बाधाओं बीच अविरल नर्मदा


‘सौंदर्य की नदी’ नर्मदा नित नए संकटों से घिरने के बावजूद अपनी अविरलता, अपनी जीवंतता छोड़ने को तैयार नहीं है। मगर विकास की आधुनिक समझ अपनी जिद पर अड़ी है। बड़े बाँधों के खिलाफ जन संघर्षों का पर्याय रही नर्मदा आज कई खतरों से जूझ रही है। इनमें से कुछ खतरे जाने-पहचाने हैं तो कुछ एकदम नए। नर्मदा के इन्हीं संघर्षों की पड़ताल करती अजीत सिंह और सुष्मिता सेनगुप्ता की रिपोर्ट -

नर्मदा को रेवा भी कहते हैं। यानी उछल-कूदकर आगे बढ़ने वाली नदी। लेकिन आजादी के बाद से ही नर्मदा घाटी में उपलब्ध जल दोहन के प्रयास तेज हो गए थे। नतीजतन नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर बाँध बनाकर सिंचाई व जलविद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। सन 1979 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण ने नर्मदा में उपयोग योग्य जल की मात्रा 34.54 अरब घन मीटर मानते हुए मध्यप्रदेश को 65.16 फीसदी, गुजरात को 32.14 फीसदी, राजस्थान को 1.78 फीसदी और महाराष्ट्र को 0.89 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक दिया था। भू-वैज्ञानिक और पौराणिक दृष्टि से देश की प्राचीनतम नदियों में से एक नर्मदा मध्य भारत की जीवन रेखा सरीखी है। युगों-युगों से यह जीवन और संस्कृतियों को सींचती रही है। मध्यप्रदेश के जबलपुर से नर्मदा अंचल में प्रवेश करते ही हमें दो बातें बार-बार सुनने को मिलीं। पहली बात यह कि नर्मदा ऐसी अनूठी नदी है, जिसकी ‘परिकम्मा’ होती है। सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालु नर्मदा की करीब 2600 किलोमीटर की परिक्रमा करते हैं। यह यात्रा एक संकल्प है, नदी और प्रकृति से आत्मीयता रखने बनाए रखने का। नर्मदा के विषय में दूसरी बात यह अक्सर सुनने को मिलती है कि यह देश की सबसे साफ-सुथरी नदी है। गंगा-यमुना जैसी मैली नहीं है।

एक तीसरी बात भी है। जिसका दर्द लोगों की जुबान पर जरूर आता है। ‘नर्मदा सौंदर्य की संवाददाता’ अमृतलाल वेगड़ के शब्दों में “मेरी नर्मदा अब नहीं रही...पहली परिक्रमा (1977) के दौरान नर्मदा वैसी ही थी, जैसी वह सैकड़ों साल पहले थी। मगर अब नर्मदा वैसी नहीं रही। वह झीलों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर रह गई। झील में प्रवाह नहीं होता। वह तो ठहरा हुआ पानी है। और नदी का मूल तत्व है प्रवाह, गति।”

दरअसल, श्रद्धालुओं के साथ-साथ कई संकट भी नर्मदा की परिक्रमा करते रहे हैं। इनमें से कई संकट सरदार सरोवर बाँध जैसे विशालकाय हैं तो कई आँखों से नजर भी न आने वाले प्रदूषकों जितने सूक्ष्म। जबलपुर में ग्वारीघाट से ही हमारा नर्मदा के इन संकटों से साक्षात्कार होने लगा। हमें नर्मदा की सैर कराते हुए नाविक मनोहर बर्मन किनारे से ज्यों ही आगे बढ़ा, नदी में तैरती हरी घास को देखकर मुँह पिचकाने लगा। “साहब ये घास बड़ी खतरनाक है। इसे अजोला कहते हैं। कई लोग इसमें फँसकर डूब चुके हैं। इससे बचना पड़ता है।” यह बताते-बताते उसने पूरी ताकत से नाव का रुख पानी में तैर रही उस हरी वनस्पति से दूर मोड़ लिया। फरवरी से मार्च के दौरान नर्मदा में खूब फैलने वाली यह वनस्पति ‘अजोल टेरीडोफाइटा’ ग्रुप का एक जलीय खरपतवार है। इसकी मौजूदगी जल के दूषित होने का संकेत है। यह पानी में ऑक्सीजन की मात्रा को भी कम कर देता है, जो जलीय जैव-विविधता के लिये नुकसानदेह है।

पिछले दो दशकों से नर्मदा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिये कानूनी लड़ाई लड़ रहे जबलपुर निवासी पीजी नाजपांडे बताते हैं कि शहर के आस-पास डेयरियों का गोबर परियट और हिरन जैसी सहायक नदियों से होते हुए नर्मदा में पहुँचता है। इसी की वजह से नर्मदा में खरपतवार फैलती है। हालत यह है कि सर्दियोंमें जबलपुर से लेकर ओंकारेश्वर तक नर्मदा का पानी हरा-भरा दिखाई देता है। नाजपांडे के मुताबिक, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल (पीसीबी) से इस बारे में रिपोर्ट तलब की है।

संकटों का उद्गम


अमरकंटक में अपने उद्गम से ही नर्मदा का सामना तरह-तरह के संकटों, संघर्षों से होने लगता है। महाशिवरात्रि के मौके पर यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान ‘मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ ने छह स्थानों नर्मदा कुंड, कोटी तीर्थ घाट, रामघाट, पुष्कर डेम, कपिल संगम और कपिलधारा में नर्मदा जल की जाँच की थी। पता चला कि गत 23 से 27 फरवरी के दौरान महाशिवरात्रि के दिन नर्मदा उद्गम के आस-पास ‘टोटल कॉलीफॉर्म’ की मात्रा अचानक बढ़ गई थी। कॉलीफॉर्म, मानव मल के कारण पैदा होने वाला एक बैक्टीरिया है। पीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, कोटि तीर्थ में टोटल कॉलीफॉर्म की मात्रा 500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर तक, रामघाट में 300 और पुष्कर डेम में 220 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर तक पाई गई। जबकि मानकों के अनुसार, पीने के पानी में यह मात्रा 50 या इससे कम एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर होनी चाहिए।

घने जंगलों में बसे एक शांत स्थल से अमरकंटक अब भीड़भाड़ वाले तीर्थस्थल में तब्दील हो चुका है। यहीं से गत 11 दिसम्बर को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने “नमामि देवि नर्मदे - नर्मदा सेवा यात्रा” की शुरुआत की थी। इस मौके पर जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने नर्मदा के देश की दूषित नदियों में शुमार होने की आशंका जताते हुए उद्गम में ही घटते जलप्रवाह पर चिंता जताई थी। राजेंद्र सिंह के मुताबिक, अमरकंटक में कुछ प्रभावशाली लोग नियम-कायदों की जिस तरह धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, सरकार इससे कैसे निपटेगी? यह बड़ा सवाल है।

