बच्चों ने विद्यालय में की पेयजल की गुणवत्ता की जांच

6 Dec 2013
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मानव न केवल अपने हिस्से का वरन अन्य जीव जंतुओं के हिस्से का पानी भी पीने को आतुर है। हमें अपने साथ-साथ सभी प्राणधारियों के लिए अपनी भारतीय संस्कृति सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः चरितार्थ करनी होगी। हमें भूजल भंडारों की क्षतिपूर्ति केवल वर्षा जल से हो सकती है। लेकिन वर्षा जल का देश में समुचित संरक्षण एवं उपयोग नहीं हो पाता। जल प्रबंधन के लिए बच्चों की एक टीम अध्यापक राजकुमार के निर्देशन में तैयार की गई। जिसमें विपिन कुमार को टीम का अग्रदूत बनाया गया। टीम के बाकी सदस्य काजल, आरती, तनु, सपना, खुशी, विपिन, खुशाल, अर्जुन, आसिफ, सोनू, विशाल, पंकज, रोहित, अंकित, अमित और अंकुर बनाए गए। इन बच्चों ने जल के विषय में सोचना शुरू किया। बच्चों ने एक समझ बनाने की कोशिश की कि जल कहां से आ रहा है? आने के बाद पानी का कहां जा रहा है, पानी की खपत कहां हो रही है? आदि बातों को बच्चों ने नोट करना शुरू किया। जिसमें बच्चों ने पाया कि हमारे विद्यालय में एक मात्र पानी का स्रोत है और वह समर्सिबल पंप। बच्चों ने यह भी सोचा कि क्या कोई अन्य दूसरा स्रोत है लेकिन नहीं मिला यानि पेयजल का एक मात्र स्रोत हमारे क्षेत्र में नल ही है और वह भी इतनी गहराई पर। बच्चे विद्यालय के पड़ोस के एक बुजुर्ग व्यक्ति के पास गए और पूछा कि बाबा जी क्या पहले भी पेयजल का एक मात्र स्रोत नल ही था। उन्होंने बच्चों को बताया कि हमारे जमाने में समर्सिबल पंप नहीं थे। हम पानी पीने के लिए नदियों, कुओं आदि का सहारा ही लेते थे। तभी उनमें से बच्चे काजल ने पूछा कि क्या पहले नदी का पानी पी सकते थे तो बाबा ने कहा हां। लेकिन अब तो हमारे पास वाली नदी का पानी छू लिया तो हाथ गल जाएगा। ये नदी इतनी गंदी क्यों हो गई? तब बुजुर्ग व्यक्ति ने बताया कि पहले नदी इतनी साफ थी कि सिक्का डालने पर वह दिखाई देता था। अब यह नदी नालों, उद्योगों का पानी नदी में मिलने के कारण गंदी हो गई। तभी दूसरे बच्चे ने प्रश्न किया कि कुएं कहां गए? तब बाबा जी ने बताया कि धरातल का पानी बहुत नीचे चला गया और कुएं सूख गए। हमारे समय में पानी 25-30 फीट पर उपलब्ध था लेकिन अब 120 फीट से भी नीचे चले गए। इतनी गहराई पर पानी पहुंचने के बाद कुएं से निकालना संभव नहीं था। फिर समर्सिबल का प्रयोग लोग करने लगे। बच्चों को प्रश्नों का जवाब मिल गया और उन्होंने बाबा जी को धन्यवाद दिया।

तभी विद्यालय के अध्यापक राजकुमार ने समझाया कि हम पानी की बचत नहीं करते और पानी लगातार धरती से निकाला जा रहा है। इसलिए पानी बहुत नीचे चला गया। फिर बच्चों ने प्रतिदिन नल से निकलने वाले पानी का आंकलन शुरू किया। प्रतिदिन पानी निकालने में कितनी बिजली खर्च होती है उस पर चिंतन करना शुरू किया। बच्चों ने पाया कि हम इस पानी की खपत को उत्तम उपाय करके कम कर सकते हैं। उससे हम आने वाली पीढ़ी को पानी दे सकते हैं। बच्चों ने स्वयं ही जल की गुणवत्ता को मापा। जिसमें पानी की स्थिति संतोषजनक मिली। विद्यालय में पीएच, टर्बिडिटी एवं डिसोल्व ऑक्सीजन की मात्रा की जांच की। बच्चों की इस टीम ने सभी बच्चों को इस जांच परीक्षण के बारे में बताया तथा उन्हें भी अपने घरों व आसपास में पानी की गुणवत्ता जांच के लिए प्रेरित किया।

