बाढ़प्रवण नदी जलग्रहण परियोजनाएँ

अपरगंगा की प्रगति


बाढ़व्यापक उद्देश्यों को मद्देनजर रख केन्द्र सरकार द्वारा छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान शुरू की गई बाढ़ोन्मुखी नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों के विकास सम्बन्धी योजना देश के कई हिस्सों में अपना सकारात्मक असर दिखाने लगी है। इस परियोजना के तहत किए जा रहे भू-संरक्षण कार्यों तथा वनीकरण प्रयासों ने रंग लाना भी शुरू कर दिया है। हालाँकि ये परियोजनाएँ जटिल भौगोलिक स्थिति वाले इलाकों में चल रही हैं। और इनकी राह में तमाम बाधाएँ भी हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के अधिक ऊँचाई वाले पहाड़ी इलाकों में परियोजना का असर साफ तौर पर दिखने लगा है। उन इलाकों में जहाँ बड़े पैमाने पर वन-कटाई के बाद पेड़ों का नामोनिशान भी नहीं दिखता था, इस परियोजना की बदौलत फिर से हरीतिमा और वनस्पतियाँ नजर आने लगी हैं तथा अन्य कई क्षेत्रों में भी सफल और उल्लेखनीय कार्य दिखने लगे हैं।

ऐसी परियोजनाएँ देश के आठ राज्यों में चलाई जा रही हैं। परियोजना का उद्देश्य बाढ़प्रवण नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में समेकित जलधारा प्रबंध के माध्यम से पानी को उसकी उपलब्धता वाली जगह पर ही संरक्षित कर बाढ़, भू-क्षरण और भूस्खलन आदि को नियन्त्रण में लाना है। इसके लिए कंटूर-श्रेणीकृत बाँधों, निकास नालियों के उपचार, बागवानी तथा चारागाह विकास और वनीकरण समेत अन्य उपायों से भूमि और जल-संरक्षण सम्बन्धी काम किए जाते हैं। यह केन्द्र प्रायोजित परियोजना है और इसका एक बड़ा लक्ष्य पर्यावरण और पारिस्थितिकीय सुधार है। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी अंचलों को इस योजना की परिधि में लाने की वजह गंगा तथा यमुना नदियाँ हैं।

ये दोनों नदियाँ हिमालय पर्वत-शृंखला से निकलती हैं और जीवनदायिनी होने की वजह से करोड़ों भारतीयों द्वारा पूजी भी जाती हैं। लेकिन इसका एक खतरनाक पहलू यह है कि गंगा तथा उसकी सहायक नदियाँ अपने साथी भारी मात्रा में मिट्टी-पत्थर बहा ले जाती हैं तथा ये नदियों की तलहटी में गाद के रूप में जमा होकर पहाड़ी-मैदानी दोनों इलाकों में तबाही का पैगाम लाती हैं। पहाड़ों पर यूँ भी हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर हुई जंगलों की कटाई और गलत कृषि प्रक्रिया से भूस्खलन जैसी भयानक घटनाएँ हो रही हैं और मैदानी इलाके कमोबेश हर साल बाढ़ में डूबते-उतराते हैं। नदियों की तलहटी में मिट्टी पत्थर जमने से बाढ़ की समस्या तो हो ही रही है, जल विद्युत बाँधों की तलहटी भी गाद जमा होने से बुरी तरह प्रभावित हो रही है और उसकी क्षमता पर असर पड़ रहा है।