प्रदूषण की आँख-मिचौली


मुड़ती-उमड़ती नर्मदा जैसे-जैसे अमरकंटक से आगे बढ़ती है, इसके दोहन की योजनाएँ भी साथ-साथ बनती चलती हैं। मध्य भारत को अन्न-धन से परिपूर्ण बनाने वाली इस सदानीरा पर आबादी का बोझ पिछली एक शताब्दी में काफी बढ़ गया है। नर्मदा बेसिन में सम्मिलित जिलों की आबादी सन 1901 में 78 लाख के आस-पास थी, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार, इन जिलों की आबादी साढ़े तीन करोड़ से ऊपर पहुँच गई है। करीब सौ वर्षों में नर्मदा घाटी पर आबादी का बोझ पाँच गुना से अधिक बढ़ गया है। जाहिर है नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर दोहन और प्रदूषण का बोझ भी इतना ही बढ़ गया है।

नर्मदा किनारे के छोटे-बड़े 52 शहरों का मलमूत्र नर्मदा में गिरता है। इसका विकराल रूप हमें जबलपुर में देखने को मिला। करीब 11 लाख आबादी वाला जबलपुर नर्मदा किनारे बसा सबसे बड़ा शहर है। यहाँ घरेलू सीवर की निकासी के लिये कोई केंद्रीकृत सीवरेज व्यवस्था नहीं है। शहर में ज्यादातर सेप्टिक टैंक वाले शौचालय हैं। साल 2011 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट के एक अध्ययन से पता चला था कि जबलपुर में कुल 1000 किलोमीटर लम्बी छोटी नालियाँ हैं, जिनमें से 52 फीसदी कच्ची हैं। साल 2015 में 'केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' (सीपीसीबी) ने जबलपुर से गुजरने वाले नर्मदा के हिस्से को प्रदूषित करार दिया था। शहर का अधिकांश गंदा पानी चार बड़े नालों- ओमती, खंडारी, शाह और मोती के जरिये नर्मदा में पहुँचता है।

सीपीसीबी के मुताबिक, साल 2005-06 में जबलपुर शहर से रोजाना 143.3 एमएलडी सीवेज निकलता था, जिसके शोधन की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाल के वर्षों में यहाँ ग्वारीघाट में 150 और 400 केएलडी क्षमता के दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित किए गये हैं, जबकि कठौंदा में 50 एमएलडी क्षमता का एक एसटीपी बनकर तैयार हो गया है। शहर से निकलने वाली सीवर की मात्रा को देखते हुए ये संयंत्र नाकाफी हैं। जबलपुर के आस-पास तीन और एसटीपी बनाने की योजना है। लेकिन ये सीवर ट्रीटमेंट प्लांट तब तक पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो सकते, जब तक शहर में केंद्रीकृत सीवर नेटवर्क नहीं बन जाता। इस काम में बरसों लग सकते हैं। तब तक सेप्टिक टैंकों से निकला मलमूत्र नदियों तक पहुँचाता रहेगा।

 

अतीत का आइना


नर्मदा घाटी में मिल रहे जीवाश्म अतीत के नित नए रहस्य खोल रहे हैं। यहाँ करीब 8 करोड़ साल पहले डायनासोर (सॉरोपोड) के अंडों के जीवाश्म और आदिम कृषि के प्रमाण भी। प्राचीन जीवन के प्रमाण पत्थर हो चुके हैं लेकिन नर्मदा जीवंत है। मानव के उत्थान और पतन की गवाह बनती हुई बहती रहती है।


नर्मदा देश की पाँचवीं सबसे लम्बी और पूरब से पश्चिम को बहने वाली देश की सबसे बड़ी नदी है। इसका उद्गम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर सतपुड़ा और विंध्य पर्वतमालाओं को जोड़ने वाली मैकल पर्वत श्रेणी के अमरकंटक नामक स्थान से होता है। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 1312 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद नर्मदा खम्भात की खाड़ी में मिलती है।


इस दौरान नर्मदा मुड़ती-उमड़ती, कहीं मैदानी तो कहीं पहाड़ी रास्तों से गुजरती हुई 1079 किमी की यात्रा मध्यप्रदेश में पूरी करती है। इसके बाद मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 35 किमी और गुजरात व महाराष्ट्र की सीमा पर 9 किमी का सफर पूरा करती है। आखिरी में 159 किमी यह गुजरात में बहकर अरब सागर की खम्भात की खाड़ी में मिलती है।


नर्मदा बेसिन का कुल जलग्रहण क्षेत्र 98,796 वर्ग किलोमीटर है। इसका करीब 86 फीसदी क्षेत्र मध्यप्रदेश, 11 फीसदी गुजरात, 2 फीसदी महाराष्ट्र और करीब एक फीसदी छत्तीसगढ़ में आता है। यह जिस विभ्रंश घाटी से होकर बहती है, उसमें पाई जाने वाली चट्टानें विश्व के प्राचीनतम शैल समूहों में से हैं, जिनकी उत्पत्ति प्री कैम्ब्रियन (460-57 करोड़ वर्ष पूर्व) या उससे भी पहले हुई थी।


भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि जहाँ आज नर्मदा घाटी है, लगभग 150 करोड़ वर्ष पूर्व वहाँ अरब सागर का एक हिस्सा संकरी धारा के रूप में लहराता था। इस घाटी में करोड़ों साल पुराने जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के जीवाश्म के अलावा प्राचीन मानव कपाल के अवशेष भी मिले हैं, जिसे ‘नर्मदा मानव’ या ‘इरेक्टस नर्मदेन्सिस’ कहा जाता है। पुरातत्व के लिहाज से यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज थी।


वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आज से करीब छह करोड़ वर्ष पूर्व भूगर्भीय हलचलों की वजह भी गर्म लावा ज्वालामुखी के जरिये बाहर निकला और धरती की सतह पर फैल गया। इस लावे में दबी वनस्पति और जानवरों के अवशेष ही आज जीवाश्म के रूप में सामने आ रहे हैं।

 

