मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। स्वस्थ मन, स्वस्थ तन, स्वस्थ चिंतन। ये तीन कारक ऐसे हैं, जिन पर मानव-जाति का पूरा भविष्य टिका हुआ है। मन को प्रभावित करता है अशांति, तनाव, शोर, भुख, चिड़चिड़ापन एवं शोक। जब मन अस्वस्थ होगा तो तन स्वतः अस्वस्थ हो जाएगा। जब मन एवं तन दोनों अस्वस्थ होंगे तो चिंतन भी अस्वस्थ ही होगा। जब चिंतन अस्वस्थ होगा तो फिर बचा ही क्या? इन तीनों को अस्वस्थ बनाने वाले कारकों पर विचार किया जाना आवश्यक है।
ध्वनि प्रदूषण
एक निश्चित डेसिवल मात्रा तक, जहां तक एक सामान्य मनुष्य को सुनने में उलझन न हो, उसकी लयात्मकता भंग न हो, वहीं तक ध्वनि सहनीय है। इससे अधिक शोर, जोर-जोर से चीखना या गाना, तेज आवाज में बोलना, लाउडस्पीकर का प्रयोग, हॉर्न की आवाज, शेर का दहाड़ना, कुत्ते का भौंकना आदि जैसी ध्वनि की तेजी, प्रदूषण फैलाती है और आदमी की श्रवण-शक्ति पर दुष्प्रभाव डालती है, जिससे इंसान धीरे-धीरे बहरेपन का शिकार हो जाता है। बच्चों की पढ़ाई तो प्रभावित होती ही है, रोगों के उपचार में भी व्यवधान पैदा होता है। माइक से भजन-कीर्तन, अखंड रामायण, जपुजी का पाठ, नमाज का पढ़ना आदि ध्वनि प्रदूषण के आम विस्तारक हैं। मेरे विचार से लाउडस्पीकर को ध्वनि-विस्तारक की बजाए प्रदूषण-विस्तारक कहना ज्यादा समीचीन होगा। कबीर ने ठीक ही कहा था ‘क्या बहरा हुआ खुदाय?’ इस प्रदूषण को रोकने के लिए सामाजिक चेतना की जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति को माइक के न्यूनतम प्रयोग के बारे में सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा समाज का अधिकांश तबका यह इक्कीसवीं शताब्दि पूर्ण होने से पहले ही बहरा हो चुका होगा और लगभग पूरी दुनिया बहरों की दुनिया बन चुकी होगी।
जल प्रदूषण
एक तरफ तो हम अपनी भारतीय संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकते, दूसरी तरफ हम ही लोग नदियों में कूड़ा-कचरा, मिट्टी की प्रतिमाएं, फूल-मालाएं, शव, गंदे नाले आदि विसर्जित करते हैं, मल-त्याग करते हैं। अगर भूगोल व इतिहास का संगम करें तो हम स्वीकार करेंगे कि मानव सभ्यता का उद्गम विकास एवं प्रसार नदियों के किनारे ही हुआ। नदी को ही उसने अपना जलस्रोत बनाया, इसीलिए उसे पूज्य बनाया, परंतु उसी नदी के जल को पीना, उसी में नहाना, कपड़े धोना, मल-त्याग करना शव बहाना कहां तक उचित है? जिस नदी की हम पूजा करते हैं, उसी में गंदे नाले बहाएं, शव बहाएं, मिट्टी की प्रतिमाएं विसर्जित करें, क्या इसी का नाम भारतीय संस्कृति है? हम माता-पिता की पूजा करें और उन्हीं पर मल त्याग करें, यह केवल शिशु ही कर सकता है। हजारों टन कचरा प्रतिदिन नदियों, समुद्रों में बहाना, कौन-सी सभ्यता का प्रतीक है? क्या हम अपनी मृत्यु को स्वयं अपने पास नहीं बुला रहे? भारत की नदियों में जितना जल है, उतना शेष एशिया की कुल नदियों में भी नहीं है, फिर भी भारत की आधी से ज्यादा आबादी शुद्ध पेयजल की अभाव में प्रदूषित किटाणुयुक्त सड़ा पानी पी रही है और अपनी रोटी को बेच रही है डॉक्टरों को, दवा-दारु के नाम पर, हमारी माताएं गंगा-यमुना आज सड़ रहीं हैं, हमारे अपने ही कर्मों द्वारा और हम हैं कि प्रतिमाएं विसर्जित करके पुण्य के भागीदार बनना चाहते हैं? एक तरफ तो अधजला शव उसमें बहाते हैं और दूसरी तरफ उसी में स्नान कर मोक्ष पाना चाहते हैं। इससे बड़ी अशिक्षा एवं अदूरदर्शिता और क्या हो सकती है?
