बांस में आजीविका

बांस के क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक संगठन इवौन्जिकल सोशल एक्शन फोरम (ईएसएएफ) ने हस्तशिल्प को बहुत बढ़ावा दे रहे हैं। सुभाष हंसदा का यह सौभाग्य था कि उसकी छिपी हस्तशिल्प की प्रतिभा को ईएसएएफ ने पहचाना और उसे प्रशिक्षण के लिए केरल के त्रिशूर भेज दिया। वहाँ उसे बांस से कलात्मक वस्तुओं के निर्माण का प्रशिक्षण दिया गया। उसने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया और उसे हस्तशिल्प की उत्कृष्टता के लिए झारखण्ड के मुख्यमन्त्री अर्जुन मुण्डा पुरस्कार से सम्मानित किया।बरसों से झारखण्ड के जनजातीय लोग एक खास मौसम में आजीविका की तलाश में अपना घर-द्वार छोड़कर पंजाब, असम और बंगाल के विभिन्न शहरों/गाँवों की ओर जाते रहे हैं। साल में तीन महीनों के लिए वे इन्हीं स्थानों को अपना घर बना लेते हैं, परन्तु बाकी समय में वे अपने खेतों को जोतने के लिए अपने गाँवों में ही रहते हैं। सूखे के कारण पिछले दो साल बहुत बुरे गुजरे हैं। जमीन से कोई ज्यादा उम्मीदें नहीं रहीं। इससे पलायन की मात्रा और आवृत्ति कुछ ज्यादा ही रही। लोग तेजी से अपना गाँव छोड़कर दूर देश की यात्रा को विवश हुए।

परन्तु, झारखण्ड के वनों में अब ऐसा कुछ हो रहा है जो इन जनजातीय भाइयों के लिए सुखद साबित हो रहा है। जैसा कि कृषि जनित अर्थव्यवस्था में आमतौर पर होता है इन लोगों को अब अपने गाँवों अथवा आसपास ही रोजगार का अवसर सुलभ होने लगा है। यह अवसर मिला है घर की खेती—बांस से। हरे-हरे, लम्बे-पतले बांस यहाँ के जंगलों में बहुतायत से पाए जाते हैं। कलात्मक पत्तियों वाले ये वृक्ष उस प्राकृतिक पर्यावरण का अभिन्न अंग है, जिसमें एक आम आदिवासी पला-बढ़ा होता है। परन्तु अब वे इन वृक्षों की ओर नये सिरे से निहार रहे हैं और रुचि ले रहे हैं। बांस ने कुटीर उद्योग का एक नया द्वार खोल दिया है जिससे कोई भी आदिवासी आसानी से जुड़ सकता है और नकद कमाई कर सकता है।

बांस में आजीविका
खेती-बाड़ी से जो आय होती है वह उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। बांस के इस नये कुटीर उद्योग से उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ अतिरिक्त आय प्राप्त हो जाती है। हर साल गाँव छोड़कर परदेस जाकर जो थोड़ी-बहुत रकम बचा कर लाते हैं, वह भी गाँव वालों की जरूरतों के लिए नाकाफी होती है। बांस के सहारे वे अपनी नैया खेने में काफी हद तक सफल रहते हैं।

दुमका जिले के शिकारीपाड़ा विकासखण्ड के लावाडीह गाँव की बसन्ती टुड्डू कई बरसों से पत्थर तोड़ने का काम कर रही थी। बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़कर पहले छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलना, फिर उसे और भी बारीक करना ही उसका काम था। कभी-कभी किसी ऐसी खदान में काम करना होता था, जिसके पत्थरों को बहुत ही बारीकी से तोड़ना होता था। उसका पति सुभाष हंसदा भी यही काम करता था। यह काम करते हुए समय के साथ-साथ पत्थर तुड़ाई के दौरान जो धूल उड़ती, सांसों के जरिये उनके फेफड़ों में समा गई और बसन्ती को तपेदिक हो गया, जिसके कारण उसे काम करना बन्द करना पड़ा। इससे आमदनी में तो कमी आनी शुरू हुई सो हुई गिरते स्वास्थ्य के कारण परिवार का भविष्य भी दुखदायी हो गया। ऐसी स्थिति में बांस के कार्य को अपनाना उनके लिए एक वरदान साबित हुआ। इस क्षेत्र में सक्रिय कुछ सामाजिक संगठनों जैसे— इवौन्जिकल सोशल एक्शन फोरम (ईएसएएफ) आदि हस्तशिल्प को बहुत बढ़ावा दे रहे हैं। सुभाष हंसदा का यह सौभाग्य था कि उसकी छिपी हस्तशिल्प की प्रतिभा को ईएसएएफ ने पहचाना और उसे प्रशिक्षण के लिए केरल के त्रिशूर भेज दिया। वहाँ उसे बांस से कलात्मक वस्तुओं के निर्माण का प्रशिक्षण दिया गया। उसने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया और उसे हस्तशिल्प की उत्कृष्टता के लिए झारखण्ड के मुख्यमन्त्री अर्जुन मुण्डा पुरस्कार से सम्मानित किया।

दो महीने के बाद सुभाष स्वयं एक प्रशिक्षण गुरु बन गया और झारखण्ड में अपने गाँव वापस आकर स्थानीय वनवासी लोगों को एकत्र कर उन्हें अपना सीखा हुआ हुनर सिखाने में पूरी शक्ति लगा दी। उसके इस प्रयास से घासीपुर, रामपुर, लखीकुण्डी, पिपरा, बरगाछी, केन्दुआ आदि गाँवों के जनजातीयों की जीवन की दिशा और दशा बदल गई है। इन गाँवों के लोग अब अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए नये विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। इससे मौसमी कृषि पर निर्भर इन लोगों को खाली दिनों में बेकार नहीं बैठना होगा। पिछले कुछ समय से यहाँ पलायन की संख्या में कमी आई है। घरों के पास ही उन्हें आय के अन्य स्रोत सुलभ होने लगे हैं।

