बारिश का क्या फायदा, जब फसल सूख गई

बारिश की देरी ने राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि में मोटे अनाजों की बुआई पर असर डाला है। अपर्याप्त बारिश इस चिंता को बढ़ा रही है कि गर्मियों में बोई जाने वाली प्रधान फसलों जैसे चावल, तिलहन और गन्ने का उत्पादन पिछले एक-दो सालों में बनाये अपने रिकॉर्ड स्तर से गिर जायेगा। बारिश हर बार नए मुहावरे लेकर आती है। अखबारों में इसके लिए शेरो-शायरी नहीं, बल्कि आशंका से भरी हेडलाइन्स की भरमार होती है। 70 फीसदी से अधिक लोगों को दो जून की रोटी आज भी आषाढ़, सावन और भादो में आसमान से टपका जल उपलब्ध करवाता है। यही वजह है कि वर्षा हमारे यहां जरूरत, सियासत और बाजीगरी का घालमेल हो गई है।

तभी हो पायेगी, जब बारिश नियिमत रूप से होती रहे, क्योंकि बारिश न होने से नदियों का पानी घट जाता है, जिसका असर बांधों पर पड़ता है। जहां ट्यूबवेल से सिंचाई होती है, वहां भूजलस्तर नीचे चला जाता है। भूजल को रिचार्ज करने के लिए भी बारिश चाहिए। बांधों में पानी की कमी से बिजली उत्पादन प्रभावित होता है। बिजली नहीं होगी तो नलकूप नहीं चल पायेंगे। नदियों का पानी घटने से नहरें सूखने लगती हैं।

एक प्रसिद्ध कहावत है- “का बरखा जब कृषि सुखानी।” अर्थात् सिंचाई के अभाव में जब फसलें सूख गयीं, उसके बाद बारिश से क्या फायदा। मौसम विज्ञानी अब 15 जुलाई तक देश में भरपूर मानसून की कोई गुंजाइश नहीं देख रहे हैं। यह वह समय होता है, जब देश में खरीफ फसलों की बुआई हो गयी होती है। लेकिन देश में अधिकतर जगह पर्याप्त बारिश के अभाव में खरीफ फसलों की बुआई नहीं हो पायी है। जाहिर है अब तक खरीफ फसलों की बुआई काफी पिछड़ चुकी है। 15 जुलाई के बाद यदि बारिश होती भी है, तब भी देश को कृषि संकट का सामना करना होगा। इसीलिए मानसून की देरी से आयी बारिश में सरकार को खुश होने के पहले यह सोचना जरूरी है कि आखिर नुकसान कितना हो चुका है। इस साल देश के खेतिहर इलाके के बड़े हिस्से पर खरीफ की फसल नहीं काटी जा सकेगी। कम बारिश के कारण अनाज के कम उत्पादन, घटती ग्रामीण क्रयशक्ति, खाद्यान्न की आसमान छूती कीमतों और गांवों में जीविका के संकट से निपटना आसान नहीं होगा। 10 जुलाई तक मानसून की बारिश 23 फीसदी कम हुई है और इससे खरीफ की फसल के रकबे में खासी कमी आयेगी। धान, दलहन आदि की बुआई काफी पिछड़ गयी है। इससे निश्चित तौर पर उत्पादन कम होगा। अनुमान है कि इस साल 10 मिलियन टन कम खाद्यान्न का उत्पादन होगा।

हालांकि खाद्यान्न उत्पादन में कमी को लेकर डरने की जरूरत नहीं है। सरकारी गोदाम भरे पड़े हैं। वर्तमान में सरकारी गोदामों में 82 मिलियन टन खाद्यान्न का स्टॉक है। सरकार सही नीतियां अपनाये और ठीक से वितरित करे, तो देश में अनाज की कमी नहीं होगी। चिंता दलहन और तिलहन को लेकर है। इस वर्ष इसके उत्पादन में कमी होने जा रही है। इसलिए आने वाले दिनों में इसकी कीमतें बढ़ेंगी। कपास की स्थिति तो और भी गंभीर हो गयी है। बुआई कम होने के साथ-साथ पर्याप्त सिंचाई की व्यवस्था नहीं होने से उत्पादन कम हुआ है। किसान इसे लेकर अभी से परेशान हैं। इस वर्ष ऐसा लग रहा है कि सरकार कपड़ा निर्यात पर प्रतिबंध लगायेगी, जिससे किसानों की आय कम होगी। हमारा देश दलहन और तिलहन का बड़ा आयातक है। दाल तथा खाद्य तेल की जरूरतों का बड़ा हिस्सा आयात से पूरा होता है। इसके उत्पादन में कमी आने से कीमतें बढ़ेंगी। देश ही नहीं, विदेशों में भी सूखे की वजह से इनका उत्पादन प्रभावित हुआ है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तिलहन और खाद्य तेल की कीमतें पहले से ही आसमान छू रही हैं। जाहिर है भारत का आयात बिल बढ़ने जा रहा है, जो पहले से ही भुगतान असंतुलन की मार झेल रही अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने के लिए काफी है। आने वाले दिनों में दाल, तेल और सब्जियों आदि की कीमतें बढ़ जायें, तो आम आदमी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि सरकार के पास इस स्थिति से निबटने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं है।

