहाँ इसका जन्म हुआ था। वहीं 1954 में एल्मर पीटरसन ने Big Dams Foolishness (बड़े बाँधों की बेवकूफी) नाम की एक पुस्तक लिख कर बड़े बाँधों तथा विकास के इस मॉडल की बखिया उधेड़ी थी। उसने 25-30 बाँधों का विश्लेषण करके बताया कि इतने बड़े बाँधों की जरूरत ही नहीं है। विकास के जिस मॉडल का विरोध वहाँ तब शुरू हुआ उसने हमने अपने यहाँ अपनाना शुरू किया और अपनी भौगोलिक/सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ को नहीं देखा। बाढ़ों का प्रश्न ले लें।

आज से क्या पचास साल पहले बाढ़ नहीं आती थी-आती थी, पर उसका स्वरूप दूसरा हुआ करता था। पानी आता था, फैलता जाता था। नुकसान कम था। पर अब एक तो शहरीकरण बुरी तरह बढ़ा है। लोगों ने नदियों के किनारे तक नहीं छोड़े घर बनाने से। ऐसी जगह घर बनेंगे तो डूबना तो तय है ही। दिल्ली का उदाहरण ले लें। नदी के किनारे तटबन्ध बने हैं और उसके ठीक बगल में बस्तियां हैं- पानी क्यों नहीं आएगा। इन सब समस्याओं पर हमें बैठकर विचार करना ही चाहिये।

उड़ीसा के पुरी जिले से आये प्रतिनिधि श्री बलवन्त राय जी के लिये पहली बार बिहार आना और इस तरह के बाढ़ सम्बन्धी अनुभवों को सुनना बड़ा कौतूहलपूर्ण रहा। हिन्दी में अपना वक्तव्य रख सकने में असमर्थ श्री राय ने अपनी बातें उड़िया में कहीं। उन्होंने कहा कि सुबह से वह सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहे हैं और उनकी समझ में आ रहा है कि कोसी आदि नदियों पर तटबन्ध बनने के कारण समस्यायें पैदा हुई हैं। उनका अपना प्रान्त भी दैवी आपदाओं का केन्द्र है। तटवर्ती क्षेत्रों में जहाँ बाढ़ और तूफान से नुकसान पहुँचता है वहीं पश्चिमी उड़ीसा में सूखे ने अपना घर बना लिया है। वस्तुतः सभी स्थानों की समस्यायें एक जैसी ही हैं- चाहे वह बंगाल हो, बिहार हो या उत्तर प्रदेश- कम से कम हिमालय से आने वाली नदियों के क्षेत्रों में तो कोई अन्तर नहीं है। उड़ीसा में भी ब्राह्मणी, वैतरणी, ऋषिकुल्या या महानदी के क्षेत्रों में भी करीब-करीब वही स्थिति है जो आप यहाँ बता रहे हैं। वही जल जमाव और वही सिंचाई साधनों की बदहाली वहाँ भी है।

उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि जल, जंगल, जमीन जनसंख्या, जनसाधारण तथा योजनाओं पर हमें ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा। सरकार जन साधारण की भागीदारी से योजनायें बनायें और जल, जंगल, जमीन और जनसंख्या का उचित प्रबन्ध करे। मुझे पूर्व से पश्चिम तक भारत देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है पर जंगलों की जो खस्ता हालत मैंने देखी है उससे मुझे अपने गंजे सिर का ख्याल आता है। कुल क्षेत्र का 30 प्रतिशत जंगल होना चाहिये जबकि बचा है 11 प्रतिशत। हर साल भारत में एक आस्ट्रेलिया जितनी आबादी बढ़ जाती है। इसके लिये गंभीरता पूर्वक कुछ करने का समय आ गया है।

आपका संघर्ष अकेले आपका ही संघर्ष नहीं है, यह एक राष्ट्रीय समस्या है और इस संघर्ष में हम आपके साथ हैं। बिहार आकर आपकी समस्या देखने समझने का जो अवसर मिला है उसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।’’


पुरी, उड़ीसा से ही आये श्री नृसिंह षाडंगी ने अपना वक्तव्य इस प्रकार रखा- ‘‘पिछले दो साल से हम पुरी में काम कर रहे हैं। करीब 300 गाँवों में हमारा सम्पर्क है वहाँ। जब आपका पत्र हमें मिला तो हमलोगों ने निश्चित किया कि हमलोग निर्मली अवश्य जायेंगे। हम यह मानते हैं कि जल ही जीवन है। पुरी जिले में समुद्र तट के साथ-साथ लगभग बीस नदियाँ हैं। पास में ही एक बड़ी लेक है ‘चिलका’ जिसके बारे में आपलोगों ने अवश्य सुना होगा। यहाँ आकर हमलोगों ने आपके अनुभव सुने कि कैसे हिमालय से उत्तरी नदियों को बाँधने का काम आपके प्रान्त में हुआ और उसके चलते किस प्रकार जन-साधारण के जीवन में विकृतियाँ आई हैं। यहाँ यह भी सीखने को मिला कि किस प्रकार इन योजनाओं के मूल्यांकन और उन पर बहस, उनके लाभ हानि तथा खर्च के हिसाब किताब पर जानकारी का अभाव है। जितना खर्च हुआ उसके अनुपात में लाभ हुआ या नहीं, यह जाना। आप खुद को अपनी लड़ाई में अकेले नहीं पायेंगे। उड़ीसा से आये हम लोग पूरी तरह आपके साथ हैं और इसके साथ ही हम आपको अपने यहाँ आने का भी आमंत्रण देते हैं।’’

श्री षाडंगी के बाद पश्चिम बंगाल (कलकत्ता) से आये अभियंता श्री जयन्त बसु ने चर्चा को आगे बढ़ाया। श्री बसु कभी सरकार में नौकरी करते थे पर जो कुछ वह करना चाहते थे उसका कोई अवसर सरकार में रहते हुये उन्हें नहीं मिला, अतः नौकरी छोड़ दी। जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के बंगाल चैम्बर का काम श्री बसु देखते हैं। उनका कहना है कि सिविल इंजीनियरिंग के विद्यार्थी की हैसियत से जो कुछ सीखा था आजकल वह उसी का प्रतिवाद कर रहे हैं। अपना परिचय देते हुये उन्होंने कहा कि वह बाढ़ मुक्ति अभियान के मित्रों और उनके काम के प्रति अपना समर्थन ज्ञापन करने के लिये निर्मली आये हैं। श्री बसु ने सभा से बांग्ला में अपनी बात रखने की अनुमती मांगी। उन्होंने कहा कि कोसी या इस तरह के कई प्रश्न अब जनता, राजनीतिज्ञों के बीच उठने लगे हैं।

इंजीनियर इन्हीं जन आन्दोलनों के कारण नये तरीके से अपने विज्ञान को सीख रहे हैं। जहाँ साधन असीमित है वहाँ तो प्रतिवाद दब जाता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है क्योंकि साधन तो सीमित ही है। अतः तकनीक के उपयोग पर बहस चल रही है। पिछले कुछ वर्षों में फ्रांस में दो तथा अमेरिका में तीन बाँधों को तोड़ने के समाचार मिले हैं। वहाँ अब बड़े बाँधों पर काम धीरे-धीरे बन्द हो रहा है। वहाँ बन्द हो रहा है और हमारे यहाँ जोर-शोर से शुरू हो रहा है। अराल सागर में कभी बहुत पानी रहा करता था। वहाँ विकास के नाम पर खूब नगदी फसल उगाई गई- एक ही प्रोजेक्ट में सागर सूखने लगा। कई किलोमीटर लम्बी सुरंगें बनाई गई थी वहाँ पर अब प्रोजेक्ट को छोड़ दिया गया।

ऐतिहासिक रूप से देखें तो मेसोपोटामिया, बेबीलोन, मिस्र, मोहनजोदड़ों, हड़प्पा आदि सभी सभ्यताएं बरबाद हुईं संसाधनों के अत्यधिक दोहन और पानी तथा जंगलों की बद-इन्तजामी से। जहाँ प्रकृति से लेना देना बराबर रहा वहाँ परिवेश बचा, जहाँ विज्ञान का सुविचारित उपयोग हुआ वहाँ बचा पर जहाँ वैज्ञानिक दम्भ ने अपना काम किया वहाँ उजड़ा। पश्चिम का पूरा-प्रयास ही यथासंभव और यथाशीघ्र भोग लेने का है। इस दर्शन के कारण वे तीसरी दुनिया में अपने हाथपांव फैला रहे हैं। उनके पास पैसा है-वह सफल भी हो जाते हैं। उनके इस खेल में राजनीतिज्ञ, अमला तंत्र, इंजीनियर और ठेकेदार बड़े काम आते हैं।

वास्तव में टेक्नोलॉजी के प्रयोग की नई व्यवस्था की जरूरत है। विज्ञान को जाँच परख कर ही उपयोग में लाना चाहिये वरना यह दुधारी है। इग्लू एस्कीमों ने बनाया, मलेरिया का इलाज सिन्कोना की छाल से सदियों से होता आया है। सुश्रुत और चरक ने कितना काम किया है। पर हमेशा से पश्चिमी संस्कृति ने अन्य संस्कृतियों का शोषण किया है। हमें एक नई जल नीति और देश नीति का निर्माण करना पड़ेगा।

सहयोग, गोरखपुर से आये श्री तारिक रहमान ने कहा कि, ‘‘सहयोग संगठन से आया हूँ। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में 40 संस्थाओं का संगठन है जो कि वहाँ जल जमाव तथा बाढ़ के प्रश्न पर काम कर रहे हैं। वह समस्या हमारे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल या असम में सभी जगह एक सी है, केवल उसके स्वरूप और विस्तार में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है पर समस्या सब जगह समान है। इसका मुकाबला करने के लिये एक ठोस और प्रभावी संगठन की आवश्यकता है। हमें मिल बैठकर एक ऐसी नीति बनानी चाहिये जो सबके लिये लाभकारी हो। दूसरी बात जो कि श्री रामचन्द्र लाल दास ने कही कि हमें अपने कानूनी पक्ष को मजबूत करना होगा और केवल आकर्षक और भड़काऊ भाषणों से अलग हटकर तथ्यों पर आधारित एक ठोस और रचनात्मक कदम उठाना होगा और वह ठोस प्रयास होगा तथ्य लेखन, शोध और आकंड़ा संग्रह का जिसमें हम अपनी बातों को प्रभावी ढंग से रख सकें। सहयोग इस दिशा में काम कर रहा है। 40-50 संस्थाओं का मंच होने के कारण, हम पारस्परिक संवाद चला रहे हैं, एक दूसरे से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर रहे हैं, कुछ तथ्य लेखन का काम किया है। बाढ़ तथा जल जमाव और उसके द्वारा पैदा समस्याओं का निदान खोजने का प्रयास हम लोग कर रहे हैं चाहे ये समस्यायें स्वास्थ्य की, कृषि की हों या महिलाओं की हों या सीधे रोजी रोटी से जुड़ी हुई हों। इस सिलसिले में हमलोग कुछ रिपोर्ट वगैरह तैयार कर रहे हैं। हम लोग प्रति दो माह पर एक समवेत नाम का न्यूज लेटर निकाल रहे हैं। इसकी कुछ प्रतियाँ मैं अपने साथ लाया हूँ- आप ले सकते हैं। इसके अलावा इस मुद्दे पर एक साथ काम कर सकने का यदि माहौल बनता है तो सहयोग काफी हद तक आगे आकर हाथ बटाने का वायदा करता है।”

बाबा श्री नाथ शिक्षण संस्थान, सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) से आये श्री प्रदीप कुमार ने बताया कि उनके क्षेत्र में किस प्रकार शारदा सहायक नहर से जल-जमाव बढ़ा है। साठ के दशक तक इस इलाके में अंग्रेजों की बनाई हुई केवल एक शाखा नहर थी जिसे तब दुहरा कर दिया गया। समानान्तर बहती इन दो नहरों से कृषि पर बड़ा बुरा असर पड़ा है। सीलन और लवणीयता के कारण घर भी गिरने लगे हैं। संस्थान इन समस्याओं से निबटने के लिये गहन जन शिक्षण का कार्यक्रम चला रहा है तथा रचनात्मक स्तर पर जल-जमाव से निपटने के लिये वैकल्पिक कृषि व्यवस्था, गृह निर्माण, वनीकरण तथा मत्स्य पालन आदि मुद्दों पर काम कर रहा है।

सत्र के अंत में अध्यक्षीय भाषण देते हुये विख्यात पर्यावरणविद और सिविल इंजीनियर डॉ. गुरुदास अग्रवाल ने कहा कि कई बार यह बात कही गयी कि तटबन्धों का तिकड़म इंजीनियरों का षड्यंत्र था। स्वयं इंजीनियर होने के नाते मैं ये कहना चाहूँगा कि आप स्वयं इस मुद्दे को इस दृष्टि से देखें। सिविल इंजीनियरिंग का प्रारंभ सबसे पहले रुड़की विश्वविद्यालय में अंग्रेजों के जमाने में हुआ। उससे पहले सिखाये हुए सिविल इंजीनियर नहीं होते थे। तो क्या अंग्रेजों के समय ये तटबन्ध बने? कई जगहों पर कई बार यह बात कही गयी है कि अंग्रजों के समय में स्वयं इंजीनियरों ने ही यह बात उठायी थी कि इस क्षेत्र के लिये तटबंध बनाना उचित नहीं है। उड़ीसा में बाँध तोड़ने का निर्णय स्वयं इंजीनियरों द्वारा लिया गया था। तो फिर क्या हुआ जो बिहार में इस तरह बना? दरअसल योजना बनाने से पूर्व बाँध बनाने की इच्छा इंजीनियरों की नहीं थी।

इसी तरह जब सड़कों या रेलों के जाल बिछाने की बात उठती है तब भी तकनीक पर प्रश्न चिन्ह लगता है। मैदानी इलाकों में इस प्रकार के विस्तार से जल निकासी पर असर पड़ता है क्योंकि एक तरफ इन संसाधनों का जाल बिछाने का वायदा होता है और दूसरी तरफ योजनाओं का बढ़ता हुआ खर्च और तब सारी बचत पुलों, कलवर्टों या अन्य जल निकासी के साधनों पर ही होती है। अब इंजीनियर जाल न बिछायें तो क्या करें।

इसके अलावा एक और बात मैं कहना चाहूँगा कि जब भी कोई प्रकल्प बनेगा तब उसके लिये समाज को कुछ न कुछ बलिदान अवश्य देना होगा। यह विस्थापन की शक्ल में हो या डूब क्षेत्र के रूप में हो या अन्य किसी रूप में। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि ऐसे लोगों के साथ नाइन्साफी न हो पाये। यह मुद्दा अवश्य ही तकनीकी नहीं है।

डॉ. अग्रवाल ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा कि एक इंजीनियर होने के बावजूद मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को रीढ़ नहीं होती। विज्ञान की शिक्षा ‘रीढ़’ को समाप्त कर देती है और प्रशासकीय शिक्षा विभाग को ‘तिकड़मी चालबाज’ बना देती है। मेरे विचार से इंजीनियरिंग का मूलभूत सिद्धांत यही है कि इंजीनियर वही करेगा जो समाज चाहेगा। यदि समाज कोसी परियोजना नहीं चाहता तो इंजीनियर ऐसा नहीं कर पाते। अब समाज किसके माध्यम से काम करे- यह एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है। इस यक्ष प्रश्न का उत्तर हमें तय करना है। मैं तो यह कहना चाहूँगा कि सरकार को जल संसाधन को छेड़ने की अनुमति कतई नहीं होनी चाहिये। न सिंचाई से सरकार का संबंध होना चाहिये न बाढ़ नियंत्रण से और न ही जल के किसी अन्य प्रकार के प्रबंधन से। जल और जमीन का प्रबंधन जनता सीधे अपने आप ग्राम पंचायत या क्षेत्रीय पंचायत या अधिक से अधिक जिला पंचायत के माध्यम से करें। सरकार अधिक से अधिक तकनीकी सलाह एवं आर्थिक संसाधन मांगने पर दे सकती है- सारी जिम्मेदारी स्थानीय समाज पर होगी।

डॉ. अग्रवाल ने अपने वक्तव्य का समापन करते हुए कहा कि बदलते परिवेश में पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशन (जनहित याचिका) की चर्चा अभी पूरे देश में जोरदार ढंग से चल रही है। आप लोगों को पता होगा कि कुछ दिनों पूर्व माननीय न्यायाधीश कुलदीप सिंह जी ने सुप्रीम कोर्ट में आदेश दिया कि गंगा स्वच्छता परियोजना (उत्तर प्रदेश) के अंतर्गत पिछले वर्षों में जो 5-6 सौ करोड़ रुपये खर्च किये गये उसमें गंगा के गुणवत्ता को कोई लाभ नहीं हुआ। आगे से एक भी पैसा खर्च नहीं किया जा सकता है जब तक परियोजना सुप्रीम कोर्ट को इस बात से संतुष्ट न करा दे कि जो कुछ वह करने जा रही है उससे गंगा के प्रदूषण में वास्वत में कमी आयेगी। क्या इस तरह का आदेश सुप्रीम कोर्ट नहीं दे सकता है कि उत्तर बिहार में बाढ़ नियंत्रण के नाम पर जो करोड़ों-करोड़ खर्च किया गया उससे बाढ़ की समस्या घटने के बजाय बढ़ रही है, क्यों न इस परियोजना को आगे से एक भी पैसा खर्च करने पर रोक लगा दिया जाय और अब तक के लाभ हानि की व्यापक समीक्षा जनता की भागीदारी से हो।

अंतिम सत्र
अध्यक्षता - हलधर भाई
संचालन: विजय कुमार


सत्र की शुरुआत श्री दिनेश कुमार मिश्र के वक्तव्य से शुरू हुई। उन्होंने कहा कि सुबह की बात पर गौर करें तो हमलोगों के बारे में कहा गया कि सारी बातें गलत कही जा रही हैं और अभी सुधार की बहुत गुंजाईश बाकी है। सारे किये गये कामों को नकारना ठीक नहीं होगा। हमें पहली बात से तो एकदम सहमति नहीं है कि सारी बातें गलत कही जा रही हैं क्योंकि जो भी तथ्य और आंकड़े हमने प्रस्तुत किये वह सब के सब सरकारी आंकड़े हैं और अगर वह गलत है तो बहस का रुख ही मुड़ जाता है कि अगर यह सब गलत ही है तो सच क्या है और सरकार को क्या पड़ी है कि वह अपने विरुद्ध ही मिथ्या प्रचार करे। दूसरी बात यह कि बहुत सी चीजों में सुधार की गुंजाईश है। उसमें हमारी सीमित सहमति हो सकती है क्यों कि जो बातें सिद्धान्ततः गलत हैं और केवल तात्कालिक लाभ के लिये हैं उनका तो विरोध होना ही चाहिये पर जहाँ अक्षमता, अकर्मण्यता और अरुचि के कारण सही काम का भी गलत नतीजा निकलता है वहाँ सुधार की निश्चित रूप से गुंजाईश है और वह किया जाना चाहिये।

तटबन्ध बनना बहुत उपयोगी है-यह कहा जाता है। अंग्रेजों ने जब हमारी नदियों और हमारी बाढ़ को देखा तो उन्हें लगा कि हम लोग हेय और तुच्छ मनुष्य हैं, हमें रहने की तमीज नहीं है। साल में तीन महीने पानी से घिरे रहते हैं और बचाव के लिये कुछ नहीं करते- ऐसे ‘असभ्य’ लोगों को जीने का सलीका सिखाना चाहिये-ऐसा अंग्रेजों का प्रारंभ में सोच था। मगर इससे भी ज्यादा जरूरी था उनके लिये कि वह रेवेन्यू वसूल करते। उनको लगा कि यदि नदियों की शोखी खत्म कर दी जाये, उन्हें धारा परिवर्तन करने से ही रोक दिया जाय और नियंत्रित कर दिया जाय तो बाढ़ समाप्त हो जाएगी और अपने इस काम के बदले सरकार लोगों से टैक्स वसूल लेगी। इसके साथ ही जब विस्तीर्ण इलाके पर पानी फैलना बन्द हो जायेगा तब वहाँ सिंचाई की आवश्यकता पड़ेगी और इसकी व्यवस्था करके एक बार फिर लोगों से टैक्स वूसला जाएगा। उन्हें दोहरा फायदा होने वाला था। गलती अंग्रेजों से यही हुई कि उन्होंने इस प्रयोग के लिये दामोदर को चुना।

