बाढ़ : पहाड़ों के रास्ते मैदानों में

पहाड़ों में यदि बरसाती जल का ठीक से प्रबन्धन हो जाए तो मैदानी इलाकों में बाढ़ों से होने वाली तबाही को रोका जा सकता है।आज गत वर्ष की अप्रत्याशित बाढ़ की घटनाओं के विश्लेषणों से सीखने का समय है। 2010 के अगस्त-सितम्बर माह में उत्तराखण्ड व हिमाचल प्रदेश में औसत से ज्यादा बादल फटने की घटनाएँ हुईं थीं। पहाड़ों में इस कारण नदी-नालों में भी अप्रत्याशित पानी आया था। इस पानी ने और बादल के विस्पफोटों से हुए भू-स्खलनों के मलवे ने बाढ़़ की विभीषिका को और भी बढ़ाया था।

पहाड़ों से लगे मैदानों में अक्सर बाढ़ के लिए, पहाड़ों में यदि तेज बरसात हुई तो वहाँ से आते पानी को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इस बात को राष्ट्रीय आपदा प्रबन्ध संस्थान भी स्वीकारती है। 2010 में आधिकारिक तौर पर उसने मैदानी शहरों के बाढ़ों और पहाड़ी बाढ़ों के अन्तःसम्बन्धों के प्रबन्धन पर तार्किक कार्य समन्वयन दिशा-निर्देश भी जारी किए थे। हालाँकि पहले भी इन अन्तःसम्बन्धों का अनुभव किया गया था। इसी सोच के कारण देश में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश को बाढ़ से बचाने के लिए नेपाल में बाँधों के रख-रखाव पर खर्च व मदद भी करता रहा है।

उत्तराखण्ड से लगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सड़कें, खेत व सैकड़ों गाँव जब 2010 में डूबने लगे तो उसके लिए भी उत्तराखण्ड के पहाड़ों से आने वाली नदियों को ही जिम्मेदार ठहराया गया। यह भी नहीं भूलना होगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपने खेतों की सिंचाई के लिए उत्तराखण्ड के बाँध व बैराजों के पीछे पानी जमा किए जाने व समय-समय से छोड़े जाने का इन्तजार भी करता रहता है। हकीकत तो यह है कि उत्तराखण्ड के कुछ बैराजों व नहरों पर पानी के मात्रा सम्बन्धी नियन्त्रण का कब्जा अभी भी दस सालों से उत्तराखण्ड क्षेत्र के अलग होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के सरकार के पास है।

दिल्ली जो उत्तराखण्ड के टिहरी बाँध से छोड़े जाने वाले भगीरथी के पानी से अपनी प्यास बुझाने के लिए टकटकी लगाए रखती है, उसने भी कई बार यमुना की बाढ़ के लिए उत्तराखण्ड व हिमाचल के पहाड़ों में हुई अप्रत्याशित बरसातों और हरियाणा के बैराजों से छोड़े गए पानी को ही जिम्मेदार माना है। यमुना उत्तराखण्ड से ही निकल कर हरियाणा पहुँचती है।

उधर हरियाणा व पंजाब ने अपने यहाँ बाढ़ की विभीषिका व बैराजों में पानी न रोक सकने के लिए हिमाचल में होने वाली बरसात को एक कारण बताया था। 2010 में पोंग बाँध से व्यास नदी में पानी इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि बाँध जलाशय में पानी खतरे के निशान तक पहुँच गया था। पोंग बाँध पंजाब और हिमाचल प्रदेश की सीमा पर है।

पहाड़ों में यदि बरसाती जल का ठीक से प्रबन्धन हो जाए तो मैदानी इलाकों में बाढ़ों से होने वाली तबाही को रोका जा सकता है।

पहाड़ों में बाँध बना कर ही मैदानों को बाढ़ों से बचाने की कोशिश की जाती है। अब बड़ी-बड़ी दैत्याकार मशीनों, ट्रकों, डोजरों, क्रेनों, मजबूत सीमेंट, कंकरीट, इस्पात की संरचनाओं की उपलब्धता के कारण सैकड़ों मीटर ऊँचे बाँध, जिनके पीछे कई-कई किलोमीटर लम्बी-चौड़ी कृत्रिम झीलें बनाना सम्भव हो गया है। विशाल संग्रहित जलराशि में विकास या विनाश दोनों ही सम्भावनाओं वाली ऊर्जा निहित होती है। बाँध विकास के मन्द होने के अलावा विभिन्न चूकों के कारण या इनमें जल-प्रबन्धन की दूरगामी सोच के अभाव से तबाही आई है।