जबलपुर में नर्मदा को दूषित करने में शहर के आस-पास स्थापित डेयरियों का भी बड़ा हाथ है। जबलपुर के आस-पास करीब 100-150 डेयरियाँ है, जहाँ से निकलने वाला मवेशियों का मलमूत्र नर्मदा की सहायक नदियों - परियट और गौर में गिरता है। इस मामले को लेकर सन 1996 में जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले पीजी नाजपांडे का कहना है कि हाईकोर्ट और एनजीटी के सख्त आदेशों के बावजूद डेयरियों के गंदे पानी को नदियों में गिरने से रोकने के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं। यही कारण है कि परियट और गौर नदियाँ गोबर के नालों से तब्दील हो चुकी हैं। पीसीबी नोटिस जारी कर डेयरी संचालकों को ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इन निर्देशों का सख्ती से पालन नहीं हो पाया।

नर्मदा को प्रदूषण से बचाने को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच पीसीबी ने गत दिसम्बर में एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि विभिन्न मॉनीटरिंग स्टेशनों पर नर्मदा जल की गुणवत्ता संतोषजनक पाई गई है। इस रिपोर्ट के आधार पर नर्मदा के जल को पीने के लिये सुरक्षित बताया जा रहा है। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े नाजपांडे जैसे लोग पीसीबी की जाँच के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि नदी जल के नमूने किनारों के बजाय नदी की धारा के बीच से लिये गए। इस मामले पर उन्होंने एनजीटी में याचिका भी दायर की है। उधर, पीसीबी के अधिकारियों का कहना है कि पानी के नमूने तय प्रक्रिया के आधार पर ही लिये गये हैं। वैसे देखने से भी नजर आता है कि नर्मदा गंगा, यमुना की तरह अत्यधिक मैली नहीं है। लेकिन इस निर्मलता को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है।

भोपाल स्थित ‘मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ में अनुप्रयुक्त रसायन विभाग की सविता दीक्षित का भी कहना है कि वर्ष 2007 के बाद से नर्मदा के जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। उन्होंने होशांगाबाद में 2007 में नर्मदा जल की गुणवत्ता का परीक्षण किया था। उनके शोध के अनुसार, नर्मदा की ऊपरी धारा के मुकाबले निचली धारा में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई। इससे भी नर्मदा में घरेलू सीवर और उद्योगों की गंदगी पहुँचने का संकेत मिलता है।

मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल भले ही नर्मदा को बेहद साफ-सुथरी बताये, लेकिन वर्ष 2015 की 'केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' की रिपोर्ट एक अलग तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, मध्यप्रदेश में मंडला से भेड़ाघाट के बीच 160 किलोमीटर, सेठानी घाट से नेमावर के बीच 80 किलोमीटर और गुजरात में गरुडेश्वर से भरूच के बीच नर्मदा प्रदूषित है।

(मानचित्र देखें)मध्यप्रदेश के जो शहर नर्मदा को दूषित कर रहे हैं, उनमें जबलपुर, होशंगाबाद और नेमावर प्रमुख हैं। इन शहरों से गुजरते हुए नर्मदा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की अधिकतम मात्रा 3.3 से 7.9 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो 3 से अधिक नहीं होनी चाहिए। गुजरात के बोलव, गरुडेश्वर और भरूच में तो बीओडी की अधिकतम मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है। सीपीसीबी का यह अध्ययन वर्ष 2009 से 2012 के आँकड़ों पर आधारित है। हैरानी की बात है कि सिर्फ दो-तीन साल के अंदर नर्मदा इस दूषित स्थिति से स्वच्छ नदी में तब्दील हो गई।

पीसीबी के अधिशासी अभियंता एचएस मालवीय नर्मदा जल की गुणवत्ता में आए सुधार को सरकारी प्रयासों का नतीजा बताते हैं। इन प्रयासों के तहत होशंगाबाद और जबलपुर जैसे शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनवाने, गंदे नालों को डायवर्ट करने, अमरकंटक में फिल्ट्रेशन प्लांट और डिंडोरी में सीवर लाइन बिछाने और नर्मदा को दूषित करने वाली नगरपालिकाओं और फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने जैसे उपाय शामिल हैं। मालवीय बताते हैं कि होशंगाबाद के कोरीघाट पर नर्मदा में गिरने वाले नाले को डायवर्ट कर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की ओर मोड़ दिया गया है। यह नाला होशंगाबाद शहर में नर्मदा के प्रदूषण का प्रमुख कारण था। नदियों को साफ-सुथरा रखने के लिये व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। साथ ही अमरकंटक, डिंडोरी, भेड़ाघाट, जबलपुर, ओंकारेश्वर, मंडलेश्वर, महेश्वर की औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 के तहत कार्रवाई की गई है। मालवीय मानते हैं कि नर्मदा यात्रा से इन प्रयासों को बल मिलेगा।

हालांकि, नर्मदा से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय होशंगाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान पीसीबी के दावों को खारिज करते हुए कहते हैं कि आज भी सिक्योरिटी पेपर मिल का दूषित पानी सीधे नर्मदा में पहुँचता है। जब सरकारी फैक्ट्रियाँ ही नर्मदा को मैला करेंगी तो निजी उद्योगों से क्या उम्मीद की जाए। इस बारे में होशंगाबाद नगर-पालिका के महापौर अखिलेश खंडेलवाल यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि सिक्योरिटी पेपर मिल के प्रदूषण की निगरानी नगर-पालिका की जिम्मेदारी नहीं है। उधर, पीसीबी का कहना है कि नर्मदा में प्रदूषण फैलाने को लेकर सिक्योरिटी पेपर मिल के खिलाफ केस दर्ज किया था। वर्ष 2015 में मिल को नोटिस भी भेजा गया। एचएस मालवीय बताते हैं, “सिक्योरिटी पेपर मिल ने दूषित जल के पुनः प्रयोग का इंतजाम कर लिया है। ऑनलाइन मॉनिटरिंग भी की जा रही है। अब इस मिल से नदी में 3.5 एमएलडी दूषित पदार्थ ही नर्मदा में पहुँचता है। जबकि पहले यह मात्रा काफी अधिक थी।”

मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल के हालिया दावों से उलट होशंगाबाद जिले के पीपरिया में शासकीय पीजी कॉलेज में रसायन विज्ञान के मुकेश कटकवार का साल 2016 में प्रकाशित एक शोध भी बताता है कि घरेलू सीवर नर्मदा को काफी दूषित कर रहा है। इसमें बीओडी की मात्रा सुरक्षित मानकों से कहीं अधिक है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ केमिकल साइंसेज में प्रकाशित इस शोध के अनुसार, नर्मदा के आस-पास रहने वाले समुदायों में त्वचा और पेट सम्बन्धी बीमारियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं।