उनको लगा कि दामोदर की चंचलता समाप्त करने के लिये उसके दोनों किनारों पर तटबन्ध बनाये जा सकते हैं सो उन्होंने बना दिये। सन 1857 के गदर के बाद किसी भी विद्रोह को दबाने के लिये उन्हें सड़कों और रेल लाइनों का विस्तार करना पड़ा। तब उन्होंने ग्राण्ड ट्रंक रोड को चौड़ा और मजबूत किया और आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन का काम हाथ में लिया। सन 1860 ई. में यह रेल लाइन बनकर तैयार हुई और अगले वर्ष 1861 ई. में बर्द्धमान जिले में महामारी के तौर पर मलेरिया फैला जिसका उस समय अंग्रेजी इलाज नहीं था। कारण था कि रेल लाइन के कारण वर्षा के पानी की निकासी अवरुद्ध हो गई थी जो कि मच्छरों के विकास के लिये एक माकूल परिस्थिति थी। उधर तटबन्धों के अन्दर बाढ़ का लेवेल अप्रत्याशित रूप से बढ़ा जिससे तटबन्धों पर खतरा आया और वह टूटे। इसके अलावा जनता ने भी कई जगहों पर तटबन्ध काटे। कुल मिलाकर एक घोर अराजक स्थिति पैदा हो गई।

वास्तव में दामोदर घाटी के निवासियों की बाढ़ से निपटने की एक अपनी व्यवस्था थी जिसके पीछे उनका सदियों का अनुभव था। उन्होंने दामोदर नदी के दोनों किनारों पर मेड़ नुमा छोटी ऊँचाई के तटबन्ध बना रखे थे। जब बरसात शुरू होती थी तब खेतों में पानी जमा होता था जिसमें धान छींट दिया जाता था। ठहरे पानी में धान की पौध बढ़ती थी और उसी के साथ मच्छरों के अण्डे भी बढ़ते थे। उधर मेंड़ नुमा तटबन्धों के बीच नदी भी चढ़ती थी। रोपनी होने तक या तो पानी के दबाव के कारण तटबन्ध खुद टूट जाते थे या बहुत सी जगहों पर काट दिये जाते थे। अब नदी का गाद युक्त पानी खेतों की ओर चलता था और उसी के साथ छोटी-छोटी मछलियाँ भी बह निकलती थीं और एक सिरे से मच्छरों के अण्डों को खा जाती थीं। अब धान और मछलियाँ दोनों साथ-साथ बढ़ते थे। नदी का पानी जब-जब छलकता तो खेतों की तरफ आता था और कभी अधिक दिनों तक बरसात न हुई तो स्थिति से निबटने के लिये पोखरों की लम्बी शृंखला थी-घर-घर के आगे तालबा था जो कि सिंचाई के लिये पानी का स्रोत और मछलियों के लिये आश्रय का काम करता था। इस वजह से मलेरिया का नामोनिशान नहीं था और धान की अच्छी फसल और मछलियों की बहुतायायत तयशुदा थी। बारिश खत्म हो जाने पर नदी पर छोटे तटबन्ध फिर बना दिये जाते थे। यही कारण था कि दामोदर घाटी का बर्द्धमान जिला देश के सबसे कृषि समृद्ध क्षेत्रों में गिना जाता था।

अंग्रेज जीवन निर्वाह की इस विधा को समझ नहीं पाये और उन्हें लगा कि ‘असामाजिक तत्व’ तटबन्धों को काट देते हैं। इसके अलावा ग्राण्ड ट्रक रोड, आसानसोल-हावड़ा रेल लाइन के विकास के साथ इन्हीं के समान्तर ईडेन कैनाल बनाई गई। ये सारी संरचनाएं पूरब-पश्चिम दिशा में थीं और जमीन की ढाल उत्तर-दक्षिण की ओर, जिसकी वजह से बरसात के मौसम में बहते पानी के सामने ईडेन कैनाल, आसानसोल-हावड़ा रेल लाइन, जी.टी. रोड तथा दामोदर नदी के दोनों तटबन्धों की शक्ल में पाँच ‘भुतही दीवारें’ एक के बाद एक करके खड़ी थीं। अब कम्पनी बहादुर एक को बचायें तो दूसरी टूटती थी। पैबन्द लगाते-लगाते उनकी नाक में दम हो गया।

दामोदर नदी पर बने तटबन्ध के कारण बाहर का पानी नदी में नहीं जा सका, जिससे तथाकथित सुरक्षित क्षेत्रों में भयंकर तबाही हुई और तटबन्धों के कारण अन्दर के बाढ़ का लेवेल बेकाबू हो गया। आखिरकार अंग्रेजों ने दामोदर का तटबन्ध तोड़ना शुरू किया और सन 1869 में ही दाहिने किनारे की 32 किलोमीटर लम्बाई में उसे ध्वस्त कर दिया। ईडेन कैनाल से होकर जल निकासी की व्यवस्था की, रेलवे लाइन और जी.टी. रोड में पुलों और कलवर्टों का निर्माण किया और भविष्य में बाढ़ नियंत्रण के लिये कभी भी नदी को हाथ न लगाने की कसम खाई जिसका निर्वाह उन्होंने 1947 तक किया।

बाढ़ के पानी से जले अंग्रेज अब यह अच्छी तरह समझ गये थे कि यदि नदी पर तटबन्ध बनेंगे तो बालू जमाव के कारण नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठेगा, पानी का फैलाव रुकने के कारण बाढ़ का गाद युक्त उर्वरक पानी खेतों तक नहीं पहुँचेगा, मुक्त रूप से नदी में पहुँचने वाला पानी तटबंध के बाहर अटक जायेगा, नदियों के संगम पर तटबन्धों के कारण सहायक नदी का पानी मुख्य नदी में नहीं जा पायेगा, ऐसे स्थलों पर निर्मित स्लुइस गेट को बाढ़ के समय खोलना खतरे से खाली नहीं होगा क्योंकि स्लुइस गेट को खोलने पर मुख्य नदी का पानी सहायक धारा में चला जायेगा और ऐसी स्थिति में छोटी नदी का पानी या तो पीछे की ओर हिलोरे मारेगा या तटबन्ध के बगल में बहता हुआ नये-नये इलाके में तबाही मचायेगा। तब छोटी नदी पर तटबन्ध बनाने की मांग उठेगी और यदि ऐसा कर दिया गया तो मुख्य धारा और छोटी नदी के तटबन्ध के बीच वर्षा के पानी की निकासी के सारे रास्ते बन्द हो जायेंगे। ऐसी परिस्थति में या तो तटबन्ध काटना पड़ेगा या फिर पम्प करके पानी को वापस नदी में डालना पड़ेगा। तटबन्धों से होकर पानी के रिसाव की समस्या अलग से होगी। नदी के उठते तल के अनुरूप हमेशा तटबन्ध को ऊँचा करना पड़ेगा और इस बात की गारण्टी कोई नहीं दे सकता कि कोई तटबन्ध कभी टूटेगा नहीं।

जितना ऊँचा और मजबूत तटबन्ध होगा उसके पीछे शरण लेने वाले लोग उतने ही असुरक्षित होंगे जबकि एक मुक्त नदी का पानी बड़े इलाके पर फैलने के कारण कभी भी उतना नुकसान नहीं पहुँचायेगा जितना की तटबंधित नदी पहुँचायेगी। यह सब अंग्रजों को दामोदर ने सिखा दिया था और इस बीच उन लोगों ने चीन की हांगहो, अमेरिका की मिसीसिपी तथा इटली की पो नदी पर बने तटबन्धों की कहानियाँ भी बड़ी गौर से सुन ली थीं। हिसाब-किताब उनका इतना पक्का था कि उन्हें यह जानते देर नहीं लगी कि किसी नदी को कई साल तक बाँध कर रखने में जो फायदा होता है वह एक साल की दरार में एक झटके में समाप्त हो जाता है। यह सारी जानकारियाँ कोसी नदी पर तटबन्ध बनने के सौ बरस पहले से इंजीनियरों को थीं। राजनीतिज्ञ, जो कि ज्यादा मुखर और सामर्थ्यवान होते हैं, यदि तथ्यों से अनजान बने रहने का बहाना करें तो यह उनका विशेषाधिकार है मगर गोरे आकाओं ने अपने इंजीनियरों की राय का आमतौर पर विरोध नहीं किया।

यह तो हुई तटबन्धों की बात। अब जरा नदी की डिसिल्टिंग के बारे विचार कर लें। प्रायः हर साल नेता गण नदियों की उगाढ़ी की बात किया करते हैं कि ऐसा करने से बाढ़ की समस्या का हल हो जायेगा।

जन साधारण में बाढ़ से बचाव के इस तरीके की चर्चा आम होती है, और यह सच भी है कि नदियों को अगर गहरा और चौड़ा कर दिया जाय तो उनमें पानी बहने की क्षमता बढ़ जायेगी और इलाके में बाढ़ घट जायेगी। सरसरी तौर पर यह बात एकदम दुरुस्त लगती है।

मगर पानी के साथ मिट्टी/रेत की मात्रा की कल्पना से यह तरीका भी अव्यवहारिक लगने लगता है। नदियों को चौड़ा और गहरा करने के सन्दर्भ में अगर कोसी का उदाहरण लें तो उसमें लगभग 11,000 हेक्टेयर मीटर/रेत मिट्टी प्रति वर्ष आती है। इतनी मिट्टी से अगर 1 मीटर (चौड़ा) × 1 मीटर (ऊँचा) बाँध बनाया जाय तो वह भूमध्य रेखा के तीन फेरे लगायेगा। नदियों की जब डिसिल्टिंग की बात उठती है तो हमें इतने ही परिमाण में मिट्टी की कटाई/ढुलाई के बारे में सोचना होगा। जैसा कि हम पहले कह आये हैं, महिषी से कोपड़िया की 33 कि.मी. की दूरी के बीच नदी तटबन्धों में लगभग 12 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से कोसी का तल ऊपर उठ रहा है। यदि तटबन्धों के बीच की दूरी औसतन 10 किलोमीटर मान ली जाये तो लगभग 39.6 ×106 घन मीटर सिल्ट/रेत इसमें हर साल जमा होती है जो कि 66 लाख ट्रक मिट्टी के बराबर है जिसे नदी के तल को आज के स्तर पर बनाये रखने के लिये हर साल हटाना पड़ेगा।

कोसी नदीअगर मिट्टी काटने का यह काम हर साल 15 दिसम्बर से 15 मई के कार्यकारी मौसम में किया जाय तो रोज साइट पर लगभग 37,000 ट्रक मिट्टी ढोने के लिये चाहिये और इतने ट्रकों को अगर एक लाइन से एक दूसरे से सटा कर खड़ा कर दिया जाय तो ट्रकों का दूसरा छोर लगभग 260 किलोमीटर की दूर पर दिखाई देगा। इतनी मिट्टी को केवल काट कर ट्रक में रखने का खर्च 46 करोड़ रुपये सालाना आयेगा जबकि बिहार सरकार एक साल में 40 करोड़ रुपये के आस-पास पूरे प्रान्त के बाढ़ नियंत्रण पर खर्च करती है। करीब-करीब इतनी ही मिट्टी बीरपुर बराज और महिषी के बीच से निकलेगी। फिर कोसी अकेली नदी तो है नहीं। उत्तर बिहार में इसके अलावा गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती, अधवारा समूह, कमला तथा महानन्दा की घाटियाँ भी पड़ती है। इतनी मिट्टी लेकर हम कहाँ जायेंगे। इसका एक तैयार जवाब है कि यह मिट्टी चौरों में डाल दी जायेगी। अब प्रश्न है कि कौन सा किसान अपनी जमीन पर बालू डलवाने के लिये तैयार होगा और यदि सारे चौर भर डाले गये तो उसका जल निकासी और पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा।

अगर उत्तर बिहार की नदियों की डिसिल्टिंग हाथ में ले भी ली जाय तो क्या गंगा की चौड़ाई या गहराई बढ़ाये बिना कोई लाभ होगा क्योंकि अन्ततः ये नदियाँ गंगा में ही जाकर मिलती हैं। केवल उत्तर बिहार की नदियों की खुदाई से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। और अगर गंगा की खुदाई शुरू की जायेगी तो फरक्का बराज का क्या होगा जो कि डिसिल्टिंग या खुदाई की राह का रोड़ा बनेगा और जब तक यह बराज रहेगा गंगा की डिसिल्टिंग का कोई मतलब नहीं होगा। अगर फरक्का से भी फुर्सत पा ली जाय तो फरक्का के आगे चल कर गंगा के दो भाग हो जाते हैं। एक हिस्सा पद्मा के नाम से बांग्लादेश की ओर जाता है और दूसरा भागीरथी/हुगली के नाम से पश्चिम बंगल से होता हुआ बंगाल की खाड़ी में जाता है। पद्मा की डिसिल्टिंग हमारे हाथ में नहीं है, पर भागीरथी की डिसिल्टिंग हम जरूर कर सकते हैं। ऐसा करने पर भागीरथी में पानी का प्रवाह बढ़ेगा और वह फिर एक राजनैतिक परेशानी पैदा करेगा क्योंकि बांग्लादेश पहले से ही फरक्का में गंगा के पानी पर अपना दावा बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा है। फिर अगर किसी तरह समुद्र तक डिसिल्टिंग कर भी ली जाय तो नदी और समुद्र के संगम स्थल पर नदी का और समुद्र का लेवेल एक संतुलन की स्थिति में है जिसमें केवल अस्थायी परिवर्तन आयेगा और दो एक साल बाद हालत पुरानी स्थिति में लौट आयेगी।

इसके अलावा इतने बड़े काम के लिये धन कहाँ से आयेगा। यदि यह काम मशीनों से करना है तो मशीनों की खरीददरी, संचालन और रख-रखाव पर कितना पैसा खर्च होगा। इन सब कारणों से राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) भी इस तरीके से बाढ़ नियंत्रण के हक में नहीं है।

प्रधानमंत्री 1993 में अगस्त माह के अन्त में जब बिहार आये थे तो उन्होंने नदियों की डिसिल्टिंग करके बाढ़ों के प्रभाव को कम करने पर बल दिया था। बाढ़ों पर डिसिल्टिंग का क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो कह पाना मुश्किल है पर इससे मिट्टी के काम में लगे ठेकेदारों और ट्रक मालिकों को जरूर लाभ पहुँचेगा।

यह काम तो छोटी-मोटी नदियों पर सम्भव है जिनके पानी में मिट्टी/रेत की मात्रा बहुत कम है। इन छोटी नदियों की खुदाई पर भी हाथ लगाने पर सारे पुलों को फिर से बनाना या विस्तार करना पड़ेगा और खुदी हुई मिट्टी/रेत को किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाना होगा। इसके बावजूद दो-तीन बरसातें काफी हैं कि मिट्टी/रेत का बेतल फिर पेड़ पर जा बैठे। हिमालय और गंगा घाटी की नदियों के सन्दर्भ में बाढ़ से बचाव के इस तरीके की चर्चा भी नहीं होती क्योंकि इसकी खामियों से सभी वाकिफ हैं।

अब कभी-कभी गाँवों को ऊँचा करने की बात उठती है। 1955-56 में उत्त्र प्रदेश में लगभग 4500 गाँवों को ऊँचा किया गया था। जो काम हुआ था वह इतना ही था कि गाँव को घेरकर 2 फुट ऊँची मेड़ बना दी गई और इस तरह जो घेरा तैयार हुआ उसमें मिट्टी भर दी गई। इसको भी दुरमुस नहीं किया गया। बस! हो गया गाँव ऊँचा। अब जिसके घर की कुर्सी (Plinth) एक फुट ऊँची थी उसके ऊपर एक फुट मिट्टी चढ़ गई। बारिश हुई तो बाहर का पानी घर में और इस पानी के निकालने के पहले ही घरों की दीवारें ढहने लगी। दुरमुस नहीं होने से जो नई मिट्टी पड़ी वह कीचड़ में बदल गई जिसमें से होकर चलना मुश्किल हो गया। बच्चे और जानवर फंसने लगे। तब इस तरह से गाँवों को ऊंचा करने का विरोध शुरू हुआ। तब तक तो कार्यक्रम जोर पकड़ चुका था और उसका प्रचार प्रसार आग की तरह फैला। अब जो गाँव फंस गये उनकी तो कोई सुनने वाला न था मगर केवल प्रचार के माध्यम से अन्य गाँवों में उन्हें ऊँचा करने की मांग जोर पकड़ने लगी। इसके साथ एक काम और भी हुआ। गाँव ऊँचा करने के लिये बजट मार्च में पास होता था और अप्रैल तक सिंचाई विभाग के लोग गाँव को ऊँचा करने पहुँच जाते थे।

यह वही समय था जबकि फसलें पक कर तैयार रहती थीं। मगर सिंचाई विभाग को तो अपना काम करना था। गाँव को ऊँचा करने के मिट्टी इन्हीं खेतों से आती थी। उनको फसल उजाड़ने से परहेज नहीं था क्योंकि टारगेट पूरा करना था। जहाँ गाँव कमजोर पड़ते थे उन्होंने ले-दे के काम रुकवाया पर जो मजबूत थे उन्होंने इंजीनियरों/ठेकेदारों को खदेड़ा। जब तक इस तकलीफ पर पुनर्विचार होता तब तक 4500 गाँव ऊँचे उठाये जा चुके थे। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग टिप्पणी करता है कि गाँव को ऊँचा करने के कारण बैलगाड़ियों की आवाजाही में दिक्कत होने लगी, ग्रामवासियों को अपने घर गाँवों में ऊपर तथा जानवरों और गोदामों को गाँव के निचले हिस्से में रखने की दोहरी व्यवस्था करनी पड़ी। फसल के नुकसान को गाँव को ऊँचा कर के भी नहीं रोका जा सका। इसलिये यह कार्यक्रम छोड़ना पड़ा। कितना ज्यादा फर्क है लोगों के सोच और सरकारी सोच में।

इधर कुछ वर्षों से इस कार्यक्रम को न केवल उत्तर प्रदेश में फिर से जिन्दा करने की कोशिश हो रही है, वरन इसकी कामयाबी की नजीर देकर बिहार में भी गाँवों को ऊँचा करने की बात चल रही है। जाहिर है ये तब्दीलियाँ सिर्फ तकनीकी कारणों से नहीं हो रही हैं। इसमें वोट की राजनीति, वाहवाही, लूटना या अपने वोटरों को कुछ कर के दिखाने की ललक आदि, बहुत से पहलू शामिल हैं वरना इंजीनियरों की राय का इतनी जल्दी एकदम पलट जाना आसान नहीं होता। इस पूरे प्रकरण का अध्ययन अपने आप में बहुत दिलचस्प होगा।