जहाँ तक पहाड़ का सवाल है उन हिस्सों में जहाँ से होकर नदी गुजरती है वहाँ केवल चट्टानी क्षेत्र बना रह जाता है और उसमें वनस्पतियाँ उगाना सम्भव नहीं होता। ऐसे में चट्टानों का खिसकना शुरू हो जाता है। इन गम्भीर स्थितियों को देखते हुए केन्द्र सरकार की ओर से समस्या निदान के लिए 1982 से हिमालय के अपरगंगा क्षेत्र में प्रयास शुरू हुए। अपरगंगा कैचमेंट ऋषिकेश से ऊपर तीन खंडों में विभक्त है और उसका दायरा 21.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। कई जगहों पर यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील बन गया है। समस्या की जटिलता और विकरालता को मद्देनजर रख पहले कृषि मन्त्रालय ने अपनी विशेषज्ञ एजेंसी अखिल भारतीय भूमि उपयोग सर्वेक्षण संगठन की मदद से व्यापक सर्वेक्षण कराया और वर्गीकरण के बाद पाया कि ऋषीकेश से देवप्रयाग और उसके ऊपर भागीरथी और अलकनंदा कैचमेंट में 401 उप-जलागम संवेदनशील हैं। इनमें से सबसे ऊपरी क्षेत्र के अलकनंदा कैचमेंट के 381 उप-जलागमों को बेहद संवेदनशील मानते हुए उनके तत्काल उपचार की जरूरत महसूस की गयी। समस्या की गम्भीरता तथा भौगोलिक जटिलता को देखते हुए जहाँ काम में गति का सवाल है, संसाधनों की तंगी से बड़े पैमाने पर काम सम्भव नहीं हो सका है।

1982 से अब तक 45 उप-जलागमों में आने वाले 1,24,025 हेक्टेयर क्षेत्र में काम शुरू हो पाया है जो 21.5 लाख हेक्टेयर के समस्याग्रस्त इलाके को देखते हुए बहुत संतोषजनक नहीं है। अपरगंगा क्षेत्र में अब तक इस परियोजना पर कुल 10 करोड़ रुपये की धनराशि खर्च की गई है तथा मौजूदा कीमत के अनुसार सभी 401 उप-जलागमों के उपचार के लिए 500 करोड़ रुपये धनराशि की जरूरत है। 1996 में अपरगंगा के लिए 1.8 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है लेकिन इस क्षेत्र में 8.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए उपचार के प्रयास किए जा रहे हैं। इन्हीं प्रयासों के तहत भारत सरकार के निर्देशों से परियोजना क्रियान्वयन सम्बन्धी सारा कार्य 1995 से उत्तर प्रदेश वन विभाग को सौंपा गया है। केन्द्र कृषि मन्त्रालय की मदद से उत्तर प्रदेश में ‘नदी घाटी परियोजनाओं के जलग्रहण क्षेत्रों में मृदा संरक्षण’ तथा ‘बाढ़प्रवण नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में समेकित जलधारा प्रबंध’ नामक दो परियोजनाओं के लिए शत-प्रतिशत वित्तीय सहायता दे रहा है। इनमें 50 प्रतिशत धनराशि ऋण के रूप में है। 1992-93 से 1994-95 के बीच में दोनों परियोजनाओं के लिए 4006.92 लाख रुपये का आवंटन किया गया जिसमें से 2852.67 लख रुपये बाढ़प्रवण परियोजना के लिए थे। इसी अवधि में उत्तर प्रदेश में दोनों परियोजनाओं पर 3919.67 लाख रुपये की धनराशि उपयोग में लाई गई तथा 123.93 हजार हेक्टेयर क्षेत्र उपचारित किया गया। इनमें भी सर्वाधिक 107.51 हजार हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़प्रवण था। समस्या की गम्भीरता को देखते हुए उत्तर प्रदेश में अधिकतम संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं।

इन उपचार प्रयासों का सकारात्मक असर दिखने लगा है। अपरगंगा, अपरयमुना साहिबी समेत अन्य कई नदियों के क्षेत्रों में उपचार के बाद बाढ़ प्रकोपों को एक हद तक नियंत्रित किया जा सका है। बाढ़प्रवण नदियों में इन तीनों क्षेत्रों के अलावा गोमती, पुनपुन, रूपानारायण, सोन, घग्घर तथा कोसी में काम चल रहा है। साहिबी नदी में अच्छे उपचार के बाद और 1978 में आई प्रलयकारी बाढ़ जैसा प्रकोप नहीं होता है। इसी विभाग के अतिरिक्त आयुक्त का कहना है कि नदी घाटी परियोजनाएँ 1961 में शुरू हुई और आज 19 राज्यों में 39 जलग्रहण क्षेत्रों में चल रही हैं जबकि 1981 से शुरू बाढ़-प्रवण नदियों के उपचार की योजनाएँ 10 जलग्रहण क्षेत्रों में चल रही है। इनसे जुड़ा कुछ क्षेत्र 176.29 लाख हेक्टेयर है। इनमें से 47.20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बहुल समस्या-ग्रस्त है जिसे 2846 उप-जलागमों में विभाजित किया गया है। इन इलाकों में 6.99 लाख हेक्टेयर क्षेत्र उपचारित किया गया।