“प्रवाह नदी का प्रयोजन है। नदी अगर बहेगी नहीं तो वह नदी नहीं रहेगी। अपने अस्तित्व के लिये उसे बहना ही चाहिए।”अमृतलाल वेगड़ (नर्मदानुरागी लेखक-चित्रकार)नर्मदा और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार जयंत वर्मा का कहना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 277 में जलस्रोत या जलाशय को दूषित करने पर मात्र 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। जब तक ऐसे अपराधों के लिये तक कड़े दंड का प्रावधान नहीं किया जाता है, नदियों को प्रदूषण मुक्त करना बेहद मुश्किल है।

सीवेज और पुरानी गलतियाँ


नर्मदा की निर्मल-अविरल छवि पर तरह-तरह के खतरे भी इसके साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। हर 100-50 किलोमीटर की दूरी एक नई समस्या और उससे निपटने के उपाय सामने आते हैं।

नर्मदा किनारे के शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को गंदे नालों का प्रदूषण रोकने के बड़े उपाय के तौर पर देखा जा रहा है। इन शहरों में बड़ी तादाद में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजनाएँ हैं।

'केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' की अगस्त, 2013 की एक रिपोर्ट बताती है कि समूचे मध्यप्रदेश में 25 प्रमुख शहरों से निकलने वाले कुल 1238 एमएलडी सीवर में से सिर्फ 186 एमएलडी यानी करीब 15 फीसदी सीवर के ट्रीटमेंट की क्षमता ही उपलब्ध है। इस मामले में दूसरे दर्जे के शहरों की स्थिति तो और भी खराब है।

नर्मदा को मैली होने से बचाने के लिये मध्यप्रदेश सरकार ने 18 शहरों में करीब 1500 करोड़ रुपये की समग्र सीवरेज परियोजनाएँ लागू करने का फैसला किया है। ये सभी नर्मदा किनारे के शहर हैं, जहाँ सीवेज नेटवर्क और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने की योजना है। लेकिन गंगा नदी के अनुभव बताते हैं कि जब तक शहरों में गंदे पानी की निकासी और इसे ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुँचाने के समुचित इंतजाम नहीं होते, तब तक एसटीपी कारगर साबित नहीं होते हैं।

गंगा की तरह नर्मदा के आस-पास बसे शहरों में भी गंदे पानी की निकासी के लिये सीवेज प्रणाली नहीं है। कच्ची नालियों और नालों से बहने वाला शहरों का गंदा पानी नदियों के साथ-साथ भूजल को भी दूषित कर रहा है। इसलिये नर्मदा किनारे के शहरों में सीवेज सिस्टम पर ध्यान देना जरूरी है। लेकिन कुछ सावधानियाँ भी बरतनी होंगी।

अक्सर होता यह है कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तो बन जाते हैं लेकिन पूरे शहर में सीवेज नेटवर्क नहीं बन पाता। इसलिये नदियाँ प्रदूषित होती रहती हैं। आशंका है कि यह गलती नर्मदा किनारे में शहरों में भी दोहराई जा सकती है। अमृत योजना के तहत जबलपुर में सीवरेज और सेप्टाज प्रबंधन के लिये 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाएँगे। इसी तरह होशंगाबाद में भी सीवेज प्रणाली में सुधार के लिये 150 करोड़ रुपये की योजना है।

पिछले दो दशकों के दौरान नदियों की निर्मलता के लिये सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने पर खूब जोर दिया गया है। देश में कुल 6,247 एमएलडी क्षमता के एसटीपी बनने थे, जिनमें से 3196 एमएलडी यानी करीब आधी क्षमता का ही निर्माण हो पाया। जो एसटीपी बने भी हैं, वे भी पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर रहे हैं।

बूँद-बूँद दोहन


ताज्जुब की बात है कि जिस आबादी का मलमूत्र ढोने के लिये नर्मदा अभिशप्त है। वे सभी शहर पेयजल के लिये भी नर्मदा पर ही निर्भर हैं। राजस्थान में बाड़मेर से लेकर गुजरात में सौराष्ट्र और मध्यप्रदेश के 35 शहरों और उद्योगों की प्यास बुझाने का जिम्मा नर्मदा पर है। परम्परागत तौर पर नर्मदा कछार जल प्रबंधन की स्थानीय प्रणालियों के लिये जाना-जाता है। लेकिन अब यहाँ जलापूर्ति की केंद्रीकृत व्यवस्था पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।

इंदौर, भोपाल समेत मध्यप्रदेश के 18 शहरों को नर्मदा का पानी दिया जा रहा है। नर्मदा के पानी को क्षिप्रा के बाद गम्भीर, पार्वती, ताप्ती, सहित मालवा, विन्ध और बुंदेलखंड तक पानी पहुँचाने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं।

नरसिंहपुर निवासी विनायक परिहार सवाल उठाते हैं कि कम ऊँचाई वाले नर्मदा बेसिन से अपेक्षाकृत अधिक ऊँचाई वाले क्षिप्रा बेसिन में पानी भेजा जा रहा है, जो उल्टी गंगा बहाने जैसा है। नर्मदा क्षिप्रा लिंक का अनुभव देखें तो साल 2014 से आज तक मात्र कुम्भ मेले के समय ही पानी पहुँचाया जा सका है। पानी को पम्प करने में बहुत अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। मिली जानकारी के अनुसार, बिजली खर्च बहुत अधिक होने की वजह से क्षिप्रा में नर्मदा जल की आपूर्ति बंद है।

दोहन का यह दबाव नर्मदा की हर बूँद निगल लेना चाहता है। मध्यप्रदेश के प्रमुख औद्योगिक शहर इंदौर में 70 किलोमीटर दूर से नर्मदा का पानी पहुँचता है। सन 1997-98 से 2004-05 के बीच स्थानीय झीलों और नर्मदा से इंदौर को पानी की आपूर्ति 238 एमएलडी से घटकर 204 एमएलडी रह गई है, जबकि पानी लाने का खर्च 100 फीसदी बढ़ गया है। अब नर्मदा से 180 एमएलडी पानी और इंदौर पहुँचाने की योजना है। भोपाल नगर निगम भी शहर में नर्मदा का पानी पहुँचाने के लिये एक हजार करोड़ रुपये खर्च कर चुका है।

देवास जैसे औद्योगिक शहर भी पानी की अपनी सारी जरूरत नर्मदा के जल से पूरी करना चाहते हैं। मानो शहरों के बीच नर्मदा को निचोड़ने की होड़ मची है। वर्ष 2002 में देवास इंडस्ट्रियल वाटर सप्लाई प्रोजेक्ट के तहत 168 किलोमीटर दूर नेमावर से पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी लाने की योजना बनाई गई थी। निजी भागीदारी (बीओटी) में चलाई जा रही इस योजना में देवास इंडस्ट्रियल एरिया तक 23 एमएलडी पानी पहुँचाने का जिम्मा एक निजी कम्पनी को दिया गया है। इसके एवज में कम्पनी फैक्ट्रियों से 26.50 रुपये प्रति किलो लीटर की दर से चार्ज वसूलेगी। कहा जा रहा है कि 23 एमएलडी में से 12 एमएलडी पानी उद्योगों को मिलेगा, जबकि बाकी पानी आस-पास के गाँवों को निःशुल्क दिया जाएगा।