इस मानसून में बारिश कम होने से खरीफ ही नहीं, रबी फसलें भी प्रभावित होंगी। मॉनसूनी बारिश से खेतों में नमी बरकरार रहती है। बारिश कम होने से नमी खत्म हो जायेगी, जिससे रबी फसलों की बुआई भी प्रभावित होगी। सिंचाई के लिए पर्याप्त जलाशय नहीं होंगे, क्योंकि बहुत से जलाशय सूख जायेंगे। जलस्तर का बारिश से गहरा संबंध होता है। जलाशय सूखने व जलस्तर कम होने से फसलों की समय पर सिंचाई नहीं होगी। इसका बिजली उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ता है। कुल मिलाकर इस साल कृषि को संकट का सामना करना पड़ेगा। देश की बड़ी आबादी कृषि से जुड़ी है, जो कृषि के संकट से प्रभावित होने जा रही है। बारिश में देरी और मध्य-मौसम बारिश की कमी ने पहले ही पांच प्रांतों में ग्रीष्मकालीन फसलों की बुआई पर प्रभाव डाला है। बारिश की देरी ने राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि में मोटे अनाजों की बुआई पर असर डाला है। अपर्याप्त बारिश इस चिंता को बढ़ा रही है कि गर्मियों में बोई जाने वाली प्रधान फसलों जैसे चावल, तिलहन और गन्ने का उत्पादन पिछले एक-दो सालों में बनाये अपने रिकॉर्ड स्तर से गिर जायेगा। इससे कृषि आय और उपभोक्ता व्यय पर प्रभाव पड़ेगा।

मानसून की बारिश (सालाना बारिश का 70 फीसदी) राष्ट्र के कृषि क्षेत्र और व्यापक तौर पर अर्थव्यवस्था के लिए अहम है। अब तक भारत के 83 फीसदी फसल वाले इलाके में बारिश अपूर्ण रही है। देश की 60 फीसदी कृषिभूमि अब भी बारिश से सिंचित होती है। बारिश का भौगोलिक विस्तार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि कृषि सेक्टर का कुल क्षेत्र, जो अब भी देश की आबादी के 25 फीसदी को रोजगार प्रदान करता है। देश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर टिकी हुई है। मानसून कृषि को संजीवनी प्रदान करता है। सिंचाई की सुविधा सिर्फ 40 फीसदी क्षेत्र को उपलब्ध है। सिंचाई तभी हो पायेगी, जब बारिश नियिमत रूप से होती रहे, क्योंकि बारिश न होने से नदियों का पानी घट जाता है, जिसका असर बांधों पर पड़ता है। जहां ट्यूबवेल से सिंचाई होती है, वहां भूजलस्तर नीचे चला जाता है। भूजल को रिचार्ज करने के लिए भी बारिश चाहिए। बांधों में पानी की कमी से बिजली उत्पादन प्रभावित होता है। बिजली नहीं होगी तो नलकूप नहीं चल पायेंगे। नदियों का पानी घटने से नहरें सूखने लगती हैं।

बता दें कि वर्ष 2010 और 2011 में अच्छे मानसून की वजह से देश में खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ, जो क्रमश: 24.5 करोड़ टन और 25.256 करोड़ टन था। इस साल भी गेहूं की फसल अच्छी हुई है। मानसून के आगमन के साथ ही धान की बुआई शुरू हो जाती है और यदि मानसून अच्छा रहता तो खरीफ फसलें भी रिकॉर्ड तोड़ पैदा होतीं। ऐसे में महंगाई से जूझ रही देश की जनता के लिए मानसून राहत लाता और अर्थव्यवस्था को भी पटरी पर लाता। लेकिन सारी आशाएं धरी की धरी रह गयीं। दुर्भाग्य है कि सरकार के पास न तो केंद्रीय स्तर पर, न ही राज्यों के स्तर पर इस चुनौती से निबटने के लिए कोई पूर्व योजना है। यह योजनाओं को लागू करने का समय था, लेकिन यहां कोई योजना ही तैयार नहीं है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों के साथ-साथ भारत में भी छह- सात महीने पहले से कयास लगाये जा रहे थे कि एल नीनो के प्रभाव से मानसून प्रभावित होगा, जिससे शॉर्ट फॉल (बारिश में कमी) की स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन भारत सरकार ने इस संकट से निबटने के लिए कोई कार्ययोजना नहीं बनायी है। यह सरकारी उदासीनता का एक उदाहरण है। इससे पता चलता है कि संकट आने पर कुआं खोदने का रिवाज अब भी बरकरार है।

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