वायु प्रदूषण
वायु में ऑक्सीजन ही एक ऐसी गैस है, जो जीवन को संरक्षित करती है, परंतु इसकी मात्रा का एक निश्चित प्रतिशत सर्वदा वायुमंडल में बना आवश्यक है। पहले हिंदू संस्कृति में हर गांव में पीपल, हर घर में तुलसी का पौधा लगाया जाता था। पीपल किसी भी अन्य सामान्य वृक्ष की अपेक्षा सौ गुना अधिक ऑक्सीजन देता है, इसीलिए पीपल को कोटना हिंदुओं में वर्जित माना गया। श्रीकृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि वृक्षों में मैं पीपल हूं अर्थात पीपल को इसीलिए भगवान का दर्जा दे दिया गया कि कोई भी इसे काटकर ऑक्सीजन की मात्रा कम करने का प्रयास न करे। पीपल का एक पेड़ काटने का अर्थ है, सौ सामान्य पेड़ काट डालना। तुलसी ही एकमात्र ऐसा पौधा है, जो दिन और रात, हर समय ऑक्सीजन देता है। इसीलिए इसे घर में (आंगन में) लगाने की प्रथा है, ताकि प्रत्येक घर को दिन-रात ऑक्सीजन की पूरी मात्रा मिलती रहे। इसीलिए इसे तुलसी माता का दर्जा दिया गया, क्योंकि जिस प्रकार एक माता बच्चों का पालन-पोषण कर उसे स्वस्थ रखती है, उसी प्रकार तुलसी भी संपूर्ण परिवार को स्वस्थ बनाए रखती है, परंतु आजकल पीपल और तुलसी दकियानूसी व देहाती संस्कृति के प्रतीक समझे जाने लगे और घर-घर कैक्टस या प्लास्टिक के पौधे सजने लगे-घर-घर कैक्टस आज लगे हैं, सूखी नरगिस वीरानों में। आकाश में ओजोन की पर्त हल्की होती जा रही है, जिसके कारण सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें पृथ्वी का तापमान बढ़ाती जा रही हैं। वाहनों का बढ़ता हुआ कारवां वायुमंडल में कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड व हाइड्रोजन की मात्रा बढ़ाता जा रहा है और हमारी हर सांस बोझिल होती जा रही है। दम-सा घुटता रहता है, प्रत्येक इंसान का हर समय, उसकी ही अपनी करतूत के कारण। केवल व्यापारिक उद्देश्य से अंधाधुंध पेड़ों की कटाई कहां तक न्यायसंगत है? हिंदुओं में होली का त्योहार वैसे तो उल्लास व एकता का प्रतीक है, परंतु पेड़ों का हत्यारा है। जितने पेड़ इस त्योहार पर कटते हैं, उतने तो पूरे साल में भी नहीं कट पाते। होलिका-दहन के नाम पर कहीं हम स्वयं ही अपना दहन तो नहीं कर रहे? कोई भी व्यक्ति कहीं पर भी बेखौफ पेड़ काटने पर आमादा है और हम मात्र मूकदर्शक बने हुए हैं, नंपुसकों की तरह। कटने दो मेरे बाप का क्या जाता है? अरे बाप का नहीं जाता तो न सही, पर बेटे का अवश्य जाएगा। जब वह ऑक्सीजन की कमी के कारण घुट-घुटकर आधी जिंदगी जीने पर मजबूर होगा। आखिर हम कब जागेंगे? क्या भावी संतति के प्रति हमारा कोई दायित्व है ही नहीं?