उधर, गुजरात में भी भरूच और दहेज के उद्योगों को नर्मदा का पानी चाहिए, इसलिये गुजरात सरकार उद्योगों को नर्मदा का ज्यादा पानी देने पर विचार कर रही है। एक तरफ जहाँ नर्मदा बेसिन में बारिश की कमी और नदी में प्रवाह घटने के संकेत मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सिंचाई, पेयजल और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने के लिये नर्मदा का दोहन बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों से नर्मदा को बचाने की मुहिम का नेतृत्व कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर कहती हैं कि जिस तरह नर्मदा जल के दोहन के नए-नए रास्ते निकाले जा रहे हैं, रेत का अंधाधुंध खनन जारी है, जंगलों का विनाश हुआ है, वह नर्मदा के भविष्य के लिये दुखद संकेत हैं।

शायद ही दुनिया में ऐसी कोई दूसरी नदी होगी जो जल बँटवारे, जंगलों के विनाश, बड़े बाँधों के निर्माण, लाखों लोगों के विस्थापन और पुनर्वास को लेकर दशकों तक नर्मदा की तरह जन आंदोलनों और विवादों से घिरी रही है। इनमें से कई संकट गहराते जा रहे हैं तो कई नए खतरे भी पैदा हो गए हैं।

जंगल और जल


गंगा-यमुना की तरह नर्मदा ग्लेशियर से निकली नदी नहीं है। यह मुख्य रूप से मानसूनी वर्षा और अपनी सहायक नदियों के जल पर निर्भर है साल के सबसे शुष्क चार महीनों में इसमें कुल वार्षिक प्रवाह का 2 प्रतिशत से भी कम जल रह जाता है। वाशिंगटन डीसी स्थित वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2003 में नर्मदा को विश्व के छह संकटग्रस्त नदी बेसिनों में से एक माना था। दिसम्बर, 2013 में इसी संस्थान की ओर से प्रकाशित एक वर्किंग पेपर में नर्मदा बेसिन को विश्व के 100 सबसे बड़े नदी बेसिनों में सर्वाधिक जल तनाव वाले 16 नदी बेसिनों में शुमार किया था। सबसे ज्यादा आबादी वाले 100 नदी बेसिनों में भी नर्मदा सर्वाधिक जल तनाव वाले 22 नदी बेसिनों में शामिल है।

ये तथ्य नर्मदा बेसिन में जल संकट की ओर से इशारा करते हैं। मध्यप्रदेश का करीब 28 फीसदी क्षेत्र नर्मदा कछार में आता है। अगर राज्य में वर्षा के आँकड़ों पर गौर करें तो बारिश पर निर्भर नर्मदा के संकट को समझा जा सकता है। मध्यप्रदेश कृषि विभाग के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2002-03 से 2015-16 के बीच राज्य में सिर्फ एक साल 2013-14 में औसत से अधिक बारिश हुई। जबकि इन 14 में से 12 साल ऐसे थे, जब राज्य में औसत से कम वर्षा हुई। सन 1971 के बाद से नर्मदा बेसिन में सबसे कम बारिश वर्ष 2000 में दर्ज की गई थी।

जल संसाधन मंत्रालय की ‘वाटर ईयर-बुक’ 2014-15 के मुताबिक, नर्मदा बेसिन के जिलों 1901-1950 के दौरान हुई औसत वार्षिक वर्षा की तुलना 2006-10 के बीच औसत वार्षिक वर्षा से करें तो पता चलता है कि नर्मदा के उद्गम वाले जिले शहडोल में औसत वार्षिक वर्षा 1397 मिमी से घटकर 916 मिमी रह गई है। अपर नर्मदा के मंडला जिले में भी औसत वार्षिक वर्षा 1570 मिमी से घटकर 1253 मिमी रह गई है। बेसिन के अधिकांश जिलों में यही स्थिति है। 1901-1950 के दौरान औसत वार्षिक वर्षा के मुकाबले 2006-10 के बीच हुई औसत वार्षिक वर्षा में भारी कमी दिखाई पड़ती है।

हाल के दशकों में नर्मदा घाटी का सामना कभी बाढ़ तो कभी सूखे से होता रहा है। वर्ष 2015 में चेन्नई स्थित ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ और रुड़की के ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी’ का एक शोध बताता है कि सन 1989-2008 के बीच समूचे नर्मदा बेसिन में कई बार सूखा पड़ा है। सन 1951 के बाद से सूखे और भीषण तूफानों की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। नर्मदा घाटी का मध्य भाग जिसमें छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, बैतूल, रायसेन, सिहोर, खंडवा जिले आते हैं, सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त था। इस अध्ययन के मुताबिक, नर्मदा के ऊपरी हिस्से में जहाँ सबसे ज्यादा बारिश होती है, वहाँ भी सूखे की अवधि बढ़ गई है। इस क्षेत्र में शहडोल, मंडला, बालाघाट, जबलपुर, नरसिंहपुर, सागर, दमोह जिले आते हैं। इन इलाकों में अच्छी बारिश और वनों के वजह से ही नर्मदा में सालभर जल का प्रवाह बना रहता है। यहाँ सूखे की मार पड़ने का सीधा नर्मदा में पानी की मात्रा पर पड़ेगा।

दोहरी मार झेलती जलधाराएँ


नर्मदा की छोटी-बड़ी कुल 41 सहायक नदियाँ हैं, जिनमें से 19 नदियाँ ऐसी हैं जिनकी लम्बाई 54 किलोमीटर से अधिक है। ये सहायक नदियाँ ही सतपुड़ा, विन्ध्य और मैकल पर्वतों से बूँद-बूँद पानी लाकर नर्मदा को सदानीरा बनाती हैं। लेकिन इनमें से कई नदियाँ सूखने के कगार पर हैं या फिर शहरों के आस-पास नालों में तब्दील हो रही हैं। ‘जंगल रहे, ताकि नर्मदा बहे’ पुस्तक में भारतीय वन सेवा के अधिकारी पंकज श्रीवास्तव लिखते हैं कि सहायक नदियों द्वारा नर्मदा को मिलने वाली जलराशि में कमी को पिछले 100 वर्षों के आँकड़ों के आधार पर आधिकारिक तौर पर भी स्वीकार किया जाता है।

