बच्चों के लिए काल बन रही ज़हरीली हवा

1 Nov 2019
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काल बन रही ज़हरीली हवा
काल बन रही ज़हरीली हवा

वायु प्रदूषण के कारण सांस की बीमारी के मामले उत्तर भारजीय राज्यों में तेजी से बढ़ रहे हैं। वयस्कों की अपेक्षा बच्चे प्रदूषण का ज्यादा शिकार हो रहे हैं और अमसय मौत के मुंह में जा रहे हैं। 

केस एक - जयपुर

प्रदूषण और ठंड बढ़ने से शुरू होती है दिक्कत

जयपुर के जेके लोन अस्पताल में उपचार करवा रहे दौसा निवासी 12 वर्षीय बालक नवीन को अस्थमा, एलर्जी और खांसी की शिकायत लंबे से समय से है। पिता गोरधन ने बताया कि करीब पांच साल की आयु से ही वह इससे पेरशान है। दिवाली के आसपास अक्टूबर-नवंबर में पटाखों के प्रदूषण (pollution) व सर्दी बढ़ने के साथ ही उसे इस समस्या का सामना करना पड़ता है। अस्पताल अधीक्षक डाॅ. अशोक गुप्ता के अनुसार धुएं व प्रदूषण का समय आने के साथ ही इस बच्चे की परेशानी बढ़ जाती है। बच्चे का लंबे समय से अस्पताल में उपचार चल रहा है। अस्पताल में नवीन का मामला एक अकेला नहीं है। बच्चों के ऐसे मामले रोज आते हैं, जिनमें फेफड़ों में संक्रमण होता है।

केस दो - इंदौर

हर दिवाली इनके लिए लेकर आती है परेशानी

इंदौर में इंजीनियरिंग चतुर्थ वर्ष की छात्रा आयुषी मराठे बताती हैं कि बचपन से वे दमा की शिकार हैं। दिवाली के वक्त उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी होती है। पटाखों के धुंए के कारण घर से निकलना मुश्किल हो जाता है। धुएं के संपर्क में आने से खांसी-छींक शुरू हो जाती है। अगले दिन गला चोक होने के साथ सांस लेने में परेशानी होती है। निमोलाइजर के साथ इंजेक्शन लेना पड़ता है। इनके डाॅक्टर व चेस्ट स्पेशलिस्ट संजय लोंढ़े ने बताया कि आयुषी सहित करीब 50 ऐसे मरीज हैं, जिन्हें पटाखों या साफ-सफाई के कारण उड़ने वाली धूल से परेशानी होती है। कई मरीजों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है।

सर्वाधिक शिकार हुए राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार के बच्चे

जयपुर और इंदौर में ही प्रदूषण (pollution) के कारण आमजन को परेशानी हो रही हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। हवा में घुल रहा ज़हर देश के ज्यादातर राज्यों में विशेषतौर पर बच्चों के लिए तो जानलेवा साबित हो रहा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) समेत देश के कई सबसे बड़े मेडिकल संस्थानों (medical institutes) के अध्ययन बताते है। कि वायु प्रदूषण की वजह से फेफड़ें की बीमारी से सबसे ज्याद उत्तर भारत के बच्चें प्रभावित हैं, जबकि 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर (death rate)  के मामले को लेकर देशभर में सबसे ज्यादा खराब रिकाॅर्ड राजस्थान का है। राजस्थान में पांच साल से कम उम्र वाले प्रति एलाख बच्चों की आबादी में लोअर रेस्पिरेटरी ट्रेक्ट इंफेक्शन (lower respiratory tract infection) (एलआरआई) यानी वायु प्रदूषण (air pollution) जनित फेफड़े के संक्रमण से हर साल 126.04 बच्चे दम तोड़ दते हैं। मशहूर पर्यावरण संस्थान सेंटर फाॅर साइंस की पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ अपने अगले अंक में इन खतरों को लेकर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करने वाली है। रिपोर्ट में देश और दुनिया के बड़े मेडिकल संस्थानों और जर्नल के अध्ययनों के आंकड़े और तथ्य दिए गए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर एक घंटे में पांच वर्ष से कम उम्र वाले 21.17 बच्चे एलआरआई के कारण दम तोड़ रहे हैं। 

पूरा उत्तर भारत खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 (particulate matter 2.5) वाले वायु प्रदूषण की चपेट में है और इसके सबसे सहज शिकार बच्चों के फेफड़े हैं। पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की एलआरआई के मृत्युदर के मामले में राजस्थान शीर्ष पर है। दूसरा स्थान उत्तर प्रदेश और तीसरा बिहार का है। इन तीनों बड़ें राज्य में देश की करीब 34 फीसदी जनसंख्या रहती है। इन्हीं तीनों राज्यों में वायु प्रदूषण (air pollution) के कारण बच्चों की मृत्युदर (death rate) का आंकड़ा भी सर्वाधिक है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले प्रति लाख बच्चों की आबादी में उत्तर प्रदेश में 111.58 बच्चों की मृत्यु हुई। इसी तरह से बिहार में पांच वर्ष से कम उम्र वाले प्रति लाख बच्चों की आबादी में यह आंकड़ा 105.95 है। रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाना अब भी बड़ी चुनौती है। 