एक तरफ हम पृथ्वी को मां कहते हैं,उस पर अपने चरण तक रखने पर क्षमा मांगते हैं-
समुद्रवसने देवी, पर्वतस्तनमंडले,
विष्णुपत्नीः नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।
परंतु दूसरी तरफ हम ही उसके तथाकथित पुत्र, उसके पर्वत रूपी स्तनों को रोज काटते जा रहे हैं। उसके समुद्र रूपी वस्त्र को रोज गंदा कर रहे हैं,उसका सीना चीरते जा रहे हैं, उसकी नाड़ियां, नदियों को सड़ा रहे हैं, उनके प्रवाह को रोक रहे हैं, उसके वृक्षों को काट-काटकर, उसे नंगा किए जा रहे हैं। सुजलां-सुफलां कही जाने वाली हमारी धरती माता का आज न तो जल ही शुद्ध है, न वायु और न फल ही। बढ़ती हुई आबादी का बोझ वह संभाल नहीं पा रही है और हम उससे अपना पालन-पोषण जबरदस्ती कराए जा रहे हैं। आखिर यह कब तक चलेगा?
खाद्य प्रदूषण
खाद्य प्रदूषण, अर्थात खाने-पीने की चीजों में अखाद्य एवं हानिकारक वस्तुओं का अपमिश्रण। सरसों के तेल में- आर्जीमोन, भटकटैया के बीजों का तेल या धान की भूसी के तेल में सरसों के तेल का एसेंस मिलकार सरसों के तेल के रूप में बेचना, देसी घी में जानवरों की चर्बी की मिलावट, पिसे धनिए में लीद, काली मिर्च में पपीते के बीज, हल्दी में पीली मिट्टी, रोगनी मिर्च में सिंदूर, नमक कंकर-पत्थर, आटे में सेलखड़ी आदि की मिलावट तथा सिंथैटिक दूध बेचना, न केवल कानूनी अपराध है, अपितु संपूर्ण समाज को रोगी बनाने की प्रक्रिया भी। जिन शिशुओं को हम गाय-भैस का दूध पीलाकर देश का भावी नागरिक बनाना चाह रहे हैं, उन्हें हम पिला रहे हैं सिथैंटिक मिल्क, या उन गाय-भैंस-बकरी का दूध, जिन्हें इंजेक्शन दे-देकर दुहा जा रहा है। उस इंजेक्श्न का विष दूध में मिलकर बच्चों के पेट में पहुंच रहा है। माताओं की ‘फिगर’ खराब न हो जाए, इसीलिए पाउडर दूध के रूप में हम उसे क्या पिला रहे हैं, यह हमें खुद पता नहीं है। कृषि-उपज में जैविक खाद की जगह घातक रासायनिक यूरिया का प्रयोग एवं जहरीली कीटनाशक दवाओं का बेहिसाब इस्तेमाल करके हमें अन्न के रूप में क्या खाने को मिल रहा है? होटलों में बासी-सड़ी सब्जियां, डिब्बा बंद फल-अचार-जैम-मुरब्बा, शीतल-पेय के रूप में पेप्सी, कोका-कोला, आइसक्रीम की एवज में क्या खा-पी रहे हैं, कौन सोच रहा है? अभिभावक अपने बच्चों को कोल्ड ड्रिंक, लस्सी, नींबू की शिकंजी, आम का पना, ब्रह्मी, शंखपुष्पी, मगज, खरबूजा, बादाम, काली मिर्च, सौंफ, गुलाब, खसखस आदि से बनी ठंडाई, फालसे या बेल का शर्बत, रुहअफजा आदि? ये भारतीय पुराने पेय आजकल कौन अपना रहा है? हम लोग पी रहे हैं- पेप्सी, कोका-कोला, सेवन-अप आदि। न खोई ऊर्जा, न कोई राहत धनिए-पोदीने की चटनी की बजाए हम लोग खा रहे हैं टोमैटो-सॉस, जिससे टमाटर को छोड़कर और बाकी वह सब कुछ है, जिनका नाम जानकर तो क्या हम सुनना तक भी पसंद न करें। वैसे भी अधिकांश व्यक्ति अपने खान-पान के प्रति इतने लापरवाह एवं दूषित खाद्य-पदार्थों के सेवन के आदी हो चुके हैं कि उन पर अब किसी भी प्रकार की शिक्षा का कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। मांस, मछली, नशे की वस्तुएं जैसे शराब के रूप में व्हिस्की, ब्रांडी, रम, शैंपेन ठर्रा, देशी कच्ची शराब, ताड़ी आदि तथा भांग, धतूरा, सुलफा, गांजा, चरस, तंबाकू, खैनी, सुरती, सिगरेट-बीड़ी, अफीम, पान मासाला, एल-एस.