प्रवाह में कमी का एक मुख्य कारण तो यह बताया जाता है कि नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियों पर बने बाँधों में जल का संचय हो जाने से पहले की तुलना में अब नर्मदा तक कम जल पहुँचता है। परंतु इससे भी बड़ा कारण यह है कि इन नदियों के जलागम क्षेत्रों में सघन वनों के प्रतिशत में आती कमी के फलस्वरूप वनों के माध्यम से होने वाली पानी के भूजल संभरण की क्रिया ठीक से नहीं हो पाती है। नर्मदा पर यह दोहरी-तिहरी मार है। एक तरफ बुढ़नेर, दुधी, मछवासा और कोरनी जैसी सहायक नदियाँ सूखती जा रही हैं, वहीं तवा, बारना, कोलार और सुक्ता जैसी नदियों पर बाँध बन गए हैं।

वनों का वर्षा, जल, मिट्टी और जीवन के साथ गहरा नाता है। अमरकंटक, सतपुड़ा और विन्ध्य की पहाड़ियों में फैले साल, सागौन, बांस और मिश्रित वन बारिश के पानी के साथ-साथ उपजाऊ मिट्टी को भी बह जाने से रोकते हैं। पेड़ों से रिसता हुआ यही पानी धीरे-धीरे साफ-सुथरा नदियों में पहुँचता है। बारिश का पूरा पानी तुरंत नदी-नालों में नहीं पहुँचने से बाढ़ का खतरा भी कम हो जाता है। इस तरह नर्मदा के कछार में वन सदियों से अपनी दोहरी-तिहरी भूमिका निभाते आ रहे हैं। लेकिन हाल के दशकों में वनों की कटाई से इसमें बाधा उत्पन्न हुई है।

जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, नर्मदा बेसिन का 32.88 फीसदी क्षेत्र वनों से ढका है। आँकड़ों में यह स्थिति ठीक-ठाक दिखाई पड़ती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विगत दशकों में नर्मदा बेसिन में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई है। वन स्थिति रिपोर्ट, 1991 के मुताबिक, मध्यप्रदेश के नर्मदा बेसिन के जिलों में वन आवरण कुल 52283 वर्ग किलोमीटर था, जबकि वर्ष 2003 की रिपोर्ट के अनुसार 50253 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसमें अति सघन वन सिर्फ 5.91 फीसदी हैं और 43.46 फीसदी क्षेत्र में विरल वन हैं। इस दौरान लगभग सभी जिलों में प्रति व्यक्ति सघन वन क्षेत्र में कमी दर्ज की गई है। बरसों से नर्मदा के सौंदर्य को कैमरे में कैद कर रहे छायाकार रजनीकांत यादव बताते हैं कि डिंडौली जिले का बैगाचक एक आदिवासी बहुल क्षेत्र था। यहाँ जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने न सिर्फ नर्मदा घाटी का नुकसान पहुँचाया बल्कि बैगा, आदिवासियों को जड़ों से काट दिया।

मध्यप्रदेश में अब तक कुल 1,447 परियोजनाओं में कुल 2.69 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र का गैर वानिकी के लिये इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों की अनदेखी करते हुए मात्र 23493 हेक्टेयर गैर वन भूमि पर वैकल्पिक वृक्षारोपण किया गया है।

 

नर्मदा के आस-पास शहरों में सीवरेज की स्थिति


इन शहरों से निकलने वाला अधिकांश गंदा पानी कच्ची नालियों और नालों के जरिये नदियों में पहुँच रहा है

शहर

शहर का नगर क्षेत्र (वर्ग किमी)

सीवरेज द्वारा कवर किया गया शहर (प्रतिशत)

अनुपचारित सीवेज (प्रतिशत)

निपटान

भोपाल, मध्यप्रदेश

285

28-30

सीपीसीबी के अनुमान के अनुसार 14 प्रतिशत


नगरपालिका अनुमान के मुताबिक 21 प्रतिशत

शहर में ऊपरी और निचली झीलें

इंदौर, मध्यप्रदेश

134

72

सीपीसीबी के अनुमान के मुताबिक 37 प्रतिशत


नगर निगम के आकलन के अनुसार 33 प्रतिशत

खान नदी जो क्षिप्रा नदी में मिलती है - उज्जैन के लिये पानी की आपूर्ति के लिये स्रोत

जबलपुर, मध्यप्रदेश

107

कोई केंद्रीकृत प्रणाली नहीं

100

खुले नालों, नर्मदा और परियाट नदी में

होशंगाबाद, मध्यप्रदेश

24.27

5

100

खुले नालों के माध्यम से नर्मदा - कई मध्यप्रदेश के शहरों और कस्बों के लिये पानी का प्रमुख स्रोत

देवास, मध्यप्रदेश

100

15

100

छोटी काली सिंध और क्षिप्रा नदी में

वडोदरा, गुजरात

114

55

 

विश्वामित्री नदी

नगर निगम और एक्सक्रीटा मैटर्स (सीएसई)

 

हाल के वर्षों में नर्मदा की सहायक नदियों से मिलने वाले पानी में भी कमी देखी जा रही है। इसलिये नर्मदा की अविरलता को बनाए रखने के लिये जरूरी है कि वनों के प्रसार के साथ-साथ अधिक से अधिक वर्षाजल के नर्मदा में पहुँचने के उपाय तलाश करने आवश्यक हैं।

पानी और गाद की मात्रा


नर्मदा बेसिन में पानी की मात्रा और राज्यों के बीच इसके बँटवारे को लेकर काफी विवाद रहा है। सन 1980 से 2000 के बीच नर्मदा में जल प्रवाह और गाद की मात्रा का विश्लेषण करने वाले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की के हरीश गुप्ता बताते हैं कि इस नदी में अधिकांश जल मानसून के दौरान बहता है। नर्मदा पर कई बाँध बनने से निलम्बित तलछट प्रवाह काफी कम हुआ है। इन बाँधों की वजह से 70-90 फीसदी मोटी रेत और करीब 50 फीसदी महीन रेत नदी में नहीं बह पाती। दरअसल विशाल जलाशयों में पानी के ठहराव के कारण यह गाद नीचे बैठ जाती है।

पिछले साल जुलाई में केंद्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री ने राज्य सभा में दिए एक जवाब में कहा था कि देश की किसी भी प्रमुख नदी के प्रवाह में पिछले एक दशक के दौरान कोई कमी नहीं आई है। नर्मदा भी इनमें से एक है। यह अध्ययन किस मौसम (मानसून या गैर-मानसून) में किया गया, इसकी जानकारी नहीं दी गई है। इसलिये इस आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना मुश्किल है। इन आँकड़ों के अनुसार, सरदार सरोवर बाँध के नजदीक नर्मदा की निचली धारा में 2010-11 के बाद जल प्रवाह बढ़ा है। लेकिन 2014-15 में यह घटकर 2004-05 के मुकाबले सिर्फ 37 फीसदी रह गया। यानी केंद्रीय मंत्री की ओर से पेश आँकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो नर्मदा में पानी की कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है।