अब जरा एक नजर अपने बाढ़ नियंत्रण के तीर्थ कुशेश्वर स्थान पर डालें।

कमला और कोसी के तटबन्धों के बीच जो बाढ़ नियंत्रण के नाम पर प्रहसन हुआ है उसी का परिणाम है कि 1994 में दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान को पक्षी अभ्यारण्य घोषित करना पड़ गया। इस प्रखंड में कमला, कोसी तथा करेह नदी का पानी आकर इकट्ठा हो जाता है जिसकी निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि नदियों के तल तटबन्धों के कारण ऊपर उठ गये हैं। साल में बारहों महीने नाव चलती है। जमींदार अब पानीदार हो गये हैं। धान की जगह जलकुम्भी की फसल होती है। ऐसे में पर्यटन विकास के लिये इस प्रखण्ड को पक्षी अभ्यारण्य बना दिया गया। इटली के पीसा नगर में एक मीनार है जो कि नींव बनाते समय हुई गडबड़ियों के कारण एक ओर को झुक गई। सीधी मीनारें तो सारी दुनिया में हैं पर तिरछी मिनार तो केवल पीसा की ही है जिसे देखने के लिये सारी दुनिया से पर्यटक आते हैं। ऐसी ही एक लापरवाही और तकनीकी भूल की पैदाइश है आज का कुशेश्वर स्थान जिसे भविष्य में देखने के लिये पर्यटक आयेंगे। तकरीबन नब्बे हजार हेक्टेयर जमीन यहाँ पानी में डूबी है और यह वह जमीन है जिसे पश्चिमी कोसी नहर से सींचने का कार्यक्रम था। इस जमीन की एक और खासियत है।

इस पर कोसी तथा कमला तटबन्धों के अन्दर के बहुत से गाँवों को पुनर्वास मिला हुआ था मगर बदनसीबी ने उनका पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा। पुनर्वास की जमीन डूबने पर वह वापस अपने गाँव चले गये जहाँ वह हर साल कोसी या कमला की बाढ़ के थपेड़े झेलते हैं। वास्तव में कोसी तटबन्ध के अंदर के 338 गाँवों के लगभग आठ लाख लोग जो यंत्रणा भुगत रहे हैं उससे कहीं ज्यादा यातना तटबन्ध के बाहर तथाकथित सुरक्षित क्षेत्र वाले लोग भोग रहे हैं। कोसी-कमला तटबन्धों के बीच बसे गाँवों की बाढ़ समस्या का अध्ययन करने के लिये पहली समिति 1959 में केन्द्रीय जल आयोग ने गठित की थी और प्राप्त जानकारी के अनुसार अन्तिम प्रस्ताव 1988 का है जिसमें 52 करोड़ रुपयों की एक जल निकासी की योजना का प्रावधान है। इधर हाल में कुछ कार्यक्रम गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने भी जल निकासी के लिये बनाये हैं। इसका आज तक प्रभावी कार्यान्वयन नहीं हुआ है। केवल संख्या का अन्तर है गण्डक, बूढ़ी गण्डक, कमला, बागमती तथा महानन्दा नदी के संदर्भ में, पर बाकी परिस्थितियाँ लगभग सामान्य हैं।

आज हालत यह है कि इन योजनाओं के कारण कितने ही घर और बस्तियाँ उजड़ी और कितने ही लोग प्रान्त से बाहर जाकर रोजी-रोटी कमाने को मजबूर हुये। पति के रहते हुये कितनी ही औरतें वैधव्य काटने को अभिशप्त हैं तो बिहार के बच्चों का बचपन उजाड़ कर ही वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर या इलाहाबाद का कालीन उद्योग पनप रहा है। आखिर सहरसा, मुजफ्फरपुर, कुनौली जैसी जगहों से दिल्ली या जालंधर के लिये सीधी बसों की व्यवस्था अकारण नहीं है। पटना से भदोही के लिये सरकारी बस की सुविधा का निहितार्थ समझना भी कठिन नहीं है। श्रमजीवी एक्सप्रेस का नाम अजातशत्रु एक्सप्रेस या श्रमशक्ति एक्सप्रेस का नाम तीरभुक्ति एक्सप्रेस भी हो सकता था, मगर ऐसा नहीं है, रखे गये नाम सच्चाई के ज्यादा नजदीक हैं। आज बिहार अपनी उपजाऊ जमीन, प्रचुर जल संसाधन तथा खनिज सम्पदा के बावजूद सस्ता श्रम उपलब्ध करने का एक केन्द्र बन कर रह गया है।

इधर कुछ वर्षों से असामाजिक तत्वों की बड़ी चर्चा है कि वे तटबन्ध काट देते हैं। एक बार मैं मनिहारी (कटिहार) गया, जहाँ प्रायः हर साल असामाजिक तत्व गंगा का तटबन्ध काटते हैं। इन असामाजिक तत्वों का कहना है कि, ‘‘हमलोग तीन तरफ से नदियों से घिरे हुये हैं। पूर्व में महानन्दा, पश्चिम में कारी कोसी और दक्षिण में गंगा- हमारी समस्या यही है और हमारी समस्या का समाधान भी यही है। पहले जब तटबंध नहीं था तब नदियाँ चढ़ती थीं तो पानी बढ़ता था और अगर किसी भी नदी का पानी उतरता था तो हमारे यहाँ पानी घटने लगता था। तटबन्ध बनने के बाद हमारी समस्या गंभीर हुई है। बारिश में वैसे भी इन तीनों तटबन्धों के बीच हमारे यहाँ पानी अटकता है। कभी महानन्दा का पश्चिमी या कारी कोसी का पूर्वी तटबन्ध टूटा तो हम डूबे। तटबन्धों के बीच फंसा यह पानी अपने आप कभी निकल पायेगा क्या?’’

गाँव के बहुत से लोग बताते हैं कि ‘‘गंगा का तटबन्ध काटने के अलावा हमारे पास चारा क्या है। अगर नहीं काटते हैं तो मनिहारी, मेदिनीपुर, आजम टोल आदि गाँवों के कम से कम 5,000 लोग मरेंगे और मरने वालों में प्रखंड या थाने आदि के सरकारी महकमों के भी लोग होंगे। सरकार अगर दस हजार रूपये भी प्रति मृत व्यक्ति का मुआवजा दे तो 5 करोड़ रूपये होता है। काटे गये तटबन्ध की मरम्मत में दस-बीस लाख रुपये से ज्यादा नहीं लगेगा। प्रशासन के लोग तो खुद खड़ा होकर कटवाते हैं क्योंकि बाढ़ का पानी सरकारी और गैर सरकारी लोगों में अन्तर नहीं समझता। ....यह काम किस तरह से असामाजिक है? ..... मामला मुकदमा कुछ नहीं होता है क्योंकि जान सबको प्यारी होती है और इस बात से हर अफसर डरता है कि अगली बाढ़ में लोगों ने थाने-पुलिस या मुकदमे के डर से अगर बाँध नहीं काटा तो उनका खुद का क्या होगा।’’
गाँव वाले आगे कहते हैं, ‘‘बरसों से हमलोग यहाँ के पूरब रेल लाइन में काटाकोश के पास एक स्लुइस की मांग कर रहे हैं पर कोई सुनने वाला नहीं है। यह स्लुइस अगर बन जाता तो तटबन्ध काटने से फुर्सत मिलती पर जब तक कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हो जायेगी तब तक लगता है कोई सुनवाई नहीं होगी।’’

प्रश्न यह है कि धूप पड़ने पर छाते की व्यवस्था की जाय जो कि एक साधारण आदमी भी कर सकता है या फिर सूरज चमके ही नहीं वह इन्तजाम किया जाय। हमें अपनी और विज्ञान की सीमाओं का ज्ञान तो होना चाहिये। दिक्कत यह है कि इन्जीनियर चाहे वह विलियम विलकॉक्स रहे हों विलबर्न इंग्लिश आत्मा की आवाज से तभी बोलते हैं जब वह रिटायर हो जाते हैं और परम्परा आज भी कायम है और शायद भविष्य में भी रहेगी। जिन मसलों पर निर्णय केवल तकनीकी राय पर आधारित होने चाहिये वह निर्णय राजनीतिज्ञ लेते हैं और उसकी जिम्मेवारी इंजीनियरों पर ठेल देते हैं और वह ‘हम क्या करे’ की मुद्रा में खड़े रहते हैं।

बाराह क्षेत्र बाँध की बात चलती है। इस पर वैसे चर्चा तो कल होगी पर थोड़ी सी जानकारी के लिये बता दें कि बाराह क्षेत्र बाँध की आज की लागत पच्चीस हजार करोड़ रुपये बताई जा रही है और इस बात की परवाह किये बगैर कि इतना पैसा कहा से आयेगा एक सघन और सम्मोहक प्रचार शुरू हो गया है कि इतनी महँगी और इतनी बड़ी योजना बनने से ही बाढ़ समस्या का समाधान हो पायेगा। आज की दर पर इस अकेले बाँध पर जितना पैसा खर्च होने वाला है उसमें बिहार की दो पंचवर्षीय योजनायें पूरी कर लेने के बाद भी कुछ पैसा बच ही जायेगा। तटबन्धों की मरम्मत और रख रखाव के लिये पैसे के अभाव का रोना रोने वाला हमारा शासन तंत्र यह पैसा कहाँ से लायेगा और इसे हमारी कितनी पीढ़ियाँ चुकायेंगी यह कोई नहीं जानता क्योंकि बिना कर्ज लिये तो एक ईंट भी कहीं नहीं रखी जा सकती। यह प्रश्न तो जनता ही पूछ सकती है।

कभी-कभी लोग हमसे यह पूछते हैं कि यदि यह सब ठीक नहीं है तो विकल्प क्या है। इस प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है। एक तो यह सारी सूचनायें सरकार के पास हैं अतः यदि जनता यह कहे कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है तो सरकार ही उस पर पहल करे क्योंकि जनता तो केवल अपनी तकलीफ कह सकती है। विकल्प नहीं दे सकती क्योंकि उसके पास सूचनाओं का तथा तकनीकी क्षमता का सर्वथा अभाव है। दूसरा यह कि अगर विकल्प गैर जानकार देगा तो बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के चौदह हजार इंजीनियर क्या करेंगे, उनके दायित्व की परिभाषा होनी चाहिए।

परेशानी यह है कि हमारे इंजीनियर दो तरह की भाषायें बोलते हैं। दिन में दस से पाँच बजे के बीच में उनकी भाषा ऑफीशियल है जिसमें वह सिर्फ इंजीनियरिंग और उसको कार्यान्वयन करने की बात करते हैं। बजट, बेनिफिट, कॉस्ट रेशियो, उपलब्ध तकनीकों में सबसे अच्छा और सस्ता समाधान आदि पर ही केन्द्रित रहते हैं वे लोग। मगर पाँच बजे के बाद उनकी भाषा दूसरी हो जाती है। तब वह ‘हम कर ही क्या सकते हैं’ का स्टैण्ड लेने लगते हैं। बहुत से राजनीतिज्ञ भी यह कहते सुने जाते हैं कि ‘‘बात तो आप ठीक ही कहते हैं मगर इस तरह सरकार तो नहीं चलाई जा सकती है।’’ ठेकेदार निर्विकार हैं, उसे तो काम करना है, पैसा लेना है। फंसी जनता। इसीलिये हमारी मान्यता है कि किसी भी योजना पर खुलकर बहस हो और योजना पूर्व हम सारी अच्छी बुरी बातों से वाकिफ हों और कम से कम किसी भी प्रकल्प की सीमाओं को अच्छी तरह पहचान सकें।

कमला कोसी नदियों के बीच बसे प्रख्यात पुलिस अधिकारी, गांधीवादी और समाजकर्मी श्री रामचन्द्र खान ने अपनी बात निम्न शब्दों में कही।

तटबन्धों की भूमिका पर काफी अच्छी बातचीत हुई है। विज्ञान के बारे में भी चर्चा हुई है। हमारे क्षेत्र में तटबन्ध बहुत ही अवैज्ञानिक तरीके से बने हैं। विज्ञान का उनसे दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। मैं तो विज्ञान का छात्र रहा नहीं हूँ, केवल मैट्रिक तक पढ़ा है पर विज्ञान से नावाकिफ नहीं हूँ। तटबन्धों या बाढ़ सुरक्षा की बात उठती है तो मुझे बनारस याद आता है। गंगा के एक कगार पर पर शहर है और दूसरा किनारा मुक्त है और यह सदियों से है। पानी को फैलने की व्यवस्था है और सुरक्षा भी है। यह क्यों वैज्ञानिकों को नहीं दिखाई पड़ता। विज्ञान वास्तव में सत्य से साक्षत्कार का नाम है। विज्ञान का प्रयोग यदि मनुष्य के साथ हो तो उसे बहुत सतर्क रहना चाहिये। तटबन्धों के बारे में जब विज्ञान की बात उठती है तो विज्ञान को सन्तुलित होना चाहिये। उसे तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। नदियों के लिये एक शब्द तटिनी का उपयोग होता है अर्थात वह तटों से बंधी हुई है। अब नदियाँ कैसा तट बनाती है यह कभी देखा है आपने।

इस देश में दो सौ प्रमुख नदियाँ बहती हैं। नदियों ने अपने आप को उतना ही गहरा किया है जितने में वे समुद्र तक पहुँच सके। अपने तट को भी उसी मर्यादा के अनुकूल रखा है। नदियाँ तो जल का प्रवाह हैं, नदियाँ drainage हैं प्राकृतिक प्रवाह का। पृथ्वी के तीन चौथाई भाग पर जल है और यह मानव कल्याण के लिये है। नदियों के स्वभाव को, जो कि हिमालय से आती हैं, उनके प्रभाव का अध्ययन करना चाहिये। नदियों को प्रवाह चाहिये। सारा जल बरसात में शोषण नहीं किया जा सकता। लेकिन उसको तो बाँध रखा है। इसके प्रवाह में और देर होती है। विज्ञान ने यदि प्रकृति को बाँध रखा है तो उसे प्रकृति के मनुष्य से सम्बन्धों को भी देखना चाहिए। तटबन्ध बन तो सकते हैं पर शायद बनारस की गंगा की तरह। तटबन्ध वैसे ही बने जैसे नदियाँ बनाती हैं। जैसे प्रकृति ने बनाया है। इससे भिन्न तटबन्ध विवाद और विनाश का कारण है।

इधर कोसी पर या कमला बलान पर तटबन्धों के निर्माण का जो विनियोग हुआ। जैसा कि डॉ. अग्रवाल ने कहा कि कुछ लोगों का भला और कुछ लोगों का बुरा होना स्वाभाविक है। वास्वत में मनुष्य जब तक मातृभूमि के लिये बलिदान नहीं करेगा तब तक देश क्या बचेगा? अधिनायकवाद के खिलाफ, बर्बरता, वहशीपन आदि के खिलाफ लड़े बिना मनुष्य पूर्णता को प्राप्त नहीं होता। मैं यहाँ डॉ. अग्रवाल से कहूँगा कि यहाँ उसका दूसरा पक्ष भी है। यदि कोई बीमार अपनी बीमारी नर्स या डाक्टर को दे दे तो यह तो कोई इलाज नहीं हुआ। यह तो बीमारी का ट्रान्सफर हुआ। सिंह का उदाहरण लीजिये। यह नैसगिर्क है कि जब उसे भूख लगेगी तब वह आक्रमण करेगा। पर वह किस पर आक्रमण करता है-वह किसी हिंसक जीव पर आक्रमण करता मगर वह हाथी पर भी आक्रमण नहीं करता। आक्रमण करता है तो हिरन जैसे निरीह प्राणी पर जिसका सिंह को, बाघ को दुःख पहुँचाने का कोई उपक्रम नहीं होता।

विकास के नाम पर एक को लाभ देने के लिये दूसरे को दुःख पहुँचाना, दूसरे को विपत्ति में डालना, विनाश में डालना, यह सब गंभीर चर्चा का विषय होना चाहिये। हमारे यहाँ दूसरे को क्षति पहुँचा कर अपनी रक्षा करना आपद धर्म है जो कि प्राण रक्षा के लिये ही किया जाना चाहिये। देश को, समाज को नष्ट होने का भय हो तभी ईश्वर का स्मरण करके दूसरे को नुकसान पहुँचाना चाहिये। अपने लाभ के लिये किसी दूसरे को नुकसान पहुँचाना न तो किसी धर्म का लक्षण है, न मनुष्यता का लक्षण हो सकता है, न किसी विज्ञान का लक्षण हो सकता है, न किसी वाद का लक्षण हो सकता है।

राँची से आये चिकित्सक और समाजसेवी डॉ. धनाकर ठाकुर ने कहा कि यही अत्यन्त दुःख का विषय है कि इतने महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा इतने दिनों के बाद हो रही है। 1993 में राँची में मिथिला की बाढ़ पर एक तकनीकी गोष्ठी करने का सुअवसर मिला था। वह एक प्रतिनिधि सम्मेलन था। आज भी वैसा ही देखने को मिल रहा है। यहाँ जो बातें रखी गई उससे कुछ से मेरी सहमति है पर कहीं-कहीं असहमति भी है। जैसा कि एक मित्र ने कहा कि बर्द्धमान में मलेरिया पहली बार 1861 में फैला। वास्तव में मलेरिया का इतिहास इससे कहीं ज्यादा पुराना है। इस पर संशोधन होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मिथिला तो पहले से ही परिवहन के मामले में पिछड़ा हुआ है। अतः सड़कों या रेल मार्गों से होने वाली परेशानियों की आड़ में कहीं हम मिथिला को पीछे रखने के ही कुचक्र में तो नहीं फंस जा रहे हैं। आंकड़े गवाह हैं कि प्रति व्यक्ति सड़क या रेल मार्ग इस क्षेत्र में अभी भी अपेक्षाकृत कम है। फिर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गंगा के पानी के बँटवारे का एक समझौता अभी हाल ही में बांग्लादेश के साथ हुआ था जिसमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने एक अहम भूमिका निभाई थी। राष्ट्रीय स्तर पर इस समझौते का बड़ा ढिंढोरा पीटा गया पर हमारी यह निश्चित मान्यता है कि इस समझौते के कारण मिथिला का अहित होगा।

हमें अपने स्थानीय हितों के बहस में नहीं फंसना चाहिये पर यदि कोई काम गलत होता है तो उसके विरुद्ध निश्चित रूप से आवाज उठनी चाहिये।

सहरसा से आये वहाँ के नेहरू युवा केन्द्र के संयोजक श्री तूफान चन्द्र जोश ने अपनी विशिष्ट शैली में वार्ता को एक नया मोड़ दिया। अधिकांश वक्ताओं की बातों से मतान्तर रखते हुए उन्होंने कहा कि, ऊर्जा तो हम में बहुत थी पर अब एक चौथाई हो गई है और बाकी एक चौथाई लोग भी अब चल गये हैं। अध्यक्ष जी! हमको घड़ी न दिखाएंगे। इतनी देर से एक ही जंतर मंतर टाइप से बोल रहे थे लोग और तालियां भी थोड़ी-थोड़ी बज रही थीं। हम विवेकानन्द जी के पक्ष में और बाकी के विरोध में बोलेंगे। राँची से डॉक्टर ठाकुर डॉ. अग्रवाल को सुना। पता नहीं रेल विभाग से उनको क्या गुस्सा है कि उसको तटबन्ध में घसीट लिया और ऐसा चोट किया कि रेल का जाल बिछाना गलत है। रेलवे ने बिहार के साथ बहुत नाइन्साफी की है। रेलवे लाइन जितनी दूसरे प्रान्तों में है उससे बहुत कम हमारे प्रान्त में है और जो इस इम्बैलेंस को दूर करने की बात करता है वह विकास की बात करता है वह धन्यवाद का पात्र है। अग्रवाल साहब विद्वान आदमी हैं। वह जाल बिछाने का मतलब अच्छी तरह समझते हैं। इसका यह मतलब हरगिज नहीं होता कि रहने की भी जगह नहीं छोड़ेंगे। इसी वैज्ञानिक बात को उन्होंने बड़े अवैज्ञानिक ढंग से कहा है।