जलग्रहण क्षेत्र में घास, झाड़ियों, पेड़ों, जंगलों का ज्यादा संरक्षण, रोपण व विस्तार हो। इससे खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा व पहाड़ी ढलानों की स्थिरता भी बनी रहती है।कोई भी राज्य या देश केवल दूसरों के नफा-नुकसान को प्राथमिकता देकर अपने गाँव-शहरों को अपने क्षेत्र में ही बने बाँधों व बैराजों के पीछे जमा पानी में डूबने नहीं दे सकता है। इसीलिए उत्तराखण्ड, हिमाचल या नेपाल को अपने-अपने क्षेत्रों के बाँधों व बैराजों से पानी छोड़ना पड़ता है। हरियाणा के गाँवों को जब खतरा होता है, तो वह अपने बैराजों से पानी छोड़ता है, जिससे दिल्ली को खतरा हो जाता है। ऐसा करने के पहले उन्हें चेतावनी देना आवश्यक है। इससे सम्भावित डूब के क्षेत्रों से लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाने का काम पहले ही कर लिया जाता है।

गत वर्ष तो उत्तराखण्ड में टिहरी बाँध से पानी छोड़े जाने से उत्तराखण्ड के अपने ही देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे नगरों की बस्तियों पर बाढ़ का खतरा आ गया था। यही नहीं टिहरी बाँध के जलाशय में जब पानी 830 मीटर आर.एल. सीमा के ऊपर जाने से जलाशय से जुड़े गाँवों के पुल, खेत, मन्दिर, सड़क, मकान, मवेशी आदि डूबने लगे थे, तो गाँव वालों को नावों और हेलीकॉप्टरों से बचाने के उपाय जरूरी हो गए थे। इसी क्रम में पहाड़ों में टिहरी जिले को आपदा की स्थितियों के बचाने के लिए जब कुछ जरूरी पानी छोड़ा गया, तो उत्तराखण्ड के ही देवप्रयाग, ऋषिकेश व हरिद्वार जैसे नगरों पर भी खतरा मण्डराने लगा। उनके लिए बाढ़ से बचने की चेतावनी जारी करनी पड़ी। नतीजन, ऋषिकेश व हरिद्वार के बैराजों से भी पानी छोड़ना पड़ा। इससे हरिद्वार के ही कुछ मैदानी गाँवों का एवं वहाँ की सड़कों का डूबना शुरू हो गया था।

उनके पास पानी छोड़ने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। उत्तराखण्ड की सरकार ने तो टिहरी बाँध प्रबन्धन को इस बात पर भी फटकार लगाई थी कि उसने कुछ दिनों तक बिना चेतावनी दिए झील के पानी को 830 मी. से ऊपर जाने दिया। इससे पहले के आंशिक डूब के क्षेत्रों को भी पुनर्वास की जरूरत होने लगी। झील के पीछे के चिन्यालसौड़ जैसे कस्बे के बाजार, मकान डूबने लगे। दूसरी तरफ यह भी तथ्य है कि इन्हीं दिनों टिहरी बाँध से बिजली का उत्पादन भी बढ़ा।

खास बात तो यह है कि टिहरी बाँध की झील के ऊपर चढ़े पानी को आपात स्थिति में छोड़े जाने से नदी प्रवाह से नीचे की ओर बन रही कोटेश्वर बाँध के मशीनरी, इनलेट आदि को कई सौ करोड़ रु. का नुकसान भी हुआ है।

लेकिन बाँध का एक फायदा मैदानों में बाढ़ रोकना भी बताया जाता है, वे मैदानों में आने वाली भीषण तबाही के कारण बनते जा रहे हैं। गत वर्ष की हरियाणा व उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों की तबाही से यही सिद्ध होता है। यदि सरकार और आमजन अपनी सोच व आचरण में परिवर्तन नहीं लाए तो स्थितियाँ और भी ज्यादा बिगड़ सकती हैं। बाँधों से अचानक व मजबूरन भी पानी छोड़ना आम होता जाएगा।

जब हम बाँधों की आवश्यकता व उपयोगिता की बातें करते हैं, तो हमें यह ख्याल भी रखना होगा कि पहले किसी उद्देश्य को लेकर ही बाँध बनाए जाते थे। जैसे सिंचाई, बाढ़ को रोकने या बिजली उत्पादन के लिए। अब अधिकतर बाँध बहुउद्देशीय होते हैं। अतः बाँधों पर किए गए खर्चों से लाभ पाने के लिए भी एक ही बाँध से जलापूर्ति, जल भण्डारण, बाढ़ को रोकने, सिंचाई और विद्युत उत्पादन के विभिन्न उद्देश्य एक साथ पाने के लिए डिजाइन कर उनमें उपयुक्त संयन्त्र व उपकरण लगाए जाते हैं। इन विभिन्न उपयोगों के बीच संतुलन बनाने के लिए बाँधों की पूरी क्षमता व उपयोगिताओं से भी समझौता करना पड़ता है।