विद्यालय के आसपास वार्षिक औसत वर्षा 780 मिलीमीटर है। बच्चों ने इसे मापने का प्रयास किया। विद्यालय में जल से संबंधित गतिविधि प्रधानाचार्य देवेन्द्र कुमार एवं अध्यापक राजकुमार ने बच्चों को जल ही जीवन है को पोस्टर में रंग भरकर जैव विविधता एवं जल के पोस्टर तैयार किए। जिसमें बच्चों ने पेयजल के क्षेत्रों को चिन्हित किया। बच्चों को जल साक्षर बनाया गया। विद्यालय में बच्चों के माध्यम से समाज में भी जागरूकता कर प्रचार- प्रसार किया गया। विद्यालय में भूगर्भ जल ही विद्यालय में जल का मुख्य स्रोत हैं। बच्चों की जल जागरूकता के कारण उर्जा एवं जल की वास्तव में बचत हुई। जिसका श्रेय बच्चों एवं अध्यापक के मार्गदर्शन को जाता है। अवकाश के दिनों में पानी का कोई खर्च नहीं हुआ। बच्चों ने जल को बचाने के लिए नल के नीचे बाल्टी रखी तथा पानी पीने में गिलास का प्रयोग किया। इससे भी पानी की बचत हुई। बाल्टी में बचे वेस्ट पानी को पेड़ पौधों में डालने शुरू कर दिया। जिससे पेड़ पौधों के लिए अलग पानी देने की जरूरत पड़ी।

बच्चों ने अपने पाठ्यक्रम में इस जल के उपर लिखी कविता को जल से जोड़कर अपने जीवन में नियमित करने का संकल्प लिया है। जिसमें अध्यापक भी बड़ी जिम्मेदारी के साथ जल के प्रति अपने कर्तव्यों का निवर्हन करते हैं।

जल जीवन है, सभी मानते है इसका उपयोग बड़ा
जल का बिना प्रयोग किए क्या, हो सकता है उद्योग खड़ा
जीवधारियों का जीव सब, जल पर ही आधारित है
कल कारखाने उद्योग सभी तो जल से संचालित है
एक-एक जल बूंद संजोकर हम भविष्य को सुखद बनाए
जल की बर्बादी को रोके, जीवन को जीवंत बनाए।


विद्यालय में बच्चे टंकी से पानी को व्यर्थ में नहीं बहने देते और टपकते जल की बर्बादी को रोक देते हैं। विद्यालय में जल पर कार्य करने वाले बच्चे सभी बच्चों को स्कूल एवं घर पर पानी की बर्बादी रोकने की गुहार लगाते हैं। गांव में समर्सिबल के पानी को व्यर्थ में बहाने वालों को भी समझाते हैं। विद्यालय की बाल टीम पानी को लेकर विद्यालय एवं विद्यालय के बाहर भी संवेदनशील है। बच्चों ने समुदाय के बीच जाकर भी तालाब, जोहड़ एवं नदी के बारे में ग्रामीणों को जागरूक करते हैं। ग्राम प्रधान ने भी बच्चों के इस कार्य की सराहना की है और बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। इसके साथ-साथ बच्चे आपसी सद्भाव के लिए भी कार्य करते हैं। बाल टीम पुराने गांव में खोदे गए बोरवेल एवं पुराने कुंओं के माध्यम से भूगर्भ जल को संरक्षित करने की सीख देते हैं। जिससे इन पुराने के कुओं के माध्यम से वर्षा के जल को संचित किया जा सके।

पृथ्वी और जल


जीवन की सृष्टि जल से ही है और जल को प्राप्त करने के दो स्रोत है। भूजल और सतह का जल। पृथ्वी पर अधिकांश जल की आपूर्ति भूमिगत जल द्वारा ही होती है। भूजल पानी का वह महत्वपूर्ण स्रोत है जिसे अनंत भंडार समझकर आम जनता से लेकर सरकारी मशीनरी द्वारा इस हद तक दोहन किया गया है कि आज देश के बड़े हिस्से में भूजल का स्तर नीचे जाने से न केवल जल संकट पैदा हो गया है, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित हो रहा है। देश में 40 वर्ष पहले जल प्रतिव्यक्ति 5,277 घन मीटर उपलब्ध था यह अब घटकर 1869 घन मीटर रह गया है।