यही उनका अवैज्ञानिक दिवालियापन है। हम नहीं जानते कि विवेकानन्द जी ने क्या कहा- वह शायद यह बोले थे कि इससे केवल हानि ही नहीं होती लाभ भी होता है। यहाँ हमलोग बड़े प्रकृति प्रेमी हैं। मिश्र जी ने लिखा है ‘ऐसे आती है बाढ़’ लिखा है पहले ही पेज पर कि अंग्रेजों ने बाँध बनाने का विरोध सफलतापूर्वक और सक्षमतापूर्वक किया। और अभी भाषण में ठीक उल्टा कह रहे थे कि अंग्रेज यह काम केवल रेवेन्यू के लिये और पैसे के लिये कर रहे थे। हमारे देश में ऐसी बीमारी है कि विकास कोई काम कीजिये तो कुछ लोग तुरन्त कहेंगे कि यह काम कमीशन के लिये किया जा रहा है। जैसे मिश्र जी ने लिखा है कि जब सती होती थी तो इतना न घड़ी घन्ट बजता था कि जब महिला चिल्लाये तब, उसकी आवाज इसी शोर में दब जाये। वही घड़ी घन्ट यहाँ इकट्ठे होकर आप सभी लोग बजा रहे हैं कि आप लेग कोई विकास का काम नहीं होने देंगे। और इसके अलावा बाढ़ और मछली पता नहीं क्या-क्या कह रहे थे।

हम मामूली लोग यही जानते हैं कि पहले कहा जाता था कि ‘जहर खाओ न माहुर खाओ, मरना हो तो सहरसा, पूर्णिया जाओ।’ यहाँ मलेरिया, कालाजार, हैजा, प्लेग में गाँव का गाँव साफ हो जाता था। बाँध बनने के बाद मलेरिया कम हुआ है। जो लोग मानसी से चलते थे, चार पाँच महीने बाढ़ में फंसे रहते थे, पैखाना नाव पर जाते थे, गाँव घर डूबा रहता था, हम बाढ़ ग्रसित थे- अब मैं कहना चाहता हूँ कि मिश्रजी के सारे आंकड़े गलत हैं। आज बाँध के अन्दर धान इतना ज्यादा होता है कि हर आदमी पहले से ज्यादा खुशहाल है। आज जो हम सम्मेलन के पण्डाल में यहाँ बैठे हैं उसमें बाँध के अंदर तथा बाहर से लोग आए हैं- उनका कपड़ा लत्ता देखिये, उनका चेहरा देखिये- उस पर खुशहाली है। आज भूख से कोई नहीं मरता। हम नहीं कहते कि गरीबी नहीं है, दुःख नहीं है- स्वर्ग उतर गया है। बाँध के अन्दर वालों को कुछ ऐसी ही तकलीफ है जो बाहर वालों को नहीं है। लेकिन बात वैसी भयानक नहीं है कि बाँध को ही न बनने दिया जाय, विकास ही न होने दिया जाय।

हम जानते हैं कि हमारी फसलें ज्यादा हो रही हैं बनिस्बत बाँध के पहले के। हमें हर तरह से खुशहाली आई है। यह गलत है कि बाँध के पहले लोग सुखी थे और अब बाँध बन जाने के बाद वे दुःखी हो गये हैं। आंकड़ों में मत देखिये, आंकड़े झूठ के पुलिंदे हैं और जिन एजेन्सियों ने यह आंकड़े तैयार किये हैं उनकी नीयत हमारे देश के प्रति अच्छी नहीं है (आवाज: सिंचाई विभाग का आंकड़ा है)। नहीं सिंचाई विभाग का आंकड़ा यह नहीं है। सच यह है कि कोसी योजना से बीस लाख एकड़ क्षेत्र में सिंचाई हो रही है। आप लोग जो केवल तीन चार लाख एकड़ की बात कर रहे हैं वह योजना के विरुद्ध निश्चित रूप से झूठा प्रचार कर रहे हैं। आप मेरा समय बर्बाद कर रहे हैं। दूसरी बात जो यह कही जा रही है कि बहुत से बाँध अमेरिका तथा यूरोप वाले बना चुके हैं वह उन्हें तोड़ रहे हैं और हम उन्हें अब बना रहे हैं। इतना सरलीकरण –deterioration of facts और वह भी एकदम सफेद झूठ नहीं करना चाहिये। दुनियाँ में एक भी बाँध, समाजवादी देशों तक में भी नहीं टूटा है।

हमने भाखड़ा नांगल बनाया, तोड़ा नहीं। नर्मदा बना रहे हैं- बनाएँगे। और विकास के नाम पर लाख विदेशी एजेन्ट उसे रोकना चाहें हम नहीं रोकने देंगे। हम विकास की गाड़ी आगे बढ़ाएँगे-नर्मदा बाँध को ऊँचा करेंगे। कोई जनता भी अब चक्कर में फंसने वाली नहीं है। तकनीक की बात करते हैं और तकनीक से कोई ताल्लुक नहीं है। वह कहते हैं अंग्रेजों ने नदियों के किनारे बाँध का सफलतापूर्वक विरोध किया। हमारे बुद्धिजीवियों में कुछ लोग ऐसे हैं जो कि कहते हैं बराज नहीं बनाना चाहिये। यहाँ से नेपाल तक जाकर देख आइये। आज जो खुशहाली है वह बराज के कारण है। अगर इस सम्मेलन से यही सन्देश देना है कि यह बराज न रहे। तो माफ करना इस देश में बहुत से आतंकवादी काम हो रहे हैं- यह अराजकता की ओर ले जाने का षड्यंत्र है और इस फेर में हम नहीं पड़ेंगे। यह देश मेधा पाटकर या सुन्दर लाल बहुगुणा का नहीं है। लाख विदेशी एजेन्टों के विरोध के बावजूद कोसी बाँध बना है। बाँध के अन्दर के लोगों की हालत आज उतनी बुरी नहीं है जितनी कि पहले थी। प्रकृति और मनुष्य के संतुलन की बात करते हैं।

भाई मेरे! गेहूँ को तो प्रकृति पैदा करती है उसको क्यों खाते हो, चावल क्यों खाते हो, (श्रोताओं से विरोध) इस समय श्री रामचन्द्र खान ने विरोध करते हुए कहा कि, आपको धैर्यपूर्वक सुनना चाहिये। जोश जी के भाषण से ऐसा कुछ नहीं घटने वाला है कि वह निर्णय सुना रहे हों। उन्हें अपनी बात कहने दीजिये। हमारा विरोध होना चाहिये तभी आम राय बनेगी। जोश जी ने दिनेश कुमार मिश्र की व्यक्तिगत आलोचना कर दी तो क्या हुआ। उनका नाम ही तूफान चन्द्र है। उससे काम नहीं चला तो जोश भी लगा दिया तूफान के साथ। अपने नाम के हिसाब से तूफान जी ने ठीक ही किया। मेरी यही गुजारिश है कि मर्यादा का ध्यान रखा जाय। समय की संवेदना का ध्यान रखा जाय। अग्रवाल साहब ने बलिदान की बात उठायी थी, बलिदान की एक सीमा है, बलिदान महान कार्यों के लिये होता है, कभी छोटे-मोटे कामों के लिये नहीं। जब हम बलिदान के विरोध की दलील देते हैं तब हम जानते हैं कि हम गलत तटबन्धों के खिलाफ, विज्ञान, तथाकथित विकास के झूठे मॉडल के खिलाफ दलील देते हैं कि बलिदान एक बड़े उद्देश्य के लिये दिया जाता है। इसके बावजूद भी जो तथ्यों की अनदेखी करते हैं उन्हें दुनिया से वास्तविकता से, विज्ञान के यथार्थ से, इस देश की हैसियत से कोई लेना देना नहीं है। हमारे बीच जोश जी जैसे लोग हैं जो भिन्न विचारधारा रखते हैं। उनको भी हमें पूरे सम्मान से सुनना चाहिये।

श्री रामचन्द्र खान के हस्तक्षेप के बाद श्री तुफान चन्द्र जोश ने पुनः अपनी बात शुरू की और कहा, हमारे स्टाइल से कुछ गड़बड़ हुआ हो उसके लिये क्षमा करेंगे। विकास के लिये बाँध बने, सड़क बने, फैक्टरी बने, तटबन्ध बने तब हम समझते हैं कि विकास हो रहा है। एक भाई ने कहा कि आबादी बढ़ रही है इसलिये विकास नहीं हो रहा है। मतलब यह कि जो पैदा हो गये हैं यह पृथ्वी उनके बाप की जमीन्दारी हो गई- अब और किसी को नहीं आने देंगे। अब उन भाई से हम पूछते हैं कि आप को पैदा होने के पहले हमने आप को ही रुकवा दिया होता तो कैसा रहता। आप नहीं पैदा हुए होते तो कम से कम उतना तो जंगल नहीं कटता। फिर निर्मली आकर भाषण कौन देता। यानी परिवार नियोजन को दोष देना ही अब हमलोगों का काम रह गया है। फ्रांस में, जर्मनी में आन्दोलन चलता है परिवार बढ़ाने के लिये। वहाँ श्रम शक्ति नहीं है। मेरा कहना है कि किसी समस्या का एकदम से सरलीकरण मत कीजिये।

विकास की नीति का आगे जाना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है-पीछे की ओर कोई नहीं जाना चाहेगा। नाक रगड़ कर मर जाइयेगा, जाना आगे ही पड़ेगा। प्रकृति का भी नियम है कि विकास आगे की ओर ही होगा। और अब यह कहना कि बच्चा पैदा ही न करो ताकि जंगल न कटे-यह नहीं होगा। हम जंगल भी लगायेंगे और बच्चा भी पैदा करेंगे। हमारे देश में कितने जंगल अभी भी बाकी हैं। वास्तव में विकसित देश यह नहीं चाहते कि भारत आगे बढ़े और उसी तिकड़म का नतीजा है वह बाल दासता विरोधी कार्यक्रम और यह पर्यावरण। यह बाल दासता के विरुद्ध मुहिम और पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश की समस्या नहीं है, यह पश्चिमी देशों के दिमाग की उपज है। इसमें विदेशी पैसा लगा हुआ है। वही काम कर रहा है। हम यह नहीं कहते कि ऐसा यहाँ भी है ही पर इसकी संभावना अवश्य है। इसलिये आँख मूंद कर विश्वास मत कीजिये।

अध्यक्ष श्री हलधर भाई ने चर्चा को समेटते हुये अपने संक्षिप्त भाषण में सभी दृष्टिकोणों को समग्रता में देखते हुये एक सर्वसम्मत रास्ता खोजने पर बल दिया और इस सत्र की समाप्ति की घोषणा की।

सम्मेलन का दूसरा दिन - 6 अप्रैल 1997
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आज का पहला सत्र बाराह क्षेत्र बाँध के लिये आवंटित था परंतु यह आवश्यक समझा गया कि श्री तूफान चन्द्र जोश द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर एक वक्तव्य रखा जाय और तब बाराह क्षेत्र बाँध के बारे में बात हो। सुबह के सत्र की अध्यक्षता श्री रामेश्वर सिंह (सह संयोजक बाढ़ मुक्ति अभियान, हजारीबाग) ने की तथा संचालन श्री रणजीव जी (सहरसा) ने किया।

कल के अंतिम सत्र में उठे प्रश्नों पर एक वक्तव्य श्री विजय कुमार ने दिया। उन्होंने कहा कि हम इस बात के लिये श्री तूफान चन्द्र जोश का धन्यवाद करते हैं कि उन्होंने हमलोगों से भिन्न मत को बड़ी दृढ़तापूर्वक रखा। हमें और भी खुशी होती अगर वह तथ्यों पर आधारित अपनी बात रखते पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। एक सांस में वह डॉ. जी.डी. अग्रवाल या डॉ. ए.के. सिंह या जयन्त बसु जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिकों को अवैज्ञानिक और दिमागी दिवालियापन जैसे विशलेषणों से अलंकृत कर गये। हम नहीं जानते थे कि श्री तूफान जी की पृष्ठभूमि क्या है पर इतना जरूर समझ पाये कि जब उन्होंने यह कहा कि यहाँ प्रस्तुत किये गये सारे आंकड़े झूठे हैं और जिन एजेंसियों से यह आंकड़े इकट्ठे किये गये हैं उनकी नीयत हमारे देश के प्रति अच्छी नहीं है तब लगा कि तथ्यों से उनका कोई वास्ता नहीं है। सच्चे आंकड़े बताते हुये उन्होंने कहा कि कोसी परियोजना से बीस लाख एकड़ में सिंचाई हो रही है तो इस सम्बन्ध में हम इतना ही कह देंगे कि इतना तो कोसी योजना का लक्ष्य भी नहीं था। और अगर हमारे प्रान्त के जल संसाधन विभाग (जहाँ से ये आंकड़े लिये गये हैं) की नीयत हमारे देश के प्रति ठीक नहीं है तो वे एक इतना बड़ा मुद्दा उठाते हैं जिसके सामने इस सम्मेलन का एजेंडा नगण्य है। हमारे सरकार से मतभेद हो सकते हैं, उसके आंकड़ों पर भी हमें संदेह हो सकता है, हम शायद यह भी कह रहे हैं कि सरकार ने जो कुछ भी बाढ़ के मुद्दे पर किया वह ठीक नहीं किया, पर यह कहना कि हमारी सरकार की नीयत हमारे देश के प्रति ठीक नहीं है, कतई उचित नहीं होगा। उन्हें थोड़ा संयम रखना चाहिये था।

हमें आतंकवादी, उग्रवादी, विदेशी एजेंट आदि की भी संज्ञायें उन्होंने दीं। अपने भाषण में वह बस हमें देशद्रोही कहना भूल गये। अब अगर मनिहारी, कदवा, ढेंग, बैरगनियां, खैरी, फटकी आदि के लोग बढ़ती बाढ़ या जल जमाव के कारण अपनी जान दें दे तब तो वह इस देश के जिम्मेवार नागरिक हैं और अगर इसके विपरीत कुछ हो तो सबसे आसान गाली है आतंकवादी और विदेशी एजेन्ट की क्योंकि इससे सरकारी तंत्र और उससे जुड़े लोगों की अक्षमता जाहिर होती है। उनको तटबन्धों के बीच से आये लोगों के कपड़ों पर भी आपत्ति थी, अब वह भी उतरवा लीजिये, तसल्ली हो जायेगी। क्या बच गया हमारे लिये वहाँ। शायद ही कोई गाँव हो जो पिछले चालीस वर्षों में दस बार न कटा हो। और जिस पाँच महीने की बाढ़ और नाव पर पैखाने की बात कही गई उससे वह क्षेत्र अभी भी मुक्त है क्या? पूरे इलाके में घूम आइये कोसी-कमला के बीच जवान लोग उंगली पर गिनने भर को मिलेंगे-सब चले गये दिल्ली-पंजाब। यही विकास हमारा हुआ है। अब यह बात अगर कहें तो आपको सुनना भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि

‘‘वह आहों से भी नाखुश हैं और हमको जीने भी नहीं देते
गरज उनका यह मकसद है कि हम घुट-घुट कर मर जायें।’’


हमको प्रकृति की रक्षा के लिये गेहूँ न खाने की सलाह दी गई। परिवार नियोजन की लानत मलागत की गई। हमें आलोचना से कोई परहेज नहीं है क्योंकि हम भी यही कर रहे हैं मगर आलोचना एक चीज है और आलोचना का मखौल एकदम भिन्न चीज है। हम यहाँ मखौल के लिये नहीं, गम्भीर चर्चा के लिये इकट्ठे हुये हैं।

तथ्य पर आधारित कोई बात कीजिये, स्वागत है। पश्चिमी कोसी नहर का प्राक्कलन अगर साढ़े तेरह करोड़ रुपयों से बढ़कर पाँच सौ सत्तर करोड़ रुपये हो गया तो यह हम सब के लिये चिन्ता की बात होनी चाहिये, इसमें हम कहाँ से विदेशी एजेन्ट हो गये और आप क्यों उखड़ गये। बाराह क्षेत्र बाँध पच्चीस हजार करोड़ रुपये में बनेगा- है आपके पास। इसके लिये विदेश से पैसा नहीं आएगा तो कहाँ से आएगा। उस समय विदेशी ताकतें याद नहीं आती हैं। यह देश केवल मेधा पाटकर का या सुन्दर लाल बहुगुणा का नहीं है सच है, यह हमारा आपका सबका है। पर यह भी गलत नहीं है कि ऐसे लोगों के न होने के कारण ही कोसी तटबन्ध 1957 में बनता है और कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार तटबन्ध बनने के तीस साल बाद 1987 में, और यह कोई काम फिर भी नहीं करता है। जब कोसी परियोजना शुरू हुई थी तब लोगों का नेताओं और इन्जीनियरों पर विश्वास था। वह विश्वास अब नहीं रहा। जब तक यह अविश्वास रहेगा तब तक मेधा पाटकर और सुन्दर लाल बहुगुणा पैदा होते रहेंगे। हम आज यहाँ सम्मेलन में इस लिये आये हैं कि हमने आँख मूंद कर केवल प्रचार पर विश्वास नहीं किया, चीजों को परखा है।

हमलोगों को मिश्रा जी को पागल कहना हम सबका अपमान है। मिश्रा जी हमलोगों की गैस से पागल जरूर हो सकते हैं। वह तो यहाँ के हैं भी नहीं। यहाँ चालीस साल बाद लोग इस उम्मीद में आये हैं कि शायद अब कुछ हो जाये। रामचन्द्र खान जी दो दिन से बैठे हैं यहाँ- किसी मनोरंजन कार्यक्रम में नहीं आये हैं, एक पीड़ा लेकर बैठे हैं। तूफान भाई शायद चले गये हैं, अगर वह सचमुच गंभीर थे तो उन्हें यहाँ रहना चाहिए था। इन योजनाओं से सम्बन्धित कुछ आंकड़े हमने यहाँ पण्डाल में लगा रखे हैं और हमें बड़ी प्रसन्नता होगी यदि यह गलत सिद्ध किये जा सकें। मगर यह काम तथ्यों के आधार पर हों, जुबानी जमा खर्च नहीं। हम यहीं अपनी बात समाप्त करते हैं इस आशा के साथ कि आगे जो भी वक्ता आए वह अपनी बात तथ्यों पर आधारित ही कहेंगे और यहाँ की गंभीरता को हल्का नहीं करेंगे।

श्री विजय कुमार की प्रस्तुति के बाद श्री दिनेश कुमार मिश्र ने बाराह क्षेत्र बाँध के बारे में अपना बयान रखा। उन्होंने बताया कि बाराह क्षेत्र बाँध का प्रस्ताव पहली बार 1937 के पटना बाढ़ सम्मेलन में किया गया था। पर अन्ततः कोसी नदी पर 1955 में तटबन्ध बनाना पड़ गया। उस समय इस बाँध का निर्माण न होने के पीछे मुख्यतः दो कारण थे। एक तो इसकी लागत बहुत ज्यादा थी- 1974 में सौ करोड़ और 1952 में एक सौ सत्तहतर करोड़ रुपये। दूसरे, इन्जीनियर और भूगर्भ विज्ञानी कभी भी इस बाँध की सुरक्षा के प्रश्न पर एकमत नहीं हो पाये। बाँध की लागत और उसकी सुरक्षा का प्रश्न आज भी वैसा ही बना हुआ है।

बिहार के दूसरे सिंचाई आयोग (1994) के अनुसार इस बाँध की लागत 1981 में 4,074 करोड़ रुपये हो गई थी। आजकल नेताओं के जो बयान अखबारों में आ रहे हैं उसके अनुसार इस बाँध की लागत बीस से पच्चीस हजार करोड़ रुपये के बीच होगी। प्रश्न है कि इतना पैसा कहाँ से आयेगा। जाहिर है कि बहुत सी अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थायें सरकार को इस प्रकल्प के लिये प्रोत्साहित कर रही होंगी। इसके साथ ही इस क्षेत्र में 1934 के मुजफ्फरपुर जैसे भूकम्प की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इन दोनों मुद्दों पर हम आज भी वहीं हैं। जहाँ 1952 में थे।