आठवीं योजना में इस समस्या पर और अधिक ध्यान देने की वजह से जितने क्षेत्रों का उपचार पहले एक दशक में नहीं हो सका था उसका आधा पिछले तीन सालों में सम्भव हो सका है। 1992 से अब तक 2.24 लाख हेक्टेयर क्षेत्र उपचारित किया गया, जो बहुत बड़ी उपलब्धि है। आठवीं योजनावधि में इस काम के लिए 120 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। पूर्व में 1992 तक इस परियोजना पर 128.88 करोड़ रुपये व्यय हो चुके हैं। ये ब्यौरे दर्शाते हैं कि इस दिशा में इधर प्रयासों में और तेजी आई है। लेकिन समस्या की जटिलता को देखते हुए अधिक संसाधनों के साथ स्वैच्छिक संगठनों और आम लोगों की अधिक भागीदारी की जरूरत महसूस की जा रही है। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं। टिहरी जल विद्युत परियोजना के तहत भागीरथी घाटी के 2 प्रभागों में और यूरोपीय आर्थिक समुदाय की मदद से दून घाटी में काम चल रहा है।

परियोजनाओं का प्रभाव


इन उपचार प्रयासों का सकारात्मक असर दिखने लगा है। अपरगंगा, अपरयमुना साहिबी समेत अन्य कई नदियों के क्षेत्रों में उपचार के बाद बाढ़ प्रकोपों को एक हद तक नियंत्रित किया जा सका है। बाढ़प्रवण नदियों में इन तीनों क्षेत्रों के अलावा गोमती, पुनपुन, रूपानारायण, सोन, घग्घर तथा कोसी में काम चल रहा है। साहिबी नदी में अच्छे उपचार के बाद और 1978 में आई प्रलयकारी बाढ़ जैसा प्रकोप नहीं होता है। इसी विभाग के अतिरिक्त आयुक्त का कहना है कि नदी घाटी परियोजनाएँ 1961 में शुरू हुई और आज 19 राज्यों में 39 जलग्रहण क्षेत्रों में चल रही हैं जबकि 1981 से शुरू बाढ़-प्रवण नदियों के उपचार की योजनाएँ 10 जलग्रहण क्षेत्रों में चल रही है।

पवित्र हिन्दू तीर्थ बद्रीनाथ धाम के आस-पास तमाम ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थल मौजूद हैं लेकिन यहाँ आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए बद्रीनाथ से दूर-दूर तक पेड़-पौधों का नामोनिशान न होना बहुत अखरने वाली बात है। ऐसा नहीं है कि यहाँ पेड़ नहीं थे लेकिन वे धीरे-धीरे स्थानीय निवासियों और तीर्थयात्रियों के भोजन पकाने तथा ठंड से बचने में उपयोग में आ गए। यहाँ यूँ भी बहुत ज्यादा सर्दी पड़ती है। पहले बिजली या वैकल्पिक स्रोतों के अभाव में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और उपयोग किया गया। ये पेड़ आखिर कितने दिन चलते? सीमांत चमोली जिले में समुद्र तल से 3110 मीटर की ऊँचाई पर और नर-नारायण पर्वत के मध्य तथा अलकनंदा के दोनों किनारों पर बसे ऐतिहासिक तीर्थ बद्रीनाथ में पेड़-पौधों की कमी से यह क्षेत्र सूना-सूना लगता है हालाँकि बद्रीनाथ धाम के चारों और स्थित पहाड़ों के शिखर पर अभी भी भोजपत्र के पेड़ नजर आ जाते हैं। बद्रीनाथ में तीर्थ के अलावा तिब्बत के साथ पुराने व्यापारिक सम्बन्धों और अन्य कारणों से जैविक दबाव बहुत अधिक रहा है। ऐसी हालत में प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़-पौधे भी नाममात्र के रहे हैं। दूसरी बड़ी समस्या यह रही कि यह क्षेत्र नवंबर से अप्रैल माह तक बर्फ से ढका रहता है और यहाँ आवागमन बंद रहता है। ऐसी जटिल भौगोलिक स्थिति में पौधों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता। पहले यहाँ वृक्षारोपण के जो प्रयास किए गए उनमें इन्हीं कारणों से सफलता नहीं मिल सकी लेकिन हाल में कुछ ऐसी कोशिशें हुई हैं जिन्हें भगीरथ प्रयास की संज्ञा दी जा सकती है।