घर के अंदर प्रदूषण के कारण राजस्थान में सबसे ज्यादा मौतें

डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के मुताबिक घर के अंदर प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों की बात करें तो राजस्थान में ऐसी मौतें सर्वाधिक होती हैं। वर्ष 2017 में पांच साल से कम उम्र के प्रति लाख बच्चों की आबादी में घर में प्रदूषण के कारण फेफड़े के संक्रमण से होने वाली मृत्यु दर 67 थी। राजस्थान में बच्चों के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल जेके लोन में साल 2000 में ओपीडी में एक्यूट ब्राॅकाइटिस (acute bronchitis) (फेफड़े की बीमारी) से इलाज कराने आए बच्चों की संख्या 294 थी, जो 2018 में 42562 तक दर्ज की गई, यानी इसमें 144 गुना की वृद्धि हुई। वर्ष 2017 में प्रकाशित द लैंसेट की रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान न सिर्फ निम्न आय वर्ग वाले राज्यों के समूह में शामिल है, बल्कि राज्य में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का सालाना स्तर अपने सालाना सामान्य मानक (40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से दोगुने से ज्यादा रहा है। यहां पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर 93.4 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक रिकाॅर्ड किया गया है।

पार्टिकुलेट मैटर 2.5 नाम की मौत

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के श्वसन रोग विशेषज्ञ विजय हुड्डा बताते हैं कि पीएम 2.5 आंखों से नहीं दिखाई देते हैं, क्योंकि ये बेहद महीन कण होते हैं। सांसों के दौरान श्वसन नली से फेफड़ों तक आसानी से पहुंच जाते हैं। इसे आसानी से समझिए कि एक बाल का व्यास 50 से 60 माइक्रोन तक होता है, जबकि इसके मुकाबले पार्टिकुलेट मैटर (particulate matter) का व्यास तो 2.5 होता है। विचार किया जा सकता है कि यह कितना महीन होगा। किसी प्रदूषित वातावरण में जितनी सांस एक वयस्क ले रहा है, उससे ज्यादा सांसे बच्चे को लेनी पड़ती है। ऐसे में बच्चों के फेफड़े में किसी व्यस्क के मुकाबले ज्यादा कण पहुंचते हैं, इसलिए 5 साल से कम उम्र वाले बच्चे प्रदूषित वातावरण (polluted environment) से ज्यादा जोखिम में रहते हैं।

मध्य प्रदेश - एलआरआई से साल में 86 बच्चे मरे

मध्य प्रदेश में पांच साल से कम उम्र वाले प्रति एक लाख बच्चों की आबादी में वायु प्रदूषण जनित फेफड़े के संक्रमण से साल में 85.51 बच्चे दम तोड़ देते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2017 में 14 वर्ष तक की उम्र के प्रति लाख बच्चों की आबादी में घर में प्रदूषण के कारण फेफड़े  के संक्रमण से होने वाली मुत्यु दर (death rate) मध्य प्रदेश में 50 फीसदी थी। इसी तरह छत्तीसगढ़ में पांच साल से कम उम्र वाले प्रति एक लाख बच्चों की आबादी में वायु प्रदूषण (air pollution) जनित फेफड़े के संक्रमण (lungs infection) से 69.3 बच्चे दम तोड़ देते हैं। इसी तरह इस राज्य में पांच साल से कम उम्र के प्रति लाख बच्चों की आबादी में घर में होने वाली धुएं के प्रदूषण के कारण फेफड़े के संक्रमण से होने वाली मृत्यु दर 45.33 थी।

नहीं छूट रहा चूल्हे से मोह

आइआइटी कानपुर ने हाल ही में पया है कि जयपुर में 20 फीसदी लोगों के पास रसोई गैस का कनेक्शन नहीं है। सेटेलाइट चित्र से यह भी पता चला है कि जयपुर में प्राकृतिक धूल की समस्या बनी हुई है। इसके अलावा डीजल बसें, अनियंत्रित ट्रैफिक, अवैध बस अड्डे, रिहाइश में खतरनाक प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयां भी जयपुर में मौजूद हैं। राजस्थान में अभी तक ईंट भट्ठों की चिमनियों को निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं बनाया गया है। रिपोर्ट कती है कि प्रदेश में वायु प्रदूषण (air pollution) को काबू करने के उपाय नहीं किए गए हैं। 

जयपुर के शास्त्री नगर इलाके में वायु प्रदूषण गणुवत्ता ज्यादातर दिन खराब स्तर पर ही रहती है। मदीना मस्जिद क्षेत्र में साल 2018 के दौरान 63 फीसदी दिन हवा में खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 का स्तर 24 घंटों के आधार पर सामान्य स्तर (60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से अधिक रहा है। वहीं 2019 में अभी तक 32 फीसदी दिन ऐसे रहे हैं, जब पीएम 2.5 का स्तर अपने सामान्य स्तर से अधिक रिकाॅर्ड किया गया है। रिपोर्ट कहती है कि 2019 का यह आंकड़ा अभी इसलिए कम है क्योंकि ठंड के दिन इसमें जुड़े नहीं हैं। ठंड के दौरान हवा की गुणवत्ता (air quality) और खराब होगी तो ज्यादातर खराब वायु गणुवत्ता वाले दिन अगले तीन महीनों में जुड़ेंगे।

मौत के आंकड़े

देश में अब तक के उपलब्ध विस्तृत आंकड़ों के मुताबिक 2017 में 5 साल से कम उम्र वाले 1035882.01 बच्चों की मौत विभिन्न कारणों से हुई। इनमें से 17.9 फीसदी यानी 185428.53 बच्चों की मौत फेफड़ों के संक्रमण (lungs infection) के कारण हुई।

डायरिया तो नियंत्रित, एलआरआई नहीं

रिपोर्ट कहती हैं कि डायरिया खसरा जैसी बीमारियों को लक्ष्य किया गया तो उससे होने वाली बच्चों की मौतों में कमी भी आई, लेकिन वायु प्रदूषण की अनदेखी से उपजी बीमारियां आज भी बच्चों के जीवन का काल बनी हुई हैं।

 

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