इसके अलावा कुछ अन्य मुद्दे भी ऐसे हैं जिनके बारे में चर्चा होना जरूरी है। नेपाल में बाराह क्षेत्र के पास जिस साइट नम्बर 13 पर इस बाँध का निर्माण होना है वहाँ कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नं. 13 से लेकर भीमनगर बराज तक नदी के जलग्रहण क्षेत्र में 2266 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोत्तरी होती है और उसके नीचे के भारतीय क्षेत्र में कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्गकिलोमीटर पड़ता है। इस तरह लगभग 13,876 वर्ग किलोमीटर का नदी का जलग्रहण क्षेत्र प्रस्तावित बाराह क्षेत्र बाँध के नीचे पड़ेगा। बागमती का जलग्रहण क्षेत्र इससे थोड़ा ही कम है और यह दो कमला नदियों के जलग्रहण क्षेत्र के बराबर है। इसका मतलब यह है कि बाराह क्षेत्र बाँध के नीचे एक बागमती या दो कमला नदियों के बराबर पानी तो फिर भी बहेगा। चाहे बाँध बने या न बने। आज यही पानी कोसी तटबन्धों के बाहर अटकता है और पूर्वी तथा पश्चिमी, दोनों तटबन्धों के बाहर भीषण जल जमाव का कारण बनता है। बाराह क्षेत्र बाँध बन जाने के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है।

इसके अलावा इंजीनियर तथा राजनीतिज्ञ एक सुर से पिछले 45 साल से यही कहते आये हैं कि तटबन्ध कारगर जरूर होते पर जब तक बाराह क्षेत्र बाँध नहीं बनेगा इनकी उपयोगिता स्थापित नहीं हो पायेगी। एक नजर इस दावे पर भी डाल लें। एक बार मान लें कि बाँध बन गया यानि अब सारी सिल्ट बालू बाँध के जलाशय में रुक गई और उसके द्वारा छोड़ा गया पानी अब एकदम गाद मुक्त है तथा तटबन्ध चुस्त दुरुस्त है। पहली बात तो यह है कि एक आदर्श स्थिति है- बाँध से छोड़ा गया पानी कभी भी सिल्ट मुक्त नहीं होगा और इस स्थिति से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाँध के जलाश्य के जीवन को बनाये रखने के लिये बरसात में पानी को मुक्त छोड़ दिया जाय और केवल बरसात के अन्त में ही जलाशय भरने का काम किया जाय। इसका सीधा असर होगा कि तटबन्धों के अन्दर नदी आज की ही तरह रास्ते बदलती रहेंगी और गाँवों का कटाव बदस्तूर जारी रहेगा और वहाँ बाढ़ की परिस्थिति में कोई अन्तर नहीं आयेगा। बरसात के अन्त में जलाशय भरने के बाद भी एक खतरा बाकी रह जाता है। अगर 1968 या 1978 की तरह कभी अक्टूबर में असाधारण वर्षा हुई तो बाँध के फाटक भी खोल देने पड़ेंगे और तात्कालिक बाढ़ का भी सामना करना पड़ेगा। आम तौर पर 25 सितंबर के बाद आने वाली बाढ़ों को रोकने की सामर्थ्य बाराह क्षेत्र या इस जैसे किसी बाँध में नहीं होगी। ऐसी स्थिति में तटबन्धों के अन्दर रहने वालों पर खतरा पहले से ज्यादा बढ़ा हुआ होगा। दुर्भाग्यवश तटबन्धों के अन्दर रहने वाले लोगों का ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जायेगा कि वह बाराह क्षेत्र बाँध के लिये आवाज उठायें।

जहाँ तक बाढ़ का प्रश्न है बाराह क्षेत्र बाँध बनने या न बनने से कोई भी असर नहीं पड़ने वाला है परन्तु बाढ़ नियंत्रण का नाम लेकर ही इस बाँध का प्रचार किया जा रहा है। यदि बाँध के 1981 के प्राक्कलन पर एक नजर डालें तो यह धुंद छंट जाती है। बाँध के 4,074 करोड़ रुपयों की अनुमानित लागत में से 2,677 करोड़ रुपये इसमें बिजली उत्पादन 1,347 करोड़ रुपये सिंचाई के लिये रखे गये हैं। केवल बाकी की 50 करोड़ रुपयों की राशि जल छाजन तथा भूमि संरक्षण के लिये आवंटित है। योजना का उद्देश्य यहीं स्पष्ट हो जाता है। बाँध के लिये प्रचार-प्रसार बाढ़ के नाम पर होगा और नजर बिजली उत्पादन पर होगी। इस बात को कह देने में क्या हर्ज है, क्यों लोगों के मन में एक और आशा बाढ़ नियंत्रण के नाम पर जगाई जाये।

अब जरा सिंचाई के दावे की बात कर लें। इस बाँध से भारत और नेपाल की 12.17 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की बात है। इस तरह का दावा 1953 में वर्तमान कोसी योजना बनाते समय भी किया गया था। तब कहा गया था कि इस योजना से 7.12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होगी। बाद में 1975 में राम नारायण मंडल कमेटी ने तय किया कि यह अनुमान पूर्णतया गलत है और इस योजना से 3.74 लाख हेक्टेयर कृषि से ज्यादा में सिंचाई हो ही नहीं सकती। पिछले साल इस योजना से 1.85 लाख हेक्टेयर में सिंचाई हुई। इसी तरह से पश्चिमी कोसी नहर 2.61 लाख हेक्टेयर जमीन सींचने वाली थी। मात्र 227 करोड़ रुपया खर्च कर लेने के बाद 1995-96 में 16,000 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई मिली। इन योजनाओं से अपेक्षित सिंचाई करने से कौन रोकता है और बाराह क्षेत्र बाँध बन जाने के बाद ऐसा क्या जादू चल जायेगा कि सिंचाई इच्छानुसार मिलने लगेगी। पूर्वी कोसी नहर पर मूल प्राक्कलन का दस गुने से ज्यादा खर्च हुआ और पश्चिमी कोसी नहर की आज की अनुमानित लागत 568 करोड़ रुपये है जो कि मूल प्राक्कलन का चालीस गुना है। अब अगर बाराह क्षेत्र बाँध की लागत 25 हजार करोड़ रुपयों से बढ़कर 250 हजार करोड़ रुपये हो जाये तो क्या अनहोनी होगी। आज बिहार की वार्षिक योजना 2200 करोड़ रुपये की है। अकेला बाराह क्षेत्र बाँध दो पंचवर्षीय योजनाओं से ज्यादा की राशि हजम कर जायेगा। बताते हैं कि ऐसे 16 बाँध बनाने वाले हैं। कहाँ से लायेंगे हम लोग यह पैसा?

विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में अनुमान है कि बाराह क्षेत्र बाँध 3,300 मेगावाट बिजली पैदा करेगा। बिहार में आजकल लगभग 1800 मेगावाट बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता है और बिजली पैदा होती है 350 मेगावाट के आस-पास। किसी भी बाँध या संयंत्र लगाने के पहले क्यों नहीं इस स्थापित क्षमता का उपयोग किया जाय, क्यों नये पॉवर प्लांट ही लगाये जायें। और इस बात की क्या गारंटी है कि बाराह क्षेत्र बाँध का उत्पादन 3,000 मेगावाट के स्थान पर 500 मेगावाट पर जाकर नहीं अटक जायेगा।

जल छाजन तथा भूमि संरक्षण पर मात्र एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा आवंटन स्पष्ट रूप से इशारा करता है कि वनीकरण और भू-क्षरण के प्रश्न को अभी भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। जो कुछ भी बाढ़ नियंत्रण किया जायेगा वह केवल जलाशय से आने वाले प्रवाह को नियंत्रित करके ही किया जायेगा।

इसके साथ ही विस्थापन और पुनर्वास का प्रश्न सीधे तौर पर इन बाँधों के साथ जुड़ा हुआ है जो कि नेपाल में होगा। देश विदेश में बहुत सी योजनायें इस मुद्दे पर रुकी पड़ी हुई हैं। भारत में ही टिहरी, सुवर्णरेखा तथा सरदार सरोवर योजनाओं पर काम इसी कारण बन्द है। कोयल-कारो परियोजना को शिलान्यास करने वाला भी नहीं मिल रहा है। स्वयं नेपाल में अरूण 3 बाँध काम पुनर्वास के मुद्दे पर बन्द है और फिलहाल विश्व बैंक ने पैसा देने से हाथ खींचा हुआ है। हम आशा करते हैं कि अगर कभी बाराह क्षेत्र बाँध बनता है तो इस मुद्दे पर अपेक्षित सावधानी बरती जायेगी।

इसके अलावा खर्च का बटवारा, बिजली की लागत, बाँध की सामरिक सुरक्षा, आपदा प्रबंधन की योजना आदि बहुत से ऐसे आयाम हैं जिनको बाँध पर हाथ लगाने से पहले सुलझाना होगा। इन सारे मुद्दों पर एक खुली और व्यापक बहस की जरूरत है जिससे जो भी काम हो वह कम से कम इस बार जिन्दा हकीकत को ध्यान में रखकर हो, भावनाओं के आधार पर नहीं। कोई भी योजना हो, हमें अपनी जरूरत अपने संसाधन, अपनी क्षमता और अपनी समस्या को ध्यान में रखकर ही बनाना चाहिये।

श्री मिश्र ने इस उम्मीद के साथ अपनी बात समाप्त की कि आने वाले वक्ता इस आलोक में अपनी बात रखेंगे और जब सम्मेलन के प्रस्तावों पर बहस होगी तब इन मुद्दों पर विशेष रूप से चर्चा हो सकेगी।

इसके बाद श्री रामचन्द्र खान ने अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने कहा कि, मैं यह मान कर चलता हूँ कि जो विचार आज के जैसे सम्मेलन से आते हैं और जो संस्थाएं सीधे जनता से वार्तालाप चला रही हैं, उन्हें न तो किसी राजनीतिक विचारधारा के समर्थन की आवश्यकता है, न किसी संगठन की आवश्यकता है इसकी नैतिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिये किसी सरकार या किसी वैज्ञानिक के योगदान की आवश्यकता नहीं है। सारे हिन्दुस्तान में मनुष्य को बचाने के लिये चलाई गई बहस का निष्कर्ष, विचार के स्तर पर, समर्थन के स्तर पर किया है। समस्याओं के बीच कुछ बहस पहले से चली आ रही है और कुछ साम्राज्यवादी सोच के तहत पैदा हुई है। पिछले पचास सालों में इस सोच के तहत जो कुछ विकास हुआ उसमें जनता को एक खासे हिस्से के लिये परेशानियाँ बढ़ाई गई, उनके लिये संकट रचा गया। जो वैज्ञानिक पैदा किये गये, जो वैज्ञानिक क्षमता पैदा की गई, जो विकास की दृष्टि पैदा की गई उससे आम आदमी की समस्यायें जुड़ी हैं। मैं इसी पीड़ित मनुष्य के समर्थन में आपके सामने खड़ा हुआ हूँ।

आपने जो बात छेड़ी है उसका क्षितिज बहुत व्यापक है। इसके लिये दूर तक देखना बहुत जरूरी है। पर आप मुझे क्षमा करेंगे यह कहने के लिये कि क्षितिज तक देखने के लिये अपना धरातल और अपने आसपास भी देखना उतना ही जरूरी है। मछली के जीवन के लिये पानी बहुत जरूरी है, उसके बिना मछली का अस्तित्व नहीं है। मछली जब भी जियेगी मछली की तरह ही जियेगी बन्दर की तरह नहीं। कोसी, कमला, बलान के बीच का क्षेत्र देख लीजिये- वहाँ विकास का दृश्य ही दूसरा है। हमारा खेत नष्ट हो गया, पक्षी नष्ट हो गये, पेड़ नष्ट हो गये, हमारे घास-पात नष्ट हो गये। कोसी में बाँध की क्या जरूरत थी, वह अपना रास्ता बनाती थी- हर नदी अपना रास्ता बनाती है। इसमें कौन सी बुराई है। वर्षा के समय उसमें जल का निस्सरण कुछ ज्यादा होता था तो उसमें कौन सी बुराई है। कौन सी हिन्दुस्तान की ऐसी नदी है जिसमें वर्षा के समय उसका स्तर ऊँचा नहीं होता। यही था तो गंगा को क्यों नहीं बाँधा गया। वहाँ भी तो बाढ़ आती है।

कोसी नदीइस पूरी बात को उस समय भी चुनौती दी गई थी जब कोसी बाँध बनाने का काम चल रहा था-मैं कोई नई बात नहीं कर रहा हूँ। तब भी कोसी के बाँधने को, उस विज्ञान को, उस प्रकल्प को चुनौती देने का काम हुआ था। तब तक कोई बहस पर्यावरण पर नहीं चली थी पर चुनौती तब भी दी गई। श्री बहादुर खान शर्मा ने यह काम किया था- मैं इसलिये उनका नाम नहीं ले रहा हूँ कि वह मेरे पिता थे पर एक तरफ जवाहर लाल जी जैसे दिग्गज खड़े थे तो दूसरी तरफ गांधीवादी समाजवादी लोग थे। पाँच सौ लोग जेल गये होंगे-औरतें भी गई; कोसी बाँध का काम साल भर रुका रहा। संगीने तानी गईं लोगों पर लेकिन बहुत से सिपाहियों ने अवहेलना में गोली चलाने से इनकार कर दिया- अपनी बन्दूकें फेंक दी- लाइसेंस के साथ। तब सरकारें भी इतनी संवेदनशील नहीं हुआ करती थीं। बिना जमानत के सारे लोग छोड़ दिये गये। बहादुर खान शर्मा की गिरफ्तारी तक नहीं हुई। अनुग्रह बाबू थे, श्री बाबू थे, उन्होंने कमेटियां बनाई तब जाकर पुनर्वास की चर्चा शुरू हुई।

पूर्वी और पश्चिमी दोनों तटबन्धों का काम एक वर्ष रोक देना पड़ा क्योंकि बहादुर खान शर्मा, परमेश्वर कुंवर, सूरज नारायण सिंह और कौशलेन्द्र नारायण सिंह के नेतृत्व में लोग संगठित हो गये थे यह अब इतिहास है। यह हमारा सौभाग्य है कि इन नेताओं में से श्री परमेश्वर कुंवर आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। आज उनकी आत्मा को शान्ति मिलती होगी कि आज सारे प्रान्त से, सारे देश से लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं- उसी बात पर चर्चा करने के लिये जिसका बीज उन्होंने बोया था। हमको क्या मिला? जिस इलाके में कोसी नहीं थी, जिस इलाके में विस्थापन का कभी कोई प्रश्न ही नहीं उठता, जिस इलाके में नदी नष्ट नहीं हुई थी, जिस इलाके की जमीन नष्ट नहीं हुई थी, जमीन, पेड़-पौधों, पशु पक्षियों, रास्तों का खात्मा नहीं हुआ। उस इलाके को योजनायें मिली, प्रयोगशालायें मिली, रास्ता मिला, कमाण्ड एरिया, विकास अथॉरिटी मिली।

और हिमालय से जो नदी निकलेगी वह धरातल पर आयेगी, धरातल से समुद्र में जायेगी-इसमें गलत क्या है। तीन महीने पानी ज्यादा रहेगा इसमें गलत क्या है। लोगों के पास नावें थीं सो छिन गई। हमारी औरतें नाव चलाती थीं। हमारे घर नाव में होते थे। हमने ऐसी-ऐसी फसलें देखी हैं जो पानी के साथ बढ़ती थीं। देसरिया, बारोगर, मालमर्दन जैसे धान। ये धान पानी के साथ बढ़ते थे। 8 फुट हो या दस फुट-इससे ज्यादा कोसी में कभी पानी आता ही नहीं था। आज कोसी में 15 फुट पानी है और छः से आठ महीना रहता है। मात्र दो महीनो का जल जमाव रहता था वहाँ 8 महीना हो गया। आप सभी लोग जानते होंगे कि दुर्गापूजा के ढोल के साथ कोसी चली जाती थी। अब तो हमारी नदियाँ कहाँ हैं। सारी नदियाँ नकली नदियाँ हैं। कोसी, कमला, बलान, तिलयुगा सभी नदियाँ आज नष्ट हो चुकी हैं। सब तटबन्धों से घायल हैं। कोसी नदी की मिट्टी उपजाऊ नहीं है। उसके इस दोष को कमला बलान आदि सभी नदियों की मिट्टी मिलकर संतुलित कर देती थीं।

इस मिलान से एक नई मिट्टी पैदा होती थी, जंगल पैदा होता था, परिवेश बनता था-सब खत्म हो गया। योजनाएँ बनाते हैं जो लोग वह एयर कंडीशनर में बैठकर, उनसे मेरा कहना है कि धरातल पर आओ, कोसी के भीतर चलो, जनता से सुनो और तब योजना बनाओ। मगर हमें तो अन्धों को दिखाना है और बहरों को सुनाना है। कोसी कमला के बीच के बीस लाख लोगों की तकलीफें बतानी है- उनको इन योजनाओं से क्या मिला। हमसे बलिदान की बात कही जाती है-यह हम देंगे-देश के लिये, समाज के लिये, युद्ध क्षेत्र में- सब जगह, पर छुद्र स्वार्थों के लिये-कभी नहीं। हमें अपना खेत-खलिहान वापस चाहिये, हमें अपनी कोसी वापस चाहिये। पानी को बहने दीजिये, कोसी को बहने दीजिये।

विज्ञान के नाम पर, तटबन्ध के नाम पर जो नौटंकी शुरू हुई उस नौटंकी का विरोध होना ही चाहिये। बाराह क्षेत्र बाँध की बात है- भूकम्प होगा तब क्या होगा? चीन वहाँ है-जब युद्ध होगा तब क्या होगा? तिब्बत हमने चीन को घूस में दे दिया केवल युद्ध से बचने के लिये। दोस्ती तो हमने की-चीन से ज्यादा तिब्बत से कम। कोसी तो तिब्बत से शुरू होती है। यदि चीन से इतनी ही दोस्ती है तो कहिये उससे कि तीन महीने कोसी को हमारे लिये नियंत्रित करके रखें। जब तक हम कोसी के पानी को अपने यहाँ प्रयोग करने लायक नहीं हो जाते तब तक उसे चीन सम्भाले। अगर स्रोत पर विनियोग करना है तो चीन में, तिब्बत में भी कोसी के जल का विभाजन होना चाहिये।

घर के बदले घर की बात थी- मिला किसी को? जमीन के बदले जमीन की बात थी- मिली कोसी को? नौकरी मिलने की बात थी-मिली किसी को। साल में छः महीने पानी भरा रहा करता है- इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कुछ और नहीं है हमारे यहाँ। नष्ट पर्यावरण तो कोई लौटा ही नहीं सकता-उसकी तो बात करना ही व्यर्थ है। बीस लाख लोगों के बारे में कोई जानकारी है कहीं? कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार कहाँ है और क्या करता है-इसकी जानकारी शायद दिनेश मिश्र के संकलन में कहीं मिल जाय। कागजी संस्थाएं बहुत हैं- कुछ तो कागज में भी नहीं हैं। मैंने इन सारे प्रश्न को राष्ट्रीय पटल पर उठाना चाहा है जिसके लिये मैं गांधीवादियों के पास गया, सर्वोदय वालों के पास गया, जहाँ-जहाँ जा सकता था गया। गांधीवादियों ने मुझे दिनेश मिश्र जी से मिलवाया। उन्होंने बड़ा अच्छा documentation का काम किया है, इतिहास और विज्ञान को बड़े तरतीब से एक जगह रखने का काम किया है पर उसके बाद भी बहुत कुछ छूट गया।

यह सामग्री कहीं फाइलों में गुम है कहीं सरकारी अभिलेखों में होगा। वह सामग्री आदि देखेंगे तो शायद पता लगे कि 40-50 साल पहले की कोसी योजना क्या थी, कमाण्ड एरिया की कल्पना? उसका विस्तार क्या था। क्या Infrastructure विकसित किया जाना था-यह काम अभी बाकी है मिश्र जी। मैंने, जब मैं छात्र था, तब कोसी स्टूडेन्टस एसोसिएशन बनाया था, उस क्षेत्र के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिये और उस क्षेत्र में काम करने के लिये। एक जमीनी सर्वेक्षण हमें करना चाहिये- उस क्षेत्र का। मिश्र जी ने वर्षों से यह काम किया है। हमें इन जैसे लोगों की जरूरत है। यह प्रस्ताव मैं करने वाला हूँ।