हमें समझना होगा कि मनमानी जगहों पर आधे-अधूरे अध्ययनों से पहाड़ी पानी को कभी रोकना, कभी बाँधना, कभी छोड़ना, आग से खेलने के बराबर है।उदाहरण के लिए ज्यादा बिजली उत्पादन के लिए जलाशयों में ज्यादा ऊँचाई तक व ज्यादा पानी भरना पड़ता है। इसके लिए अनुकूल समय बरसात ही होता है। परन्तु यह वह समय होता है, जब पहाड़ों से आने वाले मलबे व गाद की दर भी बढ़ जाती है। ज्यादा से ज्यादा मलबा-गाद बाँधों की तलहटी में जमा होने लगती है। इससे कई बार बाँधों की अपनी सुरक्षा व आयु जैसे— सौ साल या पचास, सत्तर साल आदि के नियोजित समय पर भी असर पड़ता है। इससे बाँधों की संरचनाएँ भी कमजोर हो जाती हैं व उनमें झुकाव भी आ सकता है। ऐसी आशँका कभी-कभी भाखड़ा बाँध को लेकर भी व्यक्त की जाती है। इस तरह की बाँध सुरक्षा कारणों की असामान्य परिस्थितियों के कारण भी उनसे पानी छोड़ना पड़ता है। ऐसे ही समय में यदि निचले इलाकों में भी तेज बारिश हो रही हो तो बाढ़ की स्थितियाँ और गम्भीर बन जाती हैं, जैसा पिछली बार उत्तराखण्ड के पहाड़ी व उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में हुआ।

नदियों में ज्यादा मलबा या गाद तब भी आने लगता है, जब बाँधों के जलग्रहण क्षेत्र में वन विनाश तेज हो जाता है। ऐसा तब होता है जब भू-स्खलन व भू-क्षरण बढ़ जाता है या बस्तियों में अनियन्त्रित मानवीय गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। अतः यह बहुत जरूरी है कि जलग्रहण क्षेत्र में घास, झाड़ियों, पेड़ों, जंगलों का ज्यादा संरक्षण, रोपण व विस्तार हो। इससे खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा व पहाड़ी ढलानों की स्थिरता भी बनी रहती है।

आज जलग्रहण क्षेत्रों में सड़कों व अन्य निर्माण कार्यों में विस्फोटकों के उपयोग से भी भू-स्खलन व भू-क्षरण बढ़ता जा रहा है। कई जगहों पर यह मलबा सीधे नदियों में चला जाता है। इससे भी बाढ़ की स्थितियाँ बनने में मदद मिलती है। इन स्थितियों से देश में सभी जगहों पर बाँधों से खतरे पैदा हुए हैं।

हमें समझना होगा कि मनमानी जगहों पर आधे-अधूरे अध्ययनों से पहाड़ी पानी को कभी रोकना, कभी बाँधना, कभी छोड़ना, आग से खेलने के बराबर है। उत्तराखण्ड में भगीरथी, भिलंगना के संगम पर बना टिहरी बाँध आज इसका उदाहरण है। उत्तराखण्ड में सितम्बर 2010 की बरसात में जब पानी को नदी के स्तर 830 मीटर से ऊपर जाने दिया गया, तो बढ़े पानी से 77 कि.मी. लम्बी झील के पानी से दर्जनों गाँव जो कागज में आंशिक डूब के क्षेत्र थे, डूबने लगे तो पानी को कम करने के प्रयासों के दौरान ही एक अनुमान के अनुसार, रु. 400 करोड़ का नुकसान को गया था।

अतिरिक्त दो मीटर पानी को कम करने के लिए जब बड़ा निर्वहन (डिस्चार्ज) नीचे की दिशा में फैला तो उसने अपनी ही परियोजना श्रृंखला में जुड़े कोटेश्वर बिजली घर को भारी नुकसान पहुँचाया। इस बिजलीघर से 400 मेगावाट बिजली का उत्पादन दिसम्बर 2010 से प्रस्तावित था। सूत्रों के अनुसार, इस बिजली घर को 100 करोड़ का नुकसान हुआ तथा काम भी करीब एक साल पिछड़ गया है।

(लेखक पर्वतीय विकास विशेषज्ञ हैं व उत्तराखण्ड में सामाजिक कार्य व लेखन कर रहे हैं)
ई-मेल : vkpainuly@rediffmail.com

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