डी., हैरोइन, कोकीन आदि का सेवन करना, डीजल-पेट्रोल, स्पिरिट को पीना; रबड़ी में संखिया, नीला थोथा मिलाकर खाना, सर्प-दंश लेना कहां तक उचित है? पान मसाले के रूप में हम घातक रासायनिक पदार्थों एवं जहरीले जानवरों को मारकर, जलाकर उनकी राख को उसमें मिला हुआ खाते हैं। बहुत से आदमी तो आयोडैक्स, मृत संजीवनी सुरा तक का नशे के रूप में प्रयोग करते हुए देखे गए। विश्व में लाखों व्यक्ति प्रतिदिन इसी प्रकार के खाद्य पदार्थों के सेवन के फलस्वरूप हुए घातक रोगों के कारण मर रहे हैं, परंतु हम अपनी आदत से बाज क्यों आए। जग सुधरे, हम नहीं सुधरेंगे।
सामिष के रूप में निरंतर पशु-पक्षियों की हत्या, उनका मांस खाना, सूप-जूस बनाकर पीना, उनकी जिंदा खाल खींचकर बेचना-क्या आदिम-सभ्यता को दोहराना चाह रहे हैं हम? तिस पर भी हम ढोल पीटे जा रहे हैं भारतीय संस्कृति का। बने हुए हैं हम उसके ध्वज के अलमबरदार! वाह रे हम!
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रदूषण
आज वैज्ञानिक भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि एक व्यक्ति के वंशानुगत रोग उसकी छह पीढ़ियों तक को भोगने पड़ सकते हैं। हर व्यक्ति का जीन अलग होता हैं, डी.एन.ए. अलग होता हैं। हमारे पुराने चिंतकों ने इस विषय की गंभीरता को समझते हुए कर्म के आधार पर पूरे समाज को चार वर्णों में इसीलिए बांट दिया था कि एक वर्ण के व्यक्ति का रोग दूसरे वर्ण के व्यक्ति में न पहुंच सके। अलग-अलग काम करने वाले में अलग-अलग रोग होते हैं। जैसे-रुई धुनने वाला, कोयला खदान में काम करने वाला, समुद्री पानी से नमक बनाने वाला, डामर गरम करने वाला, चमड़े का काम करने वाला, शिक्षक, सुनार, मजदूर, डाक्टर आदि को अलग-अलग रोग, पेशे के अनुरूप जकड़ेगे। अब कर्म के अनुसार व्यक्तिगत वर्गीकरण हो जाए और इनके अंतर-जातीय विवाहों पर रोक लग जाए तो एक-दूसरे के रोग स्थानांतरित नहीं हो पाएंगे। परंतु इस कर्म-व्यवस्था को कुछ चालाक व्यक्तियों ने धीरे-धीरे जाति प्रथा में बदलकर घिनौना रूप दे दिया, परिणामस्वरूप स्वयं को उच्च कुल का घोषित कर एक तबका भगवान बन बैठा। प्रतिकार स्वरूप समाज में जो प्रदूषण फैला, अब उसकी रोकथाम संभव नहीं है। तथाकथित घोषित शूद्र, निम्नवर्गीय अछूत वर्ग को ऊपर उठाने हेतु आरक्षण जैसी विशेष सुविधाओं ने जन्म लिया। जिसका सरकारी लाभ तो यह वर्ग जितना उठा सकता था, उठा रहा है, परंतु सामाजिक तौर पर वह अब भी स्वयं को अछूत मानने अथवा कहलाने को तैयार नहीं है। वह अब छद्मवेशी उच्चवर्णीय व्यक्ति बनकर उच्च वर्ण से वैवाहिक संबंध स्थापित करने की धोखाधड़ी कर रहा है। कोई अन्य वर्ण का व्यक्ति उन्हें अछूत या उनकी सरकारी तौर पर स्वयं घोषित जाति से संबोधित नहीं कर सकता। जब क्षत्रीय को क्षत्रीय, ब्राह्मण को ब्राह्मण एवं वैश्य को वैश्य कहने और कहलाने में कोई परहेज नहीं है। तो इस तथाकथित अछूत वर्ग