देश के भूजल का अस्सी प्रतिशत उपयोग कृषि हेतु होता है। खेत में किसान आवश्यकता से अधिक जल देकर अंधाधुध दोहन कर रहा है। जो हम सब के लिए बहुत ही खतरनाक है। पिछले 25 वर्षों में लगभग तालाब एवं जोहड़ों पर संकट आ गया है। नदियों में अवैध खनन एवं इनकी भूमि पर कब्जा कर समाज नदियों को मारने पर तुला है। जल संसाधनों का अगर यूं ही दोहन होता रहा तो आगामी वर्षों में पानी की हालत भी पेट्रोल- डीजल जैसी हो जाएगी तो अब आसमान को छू रही है। हाल ही में पानी की बोतल 15 रुपए में बिक रही है। आने वाले समय में पानी भी गरीबों की पहुंच से दूर हो जाएगा। जो संपूर्ण मानव जाति के लिए हानिकारक होगा। बुंदेलखंड में किसान जहां सूखे के कारण भूखमरी के शिकार हो रहे हैं। वही बच्चे गंभीर दूषित जल से मर रहे हैं। लोगों को पीने के पानी लाने के लिए लगभग 500 मीटर से अधिक गहराई से लाना पड़ता है। भूजल के पुनर्भरण का एक मात्र स्रोत वर्षा जल संरक्षण ही हैं। इसके अलावा दूसरा कोई ऐसा स्रोत नहीं है जिसके हम उपयोग में ला सके। हमें वर्षा जल का संचयन करके धरती के अंदर डालना होगा तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को जल उपलब्ध करा पाएंगे।

मानव न केवल अपने हिस्से का वरन अन्य जीव जंतुओं के हिस्से का पानी भी पीने को आतुर है। हमें अपने साथ-साथ सभी प्राणधारियों के लिए अपनी भारतीय संस्कृति सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः चरितार्थ करनी होगी। हमें भूजल भंडारों की क्षतिपूर्ति केवल वर्षा जल से हो सकती है। लेकिन वर्षा जल का देश में समुचित संरक्षण एवं उपयोग नहीं हो पाता।

जलवायु परिवर्तन-


उष्ण मानसूनी जलवायु, भारतीय उपमहाद्वीप की विशेषता है। यहां पर जलवायु तापमान में भिन्नता के स्थान पर वर्षा मे भिन्नता से संचालित होती है। इसकी मुख्य विशेषता वातावरण मे मौसमी परिवर्तन है जो कि मानसून से जुड़ा है। मुख्यतः इस महाद्वीप में दो तरह के मानसून है। दक्षिण पश्चिम मानसून या ग्रीष्म मानसून और उत्तरपूर्वी मानसून या शारदीय मानसून या शारदीय मानसून। दक्षिण एशिया के ज्यादातर भागों में 70 से 90 प्रतिशत तक वर्षा ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान होती है। उस मानसून के दौरान होने वाली वर्षा में समय एवं स्थान के आधार पर विभिन्नता देखने को मिलती है। जिसके कारण भारत में विभिन्न स्थानों पर हर साल मानसून के दौरान बाढ़ या सूखा देखने को मिलता है।

मानसून के दौरान होने वाली बारिश एवं उनमें परिवर्तन पर अत्यधिक निर्भरता के कारण कृषि उत्पादन एवं उसकी प्रकृति पर भौगोलिक परिवर्तन अपना प्रभाव डालते हैं। ज्यादातर अध्ययनों के अनुसार भारत में मानसूनी वर्षा का स्वभाव स्थिर है किंतु कुछ स्थानों पर चरम रूप बाढ़ या सूखा भी इसके प्रकृति स्वरूप का हिस्सा है। इस प्रकार प्रकृति के चरमरूप इस क्षेत्र के आर्थिक जीवन का विचारणीय अंग है। वर्षा एवं बाढ़ की आवृत्तियां ग्रीन हाउस गैसों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन से भी प्रभावित होती है। जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय पैनल के अनुसार तापमान 0.1 से 0.3 सेल्सियस, 2010 तक और 2020 तक 0.4, 2.0 सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। जिसके कारण दक्षिणी एशिया क्षेत्र में भारी बारिश के कारण अनाज उत्पादन में 5 से 15 प्रतिशत तक की कमी होने की संभावना है।