मैं आपको पीछे चलने के लिये नहीं कर रहा हूँ, मेरे साथ बराबर बराबर चलिये। मैं आपको समय देता हूँ आप मुझे समय दीजिये। अनिल प्रकाश जी से बात हो रही थी- मैं नाव, एक मोटर नाव की व्यवस्था अपने वेतन से करता हूँ। पुरानी लकड़ियां हैं, 2 पम्पिंग सेट हैं-उनकी मदद से एक नाव बना लेंगे। ऐसी नावों हमने बनारस, इलाहाबाद में देखी हैं-उन पर चलेंगे। तब बरसात में कोसी को देखेंगे। पता लगेगा कि नदियों का तटबन्ध ने क्या किया है-तब आप समुद्र देख सकेंगे। जल प्लावन और जल जमाव देख सकेंगे। कृपया इस क्षेत्र में आएं। मैं साथ रहूँगा। मैं, कोसी कमला विस्थापन मंच, जन चेतना परिषद आदि सभी आप के साथ चलेंगे।

यदि हमलोग ऐसा कुछ कर पाते हैं तो वैज्ञानिकों पर एक दबाव डाल सकते हैं कि वह समाज को समझे, परखे बिना कोई योजना न बनायें, योजनाओं के केन्द्र में मनुष्य को रखें। विज्ञान हो, तकनीक हो, चाहे जो भी हो उसके परीक्षण के लिये आवश्यक है कि वह मनुष्य को कितना छूता है, उसको क्या देता है और उससे क्या पाता है। लोगों को कहीं न कहीं यह भ्रम है कि विज्ञान के पास, सरकार के पास, धर्म के पास देने को सब कुछ है मगर समाज के पास ऐसा कुछ नहीं है। वास्तव में समाज से ही विज्ञान उपजता है, धर्म उपजता है, विकास का मूल भी समाज में है। एक एक्सपोर्ट संस्कृति का भी खतरा हमें दिखाई पड़ता है। हमारे इलाके में फ़ैक्टरी वह लगाये, हम उनकी नौकरी करें और अपना कच्चा माल निर्यात कर दें। हम उनके बाजार के अदना ग्राहक बन गये हैं।

हम जल नीति के पहले राष्ट्रहित की बात करें। भारत का संदेश स्थिरता है, भविष्य के लिये आदमी को बचाना है, मनुष्य चिन्तित है। लेकिन देश बिना किसी विचारधारा, चिन्तन या आदर्श के आगे चला जा रहा है। हिन्दुस्तान का संदेश आज क्या है? क्या हमारी चिन्ता के केन्द्र में भारत का मनुष्य है। देश की इस अंधी चाल को कोई रोकता नहीं है-कोई टोकता नहीं है। नेताओं को चुनने का जब वक्त होता है सारे सट्टेबाज, स्मगलर, काला बाजारी करने वाले लोग आगे आ जाते हैं। सारे जेबकतरों की जेब में कैंचियां। ऐसे बनती है हमारे लिये सरकार। हमारे विकास की प्रक्रिया पर एक बड़ी अच्छी उपमा यूनेस्को की एक रिपोर्ट में मैंने देखी थी।

बताते है कि एक नदी में एक मछली रहती थी-बड़े आराम से। कुछ दिन बाद वहाँ एक बन्दर आ गया और वहीं पास के एक पेड़ पर रहने लगा। मछली से उसकी दोस्ती हो गई। दोनों साथ-साथ रहते थे-मछली पानी में, बन्दर पेड़ पर। उस साल कुछ ज्यादा बारिश हो गई और नदी की सतह काफी बढ़ गई। मछली अपना बचाव कर सकती थी, उसे मालूम था कि पानी से बचाव कैसे किया जाता है। मगर पानी से बचाव बन्दर क्या जाने। पानी देखकर बन्दर परेशान हो गया। उसने मछली से कहा कि इस पानी की वजह से तुम अगर कहीं चली गई तो मैं अकेला रह जाऊंगा। एक काम करो कि तुम काफी ऊँची और लम्बी छलांग लगा सकती हो। एक बार किनारे के पास आकर छलांग लगाओ तो बाहर आ जाओगी।

तब मैं तुम्हें उठा कर पास में एक तालाब हैं वहाँ डाल दूंगा। बरसात के बाद इसी तरह से तालाब से यहाँ लाकर रख दूंगा और हम लोग साथ-साथ रह जायेंगे। दोस्ती में मछली को तजबीज पसन्द आ गई और छलांग लगाकर नदी से बाहर आ गई। बन्दर उसे तालाब की ओर ढकेलने लगा। दो-चार कदम चलकर उसका दम फूल गया और पानी में रहने वाली मछली बेमौत मारी गई। जो अपना परिवेश, अपनी परंपरा, अपने साधन, अपनी ताकत, अपना विज्ञान, अपना समाज, अपनी संस्कृति को छोड़कर जायेगा वह उसी मछली की मौत मरेगा। बन्दर तो फिर बन्दर ही है। विज्ञान एक दुधारी तलवार है। ठीक से उपयोग नहीं होगा तो दूसरी तरफ वार कर देगी। राजनीतिज्ञ तो बोतल में बन्द बिच्छू की तरह हैं-एक दूसरे को काटते रहते हैं। हमें उस बोतल पर कार्क लगाने लगाने का काम करना है। विज्ञान पर भी इस तरह कार्क लगाना चाहिये। जब तक मुनष्य को केन्द्र में नहीं रखा जाएगा तब तक न समाज बचेगा, न देश बचेगा और न वह क्षितिज बचेगा जो आप सब लोग देखना चाहते हैं।

श्री रामचन्द्र खान के बाद श्री अनिल प्रकाश जी ने अपना वक्तव्य इस प्रकार रखा।मैं पहली बार निर्मली आया हूँ पर आज से 50 साल पहले इसी जगह कोसी परियोजना की नींव डाली गई थी-बहुत बड़े-बड़े लोगों ने डाली थी- उस समय के केन्द्रीय योजना मंत्री सी.एच.भाभा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मौजूद थे जिनकी राष्ट्रभक्ति और जनता के प्रति प्रेम के सामने हम नमन करते हैं। लेकिन तमाम देशभक्ति और जनता प्रेम के बावजूद जो योजना सामने आई उसका विवरण बड़े ढंग से श्री रामचन्द्र खान जी यहाँ रख दिया है- उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। 20 लाख लोग तप गये, पटपटा गये, कोई रास्ता नहीं है। अब यह नया प्रस्ताव आ गया हिमालय के क्षेत्र में बाँध बनाने का।

1984 में जब नौहट्टा के पास कोसी तटबन्ध टूटा था तो हम भी गये थे वहाँ। श्रद्धानन्द जी यहाँ हैं-लोग वहाँ आन्दोलन चला रहे थे राहत के स्थान पर क्षतिपूर्ति का-बड़ा ही सशक्त आंदोलन था। वहाँ देखने से पता लगा कि तटबन्ध के अन्दर नदी का तल 8 फुट ऊपर था कंट्री साइड के मुकाबले-अभी सुनते हैं कि 15 से 20 फीट का अन्तर आ गया है। नौहट्टा में तब जो बाँध टूटेगा उस समय जो विनाश हुआ और अब अगर टूटे तो कितना विनाश होगा उसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। बाँध टूटने के बाद कुछ इन्जीनियरों पर कोताही बरतने का आरोप लगा तब उनलोगों ने एक बात कही-उन्होंने कहा कि हमने तो पहले ही लिख दिया था कि इस बाँध का जीवन 25 वर्ष का है, अभी तो यह उससे ज्यादा चला गया।

जब हमलोगों ने यह प्रश्न किया कि ऐसा प्रोजेक्ट बनाया ही क्यों गया तो उन्होंने कहा कि यह बात तो हमसे नहीं नीति निर्माताओं से पूछिये। अफसोस की बात है कि एक भी इन्जीनियर ऐसा नहीं था जो कि यह कहता कि यह गलत योजना बन रही है और हम इससे इनकार करते हैं। यह संकट सामने है। अब हाई डैम की बात उठती है। मिश्रा जी ने इसके बारे में बताया है। इस एक कोसी हाई डैम से नेपाल में 5 लाख लोग विस्थापित होंगे। उधर कर्नाली में बात चल रही है, अल्मोड़ा के ऊपर बाँध बनाने की बात चल रही है। दस लाख के आस-पास वहाँ भी विस्थापित होंगे-यह लोग कहाँ जायेंगे? भारत में लगभग 1500 बड़े बाँधों, कल कारखानों तथा खदानों के कारण पिछले 50 वर्षों में ढाई करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं।

नेपाल की आबादी लगभग एक करोड़ अस्सी लाख है उसमें से दस लाख लोग विस्थापित हो जाएं तो वहाँ क्या स्थिति होगी-समझा जा सकता है। बाराह क्षेत्र बाँध की आज की कीमत 25,000 करोड़ रुपये बताते हैं और जैसा कि इन योजनाओं का इतिहास रहा है यह 2 लाख करोड़ रुपयों से कम में पूरा नहीं होगा। ऐसे चार बाँधों का तो तुरन्त का प्रस्ताव है। कुल खर्चा, यदि काम आज शुरू हो जाए तो आठ लाख करोड़ आयेगा। 1992 में कुल विदेशी कर्ज 3 लाख करोड़ रुपये था और हमको कहाँ-कहाँ सिर झुकाना नहीं पड़ा। आखिर हम लोग किस दिशा में जा रहे हैं। बहुत सी कंपनियां, जापानी सुपर फण्ड तैयार बैठे हैं अपने फायदे के लिये कर्ज देने को। छोटे बाँधों, छोटे बिजलीघरों की योजनायें, जो हो सकते हैं कम खर्च और तुरन्त लाभ देना शुरू कर सकते हैं, उनमें योजना बनाने वालों की रुचि नहीं है।

यह बड़ा भ्रम फैलाया गया है पूरे उत्तर बिहार में कि कोसी हाई डैम बन जाने से यहाँ की बाढ़ समस्या का समाधान हो जायेगा। ऐसा नहीं होगा- बाढ़ की समस्या बढ़ेगी। बाँध का अपना प्रवाह का लेवेल होता है। उसके ऊपर पानी आने पर फाटकों को खोलना ही पड़ता है। एक बहुत ही छोटा सा बाँध है बांका में चांदन बाँध-दो साल पहले वहाँ दस फुट पानी ओवरफ्लो करने लगा, सारे फाटक खोल दिये गये- 500 लोगों की जानें गईं। हजारों जानवर मरे और लाखों एकड़ जमीन बर्बाद हो गई। वहाँ से 150 कि.मी. दूर कहलगाँव तक उसका असर पड़ा। जहाँ थर्मल पावर है वहाँ का एस्केप उड़ गया। रेलवे लाइन बह गई और कितने ही पुल टूट गये। यदि एक इतने छोटे से बाँध से इतनी दुर्गति हो सकती है तो कोसी हाई डैम जैसी संरचना कितनी खतरनाक साबित होगी।

पचास साल पहले निर्मली में जो पाप हो गया था, जो गलती हो गई, जिसके बारे में खान साहब ने कहा कि 20 लाख लोग मौत के मुँह में ढकेल दिये गये जहाँ न वह जी सकते है न मर सकते हैं। यदि यह चारों बाँध नेपाल में बनना शुरू हो जाते हैं तो उत्तर भारत के 10-12 करोड़ लोगों के सामने एक अस्तित्व का संकट आ खड़ा होगा। आज अगर हम एक संकल्प लेते हैं कि यहाँ से लेकर उत्तर प्रदेश और बंगाल, यहाँ तक कि नेपाल में भी यदि इन बाँधों के प्रति हम अपना विरोध प्रकट करने का माहौल बनायेंगे तो मैं कहूँगा कि निर्मली का सम्मेलन सफल हो जायेगा। अभी हम लोग फरक्का गये थे वहाँ 1975 में गंगा पर बराज बनाकर उसके प्रवाह को अटका दिया गया। 109 फाटक हैं उससे बिजली नहीं बनती।

बराज के बांयी ओर मालदा जिले में और दक्षिण भाग में मुर्शिदाबाद जिले में 750 वर्ग कि.मी. में धान, गहूँ, आम और लीची का क्षेत्र कट गया। एक मोटे अनुमान के अनुसार करीब 6 लाख लोग मालदा और मुर्शिदाबाद में विस्थापित हुए हैं। पूरा धुलियान के इलाके पर संकट है और स्वयं मालदा का अस्तित्व बहुत सुरक्षित नहीं है। बराज बनने के कारण गंगा की सतह ऊपर उठ रही है जिसके कारण फरक्का से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में मिलने वाली नदियों का तल ऊपर उठता जा रहा है। जल निकासी हो ही नहीं पाती। गंडक कमांड की एक रिपोर्ट देखने का मौका मिला उसमें लिखा है कि बिहार की दस लाख हेक्टेयर जमीन जल जमाव से ग्रस्त हैं। यह सिलसिला काफी खतरनाक है। समुन्दर से जो मछली आती थी उसका आना बन्द हो गया। हिलसा, झींगा, बनास सब खत्म है। आठ राज्यों से भी नदियों का पानी गंगा में आता है। इन आठों राज्यों में समुद्री मछली गंगा के रास्ते से पहुँचती थी - फरक्का होकर। बारह आने मछली फरक्का बराज के कारण नष्ट हो गई- देश का नुकसान तो हुआ ही। लगभग डेढ़ करोड़ मछुआरों की जीविक पर संकट उपस्थित हो गया। अभी गंगा मुक्ति आंदोलन ने बाढ़ मुक्ति अभियान और दूसरे संगठनों से मिल कर के कोसी हाई डैम के प्रश्न को और फरक्का के प्रश्न पर व्यापक जनमत बनाने का निर्णय लिया है। और यहाँ आकर हमें आपसे मिलकर और बात करके खुशी हो रही है कि यहाँ से सभी लोग मिल कर एक संगठित रूप से आवाज उठा सकेंगे।

मल्टिपल एक्शन रिसर्च ग्रुप, दिल्ली से आये सर्वश्री निखिल वर्मा तथा सुब्रत दे ने कहा कि अब तक का हमारा विकास का तौर तरीका ऊपर से नीचे की ओर जा रहा है यानी नीचे वालों का विकास छन-छन कर स्वयं हो जायेगा यदि ऊपर विकास होता रहे। समय के साथ यह धारणा गलत साबित हुई है। वास्तव में हमें अन्तिम आदमी को सशक्त बनाना होगा। यह काम छोटे-छोटे प्रकल्पों के माध्यम से हो सकता है जिन पर समाज का सीधा नियंत्रण रह सके। बड़े प्रकल्प या बाँध इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। जमीन के अधिग्रहण के मौजूदा सरल कानूनों को सख्त बनाने की आवश्यकता है। एक राष्ट्रीय पुनर्वास नीति की आवश्यकता को भी अब और ज्यादा टाला नहीं जा सकता। तटबन्धों को काटने के पहले क्या उसके परिणामों की समीक्षा लोग करते हैं? अन्त में उन्होंने कहा कि कोरबा, टिहरी या नर्मदा के जो अनुभव रहे हैं उनमें विस्थापितों का पुनर्वास के बारे में जानकारी का सर्वथा अभाव रहा है। हमारा प्रयास हो कि हम हर सूचना की लोगों को जानकारी दें और सूचना प्राप्ति के अधिकार के लिये संघर्ष करें।

श्री विमल वर्मा (सुपौल) ने योजनाओं से होने वाली क्षति और उनसे परेशान जनता के प्रति अवहेलना के लिये प्रशासन को दोष दिया और कहा कि जिनके माध्यम से हम अपनी बात ऊपर तक पहुँचा सकते हैं वह तंत्र हमारी कोई मदद नहीं करता। योजनाओं से वांछित लाभ न मिल पाने, पूरा होने में बहुत समय तथा अप्रत्याशित रूप से बढ़ते खर्च पर भी उन्होंने चिन्ता व्यक्त की।

प्रस्ताव सत्र
अध्यक्ष: रामेश्वर सिंह जी (हजारीबाग)
संचालन: रणजीव जी (सहरसा)



प्रतिनिधियों ने विस्तृत बहस के बाद निम्न 6 प्रस्ताव सर्व सम्मति से पारित किये। इस बहस में लगभग 40 मित्रों ने भाग लिया। पारित प्रस्ताव तथा बहस में भाग लेने वाले मित्रों की सूची संलग्न है।

बहस में जो खास बातें उभरी उनमें एक तो यह था कि अधिकांश स्थानीय प्रतिभागी भुतही बलान पर एक सत्र चाहते थे जो कि समयाभाव के कारण संभव नहीं हो पाया। आशा की गई थी कि बाढ़ मुक्ति अभियान स्थानीय संगठनों के माध्यम से शीघ्र ही इस मुद्दे पर पहल करेगा और समस्या के अध्ययन के लिये एक दल बनाया जायेगा तथा एक सम्मेलन केवल भुतही बलान की समस्या पर अलग से किया जायेगा।

श्री देवनाथ देवन ने जिलास्तर पर बाढ़ मुक्ति अभियान की इकाई गठित करने की बात की पर अभियान के बहुत से मित्रों का मानना था कि यह काम अपने-अपने क्षेत्र के संगठनों को ही करना चाहिये और बाढ़ मुक्ति अभियान उनकी सहयोगी भूमिका में प्रस्तुत रहेगा।

श्री रामचन्द्र खान का सुझाव था कि हमें बाढ़ मुक्ति नहीं चाहिये, हमें तो बाढ़ चाहिये। मगर यह बाढ़ हमारी प्राकृतिक बाढ़ हो, आज जैसी कृत्रिम बाढ़ नहीं। उन्होंने बाढ़ के नियंत्रण के स्थान पर बाढ़ के प्रबन्धन शब्द के उपयोग करने पर बल दिया।

श्री किशन कालजयी ने बाढ़ की समस्या पर जानकारी का प्रसार करने के लिये उपलब्ध सांस्कृतिक साधनों को बढ़ावा देने की बात कही। कुछ मित्रों ने अपने-अपने क्षेत्रों में भावी कार्यक्रमों पर भी प्रकाश डाला। ‘सहयोग’ गोरखपुर से आये श्री तारिक रहमान ने ‘समवेत’ के माध्यम से बाढ़ और जल-जमाव की समस्या पर चर्चा चलाने का प्रस्ताव किया और उन्होंने कहा कि समवेत की प्रतियां सबको नियमित रूप से भेजी जायेंगी। सम्मेलन में सर्वसम्मति से निम्न 6 प्रस्ताव पारित किये गये।

5-6 अप्रैल, 1997 को बाढ़ पीड़ितों के सम्मेलन (निर्मली) में पारित प्रस्ताव
1. नेपाल में प्रस्तावित बाराह क्षेत्र हाई डैम के निर्माण का हम समवेत स्वर में विरोध करते हैं। जनहित विरोधी किसी भी विकास परियोजना पर एक भी पैसा खर्च करने का हम विरोध करते हैं। जनता की भागीदारी द्वारा तैयार विकास परियोजनाएं ही विकास का सही उद्देश्य पूरा कर सकती हैं। जनहित विरोधी किसी भी विकास परियोजना को लागू करने के खिलाफ हम संघर्षात्मक विरोध करेंगे।

2. अब तक के बाढ़ नियंत्रण तथा सिंचाई परियोजनाओं के कार्यक्रमों का स्थानीय जल संगठनों द्वारा मूल्यांकन किया जाये और उसकी रपट प्रकाशित एवं वितरित करवायी जाए।

3. जल प्रबंधन (बाढ़ नियंत्रण) के वैकल्पिक उपायों की तलाश हेतु एक नये बाढ़ आयोग का गठन हो, जिसमें बाढ़ एवं जल जमाव समस्या को लेकर कार्यरत जन संगठनों के प्रतिनिधियों को सदस्य के रूप में अवश्य शामिल किया जाय।