परियोजना के तहत उत्तर प्रदेश वन विभाग ने यहाँ 1992-93 में पाँच सालों के लिए बद्रीनाथ धाम तथा सीमांत गाँव माणा में वृक्षारोपण की चुनौती हाथ में ली और भारतीय वन अनुसंधान संस्थान तथा गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान की मदद से जो शुरुआत की, उसमें उल्लेखनीय प्रगति हुई है। स्थानीय लोगों का सहयोग भी परियोजना को बहुत अधिक मिला है। बामड़ी वन पंचायत (शेष नेत्र बद्रीवन) में वन विभाग ने 2.5 हेक्टेयर क्षेत्र में 1993 में सबसे पहले वृक्षारोपण की शुरुआत की। काम हाथ में लेने के पूर्व इस क्षेत्र में सूखी घास और झाड़ियों को छोड़कर कुछ भी नहीं था। अत्यधिक सर्दी और विषम जलवायु के कारण यहाँ यूँ भी अपने-आप कुछ भी उग पाना सम्भव नहीं है। केवल कुछ छोटे-छोटे पौधे हर साल उगते हैं जो जाड़े में स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इन स्थितियों को मद्देनजर रख यहाँ के लिए विशिष्ट प्रजातियों के पौधों का चयन करते हुए भोजपत्र, मोरु, खरसू, कांचुला, देवदार, पांगर, अरबरोट के साथ कनेर की प्रजातियों को लगाया गया। इस स्थल का मुआयना करने के बाद कार्य की प्रगति संतोषजनक ही नहीं उत्साहनजक मानी जा सकती है। 1993 में यहाँ भोजपत्र के भी 4000 पौधे लगाए गए।

इन पौधों के समुचित विकास के लिए वैज्ञानिक संस्तुतियों के तहत काम किया गया और गोबर की खाद उपयोग में लाई गई। यहाँ भौतिक उपलब्धि के रूप में पौधों की जीवन दर 85 प्रतिशत से अधिक है। यह अलबत्ता देखने में आया कि अन्य इलाकों की तुलना में यहाँ पौधों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है तथा इन पौधों को पेड़ बनने में बहुत लम्बा समय लगेगा। लेकिन इस पायलट परियोजना की सफलता बद्रीनाथ क्षेत्र में कौतूहल का विषय बन गई है। परियोजना में जन भागीदारी का पहलू भी आशाजनक है। यहाँ उल्लेखनीय है कि स्थानीय स्कूली बच्चों, साधुओं, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों और गैर-सरकारी संगठनों ने भी वृक्षारोपण अभियान में अपने को शामिल किया। सुरक्षा के लिए परियोजना स्थल के चारों ओर बाड़ लगाई गई है तथा कोई पौधों को क्षति न पहुँचाए इसलिए उसकी नियमित चौकीदारी भी की जाती है। सरकार ने यहाँ अविलम्ब पुनरुद्धार की जरूरत महसूस करते हुए जो शुरुआत की, वह बहुत आशाजनक है।