सामान्य वर्षा के वर्षों में कृषि एवं पशुपालन आजीविका के प्रमुख स्रोत होते हैं। किंतु सूखा के वर्षों में मजदूरी आय का प्रमुख स्रोत हो जाती है जो कि 70-80 प्रतिशत लोगों की आजीविका पूरी करती है। सूखा के वर्षो में गेहूं जो कि प्रमुख भोजन है की खपत कम होकर मोटे अनाज की खपत ज्यादा हो जाती है।

जल प्रदूषण-


पानी के मुख्यतः दो स्रोत है। धरती की सतह पर बहने वाला पानी जैसे- नदी, नाले, झरने, तालाब, इत्यादि तथा धरती के नीचे पाए जाने वाला पानी अर्थात् भू जल जैसे कुएं हैण्डपम्प इत्यादि का जल। सतही पानी की गुणवत्ता मौसम, मिट्टी, के प्रकार तथा आस-पास की प्रकृति पर निर्भर करती है। सामान्यतया नदी नालों का पानी प्रदूषित होता है जब वह घनी आबादी के क्षेत्रों या कारखानों के इलाकों से होकर गुजरता है। भूजल के प्रदूषण की सम्भावनाएं कम होती है। परन्तु कभी-कभी भूमि पर पड़े हुए कचरे या गंदा पानी धीरे-धीरे धरती में से होता हुआ भूजल तक पंहुचकर उसे प्रदूषित कर देता है। भूमिगत चटटानों से फ्लोराइड तथा आर्सेनिक के रिसने के कारण कई क्षेत्रों में भूजल प्रदूषित हो जाता है।

प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला जल भी पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं होता है। जल वाष्प बनकर ऊपर उठता है तथा धूल के कण, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बनमोनोक्साइड तथा अन्य गैसों को अवशोषित कर नीचे जाता है। भूतल पर धूल, कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थ इसमें मिल जाते हैं। भूतल में जीवाणु विभिन्न स्रोतों से जल में आते हैं। जबकि कुछ जीवाणु वायु द्वारा भी प्रवेश कर जाते हैं। कानिर्बक पदार्थों के जैव अपघटन से प्राप्त नाईटेट, अमोनियम इत्यादि भूजल में मिलकर उसे प्रदूषित करते हैं। वर्षा का जल, भूमि में रिसाव होने पर वह मिट्टी, रेत तथा कुछ मात्रा में जीवाणुओं को छानकर भूमिगत जल में बदल जाता है।

जल और स्वच्छता


शौचालय से ट्यूबवेल, हैण्डपम्प, उथले कुएं आदि जल स्रोतों का संदूषण एक चिन्ताजनक मुद्दा है। जिस पर सामान्यतः कम ध्यान दिया जाता है। जलापूर्ति स्वच्छता कार्यक्रम के क्रियान्वयन में संलग्न संस्थाएं इसका आंकलन अविवेकपूर्ण ढंग से करती हैं और यह पूर्व अनुमानित कर लिया जाता है। अधिकांश रोगाणु जिस पर्यावरण में रहते हैं वहां वे स्वयं आगे गति करने या आगे बढ़ने की क्षमता नहीं रखते हैं और न ही उनमें अधिक दूरी तक चलने की क्षमता होती है। पेय जल की स्वच्छता हम सबके लिए बहुत ही जरूरी है। अन्यथा ये रोगाणु कई खतरनाक बिमारियों से घेर सकते हैं। बच्चे स्कूलों में एवं घर पर हाथ धोकर ही खाना खाए तथा मल त्याग करने पर साबुन से हाथ धोएं तभी बिमारियों से बचा जा सकता है। अन्यथा हम बिमार होकर अपने स्वास्थ्य का नुकसान करते रहेंगे। स्वच्छ पेयजल ही हमें बिमारियों से बचा सकता है। अधिकांश हैण्डपम्पों का पानी पीला या गंदला आता है। ऐसे में हमें स्वच्छ पेयजल के लिए तैयार रहना होगा। हैण्डपम्प के चबूतरा और ट्यूबवेल की बाहर की संरचना को ठीक रखना जरूरी है। कई जगहों पर देखा जाता है कि हैण्डपम्प का चबूतरा ठीक नहीं है। इस कारण नाली के पानी का भूजल में प्रवेश की संभावना बढ़ती है।

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