4. जहाँ भी तटबंध टूटे या बचाव में स्थानीय लोगों द्वारा काटा जाय तो उसके बारे में जनता का पक्ष उजागर करने के लिये स्थानीय संगठन एक दूसरे की मदद करें।

5. प्रतिवर्ष 6 अप्रैल तथा 10/11/12 नवम्बर (1937 में इसी दिन, पटना में बाढ़ सम्मेलन हुआ था) को बाढ़ के विषय पर जागरुकता बढ़ाने के लिये सभी जिलों में सभा, सेमिनार, गोष्ठी, पदयात्रा आदि कार्यक्रम किया जाय।

6. कला/संस्कृति एवं स्थानीय लोक कलाओं से संबंधित गतिविधियों को अभियान का जरूरी हिस्स बनाया जाय।

इन प्रस्तावों को पारित करने में निम्न सदस्यों ने सक्रिय रूप से योगदान किया।
1. डॉ. मधुसूदन प्रसाद यादव -प्रखण्ड लौकही, जिला-मधुबनी।
2. राकेश कुमार वर्मा-बलही सहरसा
3. श्री सत्य नारायण मण्डल
4. श्री नन्द किशोर राय
5. श्री सिंघेश्वर भाई-सलखुआ, सहरसा
6. आचार्य योगेश्वर-राजनपुर, सहरसा
7. श्री अनिल कुमार लाल-दरभंगा
8. श्री किशोर-कटिहार
9. आचार्य बलदेव सिंह - गोपालगंज
10. श्री रामाशीष रमण - खजौली
11. श्री श्याम नन्दन राय -घनश्यामपुर, दरभंगा
12. श्री किशन कालजयी-मुंगेर
13 श्री अविनाश
14. श्री राम प्रसाद ‘रोशन’- सहरसा
15. श्री विजय कुमार वर्मा
16. श्री हलधर भाई पटना
17. श्री अमरदेव कामत -मरौना
18. श्री इन्द्रदेव कामत -मरौना
19. सुश्री सरोजनी नायडू - खगड़िया
20. श्री हरिकान्त झा-झंझापुर
21. श्री दिगम्बर - खैरी, मधेपुर
22. श्री सूर्य नाथ सिंह यादव -खगड़िया
23. श्री राम नन्दन कामत - मधुबनी
24. श्री नलिनी कान्त - कोइलख
25. श्री रामेश्वर सिंह - हजारीबाग
26. श्री बद्री नारायण पण्डित - भपटियाही, सुपौल
27. श्री तारिक रहमान - गोरखपुर
28. श्री योगेन्द्र पासवान - सौर बाजार, सहरसा
29. श्री श्याम नारायण मंडल - डगमारा
30. श्री दानीलाल साह
31. श्री रणजीव - सहरसा
32. श्री शशीभूषण-सहरसा
33. श्री राजेन्द्र झा- सहरसा
34. श्री देवनाथ देवन - मधुबनी
35. श्री रामचन्द्र खान - पटना
36. श्री दिनेश कुमार मिश्र- जमशेदपुर
37. श्री भुवनेश्वर सिंह - सिवान
38. श्री राजेन्द्र सिंह - सारण
39. श्री अनिल प्रकाश -मुजफ्फरपुर
40. श्री प्रेम कुमार वर्मा-खगड़िया
41. श्री अजय कुमार - वैशाली
42. श्री निखिल वर्मा - नई दिल्ली
43. श्री पंचम भाई - सुपौल

सत्र के अन्त में धन्यवाद प्रस्ताव श्री बद्री नारायण पण्डित (निर्मली) ने प्रस्तुत किया।

आमसभा
अध्यक्षता: दिनेश कुमार मिश्र
संचालन: विजय कुमार


आम सभा का पहला भाषण भुतही बलान क्षेत्र के डॉ. एम.पी. यादव ने किया। उन्होंने कहा कि, यहाँ दो दिन से सम्मेलन चल रहा है। कोसी कमला के बारे में काफी बातचीत हुई है पर यहीं से 6 किलोमीटर दूरी पर भुतही बलान है उसके बारे में बातचीत नहीं हो पाई। मूल रूप से मधुबनी के लौकही, लौकहा, फुलपरास, घोघरडीहा, मधेपुर प्रखण्ड और थोड़ा सा दरभंगा जिले का हिस्सा भी भुतही बलान से प्रभावित रहता है। फुलपरास, नरहिया के बीच से उधर भपटियाही, बनवारी होते हुए लोगों की आर्थिक और माली हालत बाढ़ के कारण काफी जटिल हो गई है। यहाँ जनाक्रोश भी है। बावन गाँव के लोगों ने एक कमेटी भी बनाई थी जिसके माध्यम से विधानसभा से लेकर लोकसभा तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश उन लोगों ने की थी। परन्तु आज उस पर चर्चा नहीं हो पाई है। हमारे यहाँ एक कहावत है कि आएल बलान त बन्हलौं दलान, अउ गेल बलान त टूटल दलान। यह बात किसी ने भी सही कहीं कि जब बलान का पानी उन्मुक्त होकर बहता है तो काफी उपज होती थी। एक कट्ठा में दो ढाई मन धन हो जाया करता था। नदियों को अविरल बहने देना चाहिये। इसके विपरीत करने पर हमारी जीवन चर्या, उत्पादन तथा संस्कृति सभी कुछ पर बुरा असर पड़ता है। आज भपटियाही से लेकर सरौनी, नीमा तक धान का उत्पादन घटा है। गेहूँ थोड़ा बहुत होता था पर वह भी अब उतना नहीं हो पा रहा है। नागरिक सुविधायें नहीं हैं। सड़क नहीं है। किसी तरह निर्मली पहुँचे तो रेल का कुछ साधन हो जाता है। बरसात में वह भी संदिग्ध हो जाता है। इसलिये मेरा सुझाव है कि भुतही बलान -जिससे लगभग 300 गाँव प्रभावित थे-बावन गाँव के लोगों की एक्शन कमेटी थी, नरहिया और फुलपरास में कितना तनाव पैदा हो जाया करता है-वहाँ लोगों को समझा-बुझाकर कोई रास्ता निकाला जाय- इस दिशा में कोई प्रयास हम सब मिल कर करें।

डॉ. यादव के बाद खगड़िया से आई सुश्री सरोजनी नायडू ने बहुत संक्षेप में अपनी बात रखी। उनका कहना था कि आज कुछ कहने का मौका मिला है। महिला के दुःख दर्द को कोई नहीं समझता है। कम से कम आप लोग जहाँ तक मुमकिन हो सके अपने कार्यक्रम में महिलाओं को शामिल करें। उनके बाद कोसी कमला दोआब से आये दयाराम जी ने अपना वक्तव्य रखा। उनका मानना था कि, ‘‘बाढ/जल जमाव के विषय पर बहुत गम्भीरता से विचार करना चाहिये। हमारे क्षेत्र की जो समस्यायें हैं मधेपुर प्रखण्ड में। कमला, गेहुंमा, सुगरवे, भुतही बलान तथा कोसी- इन सब से प्रभावित इलाका है। समस्यायें तटबन्धों के कारण हैं। यह नहीं रहते तो हमलोग बच जाते। हमारी बाढ़ प्राकृतिक विपदा नहीं है, यह तो शुद्ध रूप से मानवीकृत है। इसमें कुछ लोगों के निहित स्वार्थ हैं। इसका प्रतिकार आन्दोलन के बिना हमलोगों के लिये सम्भव नहीं हो पायेगा। आइये! एक साथ आवाज उठायें और संगठित प्रयास करें।’’

पश्चिमी कोसी तटबन्ध के अंतिम छोर से आये श्री बिन्देश्वरी पासवान ने अपने वक्तव्य में कहा कि, ‘‘मैं पचभिण्डा गाँव, समानी पंचायत, सहरसा जिले का रहने वाला हूँ। मेरा इलाका विगत 25 वर्षों से पूरा जल-जमाव का क्षेत्र रहा है। पूरे साल उस क्षेत्र में एक घर से दूसरे घर बिना नाव के नहीं जा सकते। संयोग से 1992 में बलान नदी पर बाँध बन रहा था और जहाँ तक बनते-बनते वह बाँध पहुँचा था हमारा गाँव ठीक उसी के मुहाने पर पड़ता था। बलान के पानी के साथ आई मिट्टी ने वह पूरा इलाका भर दिया। हमलोग चाहते थे कि एक आध मौसम इस बाँध पर काम बन्द हो जाये ताकि हमारा पूरा क्षेत्र नई मिट्टी से भर जाये और जल-जमाव समाप्त हो जाये पर नेता लोग नहीं माने और बाँध को आगे बढ़ा दिया। आज उस पर काम बन्द है और बाँध जल्ले-मल्लै के पास जाकर रुका पड़ा हुआ है। इसकी वजह से समानी से लेकर घोंघेपुर तक, जहाँ कोसी का पश्चिमी तटबन्ध समाप्त हो जाता है, वह जल जमाव का क्षेत्र बना ही रह गया। हमारी बात किसी ने सुनी ही नहीं। अब अगर हम कोसी या बलान के तटबन्ध को न कोसें तो क्या करें। इस क्षेत्र में न शिक्षा है और न स्वास्थ्य सुविधायें ही हैं। आप किसी परेशानी का नाम लीजिये- हमारे यहाँ मौजूद मिलेगी। क्या-क्या गिनायें। कई वर्षों से बात चल रही है- बाढ़ की समस्या और कोसी की लड़ाई लड़ी जाय- आज लगता है हमलोग एक साथ खड़े हैं। हम अब किसी के पीछे नहीं रहेंगे-आगे-आगे और साथ-साथ रहेंगे-यह हमारा निश्चय है।’’

पूर्वी कोसी तटबन्ध के बाहर बसे कठघरा पुनर्वास के श्री ब्रह्मदेव चौधरी ने कहा, ‘‘आज खान साहब की बात को सुनकर लगा कि उनसे हमें काफी प्ररेणा मिलेगी और हम कोसी की लड़ाई लड़ेंगे। कोसी में जो रिलीफ का काम चल रहा है उसके बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। ढाई मन की दर से प्रत्येक परिवार को गल्ला देने की बात कोसी के क्षेत्र में इस बार हुई थी और यह भी कहा गया था कि सवा दो सौ रुपया भी देंगे। जिनका घर कट गया है और जो बाँध पर आ गये हैं उन्हें प्लास्टिक के साथ-साथ दौ सौ रुपया अस्थायी आवास बनाने के लिये देंगे। सीओ ने खुल्लम खुल्ला कहा कि अनाज तो दस किलो ही मिलेगा और नगद पैसा तो शायद ही किसी को मिला हो, हमारे यहाँ यही सब हो रहा है। समयाभाव के कारण विस्तार से कुछ नहीं कह पाऊँगा पर रिलीफ का नाटक अपने चरम पर है।’’

इसके बाद रानी पट्टी, जिला-सुपौल के श्री रामजी सन्मुख ने कहा कि कल से हमलोग प्रान्त और देश की विभिन्न नदियों की चर्चा कर रहे हैं। उसमें से जितना अधिक समझ पायेंगे और पचा पायेंगे उतना ही लाभ हमलोगों को होगा। हमारे ऊपर एक आउटटेडेट व्यवस्था और एक-एक आउटडेटेड तकनीक थोपी गई है। चाहे उसके पीछे राजनैतिक स्वार्थ रहे हों या अन्य कोई स्वार्थ-पर कारण ऐसा ही कुछ था। आज की परिस्थितियाँ बदल गई हैं ऐसा नहीं है-तब तटबन्ध था आज बाराह क्षेत्र बाँध है। कोसी तीन मुख्य धाराओं, सुनकोसी, तामा कोसी और अरुण से मिल कर बनी है। इनमें से सुनकोसी को घुमा कर कमला से मिलाने की कुछ बात हो रही है। वहाँ पहाड़ों में क्या-क्या हो रहा है, उसके बारे में हमें पता तक न हीं लगता। संगठित रूप में वह काम हो रहा है और वह केवल कोसी तक ही सीमित नहीं है-हमारे पूरे समाज समाज को अपने शिकंजे में कसने की कोशिश है। उस संगठित तंत्र का मुकाबल संगठित शक्ति से ही हो सकता है। पर हमारे संगठन टूटते हैं और उनमें बिखराव आता है पर आज जो इसने अलग-अलग क्षेत्रों से, पूरे बिहार से या पूरे देश से लोगों को देख रहा हूँ तो मेरी आशा जगी है कि एक स्वर उभरेगा। आज भी हमारे गाँव से युवक बहुत भावुक हैं उन्हें संगठित किया जा सकता है, वह निस्वार्थ भाव से आगे भी आ जायेंगे। सवाल है सहयोग लेने का और देने का। हम भविष्य में निश्चय ही सफल होंगे।’’

कोसीश्रीराम जी सन्मुख के भाषणों के बाद सुश्री राजो देवी पटेल (खगड़िया) ने एक क्रांतिकारी गीत गाकर सुनाया। फिर श्री बेचन कामत (निर्मली) ने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा-

नर हो न निराश करो मन को
जग में रह कर कुछ काम करो
कुछ नाम करो।


निर्मली में पचास साल पहले यहाँ एक सम्मेलन किया गया था। इस बार 50 साल बाद फिर विस्तार से हुआ। बाढ़ तो सृष्टि के साथ ही शुरू हुई। कभी न कभी हर जगह और कहीं न कहीं हर साल बाढ़ आती ही रहती है। हमें बाढ़ मुक्ति अभियान के साथ एक जुट होकर चलना होगा। मानवता के दृष्टिकोण से जब तक हमलोग एक नहीं होते तब तक कोई भी संगठन सुचारु रूप से काम नहीं कर सकता। एकता बल है। संगठन से हम बाढ़ या ऐसी किसी भी विपत्ती से निपट लेंगे। हमलोंगों को आपसी सभी भेदभाव भुलाकर केवल मनुष्य को ध्यान में रखकर के एकजुट होना होगा और तब हमें निश्चित रूप से सफलता मिलेगी।

श्री बेचन कामत के बाद प्रख्यात समाजकर्मी श्री तपेश्वर भाई ने अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने कहा कि, निर्मली में यह सम्मेलन हुआ और इस भूमि पर पचास साल बाद चर्चा हुई। इस भूमि में एक खूबी है- यह आन्दोलन की भूमि रही है। हम जिस रूप में भी इस्तेमाल करेंगे, मित्रों! यह मेरा कार्य क्षेत्र रहा है। 25 साल तक मैं सहरसा में रहा हूँ और इसी से लगा हुआ मधुबनी का यह भूभाग फुलपरास, घोघरडीहा प्रखण्ड में कुछ काम चलता है जहाँ बाढ़ की समस्या से जुझने का मौका मिलता है। बाढ़ के समय कई बार कोसी के इस पार से उस पार जाने का भी अनुभव मिलता है। इन क्षेत्रों का जो अध्ययन करने का अवसर मिला है- कोसी, कमला, भुतही बलान, गेहुंमा आदि नदियाँ हैं। मेरा अपना क्षेत्र भुतही बलान और गेहुंमा नदी से प्रभावित है और इधर कोसी क्षेत्रों में भूदान की जमीन के वितरण के सिलसिले में घूमते रहे। समस्याओें से जुझते रहे काफी संघर्षशील साथी, मित्रों। बाढ़ का समय जब आता था तो बहुत से लोग, सरकारी अधिकारी अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे कि कुछ रिलीफ का काम चले तो उनका भी काम बने। बहुत से साथी संघर्षशील थे, लड़ाकू थे पर जिस तरह से उन सभी को भरमाया गया, सब्ज बाग दिखाया गया। 1984 में जब नौहट्टा में कोसी बाँध टूटा और वहाँ जो क्षतिपूर्ति का आन्दोलन चलाया गया उसके सिलसिले में अपने तत्कालीन मंत्री श्री लहटन चौधरी जी से मिला-वह आये। उनसे कहा गया कि बाँध टूटने की सारी जिम्मेवारी सरकार की है, इसलिये वह क्षतिपूर्ति दे-लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी बाँध टूट जाते हैं। लाखों लोग देखते-देखते बेघर हो जाते हैं और ऐसा एक बार या एक ही जगह नहीं होता। कई-कई बार एक ही जगह पर हो जाया कतरा है, लोग उजड़ते रहते हैं। उस आन्दोलन में इस क्षेत्र के लोगों ने अगुवाई की, जेल गये और यह सब इस क्षेत्र का इतिहास रहा है।

इसी तरह इस मार्ग से बांग्लादेश की ओर बैल जाते हैं-चोरी छुपे काटने के लिये। पता लगने पर एक हजार लोगों ने प्रदर्शन किया और इस तरह के व्यापार को रोक दिया। यह काम निर्मली में हुआ। अब दलालों को जानवर ले जाने की हिम्मत नहीं होती। उसी तरह इस क्षेत्र में कोसी-कमला-भुतही बलान की लड़ाई भी यहाँ के लोग लड़ेंगे जिसमें हमारा जन-समर्थन होगा, हमारा नेतृत्व होगा और हमारा संघर्ष होगा और हम यह लड़ाई अपने बल बूते पर जीतेंगे। विनोबा जी ने कहा था कि यह क्षेत्र सीमावर्ती होने के नाते संघर्ष का आखिरी मोर्चा बनेगा और ग्रामदान के समय पूरे देश के कार्यकर्ता इस क्षेत्र में घूमे। ग्राम स्वराज का जो गांधी -जे.पी.-विनोबा का सपना था उसमें भी इस क्षेत्र ने अगुवाई की है- संघर्ष जब हम छेड़ेंगे तो उसमें सफलता हमें अवश्य मिलेगी।

जहाँ पर चाह होती है वहाँ पर राह होती है
लगन सच्ची कभी भी नहीं गुमराह होती है।


श्री तपेश्वर भाई के बाद ग्राम भारती, सिमुलतला के श्री शिवानन्द भाई ने अपने भाषण में कहा कि, मैं केवल अपनी हाजिरी देने आया था। इस क्षेत्र में घूमने के बाद और लोगों से बातचीत करने के बाद लगता है कि अब सम्मेलन करने से कहीं ज्यादा अब ऐक्शन प्रोग्राम में उतरने का समय आ गया है। लेकिन कैसा एक्शन हो-क्योंकि हिंसक लड़ाई और अहिंसक लड़ाई में फर्क है। अहिंसक लड़ाई में एकजुटता बहुत ज्यादा आवश्यक है-कथनी करनी को एक करना आगे हो। कहने वाले को भी आगे आकर शिरकत करनी होगी। मैं कुछ ऐसी जिम्मेवारियों में फंस गया था लेकिन इस संघर्ष की अगुवाई करनी पड़ेगी। इस उद्देश्य की तैयारी मेरी अभी नहीं है। कुछ और भी कारण है जिसकी वजह से मैं पूरा समय इस काम में नहीं दे पाया पर मुझे खुशी है कि संघर्ष का माहौल बन रहा है।

20-25 लाख लोग जहाँ मौत के मुँह में हों उसके लिये जो माहौल होना चाहिये, जो संघर्ष होना चाहिये वह अभी तक हमारे बीच विचार-विमर्श, सम्मेलन सभाओं के रूप में ही होती जा रही है। मुझे लगता है कि अब हमलोगों को इन सीमाओं से बाहर निकल कर सीधे इस मामले को ऊपर लाना होगा। और जो 20-25 लाख आज मौत के मुँह में पड़े हैं उन्हें खड़ा करके उनके विरुद्ध चल रहे कुचक्र को अब रोक देना होगा। भारत की सभ्यता संस्कृति की जो कुछ भी जानकारी मुझे हुई है अध्ययन की वजह से-वह नदियों के कारण और गाय के कारण हुई है। नदियों और गाय के इर्द-गिर्द ही हमारा सामाजिक ताना बाना बुना गया है लेकिन दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारी संस्कृति की बुनियादी यह दोनों - नदियाँ तथा गाय संकट में है। आप गाँव के रहने वाले हैं-नदियों पर जो हमला हो चुका है या होने वाला है उसे आप देख/समझ रहे हैं। उसी तरह जहाँ हमारी हजार गायें थी वहाँ मुश्किल से सौ बची हैं और जिस तरह से तस्करी के द्वारा हमारे गाय बैल कटने के लिये जा रहे हैं वे उस तरह से 5-10 वर्ष के समय में चिड़ियाघर में रखने लायक पहुँच जायेगी।