को अपने जातिगत संबोधन से इतनी चिढ़ क्यों हैं? सरकारी घोषणाओं में तो वे स्वयं को अछूत घोषित करते हैं, परंतु सामाजिक तौर पर घालमेल पसंद करते हैं। अगर जातिवाद मिटाना है तो सभी जगह जातिगत विशेषणों एवं संबोधनों को समाप्त करना होगा। परंतु सरकारी सुविधाओं के लिए अछूत, परंतु सामाजिक तौर पर उच्चवर्ण घोषित होना क्या सामाजिक प्रदूषण नहीं है? किसी भी जाति/ वर्ग का व्यक्ति किसी अन्य जाति/ वर्ग के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करते समय अपनी सच्ची जाति बताने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहा है? यह भी एक सामाजिक प्रदूषण है।
जब सामाजिक प्रदूषण की बात चल ही रही है आइए बात करें निर्माण प्रक्रिया के दौरान होने वाले प्रदूषण की भी। जब कभी भी मकान, सड़क, नहर, बांध या किसी भी चीज का निर्माण होता है तो उसके आस-पास खुदाई, तुड़ाई से निकले मलबे का ढेर लग जाता है। निर्माण प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी अधिकांश जगहों पर उस मलबे के ढेर के अवशेष बरसों पड़े रहते हैं। न तो उस निर्माणकर्ता को ही कुछ परवाह होती है और न विकास प्राधिकरण एवं नगरपालिकाओं को। निर्माणकर्ता उस मलबे को हटाने में होने वाले मामूली से व्यय को बचाकर लखपति बन जाता है और सरकारी संस्थाएं बाकायदा मलबा चार्ज वसूलने के बाद भी भ्रष्टाचार एवं कामचोरी के दलदल में फंसी रहती है। नतीजतन आस-पास गंदगी के ढेर व्याप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार नई बस रही कॉलोनियों में अधिकतर मकान मालिक अपने मकान एवं उसके सामने से गुजर रही सड़क के बीच में स्थित पटरी को ऊंचा करके सड़क के पानी को अपने मकान के किनारे से गुजरती हुई नाली में जाने से रोक देता है। नतीजतन पानी सड़क पर जमा रहता है। सड़कें तो खराब होती ही हैं, बरसात में चारों तरफ जल भराव तक की नौबत आ जाती है और हम लोग उस समय अपनी मूर्खता स्वीकर करने की बजाए गालियां बकते हैं, पी.डब्ल्यू.डी., नगरपालिका तथा विकास प्राधिकरणों को। गलती करें हम और भड़ास निकालें दूसरों पर। अपने मकान से निकले कूड़े को हम सड़क पर फेंक देते हैं। किसी भी बाजार में जाइए, वहां पर सड़क के बीचोंबीच कूड़े का अंबार लगा मिलेगा। क्योंकि सड़क की दायीं ओर का दुकानदार अपनी दुकान के सामने सफाई करके कूड़ा सड़क के बीच में छोड़ देता है और इसी प्रकार बायीं ओर का दुकानदार भी। सरकारी सफाईकर्मियों को तो अपने वेतन से मतलब, उन्हें कूड़ा उठाने के लिए वेतन थोड़े ही मिलता है। वे तो स्थानीय सभासद का घर साफ रखना ही अपना कर्तव्य समझते हैं और हम सभी मूकदर्शक बने बस झूंझलाते रहते हैं। नई बसी कॉलोनियों में कूड़े के अंबार, मच्छरों की फौज, सूअरों की पलटन तथा छुट्टा जानवरों द्वारा भारत की आजादी का मनमाना उपयोग सामाजिक प्रदूषण की रोज नई दास्तान लिखते हैं और हम लोग डॉक्टरों, हकीमों, वैद्यों ओझाओं के चक्कर लगा-लगाकर अपनी जेबें हल्की करते रहते हैं। जो काम हम स्वयं कर सकते हैं, वह भी नहीं करना चाहते। इससे बड़ा सामाजिक प्रदूषण और क्या हो सकता है?