इसी क्षेत्र में बद्रीनाथ-मांणा मार्ग पर शेषनेत्र तालाब के किनारे भी वृक्षा रोपण का कार्य हाथ में लिया गया। यहाँ सैलिक्स, पोपलर, खरसू, देवदार तथा वर्ड चेरी के पौधे रोपे गए हैं। दरअसल भूमि-संरक्षण सम्बन्धी कार्यों में पौधारोपण बेहद महत्त्वपूर्ण है। परियोजना क्षेत्र में मवेशियों का अधिक दबाव प्रगति की राह में बड़ा रोड़ा है। यहाँ एक ओर तो चरागाहों की उपलब्धता कम है, दूसरी ओर जनसहयोग की स्थिति में भी सुधार अपेक्षित है। वृक्षारोपित क्षेत्रों में शुरुआत में इन कारणों से काफी नुकसान पहुँचता है। कुछ जगहों पर तो घास भी नहीं उग पा रही है और भू-क्षरण तेजी से हो रहा है। गाँवों में भोजन बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत है जिसकी वजह से भी निकटवर्ती जंगलों पर दबाव ज्यादा पड़ रहा है। ये समस्याएँ ऐसी हैं जो सरकार या सरकारी एजेंसियों के बलबूते पर हल नहीं हो सकती हैं। इसीलिए वन विभाग परियोजना में स्थानीय लोगों को शामिल करने के प्रयास में लगा है। चाहे परियोजना क्षेत्र का चयन हो या प्रस्तावित कार्य, ये दोनों स्थानीय गाँव सभा के प्रस्ताव से शुरू होते हैं। इतना ही नहीं, ग्रामीणों द्वारा सुझाई गई प्रजातियों के पौधे ही रोपित किए जाते हैं। तमाम काम उन्हीं के माध्यम से किए जाते हैं।

बद्री वन क्षेत्र में जिस तरह से वृक्षारोपण कार्य जटिलता-भरा रहा है वैसी स्थिति अन्यत्र कम दिखती है। चमोली जिले के ही मैठाणा कला गाँव (ऊँचाई 908 मी.) में अलकनंदा वन प्रभाग ने 1993-94 में 9 हेक्टेयर के उस क्षेत्र में काम शुरू किया जहाँ घास और झाड़ियाँ नाममात्र को थी। क्षेत्र की दीवालबंदी और पौधरोपण के बाद से यहाँ अच्छी-खासी हरीतिमा दिखने लगी है और रोपे गए 9000 पौधों में से 90 प्रतिशत से भी अधिक जीवित हैं। यहाँ सिल्चर ओक, खैर, आंवला, कचनार, चीड़, जामुन तथा सुरई आदि पौधों का रोपण किया गया है और पौधों की ढँग से देख-रेख और चौकीदारी की जा रही है। यही आलम इसी प्रभाग के तहत आने वाले अगथल्ला गैरदागिनी (1259 मीटर) का है जहाँ 1990-91 में 24,000 पौधे लगाए गए जिनमें से 22,500 से ज्यादा जीवित हैं।

प्रति हेक्टेयर पौध रोपण लागत यहाँ 4000 से 4500 रुपये तक आई तथा परियोजना क्षेत्र के चारो ओर कंटीले तार और राम बाँस के सहारे घेराबंदी भी की गई ताकि जानवर पौधों को क्षति न पहुँचा सकें। यह क्षेत्र पहले पूरी तरह उजाड़ था लेकिन अब यहाँ सुधार स्पष्ट दिखाई देता है। पीपलकोटि में वन विभाग ने एक पौधशाला स्थापित की है जिसमें चारा, जलावनी लकड़ी, प्रकाष्ठ, शोमदार तथा फलदार प्रजातियों के पौधों को तैयार किया जा रहा है। इसी प्रभाग के तहत नौरख थैलधार में 5 हेक्टेयर भूमि पर 1994-95 में 5000 पौधे रोपे गये थे जिनमें से 95 प्रतिशत जीवित हैं। भूमि-संरक्षण के लिए यहाँ शैल फिस्कयूं घास का रोपण भी किया गया। लंगसी पिपलपारा में 1992-93 में 8 हेक्टेयर क्षेत्र में 15,600 पौधे रोपे गए जिनमें से 88 प्रतिशत जीवित हैं। इसी वर्ष में हेलंक पाताललोक में 7.70 हेक्टेयर में 7700 पौधे रोपे गए जिनमें से 92 प्रतिशत जीवित हैं। बद्रीनाथ से नीचे के पहाड़ी इलाकों में पौधों की जीवन-दर बहुत अधिक है लेकिन इन इलाकों में पौधों की देखरेख की बहुत ज्यादा जरूरत पड़ रही है।