केंद्रीय जल आयोग द्वारा गरुडेश्वर स्टेशन से जुटाए गए वार्षिक जल अपवाह के आँकड़े बताते हैं कि सन 1972-2015 के बीच सर्वाधिक 7406.1 करोड़ घन मीटर प्रवाह सन 1994-95 में और सबसे कम 449.2 करोड़ घन मीटर प्रवाह 2008-09 में दर्ज किया गया। हालांकि, 2008-09 के बाद वार्षिक अपवाह में 2013-14 तक वृद्धि हुई है लेकिन 2014-15 में यह घटकर 907.2 करोड़ घन मीटर रह गया। इन आँकड़ों से नर्मदा में पानी की कमी के संकेत मिलते हैं।

 

नर्मदा सेवा यात्रा


मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर 11 दिसम्बर, 2016 से 11 मई, 2017 तक चलने वाली करीब 3,500 किलोमीटर की इस यात्रा को जनभागीदारी से चलने वाले विश्व के सबसे बड़े नदी संरक्षण अभियान के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। हालांकि, इस जागरूकता अभियान के तहत नदी और पर्यावरण संरक्षण के जो उपाय अपनाए जा रहे हैं, उस पर कई तरह के सवाल भी उठ रहे हैं। ‘विकास संवाद’ के सचिन जैन कहते हैं कि यह यात्रा नर्मदा के साथ हुई खिलवाड़ से ध्यान हटाने का तरीका है। जब तक नर्मदा पर बाँधों के निर्माण, जल के अंधाधुंध दोहन और रेत के वैध-अवैध खनन का सिलसिला जारी रहेगा, इस तरह की यात्रा का मकसद पूरा होना मुश्किल है।


छह मार्च तक यात्रा कुल 2,085 किमी की दूरी तय कर चुकी है, नर्मदा यात्रा 490 से अधिक गाँवों से गुजर चुकी है। इस दौरान कुल 490 जनसंवाद कार्यक्रमों का आयोजन किया गया, जिसमें नर्मदा को प्रदूषण मुक्त बनाने के उपायों और जन जागरुकता पर जोर दिया जा रहा है। मुख्य यात्रा के अलावा आस-पास के स्थलों से भी उप-यात्राओं का आयोजन किया गया और अब तक कुल 1,002 उपयात्राएँ भी मुख्य यात्रा में सम्मिलित हो चुकी हैं। नर्मदा सेवा की वेबसाइट पर 60 हजार से ज्यादा नर्मदा सेवकों द्वारा अपना पंजीयन कराया जा चुका है।

 

खनन से खोखली नर्मदा


नर्मदा घाटी में बाक्साइट जैसे खनिजों की मौजूदगी भी पर्यावरण से जुड़े कई संकटों की वजह बनी है। नर्मदा के उद्गम वाले क्षेत्रों में 1975 में बाक्साइट का खनन शुरू हुआ था, जिसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हुई। हालांकि, बाद में वहाँ बॉक्साइट के खनन पर काफी हद तक अंकुश लगा। लेकिन तब तक पर्यावरण को काफी क्षति पहुँच चुकी थी।

अब ऐसा ही खतरा डिंडोरी जिले में सामने आया है। गत दिसम्बर माह में डिंडोरी जिले में बाक्साइट के बड़े भंडार का पता चला है। इसकी भनक लगते ही भौमिकी एवं खनकर्म विभाग ने जिले की दो तहसीलों में बाक्साइट की खोज का अभियान शुरू कर दिया है। गौरतलब है कि अपर नर्मदा बेसिन के डिंडोरी और मंडला जिलों में वनस्पति और जानवरों के जीवाश्म बहुतायत में पाये जाते हैं। जबलपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एनडी शर्मा का कहना है कि ये दोनों जिले अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के स्थल हैं। यहाँ जीवाश्म सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण खोज हुई हैं और बहुत सा शोध कार्य अभी होना बाकी है। इसके अलावा ये जिले कान्हा नेशनल पार्क और अचानकमार-अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व को जोड़ते हैं। इसलिये यहाँ खनन सम्बन्धी गतिविधियों को बढ़ावा देना कतई उचित नहीं है।

बाक्साइट खनन जैसे भावी खतरों के अलावा रेत खनन जैसे मौजूदा हमले नर्मदा बेसिन को खोखला बना रहे हैं। नर्मदा किनारे के जिलों की टोह लेते हुए जब हम होशंगाबाद पहुँचे तो शहर से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर दिन में ही नदी से रेत निकालते ट्रैक्टर-ट्रॉली दिखाई पड़ गए। नर्मदा बचाओ अभियान से जुड़े राहुल यादव बताते हैं कि पर्यावरण से जुड़े नियम-कायदों को ताक पर रखते हुए नर्मदा में रेत खनन जारी है। जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा, सीहोर आदि जिलो में नावों के जरिए रेत निकाली जा रही है। रेत खनन का यह खेल नर्मदा के साथ-साथ बेसिन के तकरीबन सभी जिलों में बेरोकटोक जारी है।

नर्मदा को रेत माफियाओं के चंगुल से बचाने के लिये हाइकोर्ट और एनजीटी में कई याचिकाएँ दायर की जा चुकी हैं। नर्मदा समर्थ सत्याग्रह, नर्मदा बचाओ आंदोलन, नर्मदा मिशन, नर्मदा संरक्षण पहल, क्लीन नर्मदा, नर्मदा समग्र तथा अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अवैध खनन के मुद्दे पर हाईकोर्ट और एनजीटी का दरवाजा खटखटाया है। मिली जानकारी के अनुसार, नर्मदा बेसिन में अवैध खनन व प्रदूषण से सम्बन्धित दर्जनों जनहित याचिकाएँ विभिन्न न्यायालयों में लम्बित हैं।

अवैध रेत खनन के मामले में महाराष्ट्र के बाद मध्यप्रदेश देश में दूसरे नम्बर पर है। अवैध खनन सम्बन्धी केंद्रीय खनन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2015-16 के दौरान मध्यप्रदेश में अवैध रेत खनन के 13541 मामले सामने आए थे, जिनमें से 13420 मामलों में मुकदमें दर्ज किये गए हैं। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि सिर्फ दो साल के भीतर मध्यप्रदेश में अवैध खनन के मामले दो गुना से भी अधिक बढ़ गए हैं।

थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट


नर्मदा की राह में अड़चनों की कमी नहीं है। यह संकट खत्म नहीं होता कि दूसरी मुश्किल सामने आ जाती है। बाँधों के जाल में बुरी तरह फँस चुकी नर्मदा की गोद में थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट भी पैर पसार रहे हैं। नर्मदा के आस-पास के इलाकों में एक-दो नहीं बल्कि 18 थर्मल पावर प्लांट लगाने की तैयारी है। इनमें से पाँच तो सिर्फ जबलपुर से होशंगाबाद के बीच बनने हैं। ये प्लांट न सिर्फ भारी मात्रा में पानी का दोहन करेंगे बल्कि नर्मदा को दूषित भी कर देंगे।

बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के संयोजक राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि नर्मदा नदी के आस-पास पाँच थर्मल पावर प्लांट चल रहे हैं, जबकी बरगी बाँध से मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर परमाणु संयंत्र लगाने की तैयारी है। हालांकि, इसके लिये अभी पर्यावरण मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन भूमि अधिग्रहण का काम चल रहा है। सिन्हा का दावा है कि करीब 40 फीसदी लोगों ने मुआवजा लेने से इंकार कर दिया है। सिन्हा 1400 मेगावाट बिजली के लिये 25,000 करोड़ की चुटका परमाणु परियोजना के औचित्य पर भी सवाल उठाते हैं।

सत्तर के दशक में बने बरगी बाँध के लिये 162 गाँवों को विस्थापित किया गया था। इन गाँवों के कई परिवार आज तक पुनर्वास के लिये भटक रहे हैं। इन विस्थापितों पर अब दोबारा विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। दो हजार हेक्टेयर में बनने वाले चुटका परमाणु पावर प्लांट की जद में 36 गाँव आएँगे। सबसे पहले चुटका, कुंडा, भालीबाड़ा, पाठा और टाडीघाट गाँव को हटाने की तैयारी है। परमाणु बिजलीघरों में बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत और परमाणु कचरे के जोखिमों को देखते हुए चुटका परियोजना के खिलाफ लम्बे समय से विरोध किया जा रहा है।

मेधा पाटकर का कहना है कि मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा नदी की परिक्रमा कर रही है। नर्मदा को बचाने का अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन नर्मदा किनारे रह रहे आदिवासियों को न तो आज तक जमीन का पट्टा मिला है और न अधिकार दिया गया है। सरकार नर्मदा का व्यावसायिक रूप से दोहन करने के लिये यह यात्रा निकाल रही है।

बाँधों में बँधी नर्मदा


नर्मदा को रेवा भी कहते हैं। यानी उछल-कूदकर आगे बढ़ने वाली नदी। लेकिन आजादी के बाद से ही नर्मदा घाटी में उपलब्ध जल दोहन के प्रयास तेज हो गए थे। नतीजतन नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर बाँध बनाकर सिंचाई व जलविद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। सन 1979 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण ने नर्मदा में उपयोग योग्य जल की मात्रा 34.54 अरब घन मीटर मानते हुए मध्यप्रदेश को 65.16 फीसदी, गुजरात को 32.14 फीसदी, राजस्थान को 1.78 फीसदी और महाराष्ट्र को 0.89 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक दिया था। तभी से राज्यों में नर्मदा जल के दोहन की होड़ मची है।

आज नर्मदा किन बाधाओं से गुजर रही है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नर्मदा की मुख्य धारा पर 5 बड़े बाँधों का निर्माण हो चुका है और 5 बड़े बाँध प्रस्तावित हैं। इसी तरह नर्मदा की सहायक नदियों पर 20 बड़े बाँध बनने हैं, जिनमें से 8 बाँध बन चुके हैं। नर्मदा मास्टर प्लान के अनुसार, नर्मदा बेसिन में 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बाँधों का निर्माण होना है। जिनसे इनसे 46.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई और 3 हजार मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन का लक्ष्य है।

फिलहाल नर्मदा घाटी में 21 बड़ी और 23 मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिये छोटे-बड़े कुल 277 बाँधों का निर्माण हो चुका है। इनमें सबसे लम्बा बरगी बाँध पाँच किलोमीटर से भी अधिक लम्बा है। सिंचाई के अलावा उद्योगों और शहरों की प्यास बुझाने के लिये भी बड़े पैमाने पर नर्मदा जल का उपयोग किया जा रहा है। सत्तर के दशक से नर्मदा घाटी में विकास का जो खाका खींचा गया, उसके तहत बरगी (जबलपुर), इंदिरा सागर (पूर्वी निमाड़), ओंकारेश्वर (खंडवा), महेश्वर (जबलपुर), तवा (होशंगाबाद) और सरदार सरोवर (नर्मदा-गुजरात) जैसे विशाल बाँधों का निर्माण हो चुका है।

इन बाँधों के जरिए समूचे नर्मदा कछार में नहरों का जाल बिछ चुका है। नर्मदा बेसिन का करीब 30 फीसदी क्षेत्र विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं की कुल 6,638 किलोमीटर लम्बी नहरों के दायरे में आता है। बाँधों और नहरों के इस जाल ने नर्मदा घाटी का स्वरूप बदल डाला है। कुल 1312 किलोमीटर की लम्बाई में से करीब 446 किलोमीटर यानी करीब एक तिहाई हिस्से में नर्मदा का प्रवाह बड़े-बड़े जलाशयों की वजह से थमा हुआ है। नर्मदा बेसिन में उपयोग योग्य कुल 34.5 अरब घन मीटर सतही जल होने का अनुमान है, जिसमें से कुल 24.92 अरब घन मीटर जल संग्रह क्षमता यानी जलाशयों के निर्माण की योजना है। इनमें से 17.62 अरब घन मीटर क्षमता के जलाशयों का निर्माण हो चुका है। बाकी निर्माणाधीन अथवा प्रस्तावित हैं।

तीन दशक पहले खींचे गए विकास के इस खाके के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नफे-नुकसान का आकलन करना जरूरी है। भोपाल में ‘विकास संवाद’ के सचिन कुमार जैन कहते हैं कि भले की देश की बाकी नदियों के मुकाबले नर्मदा साफ-सुथरी दिखाई देती हैं लेकिन जिस तरह इस पर अंधाधुंध बाँधों का निर्माण और अवैध खनन जारी है, वह इस नदी बेसिन के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र के लिये खतरा है। बाँधों के निर्माण में हरसूद जैसे शहर के शहर डूब गए, लाखों लोगों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा, आदिवासी समाज-संस्कृतियाँ अपना परिवेश गवाँ बैठीं, लेकिन फिर भी विकास के इस मॉडल का त्याग नहीं किया गया।

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