सामान्यतः समाज और संस्कृति को अलग नहीं किया जा सकता, परंतु प्रत्येक सभ्यता, प्रत्येक जाति, प्रत्येक देश की अपनी कुछ अलग-अलग संस्कृति एवं परंपराएं होती हैं, जिनके बल पर उनकी अपनी अलग पहचान बनी रहती है। अगर संस्कृति में भी घालमेल हो जाए तो फिर सबकी पहचान खत्म हो जाएगी। उदाहरणार्थ आजकल पुराने प्रसिद्ध फिल्मी गानों का रीमिक्स कार्यक्रम जोरों पर तेजी पकड़ रहा है। पुराने गानों के गायक, संगीतकार एवं गीतकार अलग थे, जिनके विवरण पुराने गानों के पुराने कैसेटों में मिलेंगे। अब उसी फिल्म के नाम पर उन्हीं गानों को रीमिक्स करके नए गायक, नए संगीतकार के निर्देशन में गाकर नया कैसेट बाजार में उतार रहे हैं। अगर भविष्य में कोई इतिहासकार उसी फिल्म का इतिहास लिखने बैठता है और उसके सामने दोनों कैसेट भी रखे हों तो वह किसको गायक एवं संगीतकार मानेगा? उस समय इतिहास जो भी लिख देगा, वही सही मान लिया जाएगा। सिकंदर एवं पोरस के बीच हुए युद्ध का परिणाम अलग-अलग इतिहासकार अलग-अलग बताते रहे हैं। कोई सिकंदर को विजयी, तो कोई पोरस को विजयी मान रहा है। यह सांस्कृतिक प्रदूषण है। भारत में आज भी अधिकतर पुराने विदेशी नाटकों का ही मंचन किया जा रहा है। हमारे भारत का शायद ही कोई जीवित या मृत नाटककार ऐसा हो, जो इन तथाकथित नाटक-निदेशकों की नजरों में खरा उतर रहा हो। यह विदेशी संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर चरखा-दाव है, जिसमें हमारी संस्कृति को जानबूझकर चारों खाने चित होने को कहा जा रहा है। ऊपर से ये नाटककार यह दावा करते हैं कि उन्हें सुचारू दर्शक नहीं मिलते। क्या ये असली पैरासाइट्स नहीं हैं?