नंदप्रयागः पत्थरों में उगते पेड़


जोशीमठ से गोपेश्वर और कांचुला सड़क तथा नंदप्रयाग क्षेत्र में चिपको आन्दोलन के अग्रणी नेताओं ने जन-जागरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के साथ वनीकरण का उम्दा मॉडल भी पेश किया जो जन-सहयोग से अच्छी मिसाल है। बद्री वन प्रभाग के तहत नंप्रयाग-गोयर मार्ग पर ‘संगम पाई’ में एकदम बालू वाली 1.50 हेक्टेयर भूमि में 1993 में किया गया वृक्षारोपण काफी प्रभावी रहा। यहाँ शुरू में 821 पौधे लगाए गये जिनमें अधिकतर जीवित हैं। नंदप्रयाग में यह जगह धीरे-धीरे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो रही है। कर्ण प्रयाग में ही थिरिपाक सिविल क्षेत्र में 1993-8.55 हेक्टेयर क्षेत्र में 85,550 पौधे रोपे गए थे जिनमें से 90 प्रतिशत जीवित हैं।

लेकिन इन परियोजनाओं से कुछ शिकायतें ये हैं कि लोग सहयोग नहीं कर रहे हैं। 1984-85 में 33 वाटरशैड में शुरू किए गए काम से जलबंदी में सफलता मिली और सिंचाई क्षेत्र बढ़ा लेकिन परेशानी यह देखने में आई कि लोग कृषि वानिकी के तहत लगे पौधों की समुचित देखभाल नहीं करते। दूसरी परेशानी यह है कि लोग रोजमर्रा की जरूरतों के लिए अरसे से वनों पर निर्भर रहे हैं और वह दबाव आज भी है। जलवायु की वजह से यहाँ ईंधन, चारा और लकड़ी का प्रति व्यक्ति उपयोग बहुत अधिक है। वृक्षारोपण अभियान में मवेशियों का दबाव बढ़ा है और अवैज्ञानिक भू-उपयोग नीति ने भी समस्या बढ़ाई है। इन सबके बावजूद जो परिणाम सामने आ रहे हैं, वे सकारात्मक हैं।

गढ़वाल मंडल में कुल 23,175.39 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में वन हैं जिनमें से 17,341.62 वर्ग कि.मी. वन विभाग तथा शेष सिविल और पंचायती नियन्त्रण में हैं। पंचायती वनों का वैज्ञानिक विकास नहीं हो पा रहा है। इसके बावजूद गढ़वाल मंडल में अभी वनों का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 77 प्रतिशत है जो उ.प्र. के औसत 17.5 प्रतिशत की तुलना में बहुत अधिक है। यहाँ कई मूल्यवान काष्ठ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जड़ी-बूटियाँ भी यहाँ प्रचुर मात्रा में हैं लेकिन गढ़वाल मंडल में पिछले एक दशक में आबादी 16.65 प्रतिशत बढ़ी है। यही नहीं, पहाड़ों पर 38.743 लाख पशुओं की संख्या ने भी वनों पर दबाव बढ़ाया है। गढ़वाल क्षेत्र में पिछले तीन सालों से औसतन 20 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सालाना वृक्षारोपण हो रहा है। वन विभाग के समक्ष संसाधन और जटिल भूगोल का संकट भी है। वन विभाग ने अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी के लिए इधर विशेष प्रयास किए हैं। इनसे अवैध रूप से हो रही जंगलों की कटाई भी नियंत्रित होगी।

इन परियोजनाओं के असर स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। रामगंगा परियोजना 1962 में शुरू हुई थी। तब यहाँ की महिलाओं (रानीखेत) को बहुत दूर से लकड़ी-चारा लाना पड़ता था जो अब आसान हो गया है। यही नहीं, बदरंग तथा विवादों से घिरी इस घाटी में भू-संरक्षण और वनीकरण कार्यों ने हरीतिमा बिखेर दी है। लेकिन समस्या की जटिलता को देखते हुए इन प्रयासों को सतत गतिशील बनाने और व्यापक संसाधन जुटाने की आवश्यकता है। यह गति बनी रही तो न केवल बाढ़-नियन्त्रण, भू-क्षरण और भूस्खलन से होने वाली बहुत-सी हानियों को रोकने में ठोस सफलता मिलेगी बल्कि उनका स्थाई निदान भी हो सकेगा।

(लेखक ‘अमर उजाला’ में वरिष्ठ संवाददाता हैं।)

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