दुमका जिले के शिकारीपाड़ा गाँव में बीस समूहों में करीब 200 लोग हस्तशिल्प के काम में लगे हैं। ये लोग लॉण्ड्री की टोकरी, कचरे की टोकरी, सजावटी सामान और यहाँ तक कि फर्नीचर भी बना रहे हैं जो आसानी से शहरों और महानगरों में बिक जाते हैं। पर्यावरण हितैषी इन कलात्मक और उपयोगी वस्तुओं की ओर राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय बाजार का ध्यान भी आकर्षित हुआ है और झारखण्ड के बांस उत्पादों के ग्राहकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है।इस समूह के एक सदस्य लाल टुड्डू का कहना है कि वह एक बांस से कई प्रकार की वस्तुएँ बना सकता है। डेनियल मोहली भी उत्साह से हाँ में हाँ मिलाते हैं। उर्मिला मोहली के शिल्प की जब लोग प्रशंसा करते हैं तो उसकी तबीयत खुश हो जाती है और फिर उसका पूरा दिन अच्छा बीतता है। प्रायः एक परिवार के एक से अधिक सदस्य इस कार्य में लगे होते हैं जिससे परिवार की आय में अच्छी-खासी वृद्धि होती है। इस समय दुमका जिले के शिकारीपाड़ा गाँव में बीस समूहों में करीब 200 लोग हस्तशिल्प के काम में लगे हैं। ये लोग लॉण्ड्री की टोकरी, कचरे की टोकरी, सजावटी सामान और यहाँ तक कि फर्नीचर भी बना रहे हैं जो आसानी से शहरों और महानगरों में बिक जाते हैं। पर्यावरण हितैषी इन कलात्मक और उपयोगी वस्तुओं की ओर राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय बाजार का ध्यान भी आकर्षित हुआ है और झारखण्ड के बांस उत्पादों के ग्राहकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। निश्चित रूप से इसके लिए ईएसएएफ ने बड़े सलीके से बाजार तैयार किया है।

ईएसएएफ के प्रयासों के फलस्वरूप बांस के ये हस्तशिल्प बड़े शहरों के बड़े बाजारों के प्रतिष्ठित दुकानों में कलात्मक ढंग से सजाकर प्रदर्शित किए जाते हैं। चेन्नई की फैब इण्डिया, राँची की झारक्राफ्ट और कोलकाता की नामचीन दुकानों में समृद्ध और कलात्मक अभिरुचि के ग्राहक इन्हें प्रेमपूर्वक खरीदकर अपने घरों एवं कार्यालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। महानगरों में लगने वाली शिल्प-प्रदर्शनियों में भी बांस के इन उत्पादों को सम्मानित स्थान दिया जाता है।

राज्य के अनेक स्थानों में यथा— गिरिडीह, गोड्डा, दुमका, पाकुड़, साहेबगंज और जामताड़ा में अनेक प्रशिक्षण सह-उत्पादन केन्द्र खुल गए हैं जिससे लगभग 2,000 परिवारों को आजीविका प्राप्त होती है। शिल्पकारों को अपना पारिश्रमिक मिल जाता है और उन्हें बाजार/बिक्री की बाकी व्यवस्था की चिन्ता नहीं सताती। यह पारम्परिक स्थानीय हस्तशिल्प से पूर्णतः भिन्न है जहाँ शिल्पियों को बिचौलियों के माध्यम से बाजार से निपटना होता है जो बिक्री से प्राप्त होने वाली आय का अधिकांश स्वयं ही हजम कर जाते हैं।

अच्छी बात यह है कि सदियों से जनजातीय लोगों के जीवन का अंग रहे बांस जैसे प्राकृतिक वनोपज का एक नया उपयोग होने लगा है। आज जब बाजार से जुड़ी आजीविका के विकल्प बढ़ते जा रहे हैं जनजातीय लोगों को पारम्परिक स्रोतों के अतिरिक्त आय एवं आजीविका के आधुनिक और नये साधन उपलब्ध होने लगे हैं। बाजार में इनकी अच्छी माँग भी है। हाल के दिनों में बांस को लघु वनोपज में शामिल किए जाने का प्रयास शुरू हुआ है जो उचित ही है। इससे वनवासी और जनजातीय समुदायों को बिना किसी बाधा के बांस मिलता रहेगा। छत्तीसगढ़ में बांस बहुतायत से पैदा होता है। ईएसएएफ ने इस प्राकृतिक सम्पदा और मानव संसाधन को एक नये प्रकार की सम्पदा में बदलने में सफलता पाई है। यदि यह शिकारपाड़ा में सम्भव हो सकता है तो झारखण्ड के अन्य क्षेत्रों में क्यों नहीं, जहाँ 23,605 वर्ग कि.मी. के वनक्षेत्र में से 843 वर्ग कि.मी. में सिर्फ बांस के ही वन हैं। यदि ऐसा हो सका तो इससे राज्य और राज्य के जनजातीय लोगों का कायाकल्प हो जाएगा।

निस्संदेह इसके लिए सामाजिक संकल्प की आवश्यकता है। बांस के शिल्प के इस प्रयास ने जो व्यावसायिक सफलता प्राप्त की है उससे शिकारपाड़ा के लोगों के चेहरे पर जो मुस्कान आई है, वह देखने लायक है।

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