धर्म भी, समाज का एक अंग है। धर्मविहीन समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पहले धर्म मानव जाति की आभा होती थी, प्राण होता था। धर्मविहीन व्यक्ति को समाज बहिष्कृत कर देता था। यह सत्य है कि धर्म ने समाज को फिरकों, कबीलों, समुदायों में बांटा, परंतु प्रत्येक धर्मानुयायी को उसके अनुसार जीने का ढंग भी सिखाया और उसे कुछ अलग सोचने को मजबूर किया। परंतु आज धर्म की अफयून की खेती की जा रही है। जगह-जगह मुल्ला, मौलवी, पंडित, संत,पीर, औलिया एवं भगवानों की बाढ़ आ गई है। ये तथाकथित भगवान् आम जनता को अपरिग्रही बनने, अपना सर्वस्व प्रभु के चरणों में उनके माध्यम से अर्पित करने का लगातार उपदेश देते चले जा रहे हैं। इनका भक्त भले ही भिखारी बनकर इनका चाकर बन जाए, परंतु ये संसार को मिथ्या बताने वाले धर्मगुरु एयरकंडीशंड कार के बिना सफर तक नहीं करते। सुंदरियां इनके चरण धो-धोकर चरणामृत के रूप में पान करके पुण्य कमा रही हैं। धर्म के नाम पर इन्हीं धर्माचार्यों द्वारा धर्म की खिल्ली उड़ाई जा रही है। ये आलिशान आश्रमों और मठों में रहते हैं। धन को मिट्टी बताने वाले ये धर्म के टेकेदार स्वयं धन के कितने लोभी हैं, इसे हर कोई जानता है। इसी कारण वर्तमान पीढ़ी धर्मच्युत होकर अधर्म की राह पर चलती जा रही है और पूरा विश्व एक अनदेखी, अंधी गुफा में खोता जा रहा है।
नैतिक प्रदूषण
हमारे पूर्वजों एवं धर्म-ग्रंथों द्वारा जिस वर्ग और समाज के लिए जो भी नीतियां स्थापित की गई हैं, उनसे अलग हटकर, अपने निजी स्वार्थ के लिए मनमाना आवरण करना एक प्रकार से नैतिक प्रदूषण है। उदाहरणार्थ रिश्वत लेना-देना एक अपराध है, परंतु केवल देते समय ही क्यों? दहेज एक सामाजिक बुराई के साथ ही अपराध भी है, परंतु केवल देते समय ही क्यों? बेईमानी एक अनैतिकता है, परंतु दूसरा व्यक्ति तुम्हारे साथ बेईमानी न करे और आप स्वयं खुले सांड की तरह मनमाना आचरण करते घूमें। किसी भी लड़की या औरत को छेड़ना निःसंदेह अक्षम्य है, परंतु यह नियम आप एवं आपके पुत्र पर लागू नहीं होना चाहिए? हां, अगर कोई आपकी लड़की की तरफ आंख उठाकर भी देखे तो उसकी आंखें अवश्य फोड़ देनी चाहिए। आखिर उसकी इतनी जुर्रत कैसे हो गई? वाह रे इंसान! तू क्या सोचता है, क्या चाहता है, और करता क्या है? यही दोहरी मानसिकता ही नैतिक प्रदूषण है। ईमानदारी को पहले सर्वोत्तम गुण समझा जाता था, परंतु आजकल यह सबसे बड़ा कारण अवगुण और सामाजिक अभिशाप बन चुका है। अगर आप सरकारी नौकरी में किसी मलाईदार सीट पर नहीं हैं तो आप निकम्मे हैं, नकारा हैं, नालायक हैं, निहायत बेवकूफ हैं, केवल बाह्य समाज की नजरों में ही नहीं, बल्कि अपने मां-बाप, भाई-बहनों एवं पत्नी तथा संतान की नजरों में भी। जो सरकार चलाने का दावा करते हैं और अपने कर्मचारियों को ईमानदार बने रहने का निरंतर उपदेश देते रहने में कभी नहीं चूकते, वे स्वयं अपने गिरेबान में झांके और स्वयं ही फैसला करें कि क्या यह नैतिक प्रदूषण की श्रेणी में नहीं आता? इस नैतिक प्रदूषण ने समाज, जाति, देश व काल का जितना अहित किया है, उतना और सभी प्रकार के प्रदूषण मिलकर भी नहीं कर सकते।
इन सब प्रदूषणों से बचने का एकमात्र विकल्प है, प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके अपनी भौतिक आवश्यकताओं में कमी करें, और कोई भी गलत काम करने से पहले अपने गिरेबान में झांकने का साहस जुटाएं। अन्यथा पं. प्रदीपजी की बहुत प्रसिद्ध पंक्तियां हैं, ‘बारूद के एक ढेर पर बैठी है यह दुनिया।’
401-ए, उदयन-1
बंगला बाजार, लखनऊ (उ.प्र.)