इसलिये इन दोनों को हमें बचाना है। अभी पिछली साल में कोयल-कारो गया-वहाँ लगभग 50 गाँव डूबने वाले हैं- उन लोगों ने तय कर लिया। वहाँ कोई दिनेश मिश्रा या रामचन्द्र खान या हमारे जैसे लोग नहीं हैं पर एक आदिवासियों का राजा है वह उठ खड़ा हो गया और उन लोगों को तैयार कर लिया कि कोई योजना हमारी मर्जी के बिना नहीं बन सकती है। पिछले साल हमारे मुख्यमंत्री ने कहा था कि यदि प्रधानमंत्री शिलान्यास के लिये नहीं आते हैं तो वह स्वयं शिलान्यास करेंगे परियोजना का- कोई रोक नहीं सकता। मैं भी वहाँ गया।

पचास गाँव के औरत, मर्द, बाल-बच्चे-लगभग तीस हजार की संख्या में इकट्ठे हो गये थे। पहले बच्चे, फिर बुढ़िया, फिर बूढा और सबके पीछे जवानों की टोली-अहिंसक तरीके से-गांधीजी की तरह। एकदम अहिंसक और मुख्यमंत्री की हिम्मत नहीं हुई कि शिलान्यास करने जाते। कोयलकारो का अरबो रुपया यहाँ पड़ा हुआ है मगर योजना नहीं बन सकती। उसी प्रकार का संगठन यहाँ चाहिये। 20-25 लाख लोगों को संगठित करना होगा। लगभग 5 लाख लोगों का जुटान हमें पटना में करना होगा। बाँध को रोकना होगा। जनता का सवाल है-जनता खुद निर्णय करेगी। हमारे साथ तो इतने लोग हैं, संगठन हैं। हमारी प्रार्थना है कि एक विराट सम्मेलन हो। हमलोग भले कितने ही छोटे क्यों न हों पर हमारी संगठित ताकत बहुत बड़ी है। गांधीजी-कृपलानी की पहली मुलाकात याद कीजिये। गांधीजी ने कृपलानी से पूछा-क्या करते हो? उन्होंने कहा-इतिहास पढ़ाता हूँ। गांधीजी ने कहा-पढ़ाओ मत, इतिहास बनाओ। इसलिये लोगों को संगठित करना और उन्हें एकजुट होकर खड़ा कर देना-यही काम करना है। लोगों को इतिहास गढ़ने दीजिये।

शिवानन्द भाई के बाद श्री रामचन्द्र खान ने कहा, कोसी-कमला बलान के बारे में बात करूँगा। यह सच है कि यहाँ अन्य क्षेत्रों के लोग हैं और बात उठती है कि ‘और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवा।’ पर हमारे लिये यह समस्या इतनी विकट और अहम है कि हमारी कम से कम तीन पीढ़ियाँ तो इस योजना से बरबाद हो गईं और आने वाली कितनी पीढ़ियां बरबाद होंगी उसके बारे में जब कल्पना करता हूँ तो दिल कांप जाता है। यह सब वास्तव में नेताओं की चौधराहट का नतीजा है। मैं पहले तिब्बत की बात कर रहा था। भारत की एक गलती ने तिब्बत को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया- इस गलती को सुधारने के लिये भारत को कितना तप करना पड़ेगा। जवाहरलाल जी जैसे लोग नहीं होते तो हम दुनियाँ को जान ही नहीं पाते, हम अंग्रेजी नहीं सीख पाते। हम कई चीजें जान तक नहीं पाते।

एक आदर्शवाद व्यक्ति सरकार में रहकर कितना आदर्शवादी रह सकता है कोई नमूना नहीं है। फिर भी तिब्बत में लाखों लोगों का बलिदान हुआ और उसके लिये कोई एक व्यक्ति जिम्मेवार है तो वह जवाहरलाल जी थे। उनकी ढुलमुल भावना, वक्त पर सही निर्णय लेने की क्षमता में कमी, संवेदनशील होने की कमी-वास्तव में कोई बड़ा आदमी एक छोटी सी भी गलती करता है तो भी उसका आकार बहुत बड़ा होता है। मैं तिब्बत के बारे में हस्तक्षेप करते समय जरा भी विचलित नहीं हूँ। आपको मालूम होगा कि भारत’-तिब्बत मैत्री संघ नाम की एक संस्था है और राज्य स्तर पर उसका अध्यक्ष हूँ। हमलोगों ने तय किया है कि बिहार राज्य से 15 लाख लोगों का एक हस्ताक्षरित अभिमत भारत सरकार को भेजेंगे जिसमें तिब्बतवासियों को उनके वाजिब हक की बात उठायी जायेगी। पूरे देश से ऐसे एक करोड़ हस्ताक्षरित प्रपत्र संसद को भेजा जाना है। वहाँ से वह विश्व संसद-संयुक्त राष्ट्र संघ को भेजा जायेगा। मैं आप सभी से अपील करता हूँ कि आप इस कार्य में हमारा सहयोग करें। वास्तव में हमारी fraternity बेचैन कौमों की fraternity है। कोसी-कमला बलान में 20-25 लाख लाग बेचैन हैं-वैसे ही बेचैन लोग तिब्बत में हैं। हमें उनके साथ कंधे से कंधा मिलना चाहिये।

अभी दोपहर में मेरी डॉ. अग्रवाल से बात हो रही थी। हम लोग चिपको आन्दोलन के बारे में बातचीत कर रहे थे। साठ के दशक में वहाँ सरकार पहाड़ों और जंगलों के विरुद्ध मोर्चा साधे खड़ी थी। वहाँ तब आन्दोलन हुआ। यहाँ कोसी-कमला बलान में सारे स्वार्थी नेता, दलाल और ठेकेदार किस्म के लोग जनता की भलाई का मुखौटा ओढ़े खड़े थे-यहाँ तब उनके विरुद्ध जनता खड़ी हुई। उस वक्त की यह मांग हुई थी कि जो दस्तावेज सरकार के पास हैं योजनाओं से सम्बन्धित, उन्हें जाहिर किया जाय। कल्पना कीजिये कि आज से 42 साल पहले जब दुनियाँ में पर्यावरण और विकास की बहस नहीं शुरू हुई थी, जब केवल रचनात्मक कार्य की बात करते थे हम, जब UNO के document में केवल मास्टर प्लान तक बात सीमित थी, उस समय कोसी कमला बलान के लोगों ने उस विकास के खिलाफ, उस विज्ञान के खिलाफ, उसके नारे के खिलाफ, उसकी राजनीति के खिलाफ, आन्दोलन में खड़े हुये थे। इसलिये किसी को यह वहम नहीं होना चाहिये, यह भ्रम नहीं होना चाहिये कि इस इलाके को दबाया जा सकेगा। यह इलाका तब भी जगा हुआा था जब विज्ञान के विकास की शब्दावली किसी के पास नहीं थी। तब हमने विकास के इस मॉडल को इस विज्ञान को, इस राजनीति को, इस नारे को नकार दिया था। फिर भी यह अनाचार हो गया और उसके बाद यहाँ के 20 लाख लोग डरे हुये रहे। हमारे यहाँ कोई विभाजन नहीं है न धर्म का, न जाति का-कोई विभाजन नहीं है। इस क्षेत्र के लोग किसी भी फूट के फेरे में नहीं पड़ेंगे। अपनी नदी के मुद्दे पर हम सभी एक हैं। कोई भी बड़े-से बड़ा नेता क्यों न आ जाये कि वह लोगों में दरार पैदा कर देगा- मैं उसके सामने चट्टान की तरह खड़ा मिलूंगा।

जिसके खिलाफ विज्ञान की ताकत, व्यवस्था की ताकत, राज्य की ताकत, तकनीक की ताकत, दलालों की ताकत, ठेकेदारों की ताकत, मीडिया की ताकत लगी है आप उस छोटी सी कौम को क्या कहेंगे। हमारे खिलाफ राज्य की ताकत लगी है पर इससे हम विचलित होने वाले नहीं हैं। ताकत तो अंग्रेजों की भी लगी हुई थी, ताकत तो दूसरे आक्रमणकारियों को भी लगी हुई थी, ताकत तो सिकन्दर की भी लगी हुई थी। पर कहाँ गया वह ताज और तख्त और बादशाहत। साम्राज्यवादियों ने अब मुखौटा बदल दिया-अब उन्हें साम्राज्य नहीं बाजार चाहिये। इतिहास अपनी गणना अक्सर वर्षों या दशाब्दियों में नहीं करता शताब्दियों में करता है। कोसी कमला बलान के लोगों ने कभी अपने हितों के खिलाफ समझौता नहीं किया। हमने कोई मांग भी नहीं रखी। हमने प्रतिवाद किया, प्रतिरोध किया, प्रतिकार किया, अलग रास्ते पर चले-और अब वक्त आ गया है कि यहाँ की व्यथा को भारत और दुनियाँ के पटल पर खा जाय। वक्त के हाथ मत पकड़ो। तिलक, लाल, बाल, पाल, सावरकर क्या गांधी से छोटे नेता थे-जब अफ्रीका से गांधी लौटे और कहा कि मैं इस देश को जानना चाहता हूँ-उसी दिन से देश ने गांधी को जानना शुरू कर दिया। गांधी को वक्त की आवाज मिल गई, वक्त के पंख मिल गये।

हम चुप रहे पर हारे नहीं। पचास साल से कोसी क्षेत्र के बच्चे स्कूल नहीं गये, उनकी बेटियों की वक्त से शादी नहीं होती - जमाना गुजर गया- कौन सम्बन्ध बनाना चाहेंगे ऐसे इलाके से जहाँ खिलाने को कुछ नहीं है। शादी होती भी है तो गौना नहीं होता, गौना हो भी जाय तो लड़कियाँ वापस कर दी जाती हैं क्योंकि हमारे पास देने को कुछ है ही नहीं। हमारे खेत गए, मवेशी नष्ट हो गये। हम सब जहर पी गये। आज तक एक भी ऐसा दस्तावेज नहीं बना जिसमें यह कहा गया हो कि कोसी-कमला बलान के क्षेत्र में तटबन्ध का बनना उचित था। हुआ तो यह है कि जो भी लोग इसके पक्ष में थे आज वे भी उसके खिलाफ खड़े हैं।

दिनेश कुमार मिश्र जी! आपने अपने साथियों के साथ जो यह सम्मेलन किया और इस क्षेत्र में हमलोगों को बुलाया, हमारे दुःख दर्द को सुना, हमारी तकलीफों का अध्ययन किया, उनका संकलन किया और उन सूचनाओं को प्रान्त तथा देश के कोने-कोने में पहुँचाया उसके लिये हम कोसी-कमला बलान क्षेत्र के लोग अपने, जिला-जवार की तरफ से आपका और आपके मित्रों का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। मैं आपके साथ हूँ-आप मेरे साथ रहें। शिवानन्द भाई के पास से कुछ दवाईयां आईं वह उसे हमारे क्षेत्र में लाये। कुछ घर बनाने का कार्यक्रम लाये-470 घर बनाने का कार्यक्रम भी वह चला रहे हैं-20 लाख की आबादी पर 470 घर कुछ भी नहीं है। पर इनकी सदिच्छा बड़ी है-एक माॅडल तो बनेगा। कार्यकर्ता तो तैयार होंगे। दिनेश मिश्र जी यदि Documentation करना चाहें तो अभी 25-30 खण्ड और तैयार हो सकते हैं। उसमें सारे पक्ष आ सकते हैं- विज्ञान का झूठ, तथाकथित विकास का झूठ, राजनीति का झूठ, सत्ता का झूठ, यह सभी अभी लिखा जाना बाकी है। मैं इस काम में आपको पूरी मदद का आश्वासन देता हूँ। हम फिर आयेंगे, फिर मिलेंगे-बार-बार मिलेंगे। नदी से मित्रता की जरूरत है। आप बाढ़ मुक्ति की बात करते हैं, मुझे लगता है कि हमें हमारी बाढ़ चाहिये, बाढ़ से मुक्ति नहीं। हमें मुक्ति अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक बाढ़ से चाहिये। हमें बाढ़ नियंत्रण नहीं जल प्रबंधन चाहिये और हमारा प्रयास इसी दिशा में होना चाहिये।

कोसीश्री रामचन्द्र खान के भाषण के बाद श्री मांगन इन्सान ने अन्तिम वक्ता के रूप में समापन भाषण किया। श्री इन्सान इस समय महानन्दा घाटी में लगातार टूटते-कटते रहने वाले तटबन्धों के विरुद्ध सक्रिय रूप से आन्दोलन कर रहे हैं। इन्सान ने कहा कि, हमलोगों ने भ्रष्टाचार-बेईमानी के बारे में बहुत बातें कीं। हमारा बेईमानी का इतिहास बहुत पुराना है। समाज के कुछ लोगों ने अधिसंख्य लोगों की सदियों से छला है। धर्म के नाम पर, परम्परा के नाम पर, सामाजिक विषमता के नाम पर, स्त्री पुरुष के नाम पर, छोटे-बड़े के नाम पर। रूढियों का गुलाम बनाया गया हमें। धर्म एक ही है वह इन्सानियत का लेकिन उसी को दबा दिया गया।

मैं गरीब का बेटा हूँ, पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, मजदूरी करता था पर 1942-43 से सार्वजनिक जीवन में हूँ। 1971 में महानन्दा तटबन्ध की शुरुआत हुई, मैंने उसका विरोध किया पर उसके बावजूद हमारी मान्यता थी कि अगर रीगा (पनार) के उत्तरी तट तथा महानन्दा के पश्चिमी तट पर तटबन्ध बने तो आज नहीं तो दस साल बाद इस बाँध से जरूर फायदा होगा। इस इलाके में कदवा (कटिहार) प्रखण्ड की 12 तथा पूर्णियाँ जिले की 14 ग्राम पंचायतें पड़ती हैं। इसकी फसल तथा लोगों की सुरक्षा के लिये यह जरूरी था।

अपनी यह बात हमने 1972 में कलक्टर और इन्जीनियरों के साथ मीटिंग में भी उठाई थी। आर.सी. जैन साहब कलक्टर थे और उनको तो हमने राजी कर लिया पर इन्जीनियर नहीं माने और योजना के अपने प्रस्ताव पर अड़े रहे। उनका कहना था कि योजना बनने के बाद महानन्दा और रीगा के बीच केवल 15 सेन्टीमीटर पानी अधिक बढ़ेगा। इसलिये चिन्ता की कोई बात नहीं। आज इस इलाके में आदमी को डुबाने भर 6 फुट 8 फुट पानी आता है। आज इन्हीं तटबन्धों के कारण जानमाल और फसल तथा घर-द्वार सबकी सुरक्षा दाव पर लगी हुई है। तटबन्ध बनने के साथ-साथ इस इलाके में फसल होना बन्द हो गया।

पानी बढ़ने पर अपनी सुरक्षा के लिये लोग रीगा का दक्षिणी या महानन्दा का पूर्वी तटबन्ध काट देते हैं। बृन्दा बाड़ी, कचौरा आदि में तटबन्ध काटने की बातें आम हैं। पानी जब छप्पर के ऊपर से बहने लगेगा तो लोग तटबन्ध काटने के लिये मजबूर हो जाते हैं। इस साल आत्मरक्षा में तीन जगह कदवा प्रखण्ड के पास काटा गया है और इस टूटन को बन्द न होने देने के लिये हमने आन्दोलन शुरू किया है।

जब हम विधानसभा के सदस्य थे तब हमने कई सुझाव दिये थे। सोनापुर के रेलवे पुल को चौड़ा करने की बात उठाई थी। जब योजना बनी तो इसमें पानी की निकासी के लिये दो पाये चढ़ाये गये थे जो की काफी नहीं था। 1984/85/87 सभी वर्षों में इस पुल की हालत खराब थी। 1991 में झौआ के पास इस पुल पर करीब 12 घंटे तक पानी ऊपर होकर बहता रहा। वह तो अच्छा हुआ कि बेलवार में तटबन्ध टूट गया वरना यह पुल बह जाता। पुल की लम्बाई बढ़ाने का यह काम आज नहीं तो कल करना ही पड़ेगा। परेशानी यह है कि इन्जीनियर लोग तो ड्राइंग-कन्टूर देखकर प्लान बनाते हैं और हम नदी के साथ जन्म से रहते हैं। हमारा अनुभव ज्यादा है पर उनको तो हमसे बात करने में बेइज्जती लगती है। यह खाई तो आसानी से पटने वाली नहीं है। झौआ के नीचे तो नदी का तल सपाट है इसलिये पानी ठीक से निकल नहीं पाता मगर इसके ऊपर के इलाके में तो यह समस्या नहीं है। इस इलाके में तो तटबन्ध में स्लुइस बनाये ही जा सकते हैं।

... तटबन्धों के अन्दर पानी फैलेगा यह तो हमलोगों को पता था पर तटबन्धों के बाहर जल जमाव हो जायेगा इसका अन्दाज हमलोगों को कतई नहीं था। यह भी जानकारी धीरे-धीरे हुई कि तटबन्ध टूट भी सकता है। अब हालत यह है कि कभी कचौरा, कभी सिकटिया, कभी बहरखाल, और कभी चांदपुरा, कहीं न कहीं बाँध को हर साल टूटना ही है। और अगर तटबन्ध टूटे नहीं तो पानी निकलेगा कैसे? टूटेगा नहीं तो काटना पड़ेगा।

दिक्कत यह है कि मंत्री लोग कहते हैं कि वह इन्जीनियरों की सलाह पर काम करते हैं क्योंकि सारा मसला तकनीकी है जबकि इन्जीनियर अपने आपको स्वतंत्र नहीं मानते और कहते हैं कि उन्हें राजनीतिज्ञों के मातहत रहना पड़ता है और जो राजनीतिज्ञ चाहते हैं और कहते हैं वह उन्हें करना पड़ता है। जनता की इन दोनों से एक साथ मुलाकात हो नहीं पाती इसलिये नेता और इंजीनियर का काम तो अपनी जगह चलता रहता है पर जनता फंस गई।

... तटबन्ध बनाये गये तो अच्छा सोचकर ही पर बुरा हो गया। और आज महानन्दा में जो हो रहा है, वह तो सुबह विनोद कुमार जी ने आपको बताया। हम टूटे/कटे तटबन्धों को सरकार को भरने नहीं देंगे। मित्र कानूनी लड़ाई लड़ने की सलाह देते हैं। हम जिन्दा बचेंगे तब तो कानूनी लड़ाई लड़ेंगे। हम कानूनी लड़ाई भी लड़ेंगे-यह एक अलग बात है मगर फैसला तो आन्दोलन से ही होगा।

श्री मांगन इन्सान जी के भाषण के बाद बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक श्री दिनेश कुमार मिश्र के धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह सम्मेलन समाप्त हो गया।

 

बाढ़ मुक्ति अभियान बाढ़ पीड़ितों का निर्मली सम्मेलन निर्मली, जिला- सुपौल, बिहार रिपोर्ट 5-6 अप्रैल 1997


(हिन्दी, अंग्रेजी में पढ़ने के लिये नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।)

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बाढ़ मुक्ति अभियान बाढ़ पीड़ितों का निर्मली सम्मेलन निर्मली, जिला- सुपौल, बिहार रिपोर्ट 5-6 अप्रैल 1997 (Barh Mukti Abhiyan Second Delegates Conference Nirmali, Supaul, Bihar Report April 5-6, 1997)

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Barh Mukti Abhyan Second Delegates Conference Nirmali, Supaul, Bihar Report April 5-6, 1997

 

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